वातावरण निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर कलाजत्थे बना दिए गए थे। जिन्हें नाटक और गीत सिखाने के लिए मुख्यालय पर एक प्रशिक्षण शिविर लगाया गया। प्रशिक्षु उसे दीदी कहते और आकाश को सर। वे लोग रिहर्सल में पहुँच जाते तो जोश में फैज और सफदर के गीत गाने लगते। ऐसे मौकों पर दोनों भावुक हो उठते, क्योंकि दिल से जुड़े थे।
जब प्रत्येक टीम के पास प्रशिक्षित कलाकार हो गए तो उन्हें उनका स्थानीय कार्यक्षेत्र दे दिया गया। यानी हरेक टीम को अपने सर्किल के आठ-दस गाँवों में नुक्कड़ नाटक व गीतों का प्रदर्शन करना था। कलाजत्थों, कार्यकर्ताओं व ग्रामसमाज के उत्साहवर्धन के लिए उन्हें प्रतिदिन कम से कम पाँच-छह गाँवों का दौरा करना पड़ता।
एक बार जीप खराब हो गई और लेने नहीं आई तो दुपहर तक प्रतीक्षा करने के बाद वह बस से और फिर पैदल चल कर खुद स्पॉट पर पहुँच गई। टीम दुपहर के प्रदर्शन के बाद तालाब किनारे वाले मंदिर पर लौट आई थी। उस दिन उन्हें खाना नहीं मिला था। गाँव में पार्टीबंदी थी। दल प्रमुख ने स्थानीय राजनीति में उलझने के बजाय शाम का प्रदर्शन निरस्त कर खाना खुद पकाने की योजना बना रखी थी। सुबह उसने टीम को गाँव की दूकानों से छुटफट नाश्ता करवा दिया था। अब आटा, तेल, मिर्च-मसाला, सब्जी, बर्तन, ईंधन आदि का जुगाड़ किया जा रहा था। पीपल के नीचे चंद ईंटों का चूल्हा बना लिया गया था। उसे हँसी छूटी, बोली, 'खाना मैं पका लूँगी। तुम लोग नाटक नहीं रोको।'
'अरे, दीदी! आप क्यों चूल्हे में सिर देंगी? छोड़ो, एक प्रदर्शन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा! लड़के खिसियाए हुए थे।'
'मैं क्या पहली बार चूल्हा फूँकूँगी? कई बार गैस और केरोसिन की किल्लत हो जाती है तब अँगीठी और लकड़ी का चूल्हा तक चेताना पड़ता है। जाओ तुम लोग नाटक करो, हार नहीं मानते।' उसने समझाया।
थोड़ी देर में वे राजी हो गए। शाम का नाटक वहाँ के शाला भवन में रखा गया था। जहाँ रामलीला होती, सारा गाँव जुड़ता। वह अपनी सफलता पर आत्मविभोर थी। सहायता के लिए एक लड़का उसके पास छोड़कर वे सब चले गए। शाम घिर आई थी। बिजली सदा की तरह गुल। मंदिर का दीपक उठाकर उसने चूल्हे के पास रख लिया। यह भी एक विचित्र अनुभव... इतने लोगों का खाना वह पहली बार बना रही थी। जैसे किसी शादी-समारोह में हलवाई बनी लगी हो! खूब बड़े भगौने में आलू और बैंगन मिलकर चुर रहे थे। नीचें ईंटों के चूल्हे में सूखी लकड़ी और उपले भकभक जलते हुए। पसीने से लथपथ वह बड़े से परात में आटा गूँद रही थी। दुपट्टा गले में लपेट रखा था।
तभी अचानक आकाश आ गए। जैसी कि उम्मीद थी। वे दिन में नहीं आ पाए थे। तय था कि प्रत्येक टीम के पास दिन में एक बार पहुँचेंगे! इसी संबल के कारण अभियान शिखर पर था। उसे इस तरह सन्नद्ध पाकर इतने भावुक हो गए कि झुककर माथा चूम लिया! यह प्यार नहीं, शाबाशी थी उसके प्रति। उसके सहयोग और प्रतिबद्धता के प्रति समिति का हार्दिक आभार। उसकी जगह कोई लड़का होता तो वे उसकी ठोड़ी चूम लेते।
'नाटक चालू हो गया?' उसने मुस्कराते हुए पूछा।
'अभी नहीं। लड़के गैसबत्ती और माइक वगैरह चालू कर रहे हैं।'
'बिजली क्यों नहीं है?' वह चिढ़ गई।
'यहाँ भी ट्रांसफार्मर फुँका पड़ा है...'
'कब से...?'
'पता नहीं... रिलैक्स,' वे मुस्कराए, 'हम इसी जागृति के लिए कटिबद्ध हैं! मोक्ष और जातीय पहचान दिलाने वालों और अपन में यही फर्क है। वक्त लगेगा, पर एक बार फिर नहरों में पानी, तारों में बिजली, पाँव तले सडक, हाथ को काम, शाला में टीचर और पंचायत में धन और न्याय होगा... हमें इसी तरह निरंतर लगे रहना है, बस!'
भगौने से सब्जी पकने की महक आने लगी थी। उसने ढक्कन खोला तो खदबदाहट धीमी पड़ गई। चूल्हे की लौ में, आकाश का दाढ़ी मढ़ा चेहरा ऐसा दमक रहा था, जैसे भोर के कुहासे में उगता सूरज। उसने आँखें झुका लीं, उसे यकीन है वे यह चमत्कार एक दिन करके दिखा देंगे!
चमचे द्वारा सब्जी इधर उधर पलटने के बाद उसने कहा, 'लड़कों को बुलवा कर खाना खिलवा देते, नाटक में समय लगेगा। सुबह से भूखे हैं-बेचारे!'
घूम कर उन्होंने उस लड़के की ओर देखा।
'बुला लाएँ सर!' आशय भाँप वह तपाक से बोला।
-हाँ।' उन्होंने सिर हिला दिया और वह दौड़ गया।
सोहा ने सब्जी का भगौना चूल्हे से उतार कर उस पर तवा चढ़ा दिया और टिक्कर ठोकने लगी। सेंकने के लिए वे उकड़ूँ बैठ गए। दोनों ऐसे चौकस तालमेल के साथ काम कर रहे थे, जैसे अपने बच्चों के लिए खाना पका रहे हों! यह बात सोचकर ही उसके मन में गुदगुदी होने लगी। चेहरे पर स्थायी मुस्कान विराजमान हो गई थी, जिसे निरखते आकाश अभिभूत थे। उस सघन मौन में वे एक-दूसरे से मन ही मन क्या कुछ कह-सुन रहे थे, खुद को ही नहीं पता! उस बेखुदी से गुजरते हुए दिल को जिस सच्चे आनंद की अनुभूति हो रही थी, उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता, शायद!
थोड़ी देर में लड़का वापस आ गया, 'स-र!' उसने दूर से आवाज दी।
'क्या हुआ, आए नहीं?' आकाश बौखला गए।
'सर! पब्लिक आ गई है... वे तो अब नाटक करके आएँगे।' उसने करीब आकर कहा।
'ठीक तो है... इसमें क्या आफत?' सोहा आकाश को देखते बोली।
'सर! हम भी चले जायँ!' लड़के ने निहोरा किया।
'हाँ-हाँ, क्यों नहीं? सर क्या खा जाएँगे!' उसने लताड़ा।
आकाश मुस्कराकर रह गए। और वह उल्टे पाँव नाटक स्थल की ओर दौड़ गया।
'कलाकार को भूख-प्यास नहीं सुहाती।' गोया, उसने माफी माँगी।
'अब यहाँ रसोई रखाओ!' वे हँसे।
'इसमें कौन-सी आफत है!' उसने चट कहा और पट से मठिया के बगल के दालान में सामान उठा उठा कर रखने लगी। वे टॉर्च दिखाकर हैल्प करने लगे...।
दालान और उसके अंदर का कमरा शायद, साधुओं की शरण स्थली, जो कभी कभार भूले भटके आ जाते हों! हनुमान जयंती और धार्मिक उत्सवों पर भजन-कीर्तन होता हो! तभी तो इतने झड़े पुँछे, पुते हुए! ताल किनारे होने से जेठमास में भी विशेष गर्मी नहीं। कमरे में चौतरफा खिड़कियाँ, दालान में तीन द्वार! हवा बे-रोकटोक बहती हुई...।
टंकी से हाथ-मुँह धोकर वह वहीं आ बैठी जहाँ आकाश पहले से बैठे थे। पेड़ों के बीच से झाँकता तारों भरा निर्मल आकाश भला लग रहा था...। पीपल की चोटी पर हनुमान जी का लाल ध्वज लहराता हुआ, जो अँधेरे के कारण श्याम प्रतीत हो रहा था।
आदतन उन्होंने चुटकी ली, 'इनकी बड़ी मान्यता है...'
'होनी चाहिए,' वह स्वभावतः धार्मिक, तुरंत एक वैज्ञानिक कयास जोड़ती हुई बोली, 'हमारे पूर्वज हैं! आखिर हम मनुष्य वानर जाति से ही तो...'
'ये केशरीनंदन, पवन देव के भी नहीं, शिव जी के औरस पुत्र हैं!' आकाश मुस्कराए।
'क्या-हुआ! उस युग का समाज ही ऐसा था,' उसने हमेशा की तरह उन्हें हराने की सोची, 'दशरथ का पुत्रेष्ठयज्ञ और कौरव-पांडवों की वंश परंपरा...'
'वही तो...' वे खुलकर हँसने लगे। और अर्थ समझ कर उसने अपनी जीभ काट ली! फिर जैसे मुँह छुपाने चटाई उठाकर कमरे के अंदर चली आई जहाँ तारे भी नहीं झाँक पा रहे थे।
और एक ऐसे ही प्रदर्शन के दौरान जिसे देखते-सुनते वे दोनों ही भाव विभोर हो गए थे। सोहा आकाश के कंधे से टिक गई थी और वे रोमांचित से उसी को देख रहे थे, किसी फोटोग्राफर ने वह पॉज ले लिया! और वह चित्र उसे एक खबर प्रतीत हुआ, जो उसने एक स्थानीय अखबार में छपा भी दिया... जबकि उस क्षण वे लोग अपने आप से बेखबर, लक्ष्य को लेकर अति संवेदित थे!
बाद में उस अखबार की कतरन एक दिन आकाश ने सोहा को दिखलाई तो वह तपाक से कह बैठी, 'यह तो मृत है, जिसे देखना हो, हमें जीवंत देखे!'
वे हतप्रभ रह गए।
पापा ने भी वह चित्र कहीं देख लिया होगा! वे कॉलोनी को जोड़ने वाली पुलिया पर बैठे मिले। माँ दरवाजे पर खड़ी। भीतर घुसते ही दोनों की ओर से भयानक शब्द-प्रताड़ना शुरू हो गई। वही एक धौंस, 'कल से निकली तो पैर काट लेंगे! बाँध कर डाल देंगे! नहीं तो काला मुँह कर देंगे कहीं! बिरादरी में कमी नहीं। ज्यादा ज्वानी फटी तो हाँक देंगे जल्दी सल्दी किसी के संग जो भले तुझसे अयोग्य, निठल्ला, काना-कुबड़ा हो!'
और उसी क्षण जरा-सी जुबानदराजी हो गई तो पापा यानी पुलिस ने क्रोध में रंडी तक कह दिया!
कल रात भी वह देर से लौटी थी। माँ ने दरवाजा जरूर खोला, पर कोई बात नहीं की। सुबह आँख खुली तो छोटी की हालत बद्तर! कुछ दिनों से उसके पेट में अपेंडिसाइटिस का जानलेवा दर्द होने लगा था। आखिर उसने माँ के फूले हुए चेहरे को नजरअंदाज कर धीरे से कहा, 'रिक्शा ले आती हूँ।'
सुनकर माँ ने कौड़ी-सी आँखें निकालीं, बोली कुछ नहीं। सोहा सिर खुजला कर रह गई।
छोटी की तड़प और तेज हो गई तो, उसने तैयार होकर उसे अकेले दम ले जाने का फैसला कर लिया। तब माँ ने अचानक गरज कर कहा, 'केस बड़े अस्पताल के लिए रैफर हो गया है!'
वह निशस्त्र हो गई। आँखों में अचानक बेबसी के आँसू उमड़ आए।
'पापा?' उसने मुश्किल से पूछा।
'गए, उनके तो प्राण हमेशा खिंचते ही रहते हैं,' वह बड़बड़ाने लगी, 'हमारी तो सात पुश्तों में कोई इस नौकरी में गया नहीं। जब देखो ड्यूटी! होली-दीवाली, ईद-ताजिया पर भी चैन नहीं... कहीं मंत्री संत्री आ रहे हैं, कहीं डकैत खून पी रहे हैं!'
पहले वह ऐसी नहीं थी। न पापा इतने गुस्सैल! भाई मोटर-एक्सीडेंट में नहीं रहे, तब से घर का संतुलन बिगड़ गया। फिर दूसरी गाज गिरी पापा के सस्पेंड होकर लाइन अटैच हो जाने से...।
पुलिस की छवि जरूर खराब है। पर पुलिस की मुसीबतें भी कम नहीं हैं। एक अपराधी हिरासत में मर गया था। ऐसा कई बार हो जाता है। यह बहुत अनहोनी बात नहीं है। कई बार खुद के डिप्रेशन वश और कई बार सच उगलवाने के चक्कर में ये मौतें हो जाती हैं। राजनीति, समाज और अपराधियों के न जाने कितने दबाव झेलने पड़ते हैं पुलिसियों को। पापा पागल होने से बचे हैं, उसके लिए यही बहुत है। बेटे की मौत का गम और दो कुआँरी बेटियों के कारण असुरक्षा तथा आर्थिक दबाव झेलते वे लगातार नौकरी कर रहे हैं, यह कम चमत्कार नहीं है। कई पुलिसकर्मी अपनी सर्विस रिवॉल्वर से सहकर्मियों या घर के ही लोगों का खात्मा करते देखे गए हैं। माँ तो इसी चिंता में आधी पागल है! सोहा की समाजसेवा सुहाती नहीं किसी को।
और वह सुन्न पड़ गई। आकाश रोजाना की तरह लेने आ गए थे!
क्षेत्र में ट्रेनिंग का काम शुरू हो गया था। वे दोनों की पर्सन थे। मास्टर ट्रेनर प्रशिक्षण हेतु जो सेंटर बनाए गए थे उन पर मिलजुल कर प्रशिक्षण देना था। आकाश सुबह आठ बजे ही घर से लेने आ जाते।
'क्या हुआ?' उन्होंने गर्दन झुकाए-झुकाए पूछा।
'सर्जन ने केस रीजनल हॉस्पिटल के लिए रैफर कर दिया है...' उसने बुझे हुए स्वर में कहा।
'पापा?' उन्होंने माँ से पूछा।
माँ ने मुँह फेर लिया।
वे एक ऐसी सामाजिक परियोजना पर काम कर रहे थे, जिसे अभी कोई फंड और स्वीकृति भी नहीं मिली थी। मगर प्रतिबद्ध थे, क्योंकि परिवर्तन चाहते थे। क्षेत्र में उन्होंने सैकड़ों कार्यकर्ता जुटाए और साधन निहायत निजी। सभी कुछ खुद के हाथपाँव से। जिसके पास साइकिल-बाइक थी वह उससे, आकाश ने एक पुरानी जीप किराए पर ले रखी थी। शहर से देहात तलक सब लोग मिलजुल कर एक परिवार की तरह काम कर रहे थे। उन्होंने सभी को गहरी आत्मीयता से जोड़ रखा था। सोहा की माँ अक्सर उनका विरोध किया करती थी। परीक्षा से पहले सोहा एक युवा समूह का नेतृत्व अपने हाथ में लेकर बिलासपुर चली गई थी, उसे वह मंजूर था। उसके जम्मू-कश्मीर विजिट पर भी माँ ने कोई आपत्ति नहीं जताई! पर आकाश के संग गाँवों में फिरने, रात-बिरात लौटने से उसे चिढ़ थी...।
सोहा मन ही मन प्रार्थना कर उठी कि वे यहाँ से चुपचाप चले जायँ। मगर उन्होंने परिस्थिति भाँपकर साथ चलने का निर्णय ले लिया!
माँ यकायक ऋणी हो गई।
सोहा खुश थी। बहुत खुश।
जरूरत का छोटा मोटा सामान जीप में डाल कर, बैग में जाँच के परचे रख वह घरेलू कपड़ों में ही चलने को तैयार। उन्होंने माँ को आगे बैठाया, बहन उसकी गोद में टिका दी। ड्रायवर से बोले, 'गाड़ी सँभाल कर चलाना, धचका नहीं लगे।' दरवाजे पर ताला जड़ वह उड़ती-सी पीछे जा बैठी। जीप स्टार्ट हुई तो वे भी बगल में आ बैठे। शहर निकलते ही कंधे पर हाथ रख लिया, जैसे सांत्वना दे रहे हों!
सहयोग पर दिल भर आया था। जबकि, शुरू में उनके साथ जाना नहीं चाहती थी। जीप लेने आती और वह घर पर होते हुए मना करवा देती। क्योंकि शुरू से ही उसका उनसे कुछ ऐसा बायाँ चंद्रमा था कि एक दिशा के बावजूद वे समानांतर पटरियों पर दौड़ रहे थे...।
तकरीबन तीन साल पहले आकाश जब एक प्रशिक्षण कैंप कर रहे थे, वह अपने कोरग्रुप के साथ फाइल में छुपा कर उनका कार्टून बनाया करती थी। उनकी बकरा दाढ़ी और रूखा-सा चेहरा माइक पर देखते ही बोर होने लगती। और उसके बाद उसने एक कैंप किया और उसमें आकाश और उनके साथियों ने व्यवधन डाला... न सिर्फ प्रयोग बल्कि विचार को ही नकार दिया! तब तो उनसे पक्की दुश्मनी ही ठन गई। जल्द ही बदला लेने का सुयोग भी मिल गया उसे! एक संभागीय उत्सव में प्रदर्शन के लिए आकाश को उसकी टीम का सहारा लेना पड़ा था। और वह कान दबाए चुपचाप चली तो गई उनके साथ पर एक छोटे से बहाने को लेकर ऐंठ गई और बगैर प्रदर्शन टीम वापस लिए अपने शहर चली आई! वे वहीं अकेले और असहाय अपना सिर धुनते रह गए थे।
फिर अली सर ने कहा, 'सोहा, सुना है तुम आकाश को सहयोग नहीं दे रही? यह कोई अच्छी बात नहीं है!'
वे उसके जम्मू-कश्मीर विजिट के गाइड, नजर झुक गई। उनके निर्देशन में रजौरी तक कैंप किया था। वह उनका सम्मान करती थी। मगर उन्होंने दो-चार दिन बाद फिर जोर डाला तो उसने उन्हें भी टका-सा जवाब दे डाला, 'माफ कीजिए, सर! मैं खुद से अयोग्य व्यक्ति के नीचे काम नहीं कर सकती!'
बस, यहीं मात खा गई, वे बोले, 'तुम जाओ तो सही, धारणा बदल जाएगी,' उन्होंने विश्वास दिलाया, 'नीचे-ऊपर की तो कोई बात ही नहीं... यह तो एनजीओ है- स्वयंसेवी संगठन! सभी समान हैं। कोई लालफीताशाही नहीं।'
सोहा अखबारों में उनकी प्रगति-रिपोर्ट पढ़ती...और सहमत होती जाती। और आखिर, उस संस्था में तो थी ही, समिति ने उसे उनके यहाँ डैप्यूट भी कर रखा था! परीक्षा के बाद खाली भी हो गई थी। सिलाई-कढ़ाई सीखना नहीं थी, ना-ब्यूटीशियन कोर्स और भवन सज्जा! फिर करती क्या? उन्हीं के साथ हो ली।
जीप इंडस्ट्रियल ऐरिया के मध्य से गुजर रही थी। हॉस्पिटल अब ज्यादा दूर न था। लेकिन छोटी दर्द के कारण ऐंठ रही थी। माँ घबराने लगी। आकाश ने ड्रायवर से कहा, 'गाड़ी और खींचो जरा!' सोहा खामोश नजरों से उन्हें ताकने लगी, क्योंकि चेसिस बज रही थी। गाड़ी गर्म होकर कभी भी नठ सकती थी।
-कुछ नहीं होगा!' उन्होंने चेहरे की भंगिमा से आश्वस्त किया तो, पलकें झुका लीं उसने।
वापसी में अक्सर लेट हो जाते। तब भी गाड़ी इसी कदर भगाई जाती। गर्म होकर कभी कभी ठप पड़ जाती। सारी जल्दी धरी रह जाती! उसे लगातार वही डर सता रहा था। मगर इस बार जीप ने धोखा नहीं दिया। बहन को कैज्युअलिटी में एडमिट करा कर सारे टेस्ट जल्दी जल्दी करा लिए। दिन भर इतनी भागदौड़ रही कि ठीक से पानी पीने की भी फुरसत नहीं मिल पाई। रात आठ-नौ बजे जूनियर डॉक्टर्स की टीम पुनर्परीक्षण कर ले गई और अगले दिन ऑपरेशन सुनिश्चित हो गया तो थोड़ी राहत मिली।
वे बोले, 'चलो, जरा घूमकर आते हैं।'
उसने माँ से पूछा, 'कोई जरूरत की चीज तो नहीं लाना?'
