Itihaas ka wah sabse mahaan vidushak - 33 - Last Part in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 33 - अंतिम भाग

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इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 33 - अंतिम भाग

33

कितना अजब था वह विदूषक

तेनालीराम का जीवन यों ही चलता रहा। राजा कृष्णदेव राय तो पूरी तरह उसके मुरीद हो गए थे। विजयनगर ही नहीं, दूर-दूर के राज्यों में भी उसकी कीर्ति फैल गई। वह बेशक अपने समय का सबसे बुद्धिमान शख्स था। पर अंत तो सभी का आता है। और एक दिन तेनालीराम पर भी हम समय की काली छाया को मँडराते देखते हैं।

हुआ यह कि एक दिन तेनालीराम अपने घर के सामने वाले बगीचे में टहल रहा था। तभी अचानक एक झाड़ी के नीचे से विषैला साँप निकला। तेनालीराम कुछ समझ पाता, इससे पहले ही साँप ने उसे काटा और गायब हो गया।

तेनालीराम भीषण कष्ट के बावजूद चलकर घर तक आया। घर में आकर पत्नी को बताया, “मुझे साँप ने काट लिया है। लगता है, कोई विषैला सर्प रहा होगा। इसीलिए उसका दंश इतना गहरा है। जल्दी से राजा कृष्णदेव राय के पास संदेश भिजवाओ, ताकि वे राजवैद्य को भिजवा दें। नहीं तो मेरा बच पाना कठिन होगा।”

तेनालीराम की पत्नी ने उसी समय पड़ोस के युवक को राजा कृष्णदेव राय के दरबार में भेजा। पड़ोसी युवक ने राजदरबार में जाकर राजा कृष्णदेव राय से कहा, “महाराज, तेनालीराम को किसी विषैले साँप ने काट लिया है। उसका बच पाना बहुत कठिन है। जल्दी से राजवैद्य को भेजें तो शायद उन्हें बचाया जा सके।”

राजा कृष्णदेव राय ने सुना तो दुखी और उदास होने के बजाय उलटा उन्हें हँसी आ गई। बोले, “मैं समझ गया, यह भी चतुर तेनालीराम की कोई नई चाल है! वह ऐसे ही एक से एक अजब बहाने करता रहता है, ताकि दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींच सके। कुछ अरसा पहले उसके नदी में डूबकर मर जाने की खबर आई थी। फिर उसने रहस्यपूर्ण बीमारी की अफवाह फैलाई और सारे विजयनगर में यह चर्चा चल पड़ी कि तेनालीराम का अंतिम समय आ गया है। लेकिन अगले ही दिन वह राजदरबार में उपस्थित था। अब भी लगता है कि वह थोड़ी ही देर में हँसता-हँसता राजदरबार में आएगा और कहेगा कि महाराज, यह तो मैंने यों ही कहलवा दिया था, ताकि देखूँ कि मेरी मृत्यु की खबर पाकर आपको कैसा लगता है!”

तेनालीराम के पड़ोसी युवक ने फिर कहा, “महाराज, आज तो मैं अपनी आँखों से देखकर आ रहा हूँ। सचमुच तेनालीराम की हालत बड़ी नाजुक है। जिस पैर पर साँप ने काटा है, वह नीला पड़ गया है। उसके बचने के आसार बहुत कम हैं। कहीं ऐसा न हो कि आप बाद में पछताएँ!”

इस पर राजा कृष्णदेव राय ने मुसकराते हुए कहा, “लगता है, पंसारी की दुकान से वह जो नीला रंग लाया था, वह इतना ही था कि उसने पैर पर लगा लिया। ज्यादा होता तो शायद उसका पूरा शरीर ही अब तक नीला हो चुका होता।” सुनकर सारे राजदरबारी हँसने लगे।

पड़ोसी युवक ने फिर अपनी बात कहनी चाही, पर राजा कृष्णदेव राय इस कदर चुहल की मुद्रा में थे कि उन्होंने उसकी कोई बात सुनी ही नहीं। हारकर वह वापस चल पड़ा।

उधर चारपाई पर लेटे तेनालीराम को महसूस हो गया था कि अब उसका बच पाना असंभव है। यह शैया ही अब उसकी मृत्यु-शैया होने वाली है। सोचकर उसके चेहरे पर एक विचित्र किस्म की हँसी झलकने लगी। उसने मन ही मन कहा, ‘कितनी अजीब बात है, राजा कृष्णदेव राय ने मेरा इतना सम्मान किया कि मेरी बात पर भरोसा करके वे बड़ा से बड़ा निर्णय ले लेते थे। पर एक-दो बार के हास-परिहास के कारण अब हालत यह है कि मेरी सच्ची बात भी उन्हें सच्ची जान नहीं पड़ती।...’

दर्द अब बहुत बढ़ता जा रहा था। किसी तरह होंठ भींचकर तेनालीराम ने उसे बर्दाश्त किया और धीरे से बुदबुदाया—

‘मैं तो चला जाऊँगा, पर बाद में राजा कृष्णदेव राय को असलियत पता चलेगी तो वे बड़े दुखी होंगे।...पर मैं क्या करूँ? मैं कुछ नहीं कर सकता। ओह, मेरे जीवन की यह कैसी विडंबना है, जिसे मैं किसी को बता भी नहीं सकता। शायद लोगों ने मुझे विदूषक ही समझा और एक विदूषक की मृत्यु ऐसी ही विचित्र होती है। शायद मेरी मृत्यु भी मेरे परिहासपूर्ण कारनामों की तरह इसी तरह प्रजा में चर्चित हो जाए कि लोग कहें, अरे, तेनालीराम को बड़ी विचित्र मौत मिली!’

उधर तेनालीराम के पड़ोसी युवक के राजदरबार से लौटने पर राजा कृष्णदेव राय के मन में आया, ‘कहीं ऐसा तो नहीं कि इस युवक द्वारा कही गई बात सही हो और मैं उसे मजाक समझ बैठा। कहीं तेनालीराम सचमुच संकट में न हो।’

यह सोचकर राजा कृष्णदेव राय बेचैन हो उठे। उन्होंने अपना शाही रथ मँगवाया और जल्दी से जल्दी तेनालीराम के घर की ओर चलने के लिए कहा। राजा कृष्णदेव राय तेनालीराम के घर पहुँचे तो वहाँ का शोकपूर्ण माहौल देखकर समझ गए कि उनसे कितनी बड़ी भूल हुई है।

वे लोगों की भीड़ को चीरते हुए तेनालीराम के पास पहुँचे तो उसके होंठों पर नजर आ रही विचित्र हँसी को देख अचंभित हो उठे। उन्होंने तेनालीराम को झिंझोड़ते हुए कहा, “तेनालीराम, तेनालीराम, तुम्हें क्या हुआ तेनालीराम? बताते क्यों नहीं हो? तुम तो हमेशा इतना बोलते थे, इतना बोलते थे कि कई बार मैं परेशान हो जाता था। पर आज...?”

पर तेनालीराम अब कहाँ था, वह तो जा चुका था। हाँ, उसके चेहरे पर अब भी वहीं व्यंग्यपूर्ण मुसकान थी, जो मानो कह रही थी, ‘महाराज, देख लिया आपने, मैं विदूषक था। एक विदूषक की मृत्यु तो ऐसे ही होती है। कितनी विचित्र! मैं मर रहा था और आपको शायद हँसी आ रही थी। मैं मर रहा था और जीवन के अंतिम क्षणों में आपका दर्शन करने के लिए व्यग्र था, लेकिन आप...!’

उधर राजा कृष्णदेव राय शोकग्रस्त होकर विलाप कर रहे थे, “ओह तेनालीराम, तुमने जीवन भर मुझे हँसाया, तो अब रुला क्यों रहे हो? तुम मुझे इस तरह छोड़कर नहीं जा सकते। तुमने अपनी हास्य और चतुराई की बातों से मुझे कितना हँसाया, अपनी सूझ-बूझ से मेरे कितने ही संकटों को दूर किया, यहाँ तक कि शत्रुओं के षड्यंत्र से मेरे प्राण भी बचाए। तुम हमेशा कहा करते थे, महाराज, मैं तो छाया की तरह आपके साथ हूँ। फिर आज...इस तरह मुझे छोड़कर क्यों जा रहे हो?”

वहाँ उपस्थित लोगों ने किसी तरह राजा कृष्णदेव राय को समझाया। पर इतने लंबे समय के मित्र और हित-चिंतक को खोकर उनकी हालत इतनी खराब थी कि उनका चेहरा देख-देखकर लोग रो पड़ते।

आखिर राजा कृष्णदेव राय ने चंदन की लकडिय़ों से तेनालीराम की चिता बनाने और शाही ढंग से उसकी अंत्येष्टि करने की आज्ञा दी।

जिस समय तेनालीराम की चिता जल रही थी, राजा कृष्णदेव राय के मुँह से निकला, ‘तुम महान थे तेनालीराम, महान ही रहोगे! हजारों बरस तक लोग तुम्हारी सूझ-बूझ और चतुराई भरे कारनामों को याद करते रहेंगे और कहेंगे कि विजयनगर में एक ऐसा महान विदूषक था जो बड़े से बड़े पंडितों और विद्वानों से बढ़कर था। उसके आगे बड़े-बड़ों की बोलती बंद हो जाती थी। जब-जब लोग राजा कृष्णदेव राय को याद करेंगे, तो साथ ही उन्हें तेनालीराम की याद जरूर आएगी, जिसके मन में विजयनगर की प्रजा के लिए सच्चा प्यार और हमदर्दी थी और जो हमेशा दूसरों की भलाई की बात सोचता था।’

और सचमुच तेनालीराम का नाम केवल भारत ही नहीं, सारी दुनिया में अमर हो चुका है। उसके चतुराई भरे कारनामों को आज भी लोग रस ले-लेकर पढ़ते हैं और याद करते हैं कि उसकी छोटी से छोटी बात में भी कितनी गहरी सूझ होती थी।

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