Nakaab - 1 in Hindi Fiction Stories by Neerja Pandey books and stories PDF | नकाब - 1

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नकाब - 1

भाग 1

खेत में सुबह सुबह नित्य क्रिया के लिए गया बिरजू अभी बैठा ही था की उसे जोर की बदबू आई। उसने सोचा अभी तक तो गांव से इतनी दूर कोई नही आता था। साफ जगह खोजने के चक्कर में दूर तक निकल आता था। पर अब लगता है सब इधर ही आने लगे है जो इतनी तेज बदबू आ रही है।

कुछ देर बाद उससे बर्दाश्त नहीं हुआ। वो उठ गया। पर ये बदबू थोड़ी अलग लग रही थी। वो जाने के लिए खेत से बाहर निकाला और मुड़ कर जाने लगा तो एक सरसरी निगाह खेत में डाली। निगाह पड़ते ही उसकी समझ में आ गया की क्यों उसे ये दुर्गंध कुछ अलग सी महसूस हो रही थी।

दूर से ही लग रहा था की ये कोई लाश है। वो सब्र नही कर सका। मुंह पर गमछा लपेट कर वो हिम्मत कर उसके पास गया। पास जाकर देखते ही उसके होश उड़ गए। उसे तो लगा था कोई जानवर मरा होगा। पर ये तो कोई बच्चा था। जो पहचान में नही आ रहा था। हाफ पैंट, शर्ट पहने उल्टे मुंह बच्चा पड़ा हुआ था। बिरजू को तभी ख्याल आया कही ये सुहास भैया का बेटा तो नही जो तीन दिन पहले गायब हो गया था। उसकी तलाश हर जगह की जा रही थी। ये लाश भी तीन दिन पुरानी ही लग रही थी। तभी इतनी बदबू आ रही थी। वो ये यकीन होते ही की ये सुहास भैया का बेटा है। वो बदहवास सा चिल्लाता हुआ गांव की ओर भागा। "अरे...देखो रे ...सुहास भईया के बेटे को किसी ने मार डाला रे…"

उसकी आवाज जिस जिस ने भी सुनी सब उसके पीछे हो लिए। बिरजू सीधा भागता हुआ सुहास के घर पहुंच गया। साथ ही उसके पीछे पीछे गांव वाले।

तीन दिन पहले घर के बाहर सुहास का बेटा दीपू अपनी दोनो बहनों के साथ खेल रहा था। खेलते खेलते वो छुपने गया और फिर ऐसा छुपा की किसी को नजर ही नही आया। कुछ देर दोनो बहनों सिया और रिया ने ढूंढना शुरू किया। जब उन्हे दीपू नहीं मिला तो उन्होंने घर में बताया की भाई छिपने गया था तब से मिल नही रहा।

इसके बाद तो पूरा घर ही ढूंढने में लग गया। ढूंढते ढूंढते रात हो गई पर कुछ पता नही चला। सुबह गांव के पास के थाने में खबर की गई। पर गांव की पुलिस वो भी बिहार की । क्या पता लगाती..? आई लिख पढ़ के चली गई। पूरा गांव साथ साथ तलाशने में लगा था। आस पास की रिश्तेदारी में भी खोजने भेज दिया गया की हो सकता है कोई ले गया हो। इसी चक्कर में सब पूरी रात जागे थे। सुबह उठ जगदेव जी बाहर दातुन कर रहे थे और लीला उदास सी वही बैठी थी। तभी बिरजू को चिल्लाते हुए अपने घर की ओर आते देख लीला और जगदेव घबरा गए। और जो वो बोल रहा था उसे सुन कर तो दोनो ही अचेत हो गए।

 