उसने 'ना' में गर्दन हिला दी। माथे पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं। किंतु उसकी परेशानी को नजरअंदाज कर वह आकाश के साथ चली गई।
चौक पर पहुँचकर उन्होंने पावभाजी और डिब्बाबंद कुल्फी खाई। असर पेट से दिमाग तक पहुँचा तो रौशनी में नहाई इमारतें दुल्हन-सी जगमगा उठीं। चहलकदमी करते हुए वे फव्वारे के नजदीक तक आ गए। बैंचों पर बैठे जोड़े आपस में लिपटे हुए मिले। माहौल का असर ही था कि आकाश से अनायास सटने लगी और वे आँखों में आँखें डाल विनोदपूर्वक कहने लगे, 'योगी किस कदर ध्यान-मग्न बैठे हैं!'
लाज से गड़ गई कि - आप बहुत खराब हैं!'
उसे वार्ड में छोडकर वे अपने मित्र के यहाँ रात गुजारने चले गए। वह तब भी उन्हें आसपास महसूस कर रही थी। मानों करीब रहते रहते कोई भावनात्मक संक्रमण हो गया था। उनकी आवाज, ऊष्मा और उपस्थिति हरदम मँडराती थी सिर पर।
सुबह वे जल्दी आ गए, सो तत्परता के कारण दुपहर तक ऑपरेशन निबट गया। छोटी का स्ट्रेचर खुद ही धकेल कर ओटी तक ले गए और वापस लाए। हड़ताल के कारण उस दिन कोई वार्डबाय न मिला था। दुपहर बाद अचानक बोले, 'सोहा! अब मैं रिलैक्स होना चाहता हूँ! तुम्हें कोई जरूरत न हो तो चला जाऊँ?'
वे अपने स्थानीय मित्र के यहाँ जाने के लिए कह रहे थे, शायद! बहन को फिलहाल दवाइयों की जरूरत थी, न जूस की। नाक में नली पड़ी थी और प्याली में उसका पित्त गिर रहा था। सोहा को कपड़े धोने थे, कुछ इस्त्री करने थे। जल्दी सल्दी में गंदे संदे और मिचुड़े हुए ही रख लाई थी।
उसने माँ से पूछा, 'मम्मी, दो घंटे के लिए मैं भी चली जाऊँ सर के साथ?'
वे एकटक देखती रहीं। पति होते तो शायद, ज्यादा मजबूत होतीं। उसने कपड़े एक बैग में ठूँसे और बछड़े की तरह रस्सा तुड़ाकर भाग खड़ी हुई।
बाहर आते ही आकाश ने इशारे से स्कूटर बुलाया और वे लोग मुस्तैदी से उसमें बैठ गए। काम की फिक्र में ड्रायवर को सुबह ही गाड़ी समेत वापस भेज दिया था। समिति के दूसरे लोगों को लेकर वह फील्ड में निकल गया होगा!
कैंपस निकलते-निकलते वे एक प्रस्ताव की भाँति बोले, 'अपन चल तो रहे हैं,' थोड़े हँसे, 'क्या-पता, बिजली पानी की किल्लत हो वहाँ!' फिर ऊँचे स्वर में ऑटोचालक से कहा, 'यहाँ आसपास कोई लॉज है क्या?'
उसने गर्दन मोड़ी, आँखों से बोला - है!'
'चलो, किसी लॉज में ही चलो...।' आकाश ने सोहा को देखते हुए कहा। पर उसके तईं जैसे, कुछ घटा ही नहीं! घर हो या लॉज, उसे तो एक बाथरूम से मतलब था। जब तक वे रेस्ट करेंगे, कपड़े धो लूँगी! लेकिन काउंटर पर आकर लेडीज रिसेप्शनिस्ट ने पूछा, 'सर! साथ में वाइफ हैं?' तो वह सकुच गई। आकाश मुस्कराकर रह गए। रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें चाबी पकड़ा दी। सोहा फिर सामान्य हो गई - दुनिया है!' पर परिस्थिति इतनी सहज नहीं थी, यह उसे रूम में आकर पता चला! बाथरूम की ओर जाने लगी तो वे हाथ पकड़ हाँफते से बोले, 'सोहा, थोड़ा तो रेस्ट कर लो! बाद में धो लेना...।'
उसने फिर भी यही सोचा कि मेरी खटपट से नींद में खलल पड़ेगा, इसलिए ऐसा बोल रहे हैं!' सफेद चादर पर बेड का किनारा पकड़ कर लेट गई कि झपक जाएँगे तो खिसक लूँगी!'
लेकिन झपकने के बजाय वे उसकी ओर सरक कर कुछ बुदबुदाए जो वह सुन नहीं पाई तो अकस्मात बाँहों में भर ऊपर आने लगे...।
उसके तईं यह कतई अप्रत्याशित घटना थी। हलक सूख गया। न प्यार उमड़ा न उत्तेजना, बल्कि डर लगने लगा। और वह रोने लगी...। मगर उसके ताप और स्पर्श से निरंकुश हो चुके आकाश के लिए अब खुद को रोक पाना मुमकिन नहीं था। वे उसके आँसू पीते हुए बोले, 'पहली दफा थोड़ी घबराहट होती है... डरो नहीं!' जबकि इस अप्रत्याशित घटनाक्रम से भयभीत वह एकदम निस्तेज हो गई थी। अपनी बोल्डनेस उसे आज सचमुच महंगी पड़ गई थी। घबराहट में सूझ नहीं रहा था कि करे तो क्या! और वे सीने से सीना दबाए तेजी से उसे अपनी गिरफ्त में लिये जा रहे थे!
दिल डर से बैठा जा रहा था और वह खुद को छुड़ाने की हिम्मत खो बैठी थी। तभी सहसा अभियान का एक गीत उसके जेहन में गूंज उठा:
'अबला नहीं सबल्ला है तू, शक्ति का नाम ही नारी है, धर्म अधर्म का पाठ पढ़ाती, सब दुष्टों पर भारी है...
गृहणी बन घर स्वर्ग बनाती, दुर्गा बन दिल दहलाती, सत्य असत्य का बोध कराती, राह सदा दिखलाती है...
बहुत हुआ अब और नहीं, कुंठा का यह दौर नहीं...'
और मानों विस्फोट हो गया! सोहा झटके से उन्हें परे धकेल, बैग कंधे पर टाँग, गेट फटाक से खोल, तेजी से सीढियां फलांगती नीचे उतर आई। फिर तनिक-सी टूसीटर की प्रतीक्षा कर, पैदल ही सरपट अस्पताल की राह चल पड़ी। भीतर जैसे, हडकंप मचा हुआ था।
तब कुछ देर में वे भी पीछे-पीछे आ गए। और साथ चलते हुए कातर स्वर में कहने लगे, 'सोहा-आ! प्लीज, ऐसी नादानी मत दिखाओ... तुम मेच्योर हो, पढ़ी लिखी... रिलेक्स-प्लीज!'
