Meaning of Braham and Adi Guru Sankaracharya's Non- dualism philosophy in Hindi Spiritual Stories by Dr. Bhairavsinh Raol books and stories PDF | ब्रह्म का अर्थ व आदि गुरु शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन

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ब्रह्म का अर्थ व आदि गुरु शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन

ब्रह्म का अर्थ व आदि गुुरु शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन :

वेदों के अनुसार ब्रह्म :
ब्रह्मांड शक्ति को वेदों में 'ब्रह्म' कहा गया है। ब्रह्म को आजकल लोग ईश्वर, परमात्मा, परमेश्वर, प्रभु, सच्चिदानंद, विश्वात्मा, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, भर्ता, ग्रसिष्णु, प्रभविष्‍णु और शिव आदि नामों से जाना जाता है, वही इंद्र में, ब्रह्मा में, विष्‍णु में और रुद्रों में है।
ब्रह्म का मतलब:ब्रह्म शब्द बृह धातु से बना है जिसका अर्थ बढ़ना, फैलना, व्यास या विस्तृत होना। ब्रह्म परम तत्व है। वह जगत्कारण है। ब्रह्म वह तत्व है जिससे सारा विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें वह अंत में लीन हो जाता है और जिसमें वह जीवित रहता है।

पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर:
पूर्ण ब्रह्म - परमेश्वर- परम अक्षरपुरूष भी कहते है। ये अविनाशी है। ये तीन अव्यक्त परमात्मा कहलाते है ,जो गुप्त रहते है ,ये ब्रह्मा विषणु शिव जी की तरह माँ के गर्भ से जन्म नही लेते, इनकी शक्ति मे अंतर है।

परम ब्रह्म परमात्मा का अर्थ:
"परब्रह्म" का शाब्दिक अर्थ है 'सर्वोच्च ब्रह्म' - वह ब्रह्म जो सभी वर्णनों और संकल्पनाओं से भी परे है। अद्वैत वेदान्त का निर्गुण ब्रह्म भी परब्रह्म है। वैष्णव और शैव सम्प्रदायों में भी क्रमशः विष्णु तथा शिव को परब्रह्म माना गया है।

निर्गुण ब्रह्म का अर्थ :
निर्गुण उपासना पद्धति में ईश्वर के निर्गुण रूप की उपासना की जाती है। हिन्दू ग्रंथ में ईश्वर के निर्गुण और सगुण दोनों रूप और उनके उपासकों के बारे में बताया गया है। निर्गुण ब्रह्म ये मानता है कि ईश्वर अनादि, अनन्त है वह न जन्म लेता है न मरता है, इस विचारधारा को मान्यता दी गई है।

ब्रह्म पुराण :
इस पुराण में सृष्टि की उत्पत्ति, पृथु का पावन चरित्र, सूर्य एवं चन्द्रवंश का वर्णन, श्रीकृष्ण-चरित्र, कल्पान्तजीवी मार्कण्डेय मुनि का चरित्र, तीर्थों का माहात्म्य एवं अनेक भक्तिपरक आख्यानों की सुन्दर चर्चा की गयी है। भगवान् श्रीकृष्ण की ब्रह्मरूप में विस्तृत व्याख्या होने के कारण यह ब्रह्मपुराण के नाम से प्रसिद्ध है।


आदि शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन :
आदि गुरु शंकराचार्य ने अद्वेत सिद्धांत दिया था।अद्वैत सिद्धांत के रचयिता थे आदि शंकराचार्य।

अद्वैत दर्शन के प्रतिपादक आदि गुरु शंकराचार्य हैं। उनके अनुसार “ब्रह्म सत्यं जगन्नमिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।” ब्रह्म अर्थात् निर्गुण ईश्वर ही एक मात्र सत्य है और आत्मा ब्रह्म का ही रूप है। आत्मा और ब्रह्म में द्वैत नहीं है।
आदि शंकराचार्य के अनुसार मूल तत्त्व:
अद्वैत दर्शन यह परिभाषित करता है कि इस जगत मे जड़ चेतन स्वरूप सभी प्राणी पदार्थो सहित यह सम्पूर्ण जगत एक ब्रह्म/ परमात्मा का स्वरूप है। इस जगत मे परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी नही है तत्व मे । यही अद्वैत दर्शन का सत्य ज्ञान है।

द्वैत (dvait) meaning in english is dual. Guru Sankaracharya expounds in depth the message of the Gita and other Vedic works and establishes that Advaita ( अद्वैत non - dualism) is the acme (the highest point of development /the most outstanding example of something उपलब्धि या श्रेष्ठता का उच्चतम बिंदु/चरम बिंदु/शिखर, पराकाष्ठा) of Vedic philosophy.

आदि गुरु शंकराचार्य का दर्शन कहता है, 'जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्यम. ' मतलब कि वैज्ञानिक निष्कर्षों सहित तमाम दुनियावी चीजें भ्रम हैं और जो शाश्वत-सात्विक सत्य है, वह है ब्रह्म. इस सच को और भी तमाम नाम दिए गए हैं. जैसे, 'ईश्वर', 'आत्मा', 'चेतना' आदि।
आदि गुरु शंकराचार्य ने तब दस श्लोक, या दस छंद कहे, जो ब्रह्म की सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमानता और सर्वव्यापीता को विस्तृत करते हैं - ।हिंदू धर्म (सनातन धर्म) की मूल अवधारणा को उजागर करते है। आईये आदि शंकराचार्य के उन दस श्लोकों पर नजर डालें।

(१). पांच तत्व मेरे वास्तविक स्वरूप को व्यक्त नहीं करते हैं; मैं परिवर्तनहीन हूँ और सदा बना रहता हूँ।

(२). मैं जातियों और पंथों से ऊपर हूं। मुझे तब दिखाई देता है जब 'माया' हटा दी जाती है, और योग सूत्र में दिखाए गए अनुसार एकाग्रता या पूजा की आवश्यकता नहीं होती है।

(३). मेरे कोई माता-पिता नहीं हैं, मुझे किसी वेद की आवश्यकता नहीं है जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है, कोई बलिदान नहीं, कोई तीर्थ नहीं। मैं शाश्वत साक्षी हूँ।

(४)विभिन्न धर्मों और दर्शनों की सभी शिक्षाएं मेरे वास्तविक स्वरूप को प्रकट नहीं करती हैं और मेरे गहरे अस्तित्व के केवल छिछले विचार हैं।

(५). मैं पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त हूं और ऊपर, मध्य और नीचे, सभी दिशाओं में हूं।

(६). मैं रंगहीन, निराकार, प्रकाश स्वरूप हूं।

(७). मेरे पास कोई शिक्षक, शास्त्र या कोई शिष्य नहीं है, न ही मैं आपको या मैं, या यहां तक ​​कि ब्रह्मांड को पहचानता हूं और मैं अपरिवर्तनीय और पूर्ण ज्ञान हूं।

(८). मैं न तो जाग्रत हूँ, न गहरी नींद में और न ही स्वप्न में, बल्कि उस चेतना से ऊपर हूँ जिससे तीनों जुड़े हुए हैं। ये सब अज्ञान के कारण हैं और मैं इससे परे हूं।

(९). मैं हर चीज में, हर जगह और शाश्वत वास्तविकता और स्वयंभू में व्याप्त हूं। सारा ब्रह्मांड मुझ पर निर्भर है और मेरे बिना कुछ भी नहीं हो जाता।

(१०). मुझे एक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसका तात्पर्य दो से है, जो नहीं है। मैं न पृथक हूं, न पृथक हूं, न खाली हूं, न भरा हुआ हूं।

वेदों के चार :महावाक्य:कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद "शुकरहस्योपनिषद " में महर्षि व्यास के आग्रह पर भगवान शिव उनके पुत्र शुकदेव को चार महावाक्यों का उपदेश 'ब्रह्म रहस्य' के रूप में देते हैं। वे चार महावाक्य ये इस प्रकार हैं।

वेद की चार घोषणाएं चार महावाक्य :
(१)‘प्रज्ञानाम ब्रह्म’ अर्थात् ब्रह्मन परम चेतना है, यह ऋग्वेद का कथन है।

(२) यजुर्वेद का सार है ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात् मैं ब्रह्म हूं।

(३)सामवेद का कथन है ‘तत्वमसि’ अर्थात् वह तुम हो।

(४)अथर्ववेद का सारतत्व कहता है ‘अयम आत्म ब्रह्म’ अर्थात् यह आत्मा ब्रह्म है।

ये सारे महान कथन भिन्न-भिन्न हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार से उनकी व्याख्या की गई है, किंतु वे सब एक ही दिव्यता की ओर इशारा करते हैं और उनका विषय केवल दिव्यता है। उपनिषद के ये महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महोषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है।

डॉ भैरवसिंह राओल