Agnija - 35 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 35

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अग्निजा - 35

प्रकरण 35

...और केतकी के लिए अपने प्राणप्रिय, जीवनदाता और सर्वस्व नाना-नानी की यादें, खुशबू और स्पंदन समाए हुए घर को छोड़ने का समय आ गया। केतकी को महसूस हो रहा था कि वह केवल इस मंदिर को ही छोड़ कर नहीं जा रही है, परंतु कोई उसकी चमड़ी छील रहा है और शरीर के भीतर कोई हथौड़ों से प्रहार कर रहा है। इस घर ने, इस परिसर ने से न जाने क्या-क्या दिया था..जीवन जीने का अवसर..रंगीन बचपन। इतना प्रेम दिया कि जीवन भर भी खत्म न पाएगा। इस घर के तीन लोग उसके लिए भगवान से बढ़कर थे। पर अब इस मंदिर को छोड़ कर जाने का समय आ गया था।

बचपन का वह स्वप्निल संसार छोड़ कर केतकी यशोदा के साथ निकल पड़ी। सामान्य सौभाग्यशाली लड़की को अपना, अपने माता-पिता का घर एक बार ही छोड़ना पड़ता है। और घर छोड़ कर जाने की एक मधुर कल्पना उसके मानस पटल पर छाई रहती है। संसार की सभी लड़कियों के साथ ऐसा होता है। केतकी पर ही वह बारी आएगी, लेकिन यह स्थान परिवर्तन उसके लिए असह्य था, कल्पनातीत था। नाना गए, नानी गई...और एक के बाद एक लगातार इतने आघात...

किशोर वय में ही मानो जीवन को समाप्त कर देने वाले भूकंप के एक के बाद एक झटके...केतकी अभी छोटी ही थी। इस भूकंप से टूट कर बिखर चुकी संवेदनाओं और भावनाओं के टुकड़े चुनने और उन्हें सहेज कर रखने जितनी उसके भीतर समझ नहीं थी और इतनी हिम्मत भी नहीं थी।

नाना-नानी, सहेलियां, मौज-मस्ती, खेलकूद...इन सबकी मधुर यादें उसके पीछे बिलखती-घिसटती हुई चली आ रही थीं। केतकी को यह सब थोड़ा-थोड़ा याद आ रहा था लेकिन उसका मन ठिकाने पर नहीं था। यशोदा की उंगली पकड़कर किसी रोबोट की भांति वह उसके पीछे-पीछे चल रही थी। चलते हुए एक दीवार पर कोयले से लिखी धुंधली इबारत दिख रही थी, “डॉन के साथ कोई बात नहीं करेगा...” केतकी जोर से रो पड़ी। यशोदा अपने भीतर चल रहे विचारों के द्वंद्व में इतनी रमी हुई थी कि उसे केतकी का रोना सुनाई ही नहीं पड़ा। दोनों किसी रोबोट की तरह चलती जा रही थीं।

घर में प्रवेश करते ही रणछोड़ दास सामने आ गया। उसने मुंह बिचकाते हुए केतकी का स्वागत किया। “यहां छुट्टे बछड़े की तरह भागना-दौड़ना बंद....बाहर घूमना-फिरना भूल ही जाओ...और मुझसे हमेशा दूर रहना। ”

अपने ही घर में पिता ने इस तरह स्वागत किया लेकिन केतकी को इस बात का जरा भी बुरा नहीं लगा। रणछोड़ दास ही क्यों, शांति बहन और जयश्री को भी ऐसा ही लगता था कि केतकी एक आवारा बछड़ा है और उसे खूंटी से बांध कर रखना होगा। काबू में रखना होगा। और वे तीनों अपने काम में पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ लग गए। भावना इन सबसे अलग थी। उसे अब हमेशा केतकी बहन का साथ मिलेगा...इसकी खुशी हुई। उसके मासूम मन को यह बात समझ में नहीं आती थी कि उसे और जयश्री बहन को सभी लोग पसंद करते हैं, तो केतकी क्यों नहीं पसंद? सभी लोग उसे दिन-भर डांटते रहते हैं, उस पर गुस्सा करते हैं, दोष देते रहते हैं-क्यों, सभी उसे हमेशा काम क्यों बताते रहते हैं?

केतकी का बालमन नष्ट हो चुका था। अच्छे-बुरे का अंतर समझने की ताकत उसमें बाकी नहीं रह गई थी। उसे बस इतना ही समझ में आता था कि इस घर के सिवाय अब उसके लिए कोई ठौर-ठिकाना नहीं है। यहीं रहना होगा, जिस हाल में रखें, उसमें।

केतकी की इस लाचारी का सभी लोगों ने खूब फायदा उठाया, इंसानियत को भूल गए।

केतकी ने छोटी उम्र में ही खाना बनाना सीख लिया। लखीमां का कहना सच साबित हुआ, “उसके सिर पर जिम्मेदारी पड़ेगी तो वह सब कर लेगी।” जिस लड़की ने कभी अपनी चाय का कप उठा कर रखा नहीं था, वही आज चाय का कप तो क्या सुबह-शाम बरतनों के ढेर साफ करने लगी थी। किशोरावस्था की मुग्धता जूठे बरतनों को साफ करने वाली राख के साथ बहती जा रही थी।

