भाग 17
पिछले भाग में अपने पढ़ा की राघव और ठाकुर साहब गुड़िया को बनारस से ले कर आते है। आने के साथ ही गुड़िया को बाहर लॉन में बुआ कुर्सी पर बैठी दिखती हैं। और भाभी वैदेही भी बिल्कुल ठीक ठाक नजर आती है। वो खुद के इस तरह लाने पर नाराजगी जाहिर करती है और परीक्षा का वास्ता देती है। तभी बुआ के मुंह से उसे खुद की शादी की बात पता चलती है अब आगे पढ़े।
"गुड़िया तुझे ना बुलाते तो तेरे ब्याह में दुलहन की जगह किसे बिठाते…?" बुआ के मुंह से निकले ये शब्द गुड़िया के होश उड़ाने के लिए काफी थे। उसका मन कई प्रकार की आशंकाओं से भर गया। उसे अपने प्रति साजिश का आभास होने लगा। इस तरह अचानक बनारस से लाने की वजह भी समझ आने लगी।
गुड़िया बिना कुछ कहे बुआ से अपना हाथ छुड़ा कर अपने कमरे में जाने लगी। उसे जाते देख वैदेही रोकते हुए बोली, "गुड़िया कहां जा रही हो..? बैठो संजू चाय ला रही है । कुछ खा पी लो तब जाओ। लंबा रास्ता तय कर के आ रही हो। भूख लगी होगी।"
गुड़िया, वैदेही की किसी भी बात बिना जवाब दिए उसकी बातों को अनसुना कर अपने कमरे में चली गई।
गुड़िया को जाते देखा तो वैदेही ने राघव की ओर प्रश्न पूर्ण नजरों से देखा की "वो क्या करे..? क्या गुड़िया के पास उसके कमरे में जाए…?"
पर राघव ने उसे हाथ से इशारा किया रुकने का। वो संजू से बोला, "संजू तुम गुड़िया को चाय नाश्ता उसके कमरे में दे आओ।"
राघव कुछ वक्त अकेले देकर गुड़िया को संयत होने देना चाहता था। वो बुआ की बात को स्वीकार कर सके, समझ सके। इसके लिए वक्त देना जरूरी था।
गुड़िया का उखड़ा हुआ व्यवहार ठाकुर साहब भी देख रहे थे। वो भीतर से खुद को टूटा हुआ और दुखी महसूस कर रहे थे। उनके इस दुख के पीछे भय भी था। भय इस बात का था की अगर गुड़िया ने इस रिश्ते से मना कर दिया या फिर वो कहीं भाग गई तो…?"
फिर उन्होंने अपने सर को झटका और खुद से ही कहा,"नही …! नही…! गुड़िया मेरा खून है वो ऐसा नहीं कर सकती।"
पर मन में शंका का सर्प बड़ी तेजी से ठाकुर साहब के मन में फन फैला रहा था। गुड़िया शहर में रही है। आज कल ही आजाद ख्याल लड़की, पढ़ी लिखी है। अगर वो कही चली ही गई तो फिर उनकी क्या प्रतिष्ठा रह जायेगी समाज में..? सभी रिश्तेदारों, नातेदारों, गांव देश के सभी लोगों को पता था की वो बेटी की शादी कर रहे है। अब अगर शादी नही हुई तो उनकी प्रतिष्ठा, मान सम्मान सब मिट्टी में मिल जायेगा। समाज में ठाकुर खंडन की क्या इज्जत रह जायेगी…?"
इन ख्यालों ने ठाकुर साहब को बेचैन कर दिया। वो चाय पी कर थोड़ी देर बैठे और फिर अपनी दीदी कांति देवी से थके होने का बोल कर अपने कमरे में आराम करने चले आए। और थके हारे निढाल से बिस्तर पर पड़ गए।
इधर गुड़िया का मूड बेहद खराब हो गया था। उसे समझ आ रहा था सब कुछ धीरे धीरे। तभी इतने आनन फानन में उसकी शादी तय कर दी गई और उसे भाभी की बीमारी का झूठ बहाना बना कर कॉलेज से वापस लाया गया है।
इसमें सारी गलती उसे भाभी वैदेही की नज़र आ रही थी। उस दिन अस्सी घाट वाली बात कसम देने के बाद भी भाभी ने भईया से बता दी है। और भईया ने पापा से। कितना रोका था उन्हें। पर वो मानी नहीं। दावा करती है की बहुत प्यार करती है। पर एक बात को ना हजम कर सकीं। वो समय आने पर खुद पापा से सब कुछ बताती। यही सोचा था। पर भाभी ने सब बिगाड़ दिया। अब वो आगे क्या करे…? ये समझ नही आ रहा था। पर इस तरह वो किसी और नही अपना सकती इतना तो तय था। प्रभास से किया वादा वो ऐसे नहीं तोड़ सकती। फिर प्रभास कैसे जी पाएगा उसके बिना..? उन दोनो ने साथ मिल कर ना जाने कितने सपने देखे थे आने वाले जीवन के लिए। पहले दोनो अपने पैरों पर खड़े होना चाहते थे। फिर उसके बाद घर वालों की रजा मंदी से, आशीर्वाद से, नया जीवन शुरू करना चाहते थे। प्रभास को तो पूरी आशा थी की उसके घर से कोई विरोध नहीं होगा।
इधर गुड़िया ने भी पूरा प्लान बना रक्खा था पापा को राजी करने का। जब प्रभास एक अच्छी नौकरी पा जाता। और वो खुद भी अपने पैरों पर खड़ी हो जाती तो फिर प्रभास को मना करने का पापा के पास कोई कारण नहीं होता। वो अपनी ही जात का था। देखने में सुदर्शन और संस्कारी था। ये खूबियां काफी थी पापा (ठाकुर साहब) को राजी करने के लिए।
संजू चाय और गुड़िया की पसंद बिस्किट ट्रे में ले कर आई और बिना गुड़िया से ज्यादा कुछ बोले, बस इतना कह कर की "दीदी चाय पी लीजिएगा।" चली गई। और कोई दिन होता तो वो हाल चाल पूछती, शहर की बातें पूछती। पर गुड़िया का चेहरा देख कर उसे पता चल गया था की गुड़िया दीदी का मूड खराब है। अगर कुछ बोलेगी तो गुस्सा उसी पर उतर जायेगा। इस कारण चुप रहने में ही भलाई थी।
संजू ने रात के खाने में सब कुछ गुड़िया की पसंद का बनाया। मेवे की खीर, मसाला भिंडी, कोफ्ता, सब गुड़िया की पसंद का।
खाना संजू टेबल पर लगा चुकी थी। वैदेही पापा (ठाकुर गजराज सिंह) और राघव को परोस रही थी। बुआ कांति देवी रसोई में ही पीढ़े पर बैठ कर बिना किसी से कुछ बोले खाती थी। इस लिए वो रसोई में खा रही थी।
अब गुड़िया को आए तीन घंटे हो चुके थे। वो कुछ सामान्य हो गई होगी। इस कारण राघव वैदेही से बोला," वैदेही जाओ गुड़िया को भी बुला लाओ।"
राघव के कहने पर वैदेही गुड़िया को बुलाने उसके कमरे में चली गई।
गुड़िया कमरे में दरवाजे की तरफ पीठ कर के लेटी हुई थी। वैदेही गई और झुक कर गुड़िया के कंधे को छुआ और बोली, गुड़िया बेबी..! चलिए खाना खा लीजिए सब खा रहे है।"
गुड़िया जो वैदेही से खार खाए बैठी थी। उबल पड़ी और बोली, सारा ड्रामा तो रच दिया आपने और अब खाना खाने को बुलाने आई है…? भर गया है मेरा पेट आपकी हरकत से। जाइए आप खुद खाइए और अपने पति और ससुर को खिलाइए। मुझे अकेला छोड़ दीजिए। और आप क्या सोचती है, मेरी शादी आप किसी से भी करवा देंगी,और मैं कर लूंगी। भूल जाइए इस बात को।
बाहर खाना खाते ठाकुर साहब को गुड़िया की तेज आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी। कौर उठाते उनके हाथ गुड़िया की बातें सुन कर रुक गए।
क्या गुड़िया राजी हुई खाना खाने को? क्या बीती ठाकुर साहब पर गुड़िया के मन की बातें जान कर??? क्या वैदेही खुद को निर्दोष साबित कर पाई गुड़िया की नजरो में..? क्या बुआ को इन सब बातों का पता लग पाया…? जानने के लिए पढ़े सच उस रात का अगला भाग।
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