Agnija - 30 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 30

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अग्निजा - 30

प्रकरण 30

जयुसुख को डर लगा कि हम सबका मन रखने के लिए केतकी संभलने का नाटक तो नहीं कर रही? अपने अतिप्रिय नाना को खो देने का दुःख अभी उसने भीतर से गया नहीं है। मन ही मन परेशान हो रही है बेचारी, लेकिन किसी से कुछ नहीं कह रही।

“ बेटा, बिना किसी से कुछ कहे मंदिर में आ गई?”

“हां चाचा, मैं देखना चाहती थी कि बिना किसी से कुछ कहे नाना जब मंदिर में आए होंगे तो उन्हें कैसा लग रहा होगा?”

उस समय क्या कहा जाए, जयसुख को सूझा ही नहीं। वह बोला, “ठीक है बेटा, लेकिन मंदिर के बाहर क्यों बैठी हो, भोलेनाथ तो अंदर हैं न?”

“नाना बताते थे कि भोलेनाथ सब जगह हैं, तो फिर अंदर जाने की क्या जरूरत? और मैं उससे नाराज हूं इसलिए अंदर नहीं जा रही हूं...उसने मेरे साथ बहुत गलत व्यवहार किया है...मेरी मां के साथ गलत किया है...मेरे नाना के साथ गलत किया है...नाना तो भोलेनाथ के कितने बड़े भक्त थे...उनके मुंह में तो एक ही वाक्य रहता था कि मेरा भोलेनाथ जो करेगा वही सही...मैं बाहर से ही भोलेनाथ से प्रश्न पूछती रहूंगी कि तुमने जो किया है, वह सब सही है क्या?”

जयसुख को केतकी का कहना एकदम सही लग रहा था , लेकिन भोलेनाथ को चुनौती देना और उनके प्रति संदेह व्यक्त करना उसे मंजूर नहीं था। वातारवरण को हल्का करने के लिए उसने कहा, “लेकिन इन पिल्लों को मंदिर के बाहर बिस्कुट खिलाने का कोई खास कारण?”

“भोलेनाथ को दिखाने के लिए....तुम्हारा एक काम तो मैं रोज कर रही हूं और करूंगी...तुम्हें कभी तो मेरी तरफ देखने की इच्छा होगी न?”

“हे महादेव, तुमने मेरी तरफ कभी देखा ही नहीं, लेकिन मैंने कोई शिकायत नहीं की। ऐसा कोई भी सुख नहीं जो तुमने मुझे दिया हो और वापस न ले लिया हो। लेकिन अब कम से कम केतकी को तो मुझसे पूरी तरह दूर मत करो...तुम तो गिरते को संभालते हो...फिर मुझे ही क्यों बार-बार गिरा रहे हो और ठोकर भी मार रहे हो?” इस व्यथा के साथ लेकर वापस जा रही यशोदा को केतकी ने हंसते-हंसते बिदा किया। “आज से केतकी की चिंता छोड़ दो। अब अपनी चिंता करना सीखो।”

यशोदा समझ ही नहीं पा रही थी कि बेटी की समझदारी और आत्मविश्वास पर खुश होना चाहिए या वह अपनी चिंता से उसे मुक्त कर रही है इस बात का बुरा माना जाए? लखीमां और जयसुख को जरूर बहुत बुरा लग रहा था कि प्रभुदास बापू का इस तरह से अचानक चला जाना केतकी को असमय ही बड़ा बना रहा है। उसके बचपन के सुंदर क्षण काल का शिकार हो गए।

अब केतकी सबसे पहले जाग जाती थी। घर के छोटे-छोटे काम खुद कर लेती थी। जरा भी आवाज हो तो लखीमां जाग जातीं। केतकी उन्हें प्यार से डांटती, “थोड़ी देर आराम करो, कुछ काम नहीं है।” लेकिन इस तरह पड़े रहने की कहां आदत थी लखीमां को?

अब केतकी लखीमां के प्रत्येक काम में हाथ बंटाने लगी थी। लेकिन अभी उसे खाना बनाना नहीं आता था। वह ऊपर केसारे काम कर लेती थी। झाड़ू-पोंछा, बाजार-हाट वगैरह वह बड़े उत्साह के साथ करती थी। जयसुख के भी बहुत सारे काम उसने जबरदस्ती अपने सिर पर ले लिये। लखीमां को विचार आता कि जिस लड़की के पैर कभी घर में टिकते नहीं थे, ये वही लड़की है क्या? तितली की तरह उड़ती फिरने वाली, चिड़िया की तरह चहचहाने वाली...भोलेनाथ मेरे पति के साथ तुमने इस बच्ची का बचपन भी छीन लिया..लेकिन मुझे ये मंजूर नहीं...कल यदि इसने घर के कामकाज के लिए पढ़ाई छोड़ दी तो? नहीं...नहीं ऐसा नहीं चलेगा...कुछ तो करना ही होगा...हमने घर में अपने आपको खपा दिया, इतना ही काफी है...इस लड़की को तो मैं पढ़ाऊंगी ही।

यह विचार दिमाग में चल ही रहे थे कि जयसुख न घर में प्रवेश किया। उसने भाभी से जयकृष्ण कहा। लखीमां अपने देवर से बोलीं, “भाई, मेरी एक बात मानेंगे क्या?”

“ये भी बात हुई भाभी? आपको मुझ पर विश्वास नहीं है क्या?... मैं आपको कहता तो भाभी हूं, परंतु मानता तो मां ही हूं....मां से भी बढ़कर..”

“वो क्या मैं नहीं जानती? मैंने भी तुम्हें बेटे से बढ़कर माना है...आज आपसे एक बात कहनी थी...यशोदा के जन्म के बाद आपके दादा ने मुझसे कहा था कि तुमने मुझे एक बेटी दी है, अब मुझे एक बेटा चाहिए...वह तुम मुझे दोगी इस बात का वचन दो...मैं उन पर नाराज हुई, और कहा कि मैंने आज तक आपकी कोई बात टाली है क्या?वचन क्यों मांग रहे हैं? वह मेरी तरफ देखते रहे और फिर बोले कि मैंने अपनी मां को मरते समय वचन दिया था। जयसुख की देखभाल मैं करूंगा। उसका पालन-पोषण करूंगा। उसको कोई भी कमी नहीं होने दूंगा...आज से हमारा शारीरिक संबंध खत्म....और केवल ह्रदय का संबंध कायम रहेगा...जन्म-जन्मांतर तक...”

जयसुख की आंखों में आंसू आ गए.. “...और भाभी आपने वह स्वीकार भी कर लिया? भरी जवानी में भला कोई ऐसा करता है क्या?”

“भाई, मैं तो धन्य हो गई। कितने भोले, मासूम और बड़े मन के व्यक्ति के साथ मेरा विवाह हुआ है इस विचार से ही मन आनंदित हो गया। प्रसव वेदना भूलकर मैं उठी, उनके पैर छुए। मेरी आंखें भर आईं और मैं रोने लगी। ”

जयसुख को तो अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था। इतना बड़ा बलिदान कोई दे सकता है क्या? खून के रिश्ते-नातों और प्रेम की सामान्य परिभाषा से न जाने कितनी ही ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं मेरे भाई-भाभी...

जयसुख ने आगे बढ़कर लखीमां के पैर छुए। अपना सिर उनके चरणों पर रख दिया। यह देखकर लखीमां ने उनको रोका, “हमने तो अपना कर्तव्य किया, उससे अधिक कुछ नहीं...”

“भाभी, यह सिर्फ कर्तव्य नहीं...कोई इंसान तो छोड़िए, देवता भी इतना बड़ा त्याग नहीं करेगा... ”

“इस बात को छोड़िए...यदि आपने मेरी एक बात मान ली तो ही मैं समझूंगी कि आपका अपने दादा-भाभी पर प्यार है और आप उनका आदर करते हैं...”

“ऐसा क्यों कह रही हैं भाभी...? आप कहें तो मैं अपने प्राण निकाल कर रख देता हूं...अपने दो टुकड़े कर देता हूं..”

“नहीं दो टुकड़े नहीं करना है, लेकिन अब पाणिग्रहण अवश्य करना है...”

“भाभी, अभी दादा को गुजरे...”

“मैं जानती हूं...लेकिन मुझे केतकी की चिंता है...देखिए, कैसे एक रात में ही बड़ी हो गई...एकदम समझदार हो गई है...”

“हां, ये बाततो सही है...”

“मुझे डर लगता है कि कहीं ये शाला छोड़कर घर बैठ गई तो...?”

“पढ़ने दीजिए उसे जब तय हमारे पास है...मुझे उसे लाड़-प्यार में रखना है...मेरे लिए नहीं तो कम से कम उसके लिए ही सही आप शादी कर लें भाई... ”

ऐसी स्थिति में जयसुख भाभी को मना भी नहीं कर सकता था। उसने बड़ी मुश्किल से हामी भरी, लेकिन उसको एक संदेह खा रहा था कि यदि आने वाली बहू मेरी भाभी और केतकी को समझ नहीं पाई तो?

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह