...“मां...ओ... मां! जरा बाहर आकर देखना, कौन आया है! विजेंद्र आ गया, मां!”- अभिलाषा ने आवाज देकर उसे बुलाया। पति को कमरे में ही बैठने को बोल वह बाहर आयी और उसके पैर दरवाजे पर ही जड़ हो गये।
यह वही युवक था जिसे आते-जाते अक्सर वह गलियों में यार-दोस्तों संग हंसी-ठिठोली करते देखा करती। यह वही युवक था जिसका गौरवर्ण वाला सौम्य, सजीला और गठीला बदन नाहक ही उसकी नज़रें अपनी तरफ खींच लिया करता था। पर नयनों को अपनी मर्यादा का एहसास दिला वह आगे बढ़ जाती।
आज अचानक अपने सम्मुख उसे अपनी पुत्री के प्रेमी के रूप में खड़ा देख बड़ी आत्मग्लानि महसूस हुई। पैर तो मानो जड़ हो गए! इतनी भी हिम्मत न हुई कि उसे भली-भांति देखे-सुने,जांचे-पारखे और तय कर सके कि वह उसकी पुत्री के योग्य वर बनने के लायक है भी अथवा नहीं!
“माँ? इतनी चिंतित क्यूँ हो? क्या विजेंद्र तुम्हें पसंद नहीं आया? स्मरण रहे कि तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध जाकर मैं कभी कोई अनुचित कार्य नहीं करूंगी। स्वच्छंद होकर तुम इस रिश्ते की स्वीकृति-अस्वीकृति का निर्णय ले सकती हो। संस्कार की दहलीज लांघकर मैं कभी भी पथभ्रष्ट नहीं होऊँगी, मां।”- अभिलाषा ने दृढ़ता से कहा। मां के मुख पर गम्भीरता के भाव देख उसका हृदय अधीर हुए जा रहा था। वहीं पास ही लकड़ी की एक पुरानी कुर्सी पर बैठा विजेंद्र अपना सिर झुंकाए माँ-बेटी की बातें सुनता रहा।
अभिलाषा की बातें सुन श्यामा का मन गदगद हो गया। बेटियाँ जन्मजात ही अक़्लमंद और जिम्मेदार होती हैं। होश संभालते ही घर के हरेक सुख-दुख को आत्मसात करने वाली और ससुराल में मायके की मान-प्रतिष्ठा को सदा बरकरार रखने वाली होती हैं। अभिलाषा की बातों में श्यामा ने इसकी झलक पा ली थी। पुलकित हृदय से उसने अभिलाषा को सीने से लगा लिया जो उसकी रजामंदी का संकेत था। पर उन माँ-बेटी को कहाँ मालूम था कि ज़िंदगी निश्छल हृदय रखने वालो की कठोर परीक्षा लेता है और विजेंद्र उसका माध्यममात्र बनकर प्रकट हुआ था।
मनोहर को साथ लेकर श्यामा फिर बाहर आयी और विजेंद्र से उसका परिचय कराया। विजेंद्र ने अपने कुल-खानदान के बारे में सब बताया और जल्द ही घरवालों को लेकर आने को बोल चला गया।
जल्द ही दोनों परिवार दुबारा मिले और ब्राहमण के निकाले शुभ मुहुर्त पर उनका विवाह तय कर दिया। विवाहपूर्व घर में बिताए अपने अंतिम कुछ दिनों में अभिलाषा ने माता-पिता की सेवा में कोई कोर-कसर न छोड़ा। उसके ब्याहकर ससुराल जाने के पश्चात अब श्यामा बिल्कुल अकेली पड़ गई। घर-बाहर सबकुछ अब उसे अकेले ही सम्भालना पड़ता।...
दूसरी तरफ हैजा गांव में पांव पसारने लगा था और कुछ ग्रामीणों को अपनी चपेट में भी ले चुका था। हैजे की प्रकृति से अनभिज्ञ और अपनी जान की परवाह किए बगैर श्यामा ब्रह्मबेला में ही जागकर घर के काम निपटाती और जीविकोपार्जन के लिए निकलती तो सुरज ढलने पर ही घर का मुंह देख पाती।
अपने अभावपूर्ण जीवन को श्यामा ने बड़ी सहजता से आत्मसात किया था और दुख की एक लकीर भी उसके चेहरे पर उभरने न पाए थे। शायद दुख भी श्यामा की इस विलक्षण प्रतिभा से दुखी था और विभिन्न माध्यमों से उसे अपनी मौजुदगी का एहसास कराता रहता।
एक दिन श्यामा जब काम से थकी-हारी घर लौटी तो पास के गांव की विमला को घर पर उसका इंतजार करते पाया। विमला उसी गांव में रहती थी जहाँ श्यामा की संझली बेटी कामना का ससुराल था।
“कैसी है विमला? अचानक मेरी याद कैसे आ गई? मुझे न तुझसे बड़ी शिकायत है! अभिलाषा की शादी का न्योता भेजा, पर तू आयी तक नहीं! चल खुद तो नहीं आयी, अपने बेटे-बहू तक को नहीं भेजा!”- मटके से ठंडे जल निकाल विमला की तरफ बढ़ाते हुए श्यामा ने शिकायत भरे अंदाज में कहा। ठंडे जल से गले को तर कर विमला अनुत्तरित होकर कातर भाव से श्यामा को निहारती रही।
“अरे क्या हुआ....बोलेगी भी कुछ?”- श्यामा ने मुस्कुराकर पुछा। पर विमला का चेहरा देख उसे किसी अनहोनी की अनुभूति होने लगी थी।
“श्यामा, तेरी संझली बेटी कामना अपने पति का साथ छोड़ किसी पराए मर्द के साथ भाग गई!”- कलेजे पर पत्थर रख विमला ने एक ही सांस में पूरी बात कह डाली। श्यामा को मानो काटो तो खून नहीं! उसकी आंखें ऐसे स्थूल हुई कि उनसे अश्रू तक न निकले। विमला से उसने कोई प्रश्न न किया। कोई दूसरी स्त्री होती तो जड़ की तह तक जाती कि आखिर ऐसी क्या वजह हुई जो कामना को ऐसा घोर कृत्य करने पर विवश होना पड़ा। पर कामना को श्यामा ने अपने कोख में पाला था और उसके स्वभाव से वह भली-भांति परिचित थी।...