Agnija - 18 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 18

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अग्निजा - 18

प्रकरण 18

नन्हीं केतकी को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि सब लोग उसे मां से क्यों नहीं मिलने देते? कितने ही महीने बीत गए उसे देखे हुए। मां के बिना बेटी मुरझाने लगी थी। इसका असर उसके खाने-पीने, खेलने-सोने पर पड़ने लगा था। वह रात को भी जागती ही रहती थी। ठीक से खाना नहीं खाती। बाहर खेलने जाना तो लगभग बंद ही हो गया था। हमेशा चुपचाप बैठी रहती थी, अकेली-अकेली।

नानी उसके प्रश्नों के उत्तर देती नहीं थी। नाना तो बस एक ही वाक्य रटते रहते हैं, “मेरा भोलेनाथ जो करेगा वही सही।” केतकी ने मंदिर में जाकर भोलेनाथ को भी सुनाया, “ये जो आप कर रहे हैं न वह बिलकुल भी ठीक नहीं, गलत है..सब गलत।”

प्रभुदास, जयसुख और लखीमां इस बात को समझ चुके थे कि यशोदा अब यहां नहीं आएगी। शांति बहन उसे भेजने नहीं वालीं। लखीमां से रहा नहीं गया, “ठीक है, ऐसा कहें कि उस घर के लोग अपने बहू की ठीक से देखभाल करेंगे लेकिन इस केतकी तरफ मुझसे देखा नहीं जाता। बच्ची के पिता नहीं, और मां होकर भी...” साड़ी के किनारे से उन्होंने आंसू पोंछे और उठ गई। उसी समय यशोदा ने भी अपने आंचल से चेहरे का पसीना पोंछा। शांति बहन अच्छा बर्ताव करने का एक भी अवसर चूकती नहीं थी। लेकिन...

सुबह जब तक घर में रणछोड़ दास रहता, वह यशोदा को किसी भी काम को हाथ लगाने नहीं देतीं। सुबह नाश्ता के समय चाय बनाना और रात की बची रोटियां साथ में परोस देना...इतना ही काम रहता था। साथ में एक दो अचार, और कभी सेव-गाठिया नमकीन वगैरह परोस देना। लेकिन शांति बहन सभी काम स्वयं करती थीं या फिर जयश्री को बतातीं। ये देखकर रणछोड़ दास का मां के प्रति प्रेम बढ़ जाता। वह कहता भी, “मां छोटे-मोटे काम उसको भी करने दो...”

“नहीं रे बेटा, काम तो जीवन भर करना ही है...अभी उसकी चिंता करना मेरा कर्तव्य है। नहीं तो भगवान मुझे नर्क में भी जगह न देगा। अरे उसके मायके से आए हुए हलवे में तो ठीक से घी भी नहीं था, बादाम तो केवल नाम को थे। ड्रायफ्रूट का पैकेट भी नाम को ही है। लड्डू भी ऐसे-वैसे ही हैं। सच कहें तो उन बेचारों को अपनी बेटी के प्रति ममता तो है, लेकिन खर्च भी तो बर्दाश्त होना चाहिए...तुम थोड़े से मेवे ले आओ...नहीं तो मैं ही ले आऊंगी...गर्भवती खाए तो उसकी आत्मा तृप्त होती है और भगवान भी खुश होता है।”

रणछोड़ दास ने दो हजार रुपए अपनी मां के हाथ में रख दिए और वह निकल गया। जैसे ही उसने पीठे फेरी शांति बहन ने यशोदा के मायके से आई थैलियां उठाईं और जयश्री को आवाज लगाई, “चम्मच लेती आना तो...” जैसी ही जयश्री चम्मच लेकर आई, शांति बहन ने हलुए का डिब्बा खोला और उसमें से हलुआ निकाल कर खाने लगीं। जयश्री को भी खिलाया। उसके बाद मेवों के डिब्बे खोलकर काजू, बादाम वगैरह का स्वाद लिया। मुट्ठी भर जयश्री को दिया। सबकुछ वापस थैली में रखते समय उनके ध्यान में आया कि अभी एक डिब्बा तो रह ही गया है। “लो ये लड्डू तो मैं भूल ही गई।” उन्होंने वो डिब्बा भी खोला। उसे देखकर जयश्री भाग गई। “ये तुम ही खाना...मुझे नहीं पसंद...” गोंद के लड्डू मुंह में रखते ही वह घुलने लगा और उनके चेहरे पर संतोष पसर गया। “समधन के हाथ में तो अन्नपूर्णा है...अन्नपूर्णा...और समधी का मन बादशाह जैसा...कितनी सारी चीजें भिजवाई हैं...” एक और लड्डू मुंह में रखने के बाद वह भीतर जाकर एक प्लेट लेकर आईँ। उस प्लेट में उन्होंने लड्डू, थोड़ा सा हलुआ, एक-एक सूखा मेवा रखकर यशोदा को आवाज लगाई। यशोदा उनके सामने आकर खड़ी हो गई। उसकी तरफ देखे बिना ही वह बोलीं, “ये थोड़ा-सा तुम्हारे मायके से आया है...खा लो, नहीं तो मुझ पर आरोप लगेगा कि सारा लालची सास खा गई।”

“नहीं मां,ऐसा कोई क्यों कहेगा भला...?”

यशोदा की बात बीच में ही काटते हुए वह हाथ उठाकर बोलीं, “तुमको क्या लगता है, ये मुझे नहीं सुनना...जाओ अपने कमरे में जाकर इसे खा लो जल्दी से...”

यशोदा के भीतर जाते ही शांति बहन चांदी की सलाई से दांत साफ करते बैठ गईं, लेकिन हाथ और सलाई से भी ज्यादा तेज गति से उनके दिमाग में विचार चल रहे थे। तभी फोन की घंटी बजी। मुंह बिचकाते हुए उन्होंने फोन उठाया, “हैलो...”

दूसरी तरफ से जयसुख की आवाज आई, “जय श्रीकृष्ण...मैं जयसुख बोल रहा हूं...”

“हां, बोलिये...”

“रणछोड दास और यशोदा मजे में हैं न...”

“मेरा बेटा बेचारा नौकरी के काम से फुरसत मिले तब तो मौज में रहेगा ना...? बहू अपने साथ कोई धन-दौलत तो लेकर आई नहीं कि वह नौकर छोड़कर घर बैठ सके... और हां...आपकी यशोदा बहन जरूर मजे में हैं यहां पर....उसका खूब लाड़-दुलार चल रहा है...मेरे फूटे नसीब की तो पूछिए ही मत...जाने दें...आपने फोन करने का कष्ट क्यों किया, वह बताइए...”

“नहीं जी, कष्ट किस बात का...” लखीमां से रहा नहीं जा रहा था...वह जानना चाहती थीं कि हलुआ और लड्डू पसंद आए या नहीं...अच्छे तो बन थे?

“हां, हां...आपकी बात सही है...लेकिन मुझे कैसे पता चलेगा...मैं उसके लिए बनाई गई चीजें थोड़े ही खा सकती हूं...यशोदा को ही पूछ कर देखें...बहू...ओ बहू...लो तुम्हारे मायके से फोन आयाहै।”

यशोदा इस ध्वनि से चौंक गई...वह बाहर निकल कर आई। एक तो बहू कहकर प्रेम से पुकार और दूसरे मायके का फोन खुद बुलाकर दे रही हों, तो इसका मतलब क्या....उसके हाथ में रिसीवर सौंपने से पहले शांति बहन ने उसे धीरे से धमकाया, “पूरी रामकथा कहने की जरूरत नहीं है....जल्दी से निपटाना।”

यशोदा ने फोन लिया...वह सोच रही थी कि दूसरी तरफ लखीमां होतीं तो कितना अच्छा होता....वह धीमी आवाज में बोली... “हैलो...”

“बेटा, जयसुख बोल रहा हूं...कैसी है तुम्हारी तबीयत?”

“तबीयत ठीक है, मां से कहें चिंता करने की जरूरत नहीं है।”

“ठीक है, ठीक है...हलुआ और लड्डू खा लिए न? पसंद आए न बेटा?”

यशोदा का गदगद स्वर में बोली, “खूब अच्छे लगे...रोज ही हा रही हूं..” तभी शांति बहन ने उसे आंखें दिखाईँ तो वह डर गई और उसने रिसीवर उनके हाथ में दे दिया। शांति बहन में फोन पर ताना मारा, “सुन लिया न...मेरी बहू मायके से आई हुई हर चीज खा रही है...लेकिन एक परेशानी है...”

“मैं समझा नहीं...?”

झूठी हंसी हंसते हुए शांति बहन बोलीं, “अरे, बहू को अपनी मां के हाथ का ही हलुआ और लड्डू अच्छे लगते हैं... मेरे हाथों से बना हुआ पसंद नहीं आया तो मुश्किल हो जाएगी..”

“अरे नहीं...यशोदा बहन की देखभाल करने के लिए आपको इतने कष्ट क्यों उठाती हैं... मैं उसके लिए फिर से लाकर दूंगा।”

“न बाबा न...ऐसा ठीक नहीं लगता...”

“अरे पर ये तो हमारे आपके बीच की बात है...अभी घर लौटते-लौटते सारा सामान लेकर जाऊंगा....भाभी को बनाने में ऐसा कौन सा समय लगने वाला है...और बहन...एक बिनती है...” शांतिबहन का दिमाग और कान चौकस हो गए..

“यदि यशोदा बहन मायके न आ सकती हों तो ठीक है...लेकिन एक-दो दिनों के लिए केतकी यदि वहां रहने के लिए आ जाए तो....” शांति बहन ने रिसीवर को देखा। फोन की वायर धीरे से प्लग में से निकाल ली। उधर से जयसुख कितनी ही बार हैलो, हैलो करता रह गया...

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह