Agnija - 26 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 26

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अग्निजा - 26

प्रकरण 26

सभी भोजन करने के लिए बैठ गए। घर में जैसे दीपावली का त्यौहार हो। अपने मनपसंद खाने के साथ-साथ केतकी का सारा ध्यान अपनी मां की तरफ लगा हुआ था। उसकी तरफ से नजरें हट ही नहीं रही थीं। यह देखकर लखीमां को बहुत बुरा लगा। वह सोचने लगीं कि बेचारी अपी मां के लिए कितनी तड़फ रही थी। उसी समय किनारे गोदड़ी में सो रही नन्हीं ने रोना शुरू कर दिया। यशोदा उठने को ही थी कि केतकी भागकर गई और उसने नन्हीं को उठा लिया। जयसुख से रहा नहीं गया, “ठीक से उठाओ....संभालो...” और फिर उसने यशोदा की ओर देखा। “क्या नाम रखा है इसका...?” यशोदा दुःखी हो गई, “मेरी बेटी के भाग्य में तो नामकरण संस्कार भी नहीं। वहां तो इसकी तरफ कोई देखता भी नहीं...सभी लोग इससे गुस्सा करते हैं...”

प्रुभदास हंसे, “अरे, नाम रखना कौन-सा बड़ा काम है? अभी रख देते हैं...इस छोटी परी का क्या नाम रखना है...?”

कोई कुछ बोलता इसके पहले ही केतकी ने उत्साह के साथ कहा, “भावना...भावना रखेंगे न...मुझे यह नाम खूब पसंद है...”

जयसुख ने हंसते हुए कहा, “त्वमायुष्मान वर्चस्वी, तेजस्वी श्रीमान भूयः ...तो चलो फिर, सब मेरे साथ बोलो....भावना....केतकी ने रखा भावना नाम...” इसके बाद भावना को लेकर केतकी अपने नाना के पास गई और उनसे पूछा, “अब कया करना है?” प्रभुदास अपनी उंगली पर थोड़ा-सा श्रीखंड लिया और भावना के मुंह से लगा दिया। वह उनकी उंगली को चूसने लगी। यह देखकर केतती ताली बजाने लगी। प्रभुदास ने केतकी का हाथ पकड़ा, “अब इसकी दीदी भी अच्छे से खाना खाएगी, ठीक है न.. नहीं तो इसे दिन-भर इसको संभालने के लिए शरीर में ताकत चाहिए कि नहीं...?”

केतकी को नाना की बात समझ मे आई। लखीमां की आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने आंचल से आंसुओं को पोंछते हुए प्रभुदास बापू की थाली में एक चम्मच श्रीखंड परोस दिया।

“केतकी को परोसो...और केतकी बेटा, आज तुम अपने हाथों से अपने नाना को खिलाओ।” नाना-नाती एकदूसरे को खिला रहे थे, यह देखकर यशोदा के मन में विचार आया, “क्या कभी मेरे घर में ऐसा दृश्य देखने को मिलेगा?” भावना के रोने की आवाज सुनाई दी तो लखीमां ने उसे थोड़ा-सा श्रीखंड और चटा दिया। “बेचारी नन्हीं...नहीं, नहीं...भावना की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है...तुम तो मेरे ही पास रहना भावना बेटी...”

केतकी एकदम भागकर आई, “नहीं, भावना मेरी है और वह मेरे ही पास रहेगी।”

प्रभुदास हंसते हुए बोले, “इन दोनों का प्यार ऐसा ही जीवन भर बना रहेगा...”

रात को प्रभुदास ने केतकी से कहा, “चलो बेटा, कहानी सुननी है न...”

केतकी यशोदा की ओर जाने लगी और बोली, “नहीं, मैं मां के पास सोने वाली हूं...आप भावना को कहानी सुनाइए...उसने अभी तक एक भी कहानी नहीं सुनी है...” और फिर उन चारों दिनों में केतकी अपनी मां के पास ही सोई। उससे ऐसे लिपट के सोई मानो कई सालों से वह अपनी मां से मिली नहीं थी और इसके बाद कभी मुलाकात नहीं होगी।

ये सुख-शांति के चार दिन कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। कम से कम लखीमां और केतकी के लिए तो ये जल्दी ही समाप्त हो गए। मां को सामान समेटते देखकर केतकी रुंआसी हो गई, “मैं तुमको जाने नहीं दूंगी, तुम जल्दी लौटकर आती नहीं हो...”

यशोदा ने उसके गालों पर हाथ फेरते हुए कहा, “जल्दी ही आऊंगी बेटा....पक्का...भावना को भी लेकर आऊंगी अपने साथ...”

उसके बाद से केतकी के कानों में अपनी मां के वही शब्द बार-बार घूमने लगे, “जल्दी ही आऊंगी बेटा....पक्का...भावना को भी लेकर आऊंगी अपने साथ...”

हर महीने यशोदा घर आती तो केतकी को बहुत अच्छा लगता था, लेकिन उसका यह साथ केतकी को काफी नहीं लगता था। वह जैसे-जैसे बड़ी होती जा रही थी, उन चार दिनों में भावना को भी मां के पास सोने नहीं देती थी। साफ-साफ कह देती थी, तुम महीने भर मां के पास रहती हो। भावना को भी  अब प्रभुदास, लखीमां और जयसुख से जी लग गया था।

हर महीने के चार दिन मां की मुलाकात होती तो थी, पर केतकी के मन में अनेक प्रश्न खड़े होते थे। मां यहीं क्यों नहीं रहती? वह अपने साथ मुझे वहां क्यों नहीं ले जाती? ये सवाल वह अपनी मां से हर मुलाकात में पूछती थी और उत्तर उसे केवल मां के आंसू ही दिखाई देते थे। मां को रोते हुए देखते ही उसे लगता कि मैंने मां से ये प्रश्न पूछकर गलती कर दी।

भाई-भाभी को बिना बताए कि कई बार जयसुख कुछ न कुछ देने के बहाने यशोदा के घर जाता था। उनके हाथ-पैर जोड़ता कि यशोदा को कम से कम दो हफ्तों के लिए रहने के लिए मायके भेज दें। जयश्री और रणछोड़ दास ने भी उनका घर देखा नहीं है...उनकी खातिरदारी करने का मौका दें...शांति बहन कभी कोई बहाना बनाती, कभी चुप रह जातीं। एक बार रणछोड़ दास ने उसका अपमान किया। “आप उम्र में बड़े हैं इसलिए आज तक आपका लिहाज किया। आपकी बेटी को हम संभाल रहे हैं...उसे खाने-पीने के लिए दे रहे हैं, यह क्या कम है...क्यों रोज-रोज उठकर यहां भीख मांगने के लिए चले आते हैं? दोबारा अगर यहां दिखाई दिए तो महीने के जो चार दिन भेज रहा हूं, वह भी बंद कर दूंगा...”

“इस तरह नाराज न होइए...मैं केवल इतना कहना चाहता था....”

“इतना सुनने के बाद भी कुछ कहने को बाकी है क्या...? तो एक काम करें, उसे आज ही ले जाए...उसके पिल्ले को भी...लेकिन याद रखें....इसके बाद उसे कभी इस घर में पैर भी रखने नहीं दूंगा...आप बार-बार हाथ जोड़कर हमारे घर मत आया करें... हमें पनौती नहीं चाहिए...जाइए...ले जाइए उसको....”

“नहीं, नहीं...रहने दें...अब इसके बाद कभी नहीं आऊंगा...बस, आपको जैसा उचित लगें आप वैसा ही करें...मैं निकलता हूं...जयश्रीकृष्ण।”

जयसुख जैसा मजबूत आदमी भी बिना कुछ चुपचाप वहां से निकल गया। उसका गला भर आया..निकलते समय उसने पलटकर देखा भी नहीं। मुड़कर देखा होता तो उसे दिखाई देता कि शांति बहन अपने बेटे की पीठ थपथपा रही थी और दूसरे कोने में यशोदा रोते हुए खड़ी थी।

घर पहुंचते-पहुंचते जयसुख पसीने से लथपथ हो गया था। घर में घुसते ही धड़ाम से नीचे बैठ गया, “मेरी वजह से यदि उन्होंने यशोदा को हमेशा के लिए घर से बाहर निकाल दिया होता तो?” इसी विचार से उसे पसीना छूट रहा था। लखीमां ने उसको पानी दिया। उसका चेहरा देख कर घबरा गईं। माथे पर हाथ रख देखा और जोर से चिल्लाईं, “सुनते हैं....जयसुख भाई को तेज बुखार है...” प्रभुदास बापू अंदर से कुछ घरेलू दवाइयां लेकर आ गए। महादेव के मंदिर की ओर देखते हुए केवल इतना ही बोले, “भोलेनाथ जो करेगा वही सही i

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह