मैंने स्कूल से घर लौटते समय रोज की तरह इधर-उधर किसी से उस दिन भी बात न की।
चुपचाप स्कूल के साइकिल स्टैंड पर अपनी साइकिल का टोकन जमा कराया, अपनी साइकिल उठाई और चतुर्दिक पवन-मापी गति के साथ घर पहुंचकर ही दम लिया ।
’’आज इम्तिहान कैसा हुआ?’’ मां रोज की तरह घर के दरवाजे पर खड़ी थीं।
’’पेपर अच्छा था,’’ मैं हंसा।
’’मुझे दिखाओ,’’ मां ने मेरी साइकिल मेरे हाथ से लेकर गलियारे में टिका दी।
’’लो,’ ’ पसीने से तर हुई अपनी कमीज की जेब से मैंने वह आधा गीला पेपर मां की ओर बढ़ाया।
’’लाओ, बैग भी दे दो।’’
’’तुम पेपर देखो,’’ मां को मैंने बैग न दिया।
’’कल तुम्हारे साथ जो सम्ज किए थे, उनमें से आठ सवाल ज्यों के त्यों आ गए।’’
’’हां,’’ हंसकर मां घर में दाखिल हुईं, ’’अब बताओ, जरूरी गैर-जरूरी की मेरी पहचान कैसी रही?’’
’’ठीक है,’’ मैं चिढ़ गया ।
प्रफुल्लता का प्रकटीकरण मुझे तनिक नहीं भाता।
’’लाओ, मेरा पेपर मुझे वापिस दे दो।’’
मां ने कहा, ’’लो, इसे अपने कमरे में रखकर हाथ धो लो। मैं खाने की मेज पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूं।’’
’’आज खाने में क्या है?’’ खाने के उल्लेख से मैं उत्सुक हो उठा।
’’आश्चर्य! आश्चर्य!’’ मां अपने स्वर में चंचलता ले आईं, ’’मालूम है किसने कहा था, सरपराइज इज द बेस्ट एलिमेंट आॅफ द फीस्ट-खाने का सबसे आनंददायक तत्त्व खाने वाले के पास वाले का अचानक पहुंचना है.....’’
’’ठीक है, । ठीक है,’’मां के आमोद-प्रमोद पर मैंने दोबारा रोक लगाई।
’’पापा के लिए क्या बनाया?’’ अपनी प्लेट में अपने मनपसंद भठूरे, चने और दही-बड़े देखकर मैंने पूछा। पापा तली हुई चीज से सख्त परहेज रखते हैं।
’’जो तुम नहीं खाते,’’ मां हंसीं, ’’चावल, मूंग की दाल और करेला।’’
’’पापा का खाना भी लगा दो,’’ मैंने खाना शुरू किया।
’’अभी लगाती हूं,’’ मां मेरे पास वाली कुर्सी पर बैठ गईं।
’’अपने कालेज से तुम कितने बजे आईं?’’ मां एक स्थानीय कालेज में राजनीतिशास्त्र पढ़ाती हैं।
’’पौने एक,’’ मां ने कहा, ’’बारह बजे क्लास खत्म की। टैंपो से पहले मिष्ठान भंडार गई और यह सामान खरीदा। फिर रिक्शा लेकर आ गई।’’
’’आज कोई बात हुई?’’ लगभग रोज ही मैं मां से यह सवाल पूछा करता।
’’नहीं,’’ मां दोबारा हंसीं, ’’न घर में, न कालेज में और न ही रास्ते में....’’
’’सबने खाना खा लिया क्या?’’ अढ़ाई बजे पापा घर पर आए।
’’नहीं,’’ मां मुस्कुराईं, ’’सबने नहीं खाया, सिर्फ नंदन ने खाया है।’’
’’क्या है खाने में?’’ पापा मेज पर जा बैठे।
’’सुकरात ने कहा था, हंगर इज द बेस्ट साॅस- खाने में भूख से बड़ा कोई सालन नहीं-’’
’’अपनी हंसी और अपना सुकरात अपने पास रखो,’’ पापा खाने पर टूट पड़े, ’’मुझे दोनों से सख्त चिढ़ है।’’
’’दही-बड़ा लीजिए,’’ मां सहज बनी रहीं, ’’मिष्ठान भण्डार का है....’’
