3.
देखते देखते जाने का दिन आ गया ।एक आशंका भरी स्थिती में ही आँख खुल गई।
आँख खुली तो ऐसा लगा की मैं किसी बंधन में जकड़ गई हूँ। यह बंधन तो माया का बंधन हैं। कितनी गहरी ममता थी उसमें। इससे निकल पाना असंभव लग रहा था। माया की जडे कितनी गहरी होती हैं, वह तभी पता चलता जब हम उससे निकलने की कोशिश करते हैं। मोह भरे अंधःकार की खाई में हम इतने खो ज़ाते हैं की नश्वरता का ज्ञान एक कल्पना जैसे लगता हैं। हम जैसे इसी भ्रम मे जीते हैं की अनादी अनंत काल तक यह मोह माया का संसार चलता ही रहेगा। लेकिन तभी भगवान ऐसी परिस्थितीयाँ लाते हैं की एक क्षण में कौन अपना कौन पराया यह समझना मुश्किल हो जाता हैं। तभी मोह भरे अंधःकार में ज्ञान की बिजली चमकती हैं। ममता की परते पिघलने लगती हैं। पुराने बंधन छुटने लगते हैं और नए बंधन जूड़ने लगते हैं। उसी समय हमे सावधान रहने की आवश्यकता होती हैं। पुराने बंधन छूट रहे हैं और नए बंधन ना होने पाए, इसका हम अगर ध्यान रखते हैं तो हमारा मुक्ति का मार्ग खूल जाता हैं।
मन एक आनन्द से, उमंग से, भर गया। उसी मोद भरे उल्हास से मैंने जाने की तैयारी शुरू की। कल पुरे दिन भर रिश्तेदार, सहेलियों का आना ज़ाना चालू रहा। सबके चेहरे पर यही दिख रहा था, यह वापिस तो आएगी ना, लेकिन मैं निश्चिंत थी। जिसने यात्रा में बुलाया हैं वही नैया पार लगाएगा। निकलते समय घर के मंदिर में माथा टेकने गई। पुरे विश्वास और श्रध्दा के साथ भगवान की चरणों में नमन किया। ज्योतिर्मयी के उजले प्रकाश में फुलों से सजी भगवान की मूर्ति देखकर ऐसा लगा की वह हमेशा मेरे साथ रहेंगे।
अब सबसे विदाई लेने का मुश्किल क्षण आ गया था। सबने हँसके विदा करने की ठान ली थी, लेकिन अपने पती से विदाई लेते समय मैं भावूक हो गयी। यह अबोल किस्म के इन्सान थे, वही अकेले पड़ने का ड़र था बाकी तो सब अपने संसार में उलझे रहेंगे। सब बच्चों ने जैसे मेरे मन की बात समझली। सब अपने पिता के पिछे ज़ाके खडे रह गए। मेरे चेहरे पर खुषी की मुस्कान देखकर सबके चेहरे आनंदित हो गये।
कार आ गई। सब सामान जगह पर रख दिया। स्टेशन ज़ाते ज़ाते मुझे गुरू महाराज के दर्शन करने थे।
आश्रम के शांत पवित्र वातावरण में गुरू दर्शन लिया। अप्पा महाराज बोले” बेटी चिंता मत करो। यात्रा सफल करते हुए आ ज़ाओ। आते समय मानस सरोवर का पानी लेकर आना। ऐसे वचन सुनकर मेरा तो यात्रा मार्ग खुल गया। रेणूका माँ के दर्शन करते हुए हम स्टेशन जाने के लिए रवाना हो गये। मेरा लड़का महेश मुझे छोड़ने के लिए दिल्ली आने वाला था। जब गाडी निकल रही थी तो मुझे हर एक के चेहरे पर रिश्तेसंबंध अनुसार अलग अलग विदाई की भाषा दिखाई दे रही थी। ऐसा लग रहा था इसी तृप्त भाव से संसार छोड़, भगवान के चरणों में विलीन होने का यही सर्वस्वी योग्य क्षण हैं। मन में भगवान प्रति आकर्षण बढता ही ज़ा रहा था।
कैलाश यात्रा के लिए अब मैं सच में निकल चुकीं हूँ, इस बात का मुझे विश्वास नही हो रहा था। दिल्ली तक का सफर सचखंड़ ट्रेन से करने वाले थे। एक एक स्टेशन पिछे छोड़ते हुए गाडी आगे निकलने लगी। गपशप करते, बीच बीच में कुछ खाना चालू था। सायंकाल की बेला आ गयी। पहाडों के पिछे सुरज अब छिपने लगा। डुबते हुए सुरज की रश्मियाँ अपनी सुनहरी किरणें फैलाकर फिर अपनें में समेटने लगी। स्याह कालिमा अब धीरे धीरे फैलने लगेगा। इतने दिन जो भागदौड़ चालू थी अब वह खत्म हो गई थी। मानसिक थकान महसुस होने लगी। तैयारी पुरी हो चुकी थी, अब सिर्फ अनुभव करना बाकी था। जो क्षण सामने दिखाई दिए उसे बस देखना था, उसके लिए पुर्वतैयारी नही करनी थी। इस कारण मन एक खूले आकाश की तरह हो गया। भगवान के पास ज़ाते समय खाली हाथ ही ज़ाना चाहिए, भरी अंजुली में वह कैसे कुछ दे सकते हैं। विचारों में कब खो गई और आँख लग गई मुझे पता ही नही चला। धीरे धीरे सिमटी हुई आँखो में कैलाश समाने लगा।
आँख खुल गई। क्षणमात्र अनज़ान जगत में होने का एहसास होने लगा, दुसरे क्षण वास्तविकता में आ गई। खिड़की से बाहर देखा तो पूरब दिशा में लालिमा फैली हुई थी। एक अजीबसा संमोहन, वातावरण में फैला हुआ था। ऐसी बेला में विचारों की मात्रा बहुत कम बहती हैं इसी कारण हमारा मन शांति महसूस करता हैं। विचारों के कारण मन में प्रेम, व्देष भावनाएँ उत्पन्न होती हैं और विचार ही नही तो यह विकार मन में आ ही नही सकते। तब वहाँ सिर्फ शांति का एहसास होता हैं। यही तो ध्यान हैं।
देखते देखते पहाडों के पीछे से झाडीयों में से छुपते छुपते सूरजबिंब उपर आ गया। चारों और तेजोमयता छा गई। सूरजने तो अपना दिनक्रम चालू किया अब जगत में भी वह लहरें फैल गई। धीरे धीरे एक एक करते लोग उठने लगे।
चाय नाश्ते के बाद फिरसे सब बातों में लग गये। जीवन कितना अजीब होता हैं ना। जीवन में कोई क्षणमात्र के लिए मिलता हैं, कोई दिनों, महिनों,सालके लिए, या किसीका साथ तो जीवनभर चलता रहता हैं। जब तक जिसका ऋणानुबंध होता हैं वह वहाँ तक साथ चलता हैं और खत्म होते ही दुसरा मोड़ आता हैं और साथ छूट जाता हैं। यह शारीरिक स्तर पर होता हैं। मानसिक स्तर पर तो कोई साथ रहते हुए भी उनके मन साथ नही रहते और कोई दुर रहते हुए भी बहुत पास रहते हैं। सब बाते अनाकलनीय लगती हैं।
देखते देखते गाडी दिल्ली पहूँच गई। कैलाश जानेवाले यात्रीयों की व्यवस्था अशोक यात्री निवास में की थी। कमरे में आकर सामान रख दिया। कमरा बहुत अच्छा था। साथ में आए लोगों की व्यवस्था महाराष्ट्र निवास में की थी। पहले तो सब नया लग रहा था कौन कर्मचारी ? कौन कैलाश यात्री ? इसका पता नही लग रहा था। गुजरात के लोग बहुत दिखाई दिए। गुजरात सरकार यात्री को 20,000 रू. यात्रा के लिए देता हैं। दिल्ली सरकार 10,000 रू. देती हैं। वहाँ पर केरली, गुजराती, महाराष्ट्रीयन, हिमाचली, साउथ इंडियन ऐसे सभी प्रकार के चेहरे दिखाई दे रहे थे।