सुहास सिंह अपनी दवा की दुकान पर बैठा आस पास के हल्के फुल्के मरीजों को देख रहा था। ये उसकी बहुत पुरानी दवा की दुकान है पहले उसके पिता जगदेव सिंह जी इस पर बैठते थे। जगदेव सिंह के परिवार में वो खुद उनकी पत्नी लीला देवी और दो बेटे सुहास और प्रभास और एक बूढ़ी मां भी थी। घर में उनके अलावा एक नौकर मिठाई भी था। वो आस पास के जंगलों से जड़ी बूटी लाकर उसका लेप और पाउडर बना कर उसी से मरीजों का इलाज करते थे। मतलब वो एक वैद्य थे। पहले का समय था तो उनका काम तो ऐसे ही चल गया। जमाना बदला और अंग्रेजी दवा का जमाना आ गया। अब लोग जड़ी बूटी से इलाज कराना पसंद नहीं करते थे। अपने इलाज का तरीका पुराना होता देख सुहास के पिता ने बेटे को अपनी पुरानी पद्धति से इलाज का तरीका सीखने की बजाय उसे एक ऐसा कोर्स करवा दिया जिससे वो थोड़ी बहुत अंग्रेजी दवा की जानकारी पा जाए। और उनके जो पुराने मरीज है वो किसी दूसरे से दवा लेने की बजाय उनके बेटे सुहास से ही दवा ले। सुहास के कोर्स समाप्त होने के बाद दोनो बाप बेटे साथ ही दुकान पर बैठते। कुछ को वो देखता, कुछ को उसके पिता समझा बुझा कर अपना चूरन चटनी दे देते। अच्छी खासी संख्या थी उनके मरीजों की। इसी से उनका घर बिना किसी किफायत के चलता था। घर में सब सुख सुविधा के साधन इक्कठे होते गए। सुहास के हाथों में यश था। वो जिसका भी इलाज करता वो जल्दी से ठीक हो जाता। गांव के भोले भाले लोग दिखाने की फीस के रूप में रूपए तो देते ही थे। साथ ही साथ साथ सुहास तो उनके बेटे जैसा था तो उसके लिए उपहार स्वरूप अपने खेत में उपजने वाली सारी चीजें ले आते। इनमे मौसमी फल सब्जी के साथ ही अनाज भी शामिल होता।

सुहास भी सीधा साधा युवक था। जो भी आदेश माता पिता देते वो एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह पालन करता। सुहास का एक छोटा भाई भी था जिसका नाम प्रभास था। सुहास जितना सीधा साधा था, प्रभास उतना ही चंचल। उसकी शरारतों को माता पिता दोनों ही बच्चा समझ कर हल्के में लेते। कभी उसके पिता डांटते भी हो उन्हे बीच में ही मां के द्वारा रोक दिया जाता। वो बोलती, "बच्चा है ! वो शरारतें नही करेगा तो क्या हम और तुम करेंगे….?" फिर बात यहीं समाप्त हो जाती।

प्रभास जितना चंचल था उतना ही तेज दिमाग वाला भी था। वो हमेशा अपनी कक्षा में अव्वल आता था। वो भाई सुहास से तीन वर्ष छोटा था। सुहास प्रभास की रुचि देख उसे उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित करता है। भाई के प्रोत्साहन से प्रभास साइंस से ग्रेजुएशन अपनी पूरी करता है। उसकी रुचि केमिस्ट्री में ज्यादा थी। फिर वो केमिस्ट्री से मास्टर डिग्री की पढ़ाई करता है।

सुहास और उसका परिवार संपन्न से और भी संपन्न होता गया। अब सुहास के पिता को उसके विवाह की चिंता हुई। रिश्ते कई आ रहे थे पर कोई भी रिश्ता सुहास के माता पिता के मानक पर खरा नहीं उतर रहा था। उन्हे दरकार थी एक बेहद खूबसूरत बहू की जो सुंदरता में किसी हिरोइन को टक्कर देती हो। साथ ही उसका तालुक किसी संपन्न परिवार से हो जो दहेज के रूप में उन्हें इतना कुछ दे की उनका घर भर जाए। हमारे समाज के अधिकतर पुत्र के पिता ऐसा ही सोचते है, ऐसा नही है की सभी ऐसा ही सोचते हो। पर अधिकांश की सोच ऐसी ही होती है। उन्हे एक सुंदर बहू तो चाहिए ही होती है, साथ में ढेर सारा दहेज भी चाहिए होता है। लड़की सुंदर तो हो पर उसमे एक क्वालिटी और होनी चाहिए जबान तो हो उसकी पर वो उसका इस्तेमाल न करे। ऐसी ही बहु की दरकार जगदेव सिंह जी और उनकी पत्नी लीला को थी।

शादी सुहास की होनी थी, पर उसकी अपनी इच्छा उससे किसी ने पूछी ही नहीं। माता पिता जब उसकी शादी की चर्चा करते तो बार बार कुछ कहने की कोशिश करता पर कुछ बोल नहीं पाता। मुंह तो खुलता पर बोली नहीं निकलती। वो खुद को बाद में कोसता भी की आखिर वो सब कुछ सच सच पिता जी को नही तो कम से कम मां को तो बता ही दे। पर मां के सामने भी अकेले में कहने की कोशिश कर देख चुका था। जैसे ही कहना शुरू करता, मां शादी शब्द सुनते ही इतना एक्साइटेड हो जाती की उससे पहले ही बोलने लगती। "हां !! बेटा मैं तेरी शादी में सारे रिश्तेदारों को बुलाऊंगी, मैं ऐसा करूंगी…! मैं वैसा करूंगी…!" उनके इतने अरमान थे की उसे बताते बताते वो खुशी से हुलस हुलस कर बोलने लगती की बाते समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती। वो चुप चाप वहां से चला आता। वो खुद को ही अपराधी महसूस करने लगता। कैसे वो अपनी बात कह कर मां के सारे अरमान को चकना चूर कर दे..? कैसे वो उनके सारे सपने तोड़ दे। इससे तो अच्छा है की वो अपने ही अरमानों का गला घोट दे।

भाई सुहास की सारी बातें प्रभास को पता थी। पहले तो प्रभास अनजान ही बना रहा। पर जब भाई को देखा की वो दिन पर दिन खामोश से और भी खामोश होता जा रहा है तो उससे नहीं रहा गया। वो एक दिन मौका देख भाई से कह बैठा, "भाई मुझे सब पता है तुम क्यों खामोश होते जा रहे हो...? तुम अपनी शादी की चर्चा होते ही उखड़ से जाते हो और वहां से हट जाते हो।"

भाई प्रभास के मुंह से ये सब सुन सुहास चौक गया। वो तो समझ रहा था की मेरे मन की बात किसी को दूर दूर तक पता नही होगी। पर ये क्या? प्रभास कैसे जान गया..? वो हतप्रभ रह जाता है। कुछ पल बाद खुद को संभाल लेता है और प्रभास से कहता है,

"नहीं छोटे ऐसी कोई बात नहीं है । लगता है तुझे कोई गलत फहमी हो गई है। मैं भला क्यों अपनी शादी की बात से उखडूंगा…? वो तो बस थोड़ी टेंशन अपने मेडिकल स्टोर को लेकर है। और तू भी पता नहीं कहां से क्या क्या सुन कर चला आता है मुझ पर शक करने ! तू बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे। इन फालतू की बातों में अपना दिमाग मत लगा।" कह कर सुहास ने भाई प्रभास के कंधे को थपथपाया और खोखली हंसी हंसता हुआ वहां से चला गया।

सुहास बखूबी समझ रहा था की प्रभास क्या कहना चाह रहा है उससे। पर क्या फायदा उस बात को करने का जिससे सभी का दिल दुखे। क्या फायदा उस रास्ते पर चलने का जिसकी कोई मंजिल ही नही हो? क्या फायदा उस हसरत का जिससे सभी अपने को दुखी होना पड़े? क्या फायदा उस चाहत का जो समाज में उसके माता पिता को रुसवा कर दे। इससे तो अच्छा है की खुद ही पीड़ा सह ले। वक्त के साथ वो भी सब कुछ भूलने की कोशिश करेगा। अपने मन में ये संकल्प ले कर सुहास अपने मेडिकल स्टोर के लिए निकल पड़ा की जो भी फैसला माता पिता उसके भविष्य को लेकर उसके विवाह को ले कर करेंगे, वो उसे स्वीकार करेगा। अपनी हसरतों का गला घोट उसने नई राह पर चलने का निर्णय ले लिया। सब का दिल दुखा कर जो खुशी मिले वो खुशी नहीं रह जाती। ऐसा उसे महसूस हो रहा था।

प्रभास की छुट्टियां समाप्त हो रही थी। उसे जल्दी से जल्दी अपने कॉलेज पहुंचना था। क्योंकि फर्स्ट ईयर एग्जाम के फॉर्म भरे जाने थे। मां चाहती थी की कुछ दिन वो और रूक जाता। पर सुहास ने मां को समझाया की,"मां अगर ये रुक गया तो फॉर्म भरने की तारीख बीत जायेगी। फिर इसका एक साल बरबाद हो जायेगा।"

मां सुहास के समझाने पर मान गई और प्रभास को कॉलेज जाने की इजाजत दे दी। तरह तरह का सूखा नाश्ता बना कर प्रभास को दे दिए। प्रभास को मां के हाथ का ठेकुआ, चिवड़ा मुंगफली, बेसन के लड्डू, मठरी बहुत पसंद थे। मां पैतालीस पार थी। ज्यादा काम काज नहीं कर पाती थी। पर बेटे की पसंद तो हर हाल में पूरा करना ही था। लिहाजा नौकर मिठाई की मदद से सब कुछ तैयार कर के प्रभास को बांध दिया। तैयारी पूरी हो गई। प्रभास ने अपने कपड़े प्रेस करवाने को मिठाई को दिए थे। वो आवाज लगाता है, "मिठाई ओ मिठाई… मेरे कपड़े ले आया प्रेस करवा के..?" मिठाई कपड़े ले कर घर में घुसते ही रहता है।

प्रभास की आवाज सुन कर कहता है, "जी … भईया जी ..! ले आया हूं" ये कहते हुए कपड़े ले कर प्रभास के कमरे में प्रवेश करता है।

प्रभास उसके हाथ से कपड़े ले कर अपने बैग में रखते हुए उसकी ओर देखता है और मुस्कुराते हुए पूछता है, "क्यों मिठाई..? बाऊजी ने कुछ तनख्वाह वनख्वाह दी की नहीं..? या बस ऐसे ही काम पर काम कराए जा रहे है।"

मिठाई वही जमीन पर प्रभास के बिस्तर पर हाथ का टेक लगा कर बैठ जाता है और झल्लाए स्वर में कहता है, "कहां भईया दिए..? दो महीना हो गया कहां कुछ दिए है? जब मांगते है तो कहते है की दे ...देगें... न। कही भाग जायेंगे क्या तुम्हारा पैसा ले कर…? अब बताइए भईया घर में माई बाबूजी है, बहिन है, भाई है, सब का खर्चा कैसे चलेगा..?" कह कर सोचने के अंदाज में सर पे हाथ रख लेता है।

प्रभास हंसते हुए कहता है, "अब ना तो बाउजी बदलेंगे ना ही उनकी आदत। तू ही बदल जा और कही काम देख ले।" जगदेव जी बेहद कंजूस थे। वो कभी भी समय पर मिठाई को वेतन नहीं देते थे। वो बिचारा गरीब काम भी करता, और वेतन मांगने पर डांट भी खाता।

प्रभास की बात पर मिठाई बोला, "अब भईया कहां जायेंगे काम खोजने..? ये काम भी तो बड़ा मुश्किल से मिला था। अब बचपन से ही तो यहीं काम किए है। अब इस छोटे से कस्बे में कौन नौकर रखता है..?"

प्रभास बोला, "तुम चिंता मत करो मिठाई जब मैं कमाने लगूंगा तो तुझे कोई कमी नहीं होने दूंगा। अच्छा जा.. अब अच्छी सी एक कड़क चाय बना कर ले आ।"

"जी भईया ..!" कह कर मिठाई प्रभास की बातों से खुश हो कर चला गया।

जगदेव जी का एक परिचित मित्र मिठाई को ले कर उनके यहां आया था। पत्नी लीला गठिया रोग से पीड़ित थी। काम काज ज्यादा कर नहीं पाती थी, इस लिए उसे अपने घरेलू काम के लिए रख लिया था। पर जब बारी पैसे देने की आती तो उन्हें बहुत कष्ट होता। इस महीने का उस महीने तो, दूसरे महीने का चौथे महीने देते । वो भी बार बार मांगने के बाद। पर वो भी खुशी से नही देते। पर इससे मिठाई की निष्ठा पर कोई असर नही पड़ता था। वो जगदेव जी को पिता तुल्य समझता था। उनकी नोंक झोंक एक बाप बेटे जैसी ही होती। जिसका आनंद आस पास मौजूद लोग भी लेते थे। आस पास वाले उसे भड़काते भी की, "मिठाई तू इन लोगों को छोड़ कर चला क्यों नहीं जाता..! शहर में तुझे काम के बदले अच्छा पैसा मिलेगा।"

पर वो बिगड़ कर मुंह बनाता और कहता, "अच्छा सीख दे रहे हो तुम सब…! क्या तुम्हारे मां, बाप डांटते है, जो तुम मांगो वो नही दे तो तुम सब उन्हें छोड़ कर चले जाते हो..? ये मेरी और बाऊ जी के बीच की बात है। तुम सब बीच में न बोलो।" कह कर सब का मुंह बंद कर देता।

रात गहराने लगती है तो सुहास अपनी मेडिकल शॉप बंद करने लगता है। अब कोई मरीज था भी नहीं। घर और शॉप ज्यादा दूर नहीं था। शॉप मेन रोड पर स्थित थी तो घर उससे लगी पतली सड़क पर लगभग सौ मीटर जा कर था। सड़क के दोनों ओर बबूल और सरपत की झाड़ियां थी। शॉप बंद कर सुहास घर चल पड़ा। रात के करीब नौ बजे होंगे। अंधेरी रात थी, झाड़ियों में बैठे झिंगुर अपने पूरे सुर के साथ राग छेड़े हुए थे। उन आवाजों से अंधेरी रात में थोड़ा सा अजीब सा महसूस हो रहा था सुहास को। अभी वो घर और शॉप के बीच में ही पहुंचा था की अचानक ही उन झाड़ियों से एक साया निकाला और सुहास के करीब आ गया। सुहास ने अंधेरे में देखा पर स्पष्ट कुछ भी नहीं दिखा।

अगले भाग में पढ़े, कौन था वो साया जो सुहास के सामने अचानक आ गया।? कौन है वो जिसे भूल कर सुहास अपनी जिंदगी में आगे बढ़ने का फैसला करता है? क्या प्रभास सही समय से कॉलेज पहुंच पता है? क्या वो समय से अपना फॉर्म भर पाता है..?

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