Ankal ka mazaak in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | अंकल का मज़ाक

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अंकल का मज़ाक

चेतन घर में घुसा तो कुछ मायूस था।
मुझे अजीब सा लगा। क्या बात हो सकती है? अभी- अभी अपनी साइकिल उठा कर बाहर गया था तब तो बड़ा चहक रहा था। घड़ी भर में ही पस्त सा वापस लौटा है।
होगा कुछ। अब छोटी- छोटी बातों पर क्या ध्यान देना। दरअसल हम बड़े, बच्चों का सही मूल्यांकन कर ही नहीं पाते। हम उन्हें बच्चे ही समझते हैं और ये मानकर चलते हैं कि इनके पास एक सपाट जेहन है। खाने- खेलने- पढ़ने के अलावा इनका कोई और न तो अनुभव है, न कोई भावना और न ही अपेक्षा। पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है।
कोमल मन, सुकुमार तन के बावजूद बच्चों के अपने झंझावात होते हैं। अपने निजी अनुभव, मित्रों के बीच स्पर्धा, ईर्ष्या... बड़ों का उपेक्षा भाव... टीवी, पत्र- पत्रिकाओं में, सुनी- सुनाई, पास - पड़ोस, रिश्तेदारों का बर्ताव आदि सैकड़ों बातें होती हैं जो उनके भावना प्रमुख मन को मथती हैं। उनके मन का अपना नगर होता है।
कुछ भी हो, लेकिन चेतन इतना गंभीर तो शायद ही कभी रहा होगा। ज़रूर कोई न कोई बात तो है।
भीतर आकर साइकिल को उपेक्षा से रख कर, एक कौने में चुपचाप एक किताब में सिर देकर बैठ गया। बेवजह तो नहीं हो सकती अन्यमनस्कता।
मुझसे रहा नहीं गया। मैंने आवाज़ दी।
चेतन आकर खड़ा हो गया। चेहरा अब भी लटका हुआ था।
- क्या हुआ बेटा? मैंने कहा।
- कुछ नहीं! वह बोला।
- कुछ तो है। क्या तबीयत ठीक नहीं है तेरी?
- ठीक है... कह तो दिया उसने, पर बुझे से स्वर से।
परंतु मैं आश्वस्त नहीं हुआ। सामान्यतः इस सवाल का जवाब यह इतना अनमना होकर कभी नहीं देता। मेरे भीतर कुछ सरकने सा लगा। मैंने उसे हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लिया। यह निश्चित हो गया कि उसे कोई न कोई कष्ट है। क्योंकि यदि ऐसा न होता तो वह अचंभे से मुझे देखता और उल्टे मुझसे ही पूछता कि मुझे क्या हो गया है, जो मैं उससे इस तरह पूछ रहा हूं? लेकिन वह सिर झुका कर पूर्ववत बैठा रहा।
मैंने उसकी पीठ पर हाथ रखा और उससे पूछा- अभी तो सात ही बजे हैं, इतनी जल्दी घूम कर वापस क्यों आ गया? आम तौर पर ये बात भी उसके लिए आश्चर्य की होती। क्योंकि मैं अक्सर उससे यही पूछता था कि देर क्यों कर दी, सारा दिन खेलते- घूमते रहते हो, पढ़ोगे कब? शायद गंगा का उल्टा बहाव उसने भी ताड़ लिया। बच्चे भी इतना तो समझ ही लेते हैं कि यदि मां- बाप अतिरिक्त विनम्रता दिखा रहे हैं तो कहीं कुछ गड़बड़ ज़रूर है।
मैंने एक बार फिर कहा- तेरी तबीयत ठीक नहीं दिखती?
उसने उदासी से मुझे देखा और फिर एकाएक बोल पड़ा- अच्छा पापा, अपना यह कालीन कितने का है?
- अरे, क्या? मैं हैरान हो गया। यह क्या बात निकली। क्या यह दोस्तों में कोई शर्त - वर्त बद बैठा, कालीन की कीमत की।
- नहीं, नहीं पापा... पर आप बताओ दीवाली पर आप यह कितने का लाए थे?
अब मैंने सहज होकर कहा- मुझे ठीक से याद नहीं है, शायद एक- दो हज़ार का होगा। पर क्यों, तुम ऐसा क्यों पूछ रहे हो? अब मैं अपने आप को हल्का महसूस कर रहा था और बात का आनंद लेने लगा था। जैसा मैं समझ रहा था, इसके अनमने पन के पीछे कोई गंभीर बात नहीं, बल्कि यार- दोस्तों के बीच कोई बाल- सुलभ बहस है, यह जानकर मेरा बोझ उतर गया था।
चेतन ने खुलासा किया- पापा, वो माथुर अंकल हैं न, वो हमारे कालीन का मज़ाक उड़ा रहे थे। कह रहे थे कि बिल्कुल दरी जैसा है, सस्ता सा होगा।
मैं हतप्रभ रह गया। भला माथुर की अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गए हैं जो बच्चों के सामने इस तरह की बात कर रहा था।
मुझे उस पर क्रोध भी आने लगा। फ़िर भी मैंने बच्चे के सामने सहज बनने और उसे किसी ग्रंथि में न उलझने देने की गरज से कहा- तो क्या हुआ? ठीक ही तो कहा उन्होंने। ज़्यादा महंगा थोड़े ही है।
चेतन एक बार फ़िर निरुत्तर होकर असहाय सा देखने लगा। उसके गले शायद मेरी बात नहीं उतरी। वो थोड़ा घूर कर मुझे देखने लगा, और एकाएक जैसे फट पड़ा- क्यों? उस दिन तो आप कह रहे थे कि यह बहुत बढ़िया है, कीमती भी है, आप सारे बाज़ार में ढूंढकर इसे लाए हो...! अब भला मैं बच्चे को कैसे समझाता कि ऐसी चीज़ें तुलनात्मक होती हैं। फ़िर सस्ती चीज़ें क्या अच्छी नहीं होती हैं।
चेतन का चेहरा लाल हो गया। मुझे लगा जैसे यह दूसरी बार हार गया। बच्चों की आपसी बहस, उस पर उस बेवकूफ़ माथुर की टिप्पणी... और अब मेरी प्रतिक्रिया, इन सबने मिलकर मानो बच्चे को अपमानित - सा कर दिया। मुझे खीज भी हुई और उलझन भी।
तो बच्चे इतने ध्यान से सुनते हैं सब। माथुर के साथ साथ थोड़ा गुस्सा इस बेटे चेतन पर भी आया। अरे, स्वाभिमानी होना अच्छी बात है पर यह जनाना- स्वाभिमान? यह तो घरेलू औरतें करती हैं अपनी साड़ी- जंपर के मोल- तौल पर। घर में कालीन महंगा है या सस्ता, इस बात से भला बच्चे को क्यों फ़र्क पड़ना चाहिए? बात आई - गई हो गई।
लेकिन ईमानदारी से कहूं तो मन ही मन इस बात ने मुझे भी परेशान कर दिया था। चेतन को तो मैंने जैसे- तैसे बातों से संतुष्ट कर के खेल में लगा दिया पर मैं खुद बेचैन हो गया।
हां, सही बात है। ठीक कह रहा है बच्चा। आज पता नहीं क्या होता जा रहा है। माथुर और इस जैसे दूसरे भ्रष्टाचारी लोग अपनी घूस खोरी पर शरमाते झेंपते नहीं हैं। उल्टे बेशर्मी से उसका बखान करते हैं। उन्हें इस बात पर लाज नहीं आती कि वे बेईमानी और छल- प्रपंच से पैसा खींचते हैं। उल्टे उस काले पैसे से खरीदी हुई चीज़ों को बच्चों के सामने श्रेष्ठ बता कर अपने हरामीपने की आदत को जायज़ बनाने - बताने की चेष्टा करते हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि माथुर जैसे लोग अब समाज में एक- दो,दस - पांच नहीं, बल्कि नब्बे प्रतिशत पनप गए हैं। आज यदि आप किसी जगह अपनी ईमानदारी और नेकनीयती से नौकरी या व्यापार करना चाहो तो आपको इन लोगों से रोज़ लड़ना - भिड़ना पड़ेगा। आज हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि ये रिश्वत खोर उन लोगों के बीबी बच्चों को भड़काने सिखाने लगे, जो हराम का या नाजायज पैसा नहीं लेते। सोने की लंका ऐसे ही तो बनी होगी, जैसे आज नगर - नगर बन रहा है। जहां बैठे हो, जो काम कर रहे हो, उसमें ग़लत तरीक़े से दमड़ी बनाने की सोचो। किसी अच्छी बात का मखौल उड़ाओ।
यह कमबख्त बच्चे का दिल रखने के लिए यह भी तो कह सकता था कि तुम्हारे पापा कम कीमत में भी कितना सुंदर, कलात्मक कालीन लाए हैं। परंतु बेईमानी का पैसा आदमियत छोड़े तब न!
पर नहीं। उस साले को न तो कलात्मकता से कुछ लेना- देना है और न बच्चों से। उसे तो ये जताना था कि मैंने नौ हज़ार का कालीन ख़रीदा है। चाहे ये नौ हज़ार एक बेचारी विधवा अध्यापिका का जबरन अनचाहे स्थान पर तबादला करवा कर उसके बदले श्रमआयुक्त जी की साली को लगाने के फलस्वरूप ही मिले हों। कायदे कानून, शिक्षा, बच्चों का भविष्य, शासन प्रशासन, नियम नीति सबमें पलीता लगता हो तो लगे। वह तो काम करवा कर श्रम आयुक्त के केबिन में जाकर खड़ा हो ही गया दांत निपोरता। इस युग के कीड़े... सरकारी नालियों के...!
मुझे लगा कि चेतन को ही ग्रंथियों से बचाना नहीं स्वयं मुझे भी तो रक्तचाप न बढ़ने देने का ख्याल रखना है। बेचारी सीमा सुबह शाम नाश्ते में इतना एहतियात बरतती है कि मेरा रक्तचाप सामान्य रखा जा सके। अंधाधुन दवाओं की ज़रूरत न पड़े। और दूसरी ओर ये माथुर जैसे लोग हैं...कहता है कि मेरा कालीन घटिया है।
चलो, खाली बैठा तो दिमाग घूमेगा ही। अपने को काम में लगाने की गरज से मैं भाईसाहब को चिट्ठी लिखने बैठ गया। हालांकि भाईसाहब कभी चिट्ठी नहीं लिखते थे। कहते थे कि जब फ़ोन पर सारी बात दो मिनट में हो ही जाती है तो कागज़ काले करने से क्या फायदा?
अब ये तो अपनी - अपनी समझ है। जो काम तीन रुपए की चिट्ठी से आराम से हो जाता है उसके लिए साठ रुपए फ़ोन के क्यों खराब करें? इन भाईसाहब ने अपने दोनों बेटों को डोनेशन और घूस देकर ही इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट के कोर्स में डाला है। कभी ढंग से पास नहीं हुए हैं। कभी सप्लीमेंट्री तो कभी तृतीय श्रेणी। परीक्षा से एक महीना पहले कॉलेज के टीचरों के नाम पूछो तो बगलें झांकने लगें। हां, कहीं से बाज़ार में कोई नई जींस आई हो तो उनकी कमर पर सबसे पहले दिखेगी।
भाईसाहब कभी आंख मिलाकर मुझसे बात नहीं करते। लेकिन वो भाभी? चेतन के सामने शेखी बघार रही थी कि तुम्हारे भैया को तो इंजीनियर बनने का ही शौक़ है। और वो छोटेवाले...वो तो कहते हैं जर्मनी चले जायेंगे पढ़ाई पूरी करके। नन्हा चेतन कभी समझ नहीं पाया कि ऐसे बच्चे जिनके मां बाप रात दिन उनकी आदतों और उनके न पढ़ने का रोना रोते हैं, भला इतने होनहार कैसे निकल सकते हैं। सब पैसों का खेल है। मुझे भाईसाहब पर भी क्रोध आने लगा। काली कमाई क्या उन्होंने कम की है? नौकरी के तीसरे साल में गाड़ी, सात साल में अपना खुद का मकान... जबकि उनका वेतन मुझसे आधा भी नहीं था। मुझे लगा, मानो मैं नहीं बल्कि मेरा पड़ोसी माथुर ही उनका भाई है। साले सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे...सब धरती पर बोझ। सब इस युग का कलंक। सब धरती रूपी वटवृक्ष की दीमकें!
खाना खाकर सोचा थोड़ा बाहर टहल आऊं। मैं दरवाज़े से बाहर निकला ही था कि पीछे पीछे जल्दी से चप्पल पहनकर दौड़ता हुआ चेतन भी आ गया।
- पापा मैं भी चलूंगा आपके साथ।
- और होमवर्क?
