Agnija - 22 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 22

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अग्निजा - 22

प्रकरण 22

“भाई थोड़ा तो विचार करें.. बेटी को जन्म देकर उसे भूल जाते हैं क्या? हमारा भी कोई कर्तव्य होता है कि नहीं? उसके भले-बुरे की चिंता होती है कि नहीं?” कानजी भाई द्वारा फोन पर की जा रही फायरिंग से जयसुख अवाक हो गए। “अरे चाचा, हम तो प्रसूति के लिए घर ले जाने की बात कर रहे थे...यशोदा के लिए नियमित रूप से सूखे मेवे, हलुआ, लड्डू भेज रहे थे, पूछिए शांति बहन से...”

“भाई आप पर मुझे पूरा विश्वास है। इसीलिए तो मुझे आश्चर्य हुआ। अरे यशोदा की तबीयत की चिंता होने के कारण ही उसे प्रसूति के लिए मायके नहीं भेजा गया। बड़े मन के हैं। वे ससुराल के लोग हैं...वो जो कहें, जैसा करें वही ठीक, लेकिन अपना कर्तव्य भूल जाने से कैसे चलेगा मेरे भाई। ”

“लेकिन चाचा हम तो...”

“ध्यान रखना पड़ता है भाई ऐसे समय में...सुबह-शाम फोन करना चाहिए...मिलने के लिए जाना चाहिए...अब ये सब जान दो...जो हुआ सो हुआ...अब अस्पताल की तरफ दौड़ो...और हां, सामने वाले अच्छे हैं इसलिए उन्होंने प्रसूति के लिए मायके नहीं भेजा, पर अब उसकी देखभाल करने की जिम्मेदारी हमारी है। वह उठानी पड़ेगी। दिखावे के लिए झूठमूठ अस्पताल का बिल हम भरेंगे, कहिए...अपना व्यवहार अच्छा रहेगा तो हमारी ही बेटी वहां सुखी रहेगी ना?”

...और अस्पताल में जाकर देखने पर जयसुख और लखीमां स्तब्ध रह गए। उन दोनों को देखकर शांति बहन एक शब्द भी बिना बोले वहां से निकल गईं। बेटी के जन्म को दो दिन हो चुके थे फिर भी रणछोड़ दास अस्पताल में पलट कर नहीं आया। इतना ही नहीं, तो उसने अभी तक बेटी का मुंह भी नहीं देखा था। शांति बहन ने भी दवाइयां, इलाज या फिर उसका ध्यान रखने की बजाय ताने मारकर तंग करने की शुरुआत कर दी थी। “बाबा ठीक ही कह रहे थे, इसके मायके के लोगों ने कोई टोटका कर दिया है, बेटा न होने के लिए। हमारा ही नसीब खोटा है जो घर में तीन-तीन पत्थरों ने जन्म लिया है। असली पत्थर तो कम से कम सिर पटकने के काम आता है...इन पत्थरों को तो जीवन भर सिर पर ढोना ही है, इतने पर भी कोई कसर बाकी रह गई थी जो डॉक्टर ने कह दिया यह अब फिर से मां नहीं बन पाएगी।...मेरा बेटा क्या जीवन भर तुम लोगों के लिए मेहनत ही करता रहे? इससे अच्छा तो ऑपरेशन के समय दोनों मर गई होतीं तो दो दिन रोकर शांत हो गए होते....अब जीवन भर हम लोगों को रोते रहना है...कैसी बदनसीब बहू घर में आई है...और वैसी ही बेटियां भी लेकर आई है...उसमें से एक हरामी की औलाद लेकर आई है।” यशोदा ने शांति बहन के इन सारे वाक्यों को रोते-रोते दोहराया और लखीमां बेचैन हो गईं। उन्हें पसीना छूट गया। उनकी हालत देखकर जयसुख दौड़कर नर्स को बुला कर ले आया। उन्हें ग्लुकोज पिलाया गया तब वे छोड़ी ठीक हुईं।

जयसुख ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मामले को अपने हाथ में लिया। झूठमूठ हंसने का प्रयास करते हुए वह बोला, “अरे होता है ऐसा शुरू में, उन्हें बेटे की आशा होगी, उस पर से यशोदा की तबीयत इतनी गंभीर रूप से खराब हो गई तो उन्हें तनाव हो गया होगा। गुस्से में तो आदमी कुछ भी बोल जाता है, जो न कहना हो वो भी। ये सब श्मशान वैराग्य होता है...समझ में आया? चिंता मत करो...सब ठीक हो जाएगा...आप दोनों मां-बेटी इस पधारी हुई लक्ष्मी का लाड़-दुलार करो...उसकी देखभाल करो....मैं जरा आता हूं...”

जयसुख चला गया लेकिन उसके शब्दों से न तो लखीमां और न ही यशोदा सहमत थीं। लखीमां उस छोटी गुड़िया की तरफ देखती रहीं। उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। आई को रोते देखकर यशोदा भी थोड़ी लाचार हो गई लेकिन फिर उसने अपने मन में कुछ विचार किया और अपनी मां का हाथ पकड़ा, “मां, इस घड़ी में इसके साथ खेल लो...कल पता नहीं ये रहे न रहे...”

लखीमां ने चौंककर उसकी तरफ देखा, “ऐसा मत कहो बेटा...ये छोटा सा जीव अपना नसीब लेकर आया होगा...और अपना पेट किसी को भी भारी नहीं होता...समझ में आया न...”

लखीमां इधर ये बोल रही थीं, उधर जयसुख ने अस्पताल के 6780 रुपयों का बिल चुका दिया। दूसरे दिन यशोदा को डिस्चार्ज मिलने वाला था। उस रात को उसके पास लखीमां ठहरीं।

जयसुख ने कानजी भाई के पास जाकर ये सारी बातें बताईं। कान जी भाई ने प्रण लिया कि ये रिश्ता उसने जोड़ा है तो यशोदा को वह दुःखी होने नहीं देंगे..जयसुख के निकल जाने के बाद कानजी भाई ने यशोदा को फोन किया, “बहन हमारा मुंह मीठा कराओ...अस्पताल का बिल चुकता हो गया। कल यशोदा को डिस्चार्ज मिलने वाला है। उसके पहले ही आपको क्या करना ये तय कर लें। जीत तो आपकी ही होने वाली है...”और कान जी सत्तर के दशक के खलनायक कन्हैयालाल की तरह हंस पड़े। दूसरी तरफ शांति बहन के चेहरे पर विजयी मुस्कान तैर गई।

लेकिन छोटी गुड़िया को हंसाने का प्रयास करते हुए यशोदा स्वयं मुस्कुरा नहींपा रही थी। झूठी हंसी हंसने हुए उसे रोना ही आ गया। लखीमां समझ ही नहीं पा रही थीं कि यशोदा को किस तरह और किन शब्दों में समझाया जाए?

इसी बीच वार्ड बॉय यशोदा के लिए भोजन की थाली लेकर आ गया। वह उस थाली की ओर देखती रही। लखीमां धीमी आवाज में बोलीं, “बेटा, थोडा सा तो खा लो, अपने लिए न सही, कम से कम इस छोटी सी जान के लिए सही एक-दो ग्रास खा लो। ”

यशोदा ने कहा, “नहीं...एक दो ग्रास नहीं, पूरी थाली खत्म करूंगी...मैं जीऊंगी...मेरी बेटी के लिए...”

लखीमां को राहत मिली। यशोदा ने एक ग्रास उठाया, मुंह में रखा और उसे चबाते-चबाते रोने भी लगी। लखीमां के दिमाग में विचारों का तूफान मचलने लगा। मेरी बेटी के भाग्य में कभी भी सुख-शांति संतोष नहीं होगा क्या...?उस पर कितने संकट आ रह हैं...कितना सहन करेगी बेचारी। यशोदा ने यंत्रवत अपना खाना खत्म किया। पानी पीने के बाद बाजू में सो रही अपनी छोटी बेटी को उठाकर उसका चेहरा अपने आंचल में छुपा लिया। एक हाथ उसके नन्हें से पैरों पर फिराने लगी। लाचार बैठी मां अपनी बेटी यशोदा की तरफ देखती रह गई। उसने मां का हाथ अपने हाथों में ले लिया।

“मां, आज से मेरी चिंता करना छोड़ दो। मैं जिंदा रहूंगी...भगवान जब तक मुझे नहीं मारेगा मैं तब तक जिंदा रहूंगी...सिर्फ अपनी बेटियों के लिए...दुःख और अत्याचार से तंग आकर कभी भी आत्महत्या नहीं करूंगी। मेरी अंतिम यात्रा भी मेरी ससुराल से ही निकलेगी...अब जो होना है सो होने दो...”

लखीमां अपनी बेटी का यह रूप देखकर स्तब्ध रह गईं। इतनी यातनाओं के कारण वह अपना दर्द भूल तो नहीं गई थी? या फिर वह केवल क्षण भर के आवेश में यह बात कह रही थी? लखीमां के मन में ये प्रश्न उठ रहे थे, उसी समय शांति बहन सामने बैठे अपने बेटे रणछोड़ को समझा रही थीं कि अब हमें ऐसा कुछ करना होगा कि बहू के मायके वाले कुछ कर ही पाएं।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह