सेठ शोभालाल एक बार फिर डॉक्टर के कक्ष में चले गए थे उनसे अपनी योजना के मुताबिक बात करने और अस्पताल की लॉबी में बृन्दादेवी के साथ जमनादास अकेले ही बैठा हुआ था।
जमनादास का युवा मन उन दोनों की बातें सुनकर खुद को धिक्कार रहा था, 'कैसे माँ बाप हैं ये ? मैंने तो एक माँ की ममता के भुलावे में आकर अपने सबसे जिगरी दोस्त से गद्दारी कर ली है। कितना बेवकूफ हूँ मैं। क्या यही है इनकी ममता का राज ? गोपाल से इनकी ममता क्या सिर्फ इसलिए है कि वह इनके लिये करोड़ों की लॉटरी के समान है जो शीघ्र ही मिलने वाली है ? कोई इंसान इस हद तक लालची हो सकता है यह तो मैंने सपने में भी नहीं सोचा था। चलो लालच भी एक बार ठीक क्योंकि जायज लालच भी अनुचित नहीं कही जाती लेकिन अपने बेटे के बारे में ऐसे ख्याल ..? '
अचानक उसके मन में एक नया विचार कौंध गया 'अपना बेटा ? क्या सचमुच इनका अपना बेटा है गोपाल ? ये भी तो हो सकता है कि गोपाल इनका खुद का बेटा ही न हो ? तो क्या हुआ यदि गोपाल इनका अपना बेटा नहीं है तो भी ? अरे लोग मोहब्बत तो कुछ दिन रखने के बाद अपने जानवरों से भी करने लगते हैं और ये तो फिर भी इंसान का बच्चा है और सबसे बड़ी बात कि उसकी पहचान ही है उनकी पहचान से। फिर भी उसके प्रति ऐसे कुत्सित विचार ! हद है !'
सोचते हुए जमनादास की नसें तन गई थीं। उसे सबसे ज्यादा खुद पर क्रोध आ रहा था। उसने कैसे इनकी बात को सच समझ लिया था ? उसने उन्हें अपने बेटे के गम में तड़पने वाला माता पिता मान लिया था लेकिन यहाँ तो पूरी तस्वीर ही उल्टी दिख रही है। ये तो माता पिता नहीं बल्कि अपने निवेश की चिंता करते शुद्ध व्यवसायी नजर आ रहे हैं।
बृन्दादेवी निर्विकार भाव से शून्य में घूर रही थीं। जमनादास ने उनकी तरफ देखते हुए पूछा, "आंटी, एक बात पूछूँ ?"
" हाँ, पूछो ! ..क्या पूछना चाहते हो ?" चौंकते हुए बृन्दादेवी ने उसकी तरफ देखा।
" आंटी, मैं ये कह रहा था कि अगर विदेश जाने में अधिक खर्च हो रहे हों तो क्यों न गोपाल का इलाज यहीं करवा लिया जाए?" जमनादास ने मन के भावों को बखूबी छिपाते हुए कहा।
"कह तो तुम ठीक रहे हो जमना, लेकिन यहाँ के इलाज में पचास प्रतिशत ही संभावना है ठीक होने की और हम पाँच प्रतिशत भी खतरा मोल लेना नहीं चाहते। बेटे के दुःख के साथ ही हमें जो आर्थिक नुकसान होगा उसका तुम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते ......!"
बृन्दादेवी की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि जमनादास ने बीच में ही टोक दिया, "और बेटे के जान की कोई कीमत नहीं ?"
"है जमना, बिल्कुल है हमारे बेटे की जान की कीमत ! सेठ अंबादास की इकलौती लड़की का होनेवाला पति जो है वो !" बृन्दादेवी रहस्य भरे स्वर में बोलीं।
"यदि वह सेठ अम्बादास जी की बेटी से शादी से इंकार कर दे तो ?" जमनादास ने आशंका व्यक्त की, "क्या तब भी वह तुम्हें इतना ही प्रिय लगेगा ?"
"हम ऐसा क्यों कर रहे हैं उसके साथ इसकी एक लंबी कहानी है। सुनोगे तो सब समझ जाओगे और मुझे लगता है कि गोपाल का जिगरी दोस्त होने के नाते तुम हमारे घर के सदस्य और हमारे बेटे जैसे ही हो। अब तुमसे क्या छिपाना ?" कहते हुए बृन्दादेवी ने आगे जो कहानी संक्षिप्त में सुनाई उसे सुनकर उसकी आत्मा काँप उठी।
बृन्दादेवी के अनुसार शेठ शोभालाल से उनकी शादी बड़ी छोटी अवस्था में ही हो गई थी। वह शहर के नजदीक ही एक देहात में रहते थे। शोभालाल के माता पिता का स्वर्गवास हो चुका था। संयुक्त परिवार के नाते उनका बड़ा भाई हीरालाल अब परिवार का मुखिया था। बड़ा होने के नाते वह हर समय शोभालाल पर हावी रहता था। उसकी बीवी भी महारानी की तरह उसे ताने और आदेश देने के अलावा और कोई काम नहीं करती थी।
एक दिन शोभालाल को किसी काम से बाहर भेज कर हीरालाल ने जबरदस्ती उसका दैहिक शोषण कर लिया। बगल के कमरे में स्थित उसकी जेठानी चीख पुकार सुनकर भी उसकी मदद करने नहीं आई। बृन्दादेवी ने शोभालाल को उसी दिन यह बात बताई भी, लेकिन लोग क्या कहेंगे ? घर की बड़ी बदनामी होगी ऐसा समझा बुझाकर शोभालाल ने बृन्दादेवी को चुप करा दिया।
बृंदा की इसी खामोशी को उसकी कमजोरी समझकर अब हीरालाल जब मन चाहता मौका देखकर उसका शोषण कर लेता। इस बीच हीरालाल ने शोभालाल को शहर भेज दिया था एक कारोबार के सिलसिले में जो कि अभी नया नया ही शुरू हुआ था। पाप का घड़ा एक न एक दिन तो भरना ही था।
सोलह साल की कच्ची उम्र में इस अत्याचार के नतीजे में बृंदा के पाँव भारी हो गए। जेठानी द्वारा यह बात हीरालाल तक पहुँची। जल्दबाजी में गाँव की दाई को भरोसे में लेकर उसने अपना पाप छिपाने की तैयारी कर ली। अर्धकुशल दाई के देसी दवाईयों ने उसे इस विपदा से तो बचा लिया लेकिन उसकी कोख को हमेशा के लिए बाँझ बना दिया। शायद हीरालाल ने उस दाई से यह काम जानबूझकर करवाया रहा हो।
बृन्दादेवी के दिल में अपने जेठ और जेठानी से घृणा चरम पर थी। शोभालाल की मजबूरी उसके सामने थी। उन दिनों गाँव समाज और पंचायत ही इंसानों का भविष्य बनाया या बिगाड़ा करते थे। हीरालाल परिवार का मुखिया होने के साथ ही पंचायत का संरपंच भी था। शोभालाल और बृन्दादेवी शिकायत करते भी तो किससे ? तभी ईश्वर की कृपा से उन्हें उनसे छुटकारा पाने का एक मौका मिल गया। हाँ, उस भीषण दुर्घटना को बृन्दादेवी आज भी अपने लिए ईश्वर का दिया सबसे किमती उपहार ही मानती है।
उस दिन चार वर्षीय किशन को लेकर हीरालाल अपनी पत्नी के संग समीप के दूसरे शहर गया हुआ था। छह महीने का गोपाल घर पर ही था। रास्ते में उनकी बस अनियंत्रित होकर पूल की रेलिंग तोड़कर नदी में गिर गई। कोई नहीं बचा था। गाँववालों के सामने फूटफूटकर रोते हुए शोभालाल और बृन्दादेवी अंदर से बहुत खुश थे।
मृत्यु उपरांत होनेवाले सारे रीतिरिवाजों को पूर्ण कर शोभालाल बृन्दादेवी सहित शहर में ही रहने लगा।
गाँव के बड़े बुजुर्गों की सलाह पर वह नन्हें गोपाल को भी अपने साथ ले आये थे। गोपाल को देखते ही हीरालाल का अक्स उनके जेहन में ताजी हो उठती। कई बार उनका जी करता कि भगा दे अपने घर से उस साँप के संपोले को। थोड़ी शांति तो मिलेगी लेकिन लोकलाज का डर उन्हें ऐसा कोई कदम उठाने से रोकता रहा। उनका खुद का बच्चा तो अब होनेवाला नहीं था सो मन में अथाह नफरत लिए हुए भी दोनों गोपाल का पालन पोषण करने लगे। शहर में सबसे उसका परिचय अपना बच्चा कहकर ही करवाया उन दोनों ने। यही कारण था कि उन्होंने गोपाल को सब कुछ मुहैया करवाया लेकिन मातापिता के प्यार से वह सदैव वंचित रहा। इसके अलावा जब भी वह किसी चीज की इच्छा प्रकट करता उसे नकारते हुए बृन्दादेवी को एक विशेष खुशी की अनुभूति होती।
इतनी कहानी सुनाने के बाद बृन्दादेवी ने आगे कहा, "जमना बेटा, मैं गलत नहीं हूँ। यदि गोपाल मेरा बेटा होता तो साधना जैसी सुंदर और सुशील बहू पाकर मैं खुद को धन्य समझती, लेकिन मैं अपने गुनहगार के बेटे को उसकी कोई भी खुशी देकर खुश होते नहीं देख सकती। उसे किसी चीज के लिए तड़पते देखकर मेरे कलेजे को ठंडक मिलती है बेटा ! ..और ये अम्बादास की लड़की से उसकी शादी की बात जो तुम सुन रहे हो न ये हम उनकी दौलत के लिए नहीं कर रहे। तुम समझ ही सकते हो हमें दौलत की कोई कमी नहीं और इसलिए दौलत की कोई लालच भी नहीं। उस लड़की से शादी होने के बाद गोपाल जिंदगी भर खून के आँसू रोयेगा, न जी सकेगा और न मर सकेगा और हमारा मकसद भी तो यही है न ?.. बल्कि हम तो अपनी आँखों के सामने उसे रोते तड़पते देखना चाहते हैं। तभी शायद हम शांति और संतोष से अपनी आँखें मूंद सकें।"
कहते हुए बृन्दादेवी की पलकें भीग गई थीं। शायद उन्हें अपने अतीत को कुरेदते हुए तीव्र वेदना की अनुभूति हुई थी।
जमनादास के चेहरे पर असमंजस के भाव देखकर बृन्दादेवी ने आगे कहा, "शायद तुम्हें हमारा गोपाल से नफरत करना नागवार गुजर रहा है, तो बेटा मैं बस इतना कहूँगी कि अपनी वेदना का अनुभव मुझसे बेहतर कोई नहीं कर सकता और उसी तरह उसे तकलीफ में देखकर जो खुशी हमें मिलती है उसका अंदाजा भी तुम नहीं लगा सकते।"
" वो तो ठीक है आंटी, लेकिन अगर आपके साथ गोपाल के पिताजी ने कुछ बुरा किया है तो ये कहाँ तक उचित है कि उसका बदला आप उसके मासूम बेटे से लें ? वह तो बेचारा इस सब के बारे में कुछ जानता भी नहीं होगा। वह तो आप लोगों को ही अपना माँ बाप समझता है। फिर उसके साथ ऐसा बर्ताव क्यों ? अरे इंसान एक कुत्ता भी पाल लेता है तो थोड़े ही दिनों में उसका उससे भावनात्मक लगाव हो जाता है और फिर आपने तो एक इंसान के बच्चे को पाला पोसा है। उसके साथ ऐसा बर्ताव क्यों ?" जमनादास ने अपने मन की भड़ास आखिर निकाल ही दी।
बृन्दादेवी अभी कुछ जवाब देतीं कि तभी सेठ शोभालाल डॉक्टर के कक्ष से निकलकर उनकी तरफ बढ़ते हुए दिखे। दोनों खामोशी से उनके नजदीक आने का इंतजार करने लगे।
क्रमश :