पहिले दिन यात्रा की पूरी ज़ानकारी सब यात्रीयों को दी गई। बाद में बॉर्डर पोलिस के हेड़ डिस्पेंसरी में सबको लाया गया। वहाँ सबकी मेडिकल टेस्ट होनेवाली थी। वहाँ के डॉक्टर को अगर जरासी भी आशंका होती हैं, तो पुरी टेस्ट फिरसे करनी पड़ती हैं, अगर उसमें फेल हो गए तो वही से वापिस ज़ाना पड़ता हैं। मुझे जरा तनाव महसुस हो रहा था। सब ठीक होगा ना ? लेकिन सबके टेस्ट नॉर्मल आ गये। सबके चेहरे खिल गये थे।
दुसरे दिन सत्कार विधी था। वहाँ सब यात्रियों की ज़ान पहचान करा दी गई। अब एक मास तक हम ही एक दुसरे के साथी थे। यात्रा में कुछ विघ्न आ गए तो हम ही एक दुसरे को संभालने वाले थे। बाद में यात्रा विषयक सुचनाएँ दी गई। हर यात्री को एक पोर्टर लेना आवश्यक होता हैं। वही इस सफर का सच्चा साथीदार हैं। अपने अनुभव के अनुसार वह आपको मार्गदर्शन करता हैं, सामान उठाता हैं, धीरज देता हैं। उनके बीना यात्रा संभव ही नही हैं।
एक छोटे बॅग में एक ड्रेस, कपूर, अद्रक की बर्फी, गोलियाँ, पानी बॉटल, सुखे मेवे, नॅपकिन, आदी सब सामान हमेशा साथ में रखना हैं।
जैसे जैसे ऊँचाई बढने लगती हैं, वैसे वैसे ऑक्सिजन का स्तर कम होता जाता हैं। ऑक्सिजन की मात्रा कम होने के कारण हर व्यक्ति में कुछ अलग से बदलाव आने लगते हैं। जैसे क्रोध पर नियंत्रण ना रहना, झगडे पर उतर आना। यह बाते होती हैं इसलिए अपने आप पर काबू रखते हूए एक दुसरे की मदद करनी हैं। धीरेसे चलना हैं ताकि पर्याप्त मात्रा में ऑक्सिजन आपको उपलब्ध हो सके। ऐसी सूचनाएँ दी गई।
अब सबसे स्मित हास्य तक की पहचान हो गई थी। मिटींग के बाद एक बडे हॉल में खाना खाने के लिए लेकर आ गये। अब एक महिना तो किसी के हाथ का पकाया हुआ तैयार खाना मिलेगा यह सोचते हुए मैं जरा खुश हो गई। खाने के बाद थोडी देर आराम का समय था और फिर एक मिटींग में ज़ाना था। अभी तक एक दुसरे के साथ कोई घुलमिल नही गया था, क्योंकी सबके साथ अपने अपने रिश्तेदार थे। इस कारण सबने अपने घरवालों के साथ रहना पसंद किया।
मिटींग का टाईम होते ही मैं फिर हॉल में आ गई। वहाँ पर अभी तक कोई नही आया था। चाय तैयार ही थी। चाय की चुसकियाँ लेते दिवार पर सजी कैलाश यात्रा की तसबीरे देखने लगी। धीरे धीरे लोग आने लगे। गुजराथी लोगों का ग्रूप हँसते हँसते गपशप लगाते आ गया, तो उसमें सब शामिल हो गये। थोडी देर के बाद कैलाशयात्री संघ के अध्यक्ष वहाँ पर आ गये। उन्होंने भी बहुतसी ज़ानकारी दी और बाद में हमारे समन्वयक अधिकारी मि. पूरी इनका परिचय दिया गया। वह हमारे ग्रुपका नेतृत्व करने वाले थे। सब लोगों की जिम्मेवारी उनके कंधो पर थी। किसी का स्वास्थ अगर बिगड़ जाता हैं तो वह देखना, झगडे ना होने देना, वातावरण को उत्साहपूर्ण रखना, मानसिक धैर्य बनाए रखना। यह सब मि. पूरी संभालने वाले थे। उसके बाद अलग अलग कमिटी स्थापन की गई। जैसे फूड़ कमिटी, लगेज कमिटी, पूज़ा कमिटी आदी । सबको कुछ ना कुछ जिम्मेवारी सोंपी गई और उनकी ठीक से ज़ानकारी दी गई। इस प्रकार से यात्रा की आगे की तैयारी हो गई। अंत में शिवजीका एक सुंदर स्तोत्र पठण आर्त स्वर में किया गया और मिटींग खत्म हो गई।
साँझ की कालिमा चारो ओर फैलने लगी। खाना तैयार होने में अभी थोडी देर थी। महेश के साथ वहाँ के बगिचे में चली गई। वह आज दिल्ली की सैर करने गया था उसी के बारे में बातचीत चल रही थी। खाना खाते वक्त मैने मिटींग के बारे में भी बताया। अब नींद आने लगी। हम दोनो अपने अपने कमरों में चले गये।
तिसरे दिन हमे भारतीय स्टेट बँक में करन्सी एक्सचेंज करने के लिए लेकर गये। वहाँ से आने के बाद ऑफिस में सबका व्हिसा चेक किया गया और फिर एक कॉमन व्हिसा निकाला गया। यह सब करते करते पूरा दिन गया। महेश साथ में था ही। उसको भी कुछ नया सिखने के लिए मिल रहा था।
सुबह आँख खुल गई। आज कैलाश यात्रा के लिए निकलने का दिन था। मन में कितने भाव तरंग उमड़ रहे थे। विचारों की संमिश्रता पूरे मन में फैल चुकी थी। रात में ही सामान बाँधकर रख दिया। बाकी तैयारी करते करते मन में बार बार अनुठे विचारों की श्रृंखला बह रही थी। अब सच में विदाई लेने की बारी आ गई। ज़ान पर खेलकर यह यात्रा सफल करनी थी। इसका अंतिम पड़ाव क्या होगा ? यह किसी को पता नही था। आखरी रिश्ते का बंधन आज छूटने वाला था। आगे जाने की लालसा और पिछे छुटने वाले बंधन की व्याकूलता इसी दुविधा का सामना करते हुए मैं हॉल में पहूंच गई। देखा तो वहाँ पर भावनिक संवेदनाओंकी जैसे बाढ आ गई थी। मानसिकताऔंके उद्रेक की लहरे चारों और फैली हुई थी। हर कोई अपनी भावना छुपाने की कोशिश कर रहा था। झुठे हास्य अपने चेहरे पर सवाँर कर, एक दुसरे की ढाँढस बंधा रहा था। अनिश्चित बेला में अपने रिश्ते की पक्की बुनियाद के साए से विदा लेते वक्त, मन में क्या गुजरती हैं आप समझ सकते हैं।
बस में सामान चढाया ज़ा रहा था। चाय नाश्ता करने के बाद सब बस के पास आकर खडे हो गए। वहाँ पर कुमाऊँ मंड़ल ने सबका स्वागत करते छोटी पुज़ा विधी संपन्न की। शिवस्तूती पर गीत गायन हुआ। गायन यह एक अदभूत चीज हैं। गीत गायन से सबका मन हलका हो गया। आगे जाने की ध्येयस्फूर्ति सबके अंतःप्रेरणा में फिरसे ज़ागृत हो गई। बंधन के धागे समेट लिए गये। हर एक को पूज़ा विधी का डिब्बा देते हुए बस में बैठने का इशारा हो गया। महेश से विदाई लेकर बस में बैठ गई। बच्चे मतलब एक कोमल तंतू, देखा ज़ाए तो वह तंतु दृश्य हैं या अदृश्य। लेकिन वही तंतु अपना पूरा जीवन बाँध के रखता हैं।
(क्रमशः)