उनका गला भर आया था। पर उसने रुख नहीं मिलाया। न एक शब्द बोली। सामने देखती हुई गर्दन उठाए सरपट दौड़ती-सी चलती रही...।
वार्ड में आकर आकाश गैलरी में ही एक चादर बिछा कर लेट गए थे। वे उसे अब दुश्मन सूझ रहे थे। वह चाह रही थी कि किसी तरह आँखों से ओझल हो जायँ। क्यों उन्होंने एक लड़की को अपनी मर्जी की चीज समझ लिया! उसका जमीर उन्हें धिक्कार रहा था।
रात ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे के लगभग आकाश की तबीयत काफी बिगड़ गई। वे भयानक डिप्रेशन के शिकार हो रहे थे। सोहा का अस्वीकार उन्हें खाए जा रहा था। अब तक उसके पापा भी आ गए थे। आकाश ने खुद को सँभालते हुए उनके सामने ही उससे पूछा, 'अब मैं लौट जाऊँ, सुबह ड्रायवर को भेज दूँगा?'
'जैसी मर्जी।' उसने उपेक्षा से कहा।
वे अपना बैग उठा कर हर्टपेशेंट की तरह घबराहट में डूबे हुए निकल गए वार्ड से। उनके जाते ही सोहा खुद को स्वस्थ महसूस करने लगी।
पापा उनके इस तरह चले जाने को लेकर काफी चिंतित हो गए थे। उनके इस भोलेपन पर सोहा ग्लानि से गड़ी जा रही थी। क्योंकि वे पापा ही थे जो उसके लेट हो जाने पर घर के बाहर या और भी आगे कॉलोनी को जोड़ने वाले रोड की पुलिया पर रात दस दस, ग्यारह ग्यारह बजे तक बैठे मिलते। चेहरा गुस्से से तमतमाया होता, पर मुँह से एक शब्द नहीं निकालते। उस पर यकीन भी था और उसे पुरुषों के समान अवसर देने का जज्बा भी। माँ अक्सर विरोध दर्ज कराती कि वह वापसी में लेट न हुआ करे, अन्यथा यह काम छोड़ दे! उसकी हालत तब काम छोड़ देने की रही नहीं थी। जिस दिन साथ नहीं जा पाती, किसी काम में मन नहीं लगता। खाना-पीना, रहना सब कुछ उन्हीं के साथ भला लगने लगा था...।
अगले दिन जब अस्पताल में झाड़ू-पोंछा चल रहा था, ड्रायवर बाहर गैलरी में आकर खड़ा हो गया। वह एक शिष्ट लड़का, उसे दीदी कहता और मानता भी। उसने उसे मुस्करा कर आश्वस्त कर दिया। शाम तक वे लोग प्राइवेट वार्ड ले उसमें घर की तरह रहने लगे।
रात में सभी सो गए तो ड्रायवर ने उसे एक बंद लिफाफा दिया।
आकाश ने यही कहा था...।
सोहा ने सुबह तक नहीं खोला। मगर सुबह वह उसी को पढ़ने के लिए अस्पताल के पार्क में चली गई। उसका हृदय संताप से भरा हुआ था। इच्छा न रहते हुए भी उसने लिफाफा खोल लिया और उसमें रखी स्लिप निकाल कर पढ़ने लगी...।
आकाश ने लिखा था, 'मैं अपराधी हूँ। यह एक तरह का अपमान है, बल्कि स्त्री-हत्या! मगर इस पाप के लिए तुमने मुझे मानसिक रूप से तैयार कर लिया था!'
और उसे याद आया कि तारीखें जुदा थीं तो क्या संयोग से दोनों का जन्मदिन एक ही महीने में पड़ता। वे अपने ग्रुप को किसी न किसी बहाने सेलिब्रेट किया करते थे। बड़े उत्साह से कार्यकर्ताओं के जन्मदिन मनाए जाते। सभी एक-दूसरे को छोटे-बड़े उपहार देते। सहभोज होता और गाना-बजाना भी। डायरी में सभी के जन्म दिनांक उन्होंने पहले से टाँक रखे थे। दिसंबर आया तो एक माकूल शुक्रवार देख आकाश ने घोषित कर दिया कि - आज दीदी का जन्मदिन मनेगा।'
-सर का भी तो!' उसने जोड़ा।
लोग मगन हो गए। जीपों में भरकर सब नदी तट पर पहुँच गए! वहीं रसोई रचाई, वहीं नाचे-गाए! सभी ने दोनों को छोटे-बड़े उपहार दिए। और आकाश ने उसे एक सुंदर सलवार सूट तो उसने उन्हें एक खूबसूरत हैट और शेविंग बॉक्स! आकाश मुस्कराने लगे, क्योंकि वे दाढ़ी नहीं बनाते थे!
स्लिप लिफाफे में डाल, उसे वस्त्रों में छुपा लिया उसने। और आज इतने दिन बाद सोचा कि क्या दे बैठी थी! उनकी जगह कोई और होता तो अगले दिन ही दाढ़ी बनाकर आ जाता...।
अपने साथ घटी इस दुर्घटना को कदाचित भूल जाती वह, लेकिन आकाश को किसी करवट चैन न था। दिन तो भागदौड़ में किसी तरह कट जाता, मगर रात उन पर भारी पड़ जाती। पत्नी ने एकाध बार पूछा भी, 'आप किसी बड़े टेंशन में हैं?' पर वे टाल गए। उन्हें लग रहा था कि बेशक वे अपने दुर्बल चरित्र के कारण इस दुर्घटना के दागी हुए हैं, पर यह उनके द्वारा प्रायोजित न थी।
जून की दुपहर में जब शार्टकट के चक्कर में ड्रायवर जीप को एक धूल भरे मैदान से निकाल रहा था। उन दो के सिवा गाड़ी में और कोई कार्यकर्ता न था। वे आगे ही ड्रायवर और उसके बीच बैठे थे। सूरज आसमान में, किरणें धरती पर चमक रही थीं कि अचानक टायर गड्डे में चला गया, जिससे जीप ऐसा जोर का हिचकोला खा गई कि सोहा झटके से डेशबोर्ड पर झूल गई और हड़बड़ाहट में उन्होंने हत्थे की जगह उसकी गोलाई पकड़ ली! मगर भान होते ही सकपका कर छोड़ दी और ड्रायवर पर खिसियाने लगे, कैसे चलाते हो, ऐं- ऐं?' फिर सॉरी बोलने सोहा की ओर गर्दन मोड़ी तो अचंभित रह गए- वह खिड़की की जानिब मुँह किये धीरे धीरे हँस रही थी।
वापसी में अक्सर रात हो जाती। जीप में बैठ आँखें मूँदते ही वह सिर उनके बाएं कंधे से टिका लेती और तब तनिक देर में ही उनका बायां हाथ उसकी गर्दन के पीछे से निकल बाएं कंधे पर पहुंच जाता। देह सटते सटते, अनजाने में ही देह को चाहने लगी थी...।
तीन-चार दिन बाद वे विवश से फिर अचानक अस्पताल पहुँच गए। छोटी के पलंग और सोफे के बीच फर्श पर जो जगह खाली थी, उसी पर चटाई डाले सोहा सो रही थी। मम्मी बाथरूम के अंदर। पापा और ड्रायवर का अतापता नहीं! आकाश ने झुककर उसकी कलाई छू ली, आँखें टुक से खुल गईं। फिर देखते ही देखते उनमें चमक आ गई।
थोड़ी देर में माँ सहसा बाथरूम से निकल आई। आकाश पर नजर पड़ते ही वह रैक से परचा उठाती बोली, 'ये इंजेक्शन आसपास कहीं मिल नहीं रहा।'
परचा उन्होंने हाथ से ले लिया। उठते हुए बोले, 'चलो-सोहा! चौक पर देख लें, वहाँ तो होना चाहिए!'
वह जैसे, उपासी बैठी थी! चुन्नी बदल कर झट साथ हो ली।
बाहर निकलते ही बातें होने लगीं तो आवाज में चहक भर गई।
चौक पर स्कूटर से उतरते ही इंजेक्शन उन्हें पहली दुकान पर ही मिल गया। लेकिन आकाश उसका हाथ थाम लगभग दो फर्लांग तक पैदल चलाते हुए एक रेस्तराँ में ले गए, जहाँ दोनों ने ताजा नाश्ता करके दही की लस्सी पी। इस बीच उन्होंने बताया कि आप लोगों के चले आने से कैसी कठिनाई आ रही है! जीप तो जैसे तैसे हैंडल कर ली, पर जो महिला संगठन सुस्त पड़ रहे हैं, उन्हें सक्रिय नहीं कर पा रहे।'
उसे अस्पताल छोड़कर वे लौटने लगे तो वह अवश-सी उन्हें अकेले जाते हुए देखती रही...।
पहले उसे समझ में नहीं आता था कि वे इतने बेचैन और उद्विग्न क्यों हैं! जबकि हम यथास्थिति में मजे से जिए जा रहे हैं! लोग तीज-त्योहारों, खेलों, प्रवचनों-कुंभों में इतने आनंदित हैं। और यह सुविधा हमें लगातार मुहैया कराई जा रही है!'
वे कहते - हमारी मूल समस्या से ध्यान हटाने की यह उनकी नीतिगत साजिश है। समाज को नशे में बनाए रखकर वे अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।'
एक दिन मुश्किल से कटा। दूसरे दिन उसने ड्रायवर से कहा, 'तुम्हें पता है, अपने क्षेत्र में आज पर्यवेक्षक आ रहे हैं!'
'सर ने बताया तो था एक बार... पर उन्होंने मुझे यहाँ छोड़ रखा है! कोई और इंतजाम कर लिया होगा!'
'हाँ, कर लिया है,' वह मुस्कराई, 'गाड़ी खुद चलाने लगे हैं! कभी उसका गीयर निकल जाता है, कभी सेल्फ नहीं उठता... पचते रहते हैं!'
'अरे!' वह आश्चर्यचकित-सा देखता रह गया। उनके गाड़ी चलाने लगने से एक कौतूहल मिश्रित खुशी उसके भीतर नाच उठी थी। उसने कहा, 'अपन लोग चलें वहाँ! छोटी दीदी की हालत में अब तो सुधार है, मम्मी-पापा हैं-ही...।'
वह जैसे इसी बात के लिए उसका मुँह जोह रही थी! पहली बार पापा से मुँह खोलकर बोली, 'आप देखते रहे हैं, हम लोगों ने कितनी मेहनत उठाई है! यही समय है, जब अच्छे से अच्छा प्रदर्शन कर हम प्रोजेक्ट को आगे ले जा सकते हैं...।'
उन्होंने बेटी की आँखों में गहराई से देखा। वहाँ शायद, आँसू उमड़ आए थे! बीड़ी का टोंटा एक ओर फेंकते धीरे से बोले, 'चली जाओ,' फिर बीबी को कसने लगे, 'इससे कहो, रात में अपने घर में आकर सोए!'
उसे बुरा लगा। सिर झुका लिया तो आँसू बरौनियों में लटक गए।
लेट होने पर माँ प्रायः बखेड़ा खड़ा कर देती थी। कभी कभार जुबानदराजी हो जाती तो राँड़, रंडो, बेशर्म कुतिया तक की उपाधि मिल जाती! मगर अगले दिन पैर फिर उठ जाते। माँ देखती, हिदायत देती रह जाती। ऐसे वक्त निकलती जब पापा घर में नहीं होते। गाड़ी समिति के दूसरे लोग मॉनीटरिंग वगैरह के लिए ले जाते तो साइकिल से ही आसपास के गाँवों में चली जाती। एक भी दिन खाली नहीं बैठती। सोहा को बच्चा बच्चा जानता। चहुँओर से नवजात पिल्लों की तरह दुम हिलाते, दौड़े चले आते! औरतों के चेहरे खिल जाते। लड़कियाँ जोर से गा उठतीं, 'देश में गर बेटियाँ मायूस और नाशाद हैं...' किसान-मजदूर सभी उत्साह से भर उठते। कोई कहता, 'बोल अरी ओ धरती बोल, राज सिंहासन डाँवाडोल!' कोई कहता, 'इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें...' तब वह खुद भी गुनगुनाती हुई आगे बढ़ जाती, 'ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के!'
बैग में वापसी योग्य सामान ठूँसकर ड्रायवर के साथ बस में बैठ अपने नगर चली आई। भाग्य से रिक्शा आकाश की जीप से बीच राह टकरा गया। वह किलक कर अपनी जगह पर आ बैठी। ड्रायवर अपनी जगह। वे पर्यवेक्षकों की अगवानी के लिए स्टेशन जा रहे थे। सोहा को अचानक पाकर हर्षातिरेक में हाथ अपने हाथ में ले बैठे। दूसरी ओर ड्रायवर घने बाजार में चपलता से गाड़ी चला रहा था। अब वे आधे अधूरे नहीं थे। उनके स्वर में वही पहले-सी बुलंदी और दिमाग में वही तेजी मौजूद थी, जिसके बल पर कितने दिनों से एक अंतहीन बाधादौड़ दौड़ते चले आ रहे थे।
पर्यवेक्षकों को रेस्टहाउस में टिका कर वे लोग फील्ड में निकल गए और शाम तक तीन-चार गाँवों में घूम आए। कार्यकर्ता को तो उत्साह का खाद-पानी चाहिए। उन्हें पाकर वे ऐसे जोश से भर उठे कि- असेसमेंट कल हो तो अभी क्यों न हो जाए! मगर वापसी में जल्दी के चक्कर में एक खस्ताहाल मुरम रोड से निकल पड़े। जीप जब एक कीचड़ भरे गड्ढे में बुरी तरह फँस गई, ड्राइवर आगे-पीछे हिला-डुला कर हड़ गया तो इंजन बन्द कर नीचे उतर गया। तब उसने घबरा कर पूछा- कि अब!?"
-कोई ट्रेक्टर मिले तो इसे खिंचवाया जाय।" आकाश धैर्य पूर्वक बोले।
अंधेरा फैलने को आतुर। ड्राइवर इधर-उधर देख किसी नजदीकी गाँव की ओर चल दिया। मन में अस्पताल इत्यादि की हालिया घटनाओं का झंझावात लिए आकाश ने चेहरा घुमा सोहा की ओर देखा तो उसने भी... और लगा कि पल भर में ही नजर ने नजर से खूब चोखी कहा-सुनी कर ली, सो दोनों मुस्करा पड़े।
संझा-आरती का वक्त। दूर किसी देवालय से शंख-झालर की मधुर ध्वनि आ रही थी। मुरली बजाते श्याम और उन पर अनुरक्त राधा उनके जेहन में नाच उठे। और सोहा ने अपना सर उनके कंधे से टिका लिया तो उन्होंने भी अपना बायां हाथ उसकी गर्दन के पीछे से निकालकर बाएं कंधे पर रख लिया। तब पता नहीं चला कि कब ड्राइवर कोई ट्रेक्टर लेकर आया और कब वे अपने गंतव्य पर पहुंचे!
अब से पहले रात में वह कभी उनके घर नहीं गई थी। कपड़े गंदे हो रहे थे और उनमें अस्पताल की बू भरी थी। झिझकते-झिझकते उनकी पत्नी से लेकर बदल लिए। आकाश की नजर पड़ी तो अनायास मुस्करा पड़ी कि आप इन्हीं में तो देखना चाहते थे - हमें! फिर वे बेड पर ही खाने के लिए बैठ गए। आकाश ने अखबार बिछाते हुए कहा, 'यह रहा हमारा दस्तरख्वान!'
सोहा मुस्कराती रही...।
सुजाता प्रसन्नता के साथ खिला रही थी। वह छत्तीस-सैंतीस साल की खाई-अघाई औरत, जिसकी एक बेटी, एक बेटा था। बेटा किशोर और बेटी वयःसंधि काल में प्रवेश करती हुई। और वह स्वयं एक कुशल गृहिणी। जिसका शौहर पेशे से वकील और ख्यातनाम सामाजिक कार्यकर्ता। घर-गृहस्थी और बच्चों को सपेरने में पता ही नहीं चल रहा था कि मियाँ जी हाथ से निकल रहे हैं! फिर भी छठी इन्द्रिय की प्रेरणा से इम्तिहान-सा लेते हुए पूछा, 'अच्छा सोहा, बताओ - काहे की सब्जी है?'
उसने एक क्षण सोचा और किसी प्रायमरी स्टूडेंट-सी सशंकित स्वर में बोली, 'चौल्लेइया की...!'
'तुम कभी धोखा नहीं खा सकतीं।' मुस्कराते हुए उसकी आँखें चमकने लगीं। और वह पापा की हिदायत भूल गई कि रात में अपने घर से बाहर नहीं सोना!
सुबह वे उससे पहले उठकर फील्ड में निकल गए, तब कहीं अपने घर पहुँची! बरसात अभी थमी नहीं थी। पर जाने क्या सूझा कि - सारे फर्श झाड़पोंड डाले! ढेर सारे कपड़े भिगो लिए... बेडसीट्स, चादरें, मेजपोश, कुर्सियों के कुशन और खिड़की, दरवाजों के परदे तक नहीं छोड़े! माँ होती तो कहती, 'जिस काम के पीछे पड़ती है, हाथ धोकर पड़ जाती है!'
माँ को क्या पता, उसे तो सबकुछ अच्छा लगने लगा था। अच्छा आज से नहीं, पिछली सारी ऋतुओं से। चिलचिलाती धूप में जब चैसिस आग हो जाती, इंजन धुआँ उगल उठता, आकाश से सटकर वह पसीने से ठंडक पा लेती...। इतनी बेरुखी बरतने के बाद भी उनका फिर से अस्पताल जा पहुँचना - जगाना, हाथ पकड़ घुमाना, घर ले जाना, साथ खिलाना, सुलाना... सब कुछ कितना सुखद! एक जादुई यथार्थ। जिसमें विचरण की वह आदी हो गई है! कैसे संभव है उससे निकल पाना! जिस दिन साथ नहीं मिलता, मानों पगला जाती! कुछ भी अच्छा नहीं लगता, किसी काम में दिल नहीं लगता!
पर्यवेक्षकों ने मेप ले लिया था। वे अपनी मरजी से कुछ अनाम केंद्रों पर पहुँचने वाले थे। दुपहर तक एक अन्य जीप आ गई और वह ड्रायवर के साथ फील्ड में निकल गई। पर्यवेक्षण के आतंक में सौ फीसदी केंद्रों को सजग करना था।
रात नौ-दस बजे तक वे सब लगाम खींचे घोड़ों की तरह लगातार दौड़ते रहे। मगर काम से पर्यवेक्षक इतने प्रभावित हुए कि सबके सामने ही आकाश का हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, 'प्रोजेक्ट की सफलता के लिए हमें पूरे देश में आप सरीखे वॉलंटियर्स चाहिए!'
- अरे!' उसके तो हाथपाँव ही फूल गए! आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।
वे उसे आकाश से भी अधिक महत्व दे रहे थे... क्योंकि असेसमेंट के दौरान ही एक ग्रामीण ने बड़ा अटपटा प्रश्न खड़ा कर दिया था कि - हमारे मौजे का रकबा इतना कम क्यों होता जा रहा है?'
और वह अड़ गया कि - हमें परियोजना नहीं जमीन चाहिए, पानी और बिजली चाहिए!'
जाहिर है, वे राजनैतिक नहीं थे जो कोरे वायदे कर जाते... हकला गए बेचारे! आकाश ने उसे समझाना चाहा तो मुँहजोरी होने लगी। विरोध में कई स्वर उठ खड़े हुए। तब उसने बीच में कूदकर सभा में एक ऐसा प्रतिप्रश्न खड़ा कर दिया कि सबके मुँह सिल गए।
उसने कहा था - आपकी जमीनें कोई और नहीं हमारी जनसंख्या निगल रही है! बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं... गाँव से जुड़ा एक छोटा-सा उद्योग ईंट भट्टा ही कितने खेतों की उपजाऊ मिट्टी हड़प लेता है! परिवार के विस्तार से ही जरूरतें सुरसा का मुख हो गई हैं जिनकी पूर्ति के लिए खुद आप लोग ही हरे वृक्ष काटने को मजबूर हैं। फिर पानी क्यों बरसेगा, नहरें और कुएँ कहाँ से भरेंगे। जरा सोचें, बिना जागरूकता के यह नियंत्रण संभव है! अशिक्षा के कारण ही सारी दुर्गति है, फिर आप जाने... पर आप क्यों जानें? आप तो प्रकृति और सरकार पर निर्भर हो गए हैं...!'
आवेश के कारण चेहरा लाल पड़ गया था। सभा में सन्नाटा खिंच गया।
वापसी में पर्यवेक्षक उसे अपनी कार में बिठाना चाह रहे थे। उन्होंने उत्साहित भी किया कि - प्रोजेक्ट के बारे में वह उन्हें अपने अनुभव सुनाए जिससे वे दीगर क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को लाभान्वित कर सकेंगे!' ऐसी बातों से आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था। पर अपने सर को छोड़कर इस वक्त वह कहीं जाना नहीं चाहती थी।
पर्यवेक्षकों की रवानगी के बाद वे केंद्र प्रमुख के यहाँ भोजन के लिए गए। जहाँ कम से कम आधे गाँव की औरतों ने घेर लिया उसे! इतनी उत्साहित कि आने न दें, रतजगा करने पर आमादा! उसे भी कुछ ऐसी भावुकता ने घेर लिया कि उसी घर में पनाह ढूँढ़ने लगी। इच्छा हो रही थी कि आकाश के साथ रात भर यहीं रह कर जश्न मनाए! जैसे, जीत का सेहरा उनके सिर बाँधना चाहती थी या उनसे अपने सिर बँधवा लेना चाहती थी! मगर जीप स्टार्ट हो गई और वह अपनी जगह पर आ बैठी। हृदय की उमंग उसके भीतर ही दफ्न हो रही। उसने निराशा में भरकर कहा, 'अब तो हमें उनके निर्देशन में यह आंदोलन चलाना पड़ेगा!'
'और-क्या!' वे कुछ और सोच रहे थे।
'फिर आपके परिवर्तनकामी सोच का क्या होगा?' उसने टोह ली। उनका लक्ष्य कुछ और ही था। वे हमेशा विद्रोह की बातें करते थे।
'हम वही करेंगे...' उनकी आँखें हँस रही थीं।
उसने उन जैसा आत्मविश्वासी व्यक्ति नहीं देखा...। शनैः शनैः कंधे से टिक गई तो, बाँह उन्होंने गले में डाल ली! जंगल के सफर में अंतरिक्ष की यात्रा-सा एहसास होने लगा! जी में आ रहा था, यह सफ़र कभी बीते नहीं। मगर नदी-पुल पर आकर इंजन यकायक गड़गड़ा उठा।
ड्रायवर ब्रेक लेकर बोला, 'सर! गाड़ी गरम हो रही है...'
-क्या!' वह यकायक चौंक गई। बोनट से तेज भाप निकल रही थी! एक क्षण के भीतर रात और जंगल का भय मन के भीतर भर गया। एक बार इसी तरह चेंबर कहीं टकरा गया था... ऑयल निकल गया और फिर इंजन सीज!
'बंद मत कर देना,' आकाश बौखला रहे थे, 'स्टार्ट नहीं होगी, फँस जाएँगे! तुमने ध्यान नहीं दिया, रेडिएटर लीक था!!'
'नईं-सर! वो बात नहीं है, कूलेंट गिर गया है।' उसने उतर कर वोनट खोल दिया और बोतल से पानी उँड़ेलने लगा।
थोड़ी देर में चल पड़ा तो आकाश धैर्यपूर्वक कहने लगे, 'दस मिनट और खींचों जैसे तैसे, पहले तुम्हारा ही घर पड़ेगा, वहीं रोक लेना, हम लोग पैदल निकल जाएँगे।'
सोहा ने घड़ी देखी। अलबत्ता, ऑटो रिक्शा भी नहीं मिलेगा! फिर ध्यान इंजन की ध्वनि पर केंद्रित हो गया। पहले जब सीज हो गया था, आकाश को बारह हजार भरने पड़े। उस रात वह साढ़े तीन बजे घर पहुँची। मन हजार कुशंकाओं में फँस गया। बीच में फिर एक-दो बार भाप तेजी से उठी तो जीप रोक पानी उँड़ेला उसने... गनीमत थी पहुँच गए। शहर में घुसते ही आकाश ने पंजा दाईं ओर मोड़ गाड़ी ड्रायवर के कमरे की ओर मुड़वा दी। थोड़ी देर में वह रूम के आगे इंजन बंद कर पूछने लगा, 'स-र! साइकिल निकाल दूँ?'
उन्होंने एक पल सोचा और हाँ में सिर हिला दिया। और वह खुशी में नहाया साइकिल निकाल लाया तो वे पैडल पर पाँव रखकर सीट पर बैठ गए, सोहा जंप लेकर कैरियर पर।
इस तरह बचपन में पापा और भैया के साथ जाया करती थी...। राह में गश्त के सिपाही मिले, वे भी कुछ नहीं बोले। उस वक्त वे सचमुच फैमिली मेंबर ही लग रहे थे। घर आकर उसने ताला खोला तो उन्होंने साइकिल अंदर लाकर रख ली। और वह उजबक-सी खड़ी रह गई तो खुद ही जाकर गेट बन्द कर आये!
दिल इंजन-सा धड़धड़ाने लगा।
घर सख्त हो आया था तब उसने ताजिए के नीचे से निकल कर मुराद माँगी थी। साथ के लिए, सिर्फ साथ के लिए! तब उसे खबर नहीं थी कि मुहब्बत इतनी विचित्र शह है! लाख घबराहट के बावजूद मुस्करा पड़ी, 'कान्ग्रेच्युलेशंस ऑन योर सक्सैस।'
'ओह! सेम-टु-यू!!' वे गहरे भावावेश में फुसफुसाए। फिर अचानक चेहरा हथेलियों में भर ओठ ओठों पर रख दिए!
'आऽकाऽश...'
उसका स्वर भहरा गया। जैसे, होश में नहीं थी। उसने कभी उन्हें नाम से नहीं बुलाया। हमेशा सर या भाईसाब! वे दो पल यूँ ही बाँधे रहे, जिनमें बीती बरसातें, सर्दियाँ-गर्मियाँ, माँ की जली कटी बातें और पापा का तमतमाया चेहरा सब बिला गया।
घड़ी की टिकटिक दिल की धड़कन से हारने लगी तब ओठ ओठों से छुड़ाकर बमुश्किल कहा उसने, 'दो बज गए!' और वे सहमे से स्वर में पूछने लगे, 'मे आइ गो...?' तो दिल घायल परिंदे सा तड़पने लगा।
देर से रुकी थी, बैग कंधे से निकाल बाथरूम के अंदर चली गई। घर में इस छोर से उस तक एक चिड़िया न थी जिसकी आड़ ले लेती! उसने सोचा जरूर कि दो पल एकांत के मिल जायँ और मैं बधाई दे लूँ! पर इतना अरण्य एकांत और क्षणों का अंबार। यह तो कुंती जैसा आह्वान हो गया! देर बाद भीगी बिल्ली बनी जैसेतैसे निकली। साइकिलिंग की वजह से पसीने से लथपथ वे शर्ट के बटन खोले पंखे के नीचे बैठे मिले!
नजरें मिलीं तो उठकर करीब आ गए! मगर यथार्थ से भयभीत उन आखिरी लम्हों में भी वह उनसे बचने की कोशिश कर रही थी, 'आप उनसे दूर जा रहे हैं..ऽ'
'किससे...?'
नजरें उठाकर मुस्कराने लगी, 'भाभीजी से।'
निश्वास छूट गया। काँधे में सिर दे सुबकते से बोले, 'सोहा-आ! मुझे पता नहीं, यह सब क्या है... पर लगता है, तुम नहीं मिलीं तो अब बचूँगा नहीं!'
रात सघन एकांत के दौर से गुजर रही थी। भावुक हो आई। सिर उनके सीने में दे लिया, 'तुम निरे बच्चे हो, आ-का-श!' तब पता नहीं चला कि लटें चूमते चूमते कब ऐन माँ के पलंग ले आये, जैसे- अधूरा अध्याय पूरा करके रहेंगे! इसे वह रोक नहीं सकती। इसे उसके मम्मी-पापा, उनकी पत्नी और सारी दुनिया भी मिलकर नहीं रोक सकती...।
सुबह जब चिड़ियाँ बोल रही थीं, वे शांतिपूर्वक सो रहे थे और वह मन ही मन पर्यवेक्षकों को अपना अनुभव सुनाती पूछ रही थी कि- समुदाय विशेष के लिए यह मामला लव जिहाद वाला तो नहीं बन जायेगा?
◆◆