Apanag - 33 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | अपंग - 33

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अपंग - 33

33

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   भारत में समय पँख लगाकर उड़ जाता है | पता ही नहीं चला कब दो महीने पूरे होने को आए | रिचार्ड के मेल आते रहते थे, फोन्स भी | माँ-बाबा को लगता राजेश के हैं | हाँ, कभी कभी माँ-बाबा उससे पूछते, आख़िर कैसे इतना बिज़ी हो गया है राजेश कि कभी उनसे दो मिनट भी बात नहीं कर पाता ? भानु कोई न कोई बहाना लगा देती, लगाना ही पड़ता, ज़रूरी था | 

अपनी ज़िंदगी की सच्चाई को भानु कैसे शेयर करती?उसने अपनी ज़िद से ही तो सब कुछ किया था उसने |फिर माँ-बाबा जितने परेशान हो चुके थे, हो ही चुके थे | मुन्ना के आने के बाद माँ-बाबा बहुत निश्चिन्त भी हो चुके थे | मुन्ना कितना हिल गया था उनके पास बल्कि अपनी आया को देखकर भी वह किलकारी भरने लगा था | 

"तुझे वापिस भी तो जाना होगा, राजेश बेचारा भी मिस कर रहा होगा बच्चे को |" एक दिन माँ बोलीं | 

"क्यों, मेरे से और अपने मुन्ना से मन भर गया क्या आपका ?" भानु ने जानबूझकर मुंह फुलाया | 

"इसमें कोई बदलाव नहीं आया, बताओ कोई अपने बच्चों से बोर होता होगा ? हम तो ये सोच रहे थे कि राजेश बेचारा कितना मिस करता होगा इसको !" 

  माँ-बाबा की बात सुनकर भानु एक बार तो अस्वस्थ हो गई थी, दूसरे ही पल खिलखिलाकर हँस पड़ी | 

"अरे ! माँ, वहां समय किसके पास है बच्चे खिलाने का ?" 

"अब बच्चों के लिए समय ही नहीं है तो इतनी कमाई किसलिए ?" 

"ऐसा ही है माँ, पैसा खूब मिलता है पर परिवार को भूल जाता है इंसान !" 

"मेहनत तो सब जगह करनी पड़ती है, वो तो ठीक है, क्या यहाँ नहीं करनी पड़ती ?तो भी बेटा अपना देश और अपना वेश तो और ही अहमियत रखते हैं | खैर अपना वेश तो तूने नहीं उतारा पर अपना देश तो तुम लोग भूलते ही जा रहे हो |" माँ-बाबा दोनों शिकायत से भरे थे | 

उनकी शिकयत बिलकुल ठीक थी | भानुमति का मन कराह उठा | उसका बस चलता तो वह वापिस जाने की सोचती भी नहीं, आखिर उसका क्या था वहां ? लेकिन माँ-बाबा को पहले ही इतनी तकलीफ़ दे चुकी थी, अब अगर उन्हें उसकी टूटी हुई गृहस्थी के बारे में पता चलता तो कितने कष्ट में आ जाते, उनकी वृद्धावस्था ही खराब हो जाती | वह ऐसे भंवर में फँसी थी कि अभी तो उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था | न जाने भविष्य में क्या करेगी ? 

कितने असहाय हो उठे थे माँ-बाबा ! अपना इतना बड़ा व्यवसाय सारा मैनेजर और कर्मचारियों के ऊपर छोड़ रखा था | कभी-कभी फ़ैक्ट्री का चक्कर लगा आते बाबा | पर उससे क्या होता है ? सब अधूरा सा लगता | प्रोडक्शन आधी भी नहीं रह गई थी | अब भी उन्हें यही लगता कि एक बार अमरीका की चाकरी करके देख लेने के बाद तो राजेश को दोनों जगह में फ़र्क समझ में आ जाएगा | यहाँ वह अपना मालिक था और वहां जितना भी कमा ले, था तो किसीका कर्मचारी ही | 

इस समय भानुमति का कर्तव्य था कि बेटे की तरह बाबा का हाथ पकड़कर अपने व्यवसाय को और फलते फूलते देख सकती, उस चीज़ का आनंद लेते सब मिलकर जिसको बाबा ने कितने श्रम से फलीभूत किया था |

"अभी नहीं जाती मैं --अभी आई हूँ तो रुकूँगी ---" भानु ने कहा | 

"तुझे जाने को कौन कह रहा है, तेरा ही तो घर है, बस कहीं राजेश अकेला न पड़ जाए, हमें तो तुम्हारे संबंध की चिंता है | " माँ ने कहा | 

एक बेटी के माँ-बाबा के लिए इस प्रकार की चिंता स्वाभाविक ही होती है | 

"अरे, अभी मैं रुकूँगी और जब तक हूँ फैक्ट्री जाऊँगी |" 

"अरे वाह, ये तो बहुत बढ़िया है, देख ले बेटा, क्या चल रहा है ? मैं तो इसीलिए सोच रहा था कि थोड़े दिन के लिए तो आई है तो दोस्तों से मिल, एंजॉय कर --" 

"हाँ, सब कुछ होगा बाबा, सब करूंगी | मैं आपकी बेटी हूँ --" माँ-बाबा के चेहरे प्रसन्नता भरी मुस्कान से दमकने लगे | 

उसका तो मन हुआ कि अभी कुछ बहाने लगाकर रुक जाए और अपने पैतृक व्यवसाय को सही तरीके से देखे | 

"देख लो बेटा, शादी के बाद ज़िम्मेदारियाँ और भी बढ़ जाती हैं | " कहकर माँ अपना कुछ काम देखने चली गईं | 

मुन्ने महाराज बाबा की गोदी में मुस्कुरा रहे थे | 

"भई, इसकी प्रैम लाओ | हम और हमारा मुन्ना बगीचे में घूमने जाएंगे --" आया ने प्रैम में मुन्ना को लिटा दिया | बाबा उसे लेकर सीटी बजाते हुए बगीचे की ओर निकल गए | कितने मस्त लग रहे थे बाबा ! भानु को एक संतुष्टि का अहसास हुआ |