’’ले लूंगा। तुम मेरी फिक्र न करो...’’
मां खाने की मेज से उठकर मेरे पास चली आईं।
’’तुमने खाना नहीं खाया?’’ मैंने मां के प्रति संवेदना प्रकट की ।
’’मैं बाद में खा लूंगी,’’ मां मेरे पास बैठ लीं।
शाम को मां मुझे विभिन्न देशों तथा उनकी राजधानियों की सूची रटा रही थीं कि सोम अंकल आ गए, ’’कहां हो भाभी?’’
’’तुम पढ़ो,’’ मां ने तत्काल मेरी कापी मेरे हाथ में पकड़ा दी, ’’इनकी खातिरदारी जरूरी है....’’
सोम अंकल भी पापा की तरह उसी अखबार में उप-संपादक थे, जिसका लखनऊ संस्करण चार महीने पहले बंद हो गया था, किंतु जहां सोम अंकल को फटाक से दूसरे ही सप्ताह एक दूसरे अखबार में नौकरी मिल गई थी, पापा अभी भी बेकार थे।
’’चाय के साथ आज भाभी के हाथ की पकौड़ी हो जाए,’’ सोम अंकल बहुत जोर से बोलते हैं, ’’भाई के लिए दूरदर्शन में जुगाड़ लगाया है। एक प्रोड्यूसर को राजी कर लिया है। भाई को वह महीने में दो प्रोग्राम दे दिया करेगा। धीरे-धीरे भाई वहां अपनी धाक जमा लेंगे।’’
’’कौन-से प्रोग्राम रहेंगे?’’ मां ने पूछा।
’’मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता,’’ पापा ने मां को फटकार दिया, ’’तुम अपने काम से मतलब रखो और जाकर चाय बना लाओ।’’
’’चाय के साथ पकौड़ी जरूर बनाना, भाभी,’’ सोम अंकल ने कहा।
’’क्यों नहीं!’’ मां ने गर्मजोशी दिखाई, हालांकि मैं जानता था कि मां को पकौड़ी बनाना किसी बखेड़े से कम नहीं लगता।
’’रात का खाना अब हल्का रखना,’’ सोम अंकल को विदा देकर पापा मेरे कमरे में चले आए, ’’आज पकौड़ी कुछ ज्यादा ही खाई गईं।’’
’’खिचड़ी बना लूं क्या?’’ मां ने पूछा।
’’हां,’’ पापा ने स्वीकृति में सिर हिलाया, ’’खिचड़ी बना लो। मगर साथ में पोदीने या धनिए की चटनी जरूर तैयार कर लेना।’’
’’ठीक है,’’ मां उठकर रसोई में लौट गईं।
’’मेरे लिए पानी तो लाना, नंदन,’’ पापा मेरे बिस्तर पर पसर लिये।
’’कल मेरा टेस्ट है पापा,’’ मैं खीझा, ’’पहले ही सोम अंकल मेरा इतना समय बर्बाद कर गए हैं।’’
’’बक मत,’’ पापा ने मुझे घुड़की दी, ’’तेरा समय बर्बाद कर गए हैं? सोम तो इधर आया ही नहीं।’’
’’आप लोग बहुत जोर से बोलते हैं पापा...’’
’’अब अपने घर में मैं बोलूंगा भी नहीं,’’ बिस्तर से उठकर पापा ने अपनी चप्पल पकड़ ली, ’’हरामजादे! यह मेरा घर है। जैसा चाहूंगा, वैसा बोलूंगा...’’