- होमवर्क तो मैंने आज दोपहर में ही कर लिया था। कल मुझे चैक भी नहीं कराना। कल से तो हमारे स्कूल में बास्केटबाल के टूर्नामेंट शुरू हो रहे हैं। क्लास नहीं होगी।
- अच्छा चलो, कहते हुए मेरा हाथ अनायास जेब पर चला गया। इसके साथ बाजार के बीच से टहलते निकलते हुए यही तो खतरा है, दस- बीस रुपए तो होने ही चाहिए। न जाने क्या फरमाइश कर बैठे। कभी पान खाना है तो कभी चॉकलेट।
- पापा, आपको पता है हेमंत अगले महीने कंप्यूटर ख़रीद रहा है।
- अच्छा।
- हां, कह रहा था कि क्लास टेस्ट में अच्छे नंबर आने पर हेमंत के पापा ने उसे कंप्यूटर गिफ्ट करने का वादा किया है।
- अच्छा! मैंने एकाएक गले में उभर आया थूक का थक्का मुश्किल से गटका। लो, एक मैं हूं जो इस बेचारे की छोटी छोटी फरमाइशों से घबरा रहा हूं। किसी को उम्मीद ही नहीं बांधनी चाहिए इस युग से। यह युग बेशर्मों का है। यह युग अधर्मियों का है। यह युग बदमाशों का है। यह युग माथुर जैसे लोगों का है। यह युग भाईसाहब का है।
मुझे लगा कि मैंने खाने के पश्चात रक्तचाप की दवा नहीं ली है, शायद इसी से बेचैनी हो रही है। ये बीमारी मुझे क्यों हो गई है? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था। इस चेतन ने किसी का क्या बिगाड़ा था। यदि जो पैसे रोज़ मेरी दवा में खर्च होते हैं वही इसके पान या चॉकलेट में हो पाते तो कहां का अंतर आ जाता धरती- धसान में! कौन से डूब जाते क्षीरसागर में विष्णु जी। ग्लोबलाइजेशन की बातें करते हैं...उदारीकरण अच्छा दिखता है सालों को...! विदेशी पैसा, विदेशी चीज़ें, विदेशी कंपनियां भा रही हैं हरामखोरों को। ... ब्लादिमीर पुतिन हों या बिल क्लिंटन...सब एक से हैं। सब माथुर की तरह हैं। सबको भाईसाहब के साथ हमदर्दी है। देश को तेरह टुकड़ों में बांटकर सो रहे हैं गोरबाचौफ। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सब तोड़ डाले। करो ...करो और टुकड़े करो। अलग अलग कर दो सबको। लड़ा दो सबको आपस में। ताकि जब पुर्तगाल और इंग्लैंड ही नहीं, इससे भी छोटे छोटे देश आ जाएं तो उनके सामने खड़े न हो पाओ। घुटने टिक जाएं। फिर चला जाए शेर पिंजरे में। बुलाओ...बुलाओ खूब चिल्लाओ, बुलाओ कंपनियों को। ईस्ट इंडिया कंपनी के क्लोन बनाओ। क्यों मर जाए वह राज? फिर जिलाओ, बुलाओ.. अमरीकियों को... अंग्रेजों को... करो खूब सम्मेलन। रिझाओ विदेशियों को। नाचो उनके आगे। वो लोग, जो देश को गाली देकर यहां की पढ़ाई लिखाई को धता बता कर विदेशों में जा बैठे उन्हीं की आरती उतारो। फिर बुलाओ कौन रोकता है तुम्हें। और दिक्कत क्या है? सब तुम्हारे साथ हैं। माथुर तुम्हारे साथ है, भाईसाहब तुम्हारे साथ हैं।
मैंने चेतन से कहा - बेटा लौट चलें?
- इतनी जल्दी?
- अरे बहुत देर हो जायेगी बेटा... लम्हों की खता सदियों रुलाएगी...
- क्या??
- अरे कुछ नहीं कुछ नहीं... मैं कह रहा था कि ठंड बहुत बढ़ रही है, चलो घर लौटें, तुमने स्वेटर भी तो नहीं पहना है।
रात को "सरफरोश" देखते देखते झपकी सी आने लगी। सीमा और चेतन को फ़िल्म देखता छोड़कर मैं सोने के लिए बिस्तर पर चला गया। डॉक्टर साहब का ध्यान आया, बार बार टोकते हैं- ये गोली खाली पेट मत लो, रक्तचाप की दवा कुछ न कुछ खाकर ही लेनी चाहिए। मुझे खाना खाए तीन घंटे बीत चुके हैं पर दवा खाना भूल गया था।
गोली तो अब भी खाई जा सकती है, पेट खाली थोड़े ही होगा। खाना तो पेट में ही है, ज्यादा से ज्यादा आमाशय से सरक कर बड़ी आंत में आ गया होगा। अलमारी से निकाल कर गोली खा ली मैंने।
रात को खुसर फुसर की आवाज से नींद टूटी मेरी। चेतन तो सो चुका था। टीवी पर फ़िल्म बंद हुए भी काफ़ी समय हो चुका था। पत्नी सीमा शायद घर का बचा- खुचा काम निपटा कर अब बिस्तर पर आ गई थी। मैं उनींदा सा ही था। दूसरी तरफ करवट लेकर उसके लिए और जगह बना दी। पर अंधेरे में भी मैं ये भांप गया कि इस सम्मान से पत्नी खुश नहीं हुई। उसका शायद कुछ और इरादा था।
कंबल मेरे कंधों तक फैलाने के बहाने उसने पैरों को पैर से सटाते सटाते मेरी गर्दन को भी स्पर्श कर दिया।
...यह देश नहीं बचेगा। विक्टोरिया का राज आकर ही रहेगा। साले विदेशों का सड़ा गला माल यहां कूड़े की भांति ये भरते ही जा रहे हैं। पहले बंदरिया को लाली पाउडर लगाकर खूब सजाओ। फिर डुगडुगी बजा कर बाज़ार में नचाओ... कमाल है। अंधे हैं, सालों को दिखता नहीं है। पांच साल से मधु सप्रे, रानी जयराज, संध्या छिब, ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन, डायना हेडन, युक्ता मुखी, लारा दत्ता... गली गली हूर की परियां पैदा हो गईं। अब इन्हें विज्ञापनों में नचाओ और मिट्टी गोबर सोने के भाव बेचो। पैसा बनाओ।
मुझे सीमा पर तरस आने लगा। बेचारी रात के साढ़े ग्यारह बजे भी, चेतन के सोने के बाद हाथ मुंह पर धोकर इत्र लगाकर बालों में फिर से कंघी करके यहां आ लेटी है। ये बेचारी मासूम क्या जाने कि इसके बगल में जो मांस का लौंदा लेटा है वह नींद में भी मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड और विदेशी चाल ढाल का प्रचार करती करिश्मा कपूर और काजोल को कोस रहा है। इसे उम्मीद है कि वर्षों पहले भाभी द्वारा दिए गए परफ्यूम की गंध के बलबूते पर यह मुझसे रास लीला करवा लेगी। कितनी बेबस आकांक्षा है इसकी। यह परफ्यूम भाभी को भाईसाहब ने लाकर दिया था। मुफ़्त में। एक व्यापारी की बेटी के बीए में नंबर बढ़वाए थे भाईसाहब ने। व्यापारी से भाईसाहब के पास, भाईसाहब से भाभी के पास, भाभी से सीमा के पास...और अब सीमा से मेरे पास आने की तैयारी में यह परफ्यूम...साला विदेशी कूड़ा। माथुर भी ऐसे परफ्यूम लाता होगा। भाईसाहब, माथुर सब मिले हुए हैं। साले हग रहे हैं मेरे कालीन पर... विदेशी चीज़ें ला लाकर। मेरी पत्नी तक को लपेट लिया है इत्र में!
मैं यह कालीन इसलिए लाया था कि इसे अंधे बालकों ने अपनी रोज़गार कार्यशाला में बुना था। यह प्रदर्शनी में लगा था। मेरी हैसियत से यह बाहर था। पर मैंने कालीन का दाम नहीं दिया था बल्कि अंधी जिंदगियों को चंद कदम चल पाने का आसरा दिया था। इसी से घर आकर गर्व से बेटे चेतन को बताया था कि यह कालीन बहुत कीमती है। यह कालीन बहुत पवित्र है। यह कालीन बहुत...पर साले माथुर ने सरेआम इस पर गू कर दिया। साला नंगा... सूअर...कुत्ता...साला भाईसाहब जैसा।
मैंने देखा, दूसरे बिस्तर पर थोड़ी दूर पर चेतन सोया हुआ था। भोला, मासूम, निश्चिंत, सारी बात से बेखबर...क्योंकि मैंने उसे शाम को ही समझा दिया था कि बेटे, छोटी मोटी बातों पर ध्यान नहीं देते। माथुर अंकल ने तो मज़ाक में कहा होगा। अंकल की बातों का बुरा नहीं मानते।
सीमा की इच्छा मैंने भांप ली थी।
अब सदियों की परेशानी... सदियों का दुख सोचकर लम्हों के सुख को कैसे छोड़ दे कोई...?
( समाप्त ) - प्रबोध कुमार गोविल