ऐसे ही दिन बीतने लगे। महीने बीत गए। उसे नवापुर की शाला में दाखिल कराया गया था, लेकिन दिन भर के काम के बाद समय मिले तब तो पढ़ाई की पुस्तक हाथ में ले न? और भूल से पुस्तक हाथ में ले भी ले तो तुरंत चीख-पुकार शुरू हो जाती और दो काम और सौंप दिए जाते थे. मजबूरी इंसान को सभी काम सिखा देती है या फिर जिम्मेदारी पड़ने पर इंसान अपने आप सब कुछ सीख जाता है, शायद इसी कारण केतकी ने सारे काम सीख लिये थे।

 

यशोदा ने सिखाया, तो वह खाना बनाना भी सीख गई...शौक से नहीं...लाचारी में कभी-कभी दस-बारह लोगों का खाना भी बनाने लगी। सुबह से ही काम में जुट जाती थी। काम खत्म करके जैसे-तैसे शाला की ओर भागती। आधी छुट्टी में जब सभी लोग मौज-मस्ती करते, टिफिन खाते थे, उस समय वह दौड़ कर घर जाती थी, जूठे बरतन हों, तो उन्हें मांज डालती। वापस शाला जाते समय पिसाई के लिए डिब्बा चक्की में रख देती। शाला छूटने पर वह डिब्बा लेकर घर आती। और, घर लौट कर फिर से काम में लग जाती। किसी घानी में जुते हुए बैल की जिंदगी से भी बदतर उसकी स्थिति थी।

ढोरों की तरह ये काम केतकी के मन, दिमाग और उसके पूरे व्यक्तित्व को ही कुरेद कर खाए जा रहे थे। अपनी बेटी इतनी बुरी तरह से काम में जुटी हुई है, यह देख कर भी यशोदा चुप कैसे बैठी थी? बेटी के जीवन का सुवर्णकाल बरबाद हुआ जा रहा था, फिर भी वह मौन थी। हो सकता है उसने थोड़ा विरोध करने की हिम्मत जुटाई भी होती, उसका पक्ष लिया भी होता तो क्या कोई फर्क पड़ने वाला था? उन सब लोगों ने मिल कर मां-बेटी को घर से बाहर निकाल दिया होता तो? वहां तक भी ठीक था। कष्ट उठा कर दोनों ने दूसरों के घर के काम करके अपना पेट भर भी लिया होता, साथ ही आत्मसम्मान और स्वतंत्रता भी बचा ली होती, लेकिन केतकी ककी अभी उम्र छोटी थी। वह इतनी गंभीरता से विचार करने लायक नहीं थी। लेकिन जब वह बड़ी हो जाएगी, तो क्या अपनी मां से इसका कारण नहीं पूछेगी? और क्या इसके लिए अपनी मां को कभी माफ कर भी पाएगी? घानी का बैल कहें या बोझा ढोने वाला गदहा...इतने कष्टों के बावजूद केतकी को पढ़ाई में रुचि थी, लेकिन घर का वातावरण ऐसा था कि वह कभी खुश नहीं रह पाती थी। मन हमेशा खिन्न और व्यथित ही रहता था।

हर बात में उसके साथ अन्याय होता था। मिठाई हो या नमकीन, फल हों या मेवा। सभी चीजों पर सबसे पहला हक जयश्री का होता, उसके बाद भावना का। शांति बहन तो आग लगाने के लिए तत्पर रहती ही थीं। इन सभी लोगों का पेट भर जाने के बाद भी केतकी के हिस्से में कुछ नहीं आता था। कितनी ही बार खाने-पीने की चीजों के डिब्बों को ताले में बंद करके रखा जाता था। और यदि उसमें कुछ कम-ज्यादा हो जाए तो आरोप लगाने में आसानी हो, इस लिए ताले की चाबी यशोदा के पास रखी जाती थी। भावना कभी-कभी अपने हिस्से का नाश्ता छुपा कर रखती और मौका मिलते ही अपनी लाड़ली केतकी बहन को दे देती थी। कभी न देखा हो, या फिर कभी खाने को मिले न मिले इस तरह से केतकी सबकुछ खा लेती थी। यह देख कर भावना को अच्छा लगता था। खुद को कम मिला, इसके दुःख से अधिक उसे केतकी को खाते देख कर संतोष होता था। एक बार यह जयश्री ने देख लिया तब उसने केतकी को बहुत भला-बुरा कहा, “तुम भिखारिन हो, भिखारिन...बेचारी छोटी सी लड़की को चोरी करना सिखाती हो? शर्म नहीं आती तुमको?” यह सुन कर केतकी से अधिक भावना को ही बुरा लगता था। उसे लगता था कि गलती उसकी है और केतकी बहन पर गुस्सा उतारा जा रहा है।

एक बड़ी समस्या जल्दी ही खत्म हो जाएगी ऐसा शांति बहन को लग रहा था। दरअसल, एसएससी का परिणाम आने वाला था। सभी लोग ऐसा सोच रहे थे कि प्रायवेट टयूशन और कोचिंग क्लास के कारण जयश्री तो अच्छे नंबरों से पास हो ही जाएगी, लेकिन केतकी का पास होना मुश्किल है। शांति बहन धीरे-से रणछोड़ को समझा रही थीं, “केतकी के लिए मैट्रिक तक की पढ़ाई बहुत हुई। बस बहुत हुआ अब, हमारी जान छूटी। ”

उसी समय पोन की घंटी बजी। भीतर से आ रही केतकी ने फोन उठाया। थोड़ी ही देर में रिसीवर को टेबल पर रखते हुए बोली, “किसी चंदा का फोन है...” शांति बहन को आश्चर्य हुआ, लेकिन रणछोड़ भागते हुए फोन के पास गया।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह