प्रकरण 32
स्तब्ध, किंकर्तव्यविमूढ़, आघातग्रस्त...ये सभी शब्द केतकी की मनःस्थिति का वर्णन करने के लिए कम पड़ रहे थे। मुझको जीवनदान देने वाले, मुझे मेरा बचपन देने वाले, मासूमियत से पहचान करा देने वाले, रंगीन संसार के दर्शन कराने वाले दोनों आधारस्तंभ चले गए। एक के पीछे एक। वह भी थोड़े समय के भीतर ही। नाना-नानी न होते तो मेरा क्या हुआ होता, यह प्रश्न तो उसके मन में उठा ही नहीं, क्योंकि यदि वे नहीं होते तो वह जिंदा ही नहीं रही होती, इस बात का उसे पूरा भरोसा था। प्रेम, ममता, अनुकंपा, मानवता और एकदूसरे की चिंता करना सिखाने वाले, घुट्टी में ही स्नेह का पाठ पढ़ाने वाले और जीवन जीने का कारण बनने वाले ये दोनों ही व्यक्ति केतकी के लिए विशेष थे। भगवान से भी बढ़कर।
नाना के गुजरने के बाद केतकी को नानी की बहुत आवश्यकता थी। इसी कारण से शायद वह लखीमां को लेकर भावुक और पज़ेसिव हो गई थी। अपनी किसी छोटी बहन को या गुड़िया को संभाला जाता है, वह उसी तरह से लखीमां को संभाल रही थी।
लेकिन भोलेनाथ से उसका यह भी सुख देखा नहीं गया क्या? यह प्रश्न पूछने के लिए वह किसी को भी कुछ न कहते हुए अकेले ही भद्रेश्वर महादेव मंदिर की ओर दौड़ गई। आज भी अंदर न जाकर बाहर ही बरामदे में बैठी रही। उसे देखकर दो-चार पिल्ले दौड़कर आ गए। उसके पैर चाटने लगे। लेकिन केतकी बिस्कुट लेकर नहीं आई थी। अपने दुःख में वह इन पिल्लों को भूल गई थी। फिर भी कितने निरपेक्ष भाव से ये मुझे देखकर दौड़ते चले आए, पहले की ही तरह प्रेम से। इसका मतलब है अभी भी संसार में प्रेम बचा हुआ है। लेकिन मेरे भाग्य में वह नहीं है। शायद भोलेनाथ उसको यही दिखाना चाहते थे कि निःस्वार्थ प्रेम अभी भी शेष है। लेकिन केतकी भगवान का यह इशारा समझने की मनःस्थिति में नहीं थी।
जयसुख की मनःस्थिति भी अच्छी नहीं थी। उसको ऐसा लग रहा था कि शरीर की काम नहीं कर रहा है। दिमाग सुन्न हो गया था। शरीर में मानो लकवा मार गया हो। जयसुख और केतकी ही नहीं, यशोदा को भी अपना सर्वस्व खो जाने का अहसास हो रहा था। तीनों को ही ऐसा लग रहा था कि उनसे अधिक इस दुनिया में दुःखी और कोई नहीं है। उस पर से यशोदा की स्थिति तो अधिक ही खराब थी। उसको अनिच्छा से मायके जाने की अनुमति देते हुए रणछोड़ दास ने धमकी दी थी, “मां के घर जाना है तो जाओ...लेकिन वापस आते समय उस लड़की को लेकर आई तो याद रखना...जितना रोना है, दो दिन वहीं बैठकर रो लेना...लेकिन यहां आकर रोते मत बैठना....मुझे मंजूर नहीं होगा ...”
“लेकिन अब केतकी वहां कैसे रह सकेगी?”
“इसका विचार उसके नाना-नानी को करना था...जन्म के पहले ही बाप को खा गई...मेरे घर में बेटा नहीं होने दिया...अपने नाना-नानी को भी जीने नहीं दिया...ऐसी अपशकुनी लड़की मुझे मेरे घर में नहीं चाहिए। ”
“लेकिन सुन तो लें मेरी...”
शांतिबहन पीछे से टपक पड़ीं, “केतकी की बात चलते ही पति के साथ बहस? सुनो, तुमको केतकी की चिंता सताती है न?”
“हां, मां, बहुत...”
“सताएगी ही...आखिर तुम्हारी बेटी है....एक काम करो...तुम अपनी बेटी के लिए वहीं जाकर रहो, मैं यहां अपने बेटे को संभाल लूंगी।”
“नहीं मां, वैसी बात नहीं है पर...”
“पर, वर छोड़ो....मुंह चलाना हो तो वहां जाने का विचार भी छोड़ दो...”
यशोदा चुपचाप मायके में रह कर तो आ गई, लेकिन उसको केतकी की चिंता उसको भीतर ही भीतर खाए जा रही थी। घर पहुंच कर वह केतकी से गले लगकर खूब रोई। ये आंसू केतकी के भविष्य के लिए थे या मां के लिए, ये समझ नहीं आ रहा था। लेकिन केतकी एकदम निर्विकार भाव से आई से लिपट कर खड़ी थी। तब भावना ने उसका हाथ पकड़ा। उसके हाथ पकड़ते ही केतकी के मन का बांध फूट पड़ा। उसकी आंखों से आंसुओं की सुनामी ही बह निकली। उसे देखकर सबकी आंखें नम हो गईं। केवल तेरह-चौदह साल की लड़की के आंखों में भगवान इतने आंसू भला कैसे तैयार करता होगा? यशोदा को समझ में ही नहीं आ रहा था था कि इस बात से वह खुश हो या दुःखी? मां के साथ उसके भावनात्मक संबंध बाकी नहीं रहे थे लेकिन सौतेली बहन के साथ? ठीक है भगवान...लेकिन मेरी केतकी के लिए कोई तो रास्ता सुझाओ। तभी वह उपाय सुझाने को मानो कानजी चाचा का आगमन हुआ। वास्तव में वह लखीमां की मृत्यु के बाद औपचारिक भेंट के लिए आए थे। औपचारिक बातचीत खत्म हुई। कुछ अड़ोसी-पड़ोसी, कुछ गिने-चुने रिश्तेदार बैठे थे। और कानजी चाचा ने बोलना शुरु किया, “जो नहीं होना था, वही हो गया...पहले प्रभुदास बापू और अब लखीमां....दोनों ही देवतुल्य व्यक्ति...ऐसे लोग खोजने से भी न मिलेंगे...निष्कपट इंसान...कभी किसी की कोई शिकायत नहीं...सुखी और संतुष्ट प्राणी थे दोनों..लेकिन ऊपर वाले की मर्जी के आगे किसी की कहां चलती है? वे बेचारे दोनों तो चले गए भोलेनाथ के कैलाश पर्वत पर...लेकिन अब हम सबको मिलकर विचार करना है कि जयसुख और केतकी का क्या होगा?”
यह कहते समय ही उनकी दृष्टि केतकी पर गई। इसी के साथ शांति बहन के फोन की याद आई, “कुछ भी करो, लेकिन वह बदनसीब लड़की मेरे घर में न आने पाए ऐसा कुछ करो...” इसी दृष्टि से विचार करने के लिए कानजी भाई ने नस की डिबिया निकाली...चिमटी भर नस नाक में खींची और लंबी सांस भरी। फटाफट पांच-छह छींकें निकालीं.... “..अब दिमाग काम करेगा...देखिए मैं कहता हूं...मैं तो दूर का रिश्तेदार ठहरा...वैसे देखें तो कोई रिश्ता नहीं है लेकिन मुझसे किसी का दुःख देखा नहीं जाता...आप सभी समझदार हैं...कुछ ऐसा उपाय बताएं कि केतकी और जयसुख अकेले न पड़ जाएं। दोनों सुख-चैन से रह सकें...”
ग्राम पंचायत के भूतपूर्व सदस्य गोवर्धनदास ने मौके का फायदा उठाया, “कानजी चाचा जो कह रहे हैं वह एकदम सही ...एक उपाय तो यह है कि यशोदा यहां आकर रहे...”
“बात तो ठीक है, लेकिन ससुराल छोड़कर बेटी मायके में कितने दिन रह सकेगी?”
“तब कोई स्थायी उपाय करें...”
“मतलब?”
“जयसुख की शादी करनी चाहिए...जितनी जल्दी हो सके...”
इतना सुनकर जयसुख एकदम उठ खड़ा हा, “अरे अभी भाभी की चिता की राख भी ठंडी नहीं हुई है और आप सब लोग...”
“देखो भाई...जाने वाले चले गए...अब तुम ठीकठाक तरीके से जम जाओगे तो उनकी आत्मा को भी शांति मिलेगी।”
लोग आपसे में फुसफुसाने लगे। सभी का यही कहना था कि जयसुख की शादी ही इस समस्या का उत्तम उपाय है। केतकी और यशोदा के बारे में सोचकर जयसुख अधिक कुछ बोला नहीं। उसको इस तरह चुप देखकर कानजी काका का दिमाग कंप्यूटर की तरह वधू खोजने के काम में जुट गया।
ऐसी साधारण परिस्थिति वाले परिवार में कौन सी लड़की आने के लिए तैयार होगी?जयसुख को कौन पसंद करेगा? थोड़ा इधर-उधर हुआ तो मैं तो हूं ही जमाने के लिए।
“कानजी चाचा...ओ कानजी चाचा..कहां खो गए?” गोवर्धनदास ने उनको तंद्रा से जगाया। गोवर्धनदास आगे बोले, “मेरे बुआ की बेटी है...एकदम सुशील और समझदार...घर-परिवार संभाल लेग...थोड़ा-बहुत पढ़ी-लिखी भी है, लेकिन व्यवहार ज्ञान काफी है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि रमा यदि इस घर में आ जाए तो घर को स्वर्ग बना देगी।”
अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार
© प्रफुल शाह