’’क्या हो रहा है?’’ मां पापा की चप्पल के सामने आ खड़ी हुईं।
’’पापा अपने आपको गाली दे रहे हैं,’’ मैंने कहा।
नौ वर्ष की अपनी उस अल्पायु में भी मैं जानता रहा, हरामजादा किसे कहा जाता है। ’’आज मैं इसे नहीं छोड़ूंगा,’’ पापा ने मां को रास्ते से हटाना चाहा।
’’टाल जाइए,’’ माँ ने पापा से विनती की और मेरी ओर मुड़ लीं, ’’ऐसे नहीं बोलते बेटे। वे तुम्हारे पापा हैं। उनके लिए तुम्हारे मन में प्यार होना चाहिए, श्रद्धा होनी चाहिए...’’
’’तुम बताओ,’’ मैं भड़क लिया, ’’क्या तुम पापा से प्यार करती हो? तुम उनके लिए श्रद्धा रखती हो?’’
मां का रंग सफेद पड़ गया। झूठ बोलने का मां को कम अभ्यास रहा।
’’तू ठीक कहता है,’’ पापा मेरी दिशा में हंसे और उन्होंने अपने हाथ की चप्पल जमीन पर छोड़ दी, ’’तुझे हरामजादा बोलकर मैं अपने आपको गाली दे रहा था। तू हरामजादा नहीं है। तू मेरा बेटा है, मेरा बेटा। एक पत्रकार का बेटा। तभी तो तू आडंबर की थाह लेता है, कपट कोक घेरता है, मिथ्याचार की थुड़ी-थुड़ी करता है...’’
’’मैं रसोई में हूं,’’ मां ने अपनी थिरता कायम रखी, ’’खिचड़ी बना रही हूं...’’
’’हां,’’ पापा मां के पीछे हो लिये, ’’तुम पूछती रहती थीं न, तुममें क्या कमी है, क्या खामी है, जो तुम्हारे समर्पण के बावजूद मैं तुम्हारी कद्र क्यों नहीं करता? तो सुन लो आज, तुम्हारा व्यवहार आयोजित है, संकल्पित है, सहज नहीं, स्वैच्छिक नहीं...नौ साल का वह बच्चा भी जानता है, तुम मुझे प्यार नहीं करतीं, मेरे लिए कोई श्रद्धा नहीं रखतीं...’’
’’कल नंदन का भूगोल का टेस्ट है,’’ पापा के बहाने मां ने मुझे सुनाया, ’’उस ेअब पढ़ने दीजिए। अपना मंच हम फिर कभी लगा लेंगे...’’
’’माफ करना,’’ पापा ने कहा, ’’तुम्हारे साथ अभिनय करने की मुझे कोई लालसा नहीं..’’
’’घर घालना कोई आपसे सीखे,’’ मां रोने लगीं, ’’बेतरीके बोलेंगे, बेजा बात को उलझाएंगे...’’
’’मैं मंचभीरू हूं, भई, मंचभीरू,’’ पापा रसोई से बाहर निकल लिये, ’’तुम्हारे जैसे नाटकीय प्रभाव प्रस्तुत करने में सर्वथा असमर्थ हूं...
’’मुझे माफ कर दो,’’ पापा के बैठक में टिकते ही मैं मां के पास रसोई में चला आया। ाामां को मां अभिनय अधिकार सौंपने की मुझे जल्दी रही, ’’मेरी वजह से तुम्हें पापा से इतना कुछ सुनना पड़ा...’’
’’नहीं बेटा,’’ मां ने मेरे अभिनय निर्देश सहर्ष ग्रहण कर लिये, ’’मैं उनकी किसी बात का बुरा नहीं मानती; और फिर यह चंद दिनों की ही तो बात है, जल्दी ही उन्हें कोई नया काम मिल जाएगा और वे इस तरह बात-बात पर तुनकना छोड़ देंगे।’’
’’मैं समझता हूं मां,’’ मैं आश्वस्त हुआ।
माँ का मंच साबुत था।
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