Jaadui Tohfa - 3 in Hindi Short Stories by जॉन हेम्ब्रम books and stories PDF | जादुई तोहफ़ा - 3

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जादुई तोहफ़ा - 3

अगले दिन वह रोज के समय से पहले उठ गया और उससे मिलने की योजना बनाने लगा। बिना किसी को बताए वो सुबह सुबह ही नदी किनारे उससे मिलने चला गया उसे लगा की वो वहां जरूर होगा लेकिन आज भी वो लड़का वहां नहीं था। ऐसे ही कुछ दिन वो रोज सुबह जाता रहा लेकिन उसे वो वहां नहीं मिला। एक दिन जब वो ऐसे ही नदी किनारे टहल रहा था तो उसने एक और बार कोशिश करने की सोची और ये सोचकर पेड़ पर चढ़ गया। उस दिन वो लड़का बगीचे में ही था और उसे वो दिख गया। जैसे ही उसने उसे देखा तुरंत उसे आवाज लगाई ज्यादा दूर न होने को वजह से उसने उसकी आवाज़ सुन ली और उसके पास आने लगा।
प्रतीक पेड़ की एक टहनी पर बैठ गया जो उस बगीचे की ओर झुकी हुई थी।

"मेने तुम्हे पहले कभी नहीं देखा,तुम कब ये यहां पर हो?" प्रतीक ने उससे बातें शुरू करते हुए सवाल पूछा।

"दरअसल! मैं ज्यादा बाहर नहीं जाता और यही रहता हूं।"

"तुम्हारा नाम क्या है?"

"अनुज!"

"मैं प्रतीक।" उसने हाथ बढ़ाते हुए कहा।
लेकिन वो उसे छू भी नहीं पाया टहनी काफी ऊपर थी और वो बहुत निचे, ये देखकर वो नीचे उतर गया और उसके सामने जाकर खड़ा हो गया।

"तो तुम किसके साथ रहते हो?"

"मेरी मां के साथ।"

"और तुम्हारे पिता?"

"वो… नहीं है"
कुछ देर के लिए दोनो चुप हो गए।


प्रतीक ने चुप्पी को तोड़ते हुए कहा – "वैसे मुझे पूछना तो नहीं चाहिए,पर आखिर हुआ क्या था?"
अनुज थोड़ा घबराया और फिर धीमे आवाज में उससे बोलने लगा–

"ये बहुत पुरानी बात है जब मैं छोटा था तो इसी आम के पेड़ पर आम तोड़ने के लिए चढ़ा था लेकिन एक चूक की वजह से मैं गिर गया और फिर उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं मैं अस्पताल में था और मेरी मां कहती है की मैं अब और कभी नहीं चल पाऊंगा।" और ये कहते कहते उसकी आंखें भर आई प्रतीक उसकी बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था।

"ऐसा मत सोचो,विश्वाश रखो तुम एक दिन जरूर चल पाओगे।"

"काश की ऐसा हो पाता।"

"ऐसा जरूर होगा।" उसने उसे विश्वास दिलाया।
इतने में उसकी मां की आवाज आई।

"अनुज कहां हो?"
उसकी मां की आवाज सुन प्रतीक तुरंत दीवार से कूदकर बाहर निकल गया।

"यहां क्या कर रहे हो?"

"कुछ नही बस पेड़ो को देख रह था।"

" चलो दोपहर के खाने का समय हो गया।"

प्रतीक भी घर लौट गया लौटते वक्त उसे थोड़ा हल्का महसूस हो रहा था उसे ऐसा लग रहा था जैसे कोई बड़ा बोझ हल्का हो गया हो।
घर पहुंचकर उसकी नज़र अपने तोते पर पड़ी।
इतने में ही उसके पिता आ गए।

"ये लो,तुम्हारे तोते के लिए।"

"पर इसकी क्या जरूरत है?" उसने झिझकते हुए कहा।

"जरूरत है,तुम्हे नहीं पता ये कहां से आया है और कहां जाएगा फिर बाद में जब ये उड़ जाएगा तो पछताते रहना।" और इतना कहकर उसके पिता ने पिंजरा उसके सामने पटक दिया और चले गए। ना चाहते हुए भी उसने अपने तोते को पिंजरे में बंद करना पड़ा । तोते को देख उसे अनुज की याद आ गई।

"वो भी शायद ऐसा ही महसूस करता होगा,एक कैदी की तरह जो स्वतंत्र होना चाहता है।" उसने अपने आप से कहा।


– क्रमशः