41 - जयोल्लांस
क्या सभी दशाओं में मृत्यु कष्टकर जान पड़ती है? बहुत-से लोग तो इस दु:खों - यंत्रणाओं से भरे संसार में ऐसे होते हैं, जो खुशी-खुशी मरना चाहते हैं। वे मृत्यु को भयानक नहीं समझते। कितने ही ऐसे धर्मवीर हुए हैं, जिन्होंने निर्भीक होकर मृत्यु से भेंट की। सत्य और धर्म के लिए, संसार से अन्याय को दूर करने के लिए, कितने ही धर्मवीर और कर्मवीर प्रसन्नता से मृत्यु की वेदी पर बलि हो गए। क्या उन्हें उस समय मृत्यु कष्टकर जान पड़ी थी? कदापि नहीं! मनुष्य जब सत्य विश्वास से उत्तेजित हो जाता है और हृदय में उमड़े हुए धर्म-प्रेम और प्रेमावेश के कारण अपने-आपको भूल जाता है, उस समय वह बाह्य ज्ञान से सर्वथा रहित हो जाता है। किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट उसकी अंतरात्मा को स्पर्श नहीं कर सकता।
परंतु जिन्हें नित्य मार का कष्ट सहन करना पड़ता है, जिन्हें अत्याचारी लोग बूँद-बूँद रक्त चूसकर मारते हैं और कठोर आचरण सहते-सहते जिनके हृदय की दया, ममता, एवं अन्य सब प्रकार के सद्भावों का शनै:-शनै: नाश हो जाता है, उन्हें भी क्या मृत्यु कष्टकर नहीं है? इससे अधिक कष्टकर मृत्यु संसार में और हो भी क्या सकती है?
नर-पिशाच लेग्री जब टॉम को पीटता था और उसे मार डालने की धमकी देता था, उस समय टॉम मन-ही-मन सोचता था कि अब उसके संसार छोड़ने का समय आ गया है, अब शीघ्र ही मृत्यु आकर उसके सारे दु:ख-दर्दों को दूर किए देती है। अत: उसके भयभीत होने का कोई कारण नहीं था। सत्य-विश्वास से उत्तेजित हो कर, धर्मवीरों की भाँति, बेधड़क हो कर, वह लेग्री के सामने डटकर खड़ा हो जाता और ईश्वर के सद्दृष्टांत के अनुसरण करने का विचार करके मन-ही-मन हर्षित होता था। जब वह उसे ठोंक-पीटकर चला जाता और टॉम देखता कि मृत्यु तो आई नहीं, उस समय हृदय का वह उमड़ा हुआ धर्मवेग और मार के समय की उत्तेजना शनै:-शनै: मंद पड़ जाती और तब उसे मार का दर्द बहुत अखरता। उसका शरीर शिथिल पड़ जाता और साथ ही उसकी अंतरात्मा को भी अवसन्नता धर दबाती। उसके दिल में निराशा आ जाती और अपनी दुर्दशा का स्मरण होते ही उसके दिल में असह्य यंत्रणा की अग्नि धधक उठती।
पहले दिन की मार से ही टॉम का शरीर जगह-जगह से छिल गया था और वह बहुत अशक्त हो गया था। पर लेग्री ने वह अशक्तता दूर होने के पूर्व ही, मारे हठ के, उसे खेत के काम में जोत दिया। अन्य कुलियों के साथ उसे काम पर जाना पड़ता था। अपनी इस कमजोरी की हालत में भी वह जी लगाकर खेत का काम करता था, परंतु खेत के रखवाले केवल अपनी हिंसक-वृत्ति को चरितार्थ करने के लिए समय-समय पर उसे बेंत लगाते रहते थे। भला इस निष्ठुर आचरण पर भी कोई सहिष्णु रह सकता था? परंतु टॉम बड़ी ही शांत प्रकृति का आदमी था। उसके धीरज और सहिष्णुता की सीमा नहीं थी। परंतु कभी-कभी सांबो और कुइंबो के हृदयहीन आचरण से उसका मन भी सहिष्णुता को भुला बैठता था। टॉम की समझ में अभी तक यह बात नहीं आई थी कि लेग्री के खेत के कुली ऐसे मनुष्यत्व-विहीन और दुश्चरित्र क्यों हो गए हैं! उनका हृदय केवल हिंसा, द्वेष, वैर-विरोध स्वार्थपरता, निष्ठुरता का घर क्यों बन गया है! वह इस बात से हैरान था कि इन कुलियों के जड़-हृदय में क्षण भर के लिए भी सहानुभूति का संचार क्यों नहीं होता? परंतु अब उसे उनके किसी आचरण से आश्चर्य नहीं रहा। अब उसने सहज ही समझ लिया कि अपनी इस प्रकृति का निष्ठुर आचरण के अवश्यंभावी फल के सिवा और कोई कारण नहीं है, पर वह अपने मन में बहुत डरा कि समय पाकर वह निष्ठुर आचरण कहीं उसकी प्रकृति को भी भ्रष्ट न कर दे। इस डर से वह जब जरा-सा अवकाश पाता, तुरंत अपनी बाइबिल लेकर बैठ जाता। परंतु आजकल काम का इतना जोर था कि रविवार तक काम के बोझ से छुट्टी नहीं मिलती। कपास चुने जाने के दिनों में कई महीनों तक लेग्री कुलियों को रविवार की भी छुट्टी नहीं देता था। क्यों देता? धर्म तो उसका कुछ था ही नहीं, उसके लिए तो देवता और देवता का मंदिर वही कपास का खेत था और था नगदनारायण!
पहले टॉम खेत से लौटने पर नित्य रात्रि को रोटी बनाने के समय, चूल्हे के उजाले में बैठकर, बाइबिल के एक-दो उपदेश पढ़ लिया करता था, किंतु आजकल वह इतना कमजोर हो गया था कि खेत से लौटने पर पल भर भी उससे बैठा न जाता था। आते ही थकावट के मारे वह झोपड़ी में पड़ा रहता और दर्द से छटपटाने लगता।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जब-तब टॉम-सरीखे पक्के धर्म-विश्वासी का मन भी डावांडोल होने लगा। जिस सुदृढ़ विश्वास के कारण उसने सारे जीवन किसी भी कष्ट की परवाह नहीं की, उसी अदम्य धर्म-विश्वास के, निष्ठुर आचरण के सामने परास्त होने की संभावना होने लगी। अज्ञेय अंधकारपूर्ण जीवन-पहेली के संबंध में उसके मन में भाँति-भाँति के प्रश्न उठने लगे। हृदय सुस्त पड़ने लगा। अपने मन में वह प्रश्न करने लगा "जगत्-पिता कहाँ है? वह चुप क्यों है? क्या संसार में सचमुच पाप ही की जय होती है?" फिर आप-ही-आप सोचने लगा - नहीं, परमात्मा मुझे कभी नहीं भुलाएगा। संभव है, मिस अफिलिया के पत्र पाने पर केंटाकी से कोई मेरा उद्धार करने आता हो।
यों सोचते-सोचते वह व्याकुल होकर ईश्वर से प्रार्थना करने लगा। वह प्रतिदिन सवेरे उठकर बड़ी आशा से मार्ग की ओर देखता था कि केंटाकी से कोई उसे मुक्त कराने के लिए आ रहा है या नहीं। यों ही देखते-देखते कितने ही दिन बीत गए, परंतु कोई कहीं से आया-गया नहीं। तब फिर उसके मन में वही पुराना प्रश्न जाग उठा, "क्या ईश्वर ने मेरी सुध बिलकुल ही बिसार दी है?"
एक दिन संध्या के उपरांत खेत से आकर वह ऐसा शक्तिहीन हो गया कि धड़ाम से जमीन पर गिर गया। आज उसकी उठने की शक्ति एकदम जाती रही। लेटे-लेटे ही रोटियाँ बनाने की फिक्र में लगा। बीच में उसकी बाइबिल पढ़ने की इच्छा हुई। तब चूल्हे की आग जरा तेज करके निशान लगाए हुए अपनी पसंदवाले बाइबिल के अंशों को पढ़ने लगा। पढ़ते-पढ़ते मन-ही-मन प्रश्न करने लगा-क्या संसार से शास्त्र की शक्ति जाती रही है? क्या यह धर्मशास्त्र भग्न हृदयों को बल और निष्प्रभ चक्षुओं में ज्योति नहीं देता? इसके बाद ठंडी साँस लेकर उसने ज्यों ही बाइबिल बंद की, त्योंही उसे पीछे से किसी का विकट हास्य सुनाई दिया। गर्दन घुमा कर देखने पर उसने लेग्री को अपने पीछे खड़ा पाया।
लेग्री बोला - "अब तो समझ लिया न, कि धर्म तेरी कुछ मदद नहीं करने का? मैंने तो पहले ही कहा था कि तेरा धर्म-कर्म सब हवा कर दूँगा।"
धर्म के संबंध में इस व्यंग्य ने टॉम के हृदय में बरछी मार दी। इतना कष्ट उसे दिन भर की भूख-प्यास से भी नहीं हुआ था।
लेग्री ने कहा - "तू निरा गधा है। मैंने खरीद के समय तुझे कोई बड़ा ओहदा देने की बात सोची थी। मैं तुझे सांबो और कुइंबो से भी ऊँची जगह देता। आज वे तुझे कोड़े लगाते हैं, लेकिन मेरी बात मानकर तू उन सबको कोड़े लगा सकता था। मैं तुझे बीच-बीच में थोड़ी व्हिस्की या ब्रांडी भी पीने को दिया करता। मैं अब भी कहता हूँ कि तू अपने ये सब ढोंग छोड़ दे। अपनी उस फटी-पुरानी पोथी को चूल्हे में झोंककर मेरा धर्म अंगीकार कर!"
टॉम ने शांति से कहा - "ईश्वर न करे ऐसा हो!"
लेग्री बोला - "तू देखता तो है कि ईश्वर तेरी कुछ भी मदद नहीं कर रहा है। अगर उसे तेरी मदद करना मंजूर होता तो वह तुझे मेरे हाथ में ही न पड़ने देता। टॉम, तेरा यह धरम-करम एक तरह का झूठा ढोंग है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ। मेरी बात मानकर चलना ही तेरे लिए अच्छा रहेगा। मैं सामर्थ्यवान आदमी हूँ और तेरा कुछ उपकार कर सकता हूँ।"
टॉम ने उत्तर दिया - "नहीं सरकार, मैं अपना संकल्प नहीं छोडूँगा। भगवान मेरी सहायता करे या न करे, पर मैं उसकी शरण में रहूँगा और अंत तक उस पर विश्वास रखूँगा।"
लेग्री ने ठोकर मारकर उस पर थूकते हुए कहा - "तू बड़ा मूर्ख है! खैर, कुछ परवा नहीं, मैं तुझे समझूँगा। तू देखेगा कि मैं तुझसे कैसे अपनी बात मनवाता हूँ।" यह कहकर लेग्री वहाँ से चला गया।
यंत्रणा के बड़े भार से जब आत्मा सर्वथा अवसन्न हो जाती है और धैर्य सीमा को पहुँच जाता है, उस समय देह और मन की सब शक्तियाँ उस भार को अलग फेंकने के लिए तिलमिलाने लगती हैं। इसी से प्राय: घोरतम यंत्रणा के उपरांत तत्काल हृदय में आनंद और साहस का स्रोत बहते देखा जाता है। यही दशा इस समय टॉम की थी।
निर्दयी मालिक के नास्तिकता-पूर्ण तानों ने उसके दु:ख से बोझिल हृदय को और अधिक अवसन्न कर दिया। यद्यपि उसका विश्वास उस अनंत परमेश्वर से डिगा नहीं, पर निराशा से वह सर्वथा शिथिल हो गया। टॉम चूल्हे के पास संज्ञा-शून्य की भाँति बैठा रहा। सहसा उसके चारों ओर के पदार्थ मानो शून्य में विलीन हो गए और काँटो का ताज पहने, रक्त से आरक्त, आहत ईसा की मूर्ति उसके नेत्रों के सम्मुख उपस्थित हुई। भय और आश्चर्य से उस आगत के चेहरे के महान सहिष्णु भाव की ओर वह निहारने लगा। उन गंभीर और करुणा से उद्दीप्त युगल नेत्रों की दृष्टि उसके अंतस्तल पर पड़ी, इससे उसकी अवसन्न और मुमूर्षु आत्मा जाग उठी। वह घुटने टेककर और दोनों हाथ आगे फैलाकर बैठ गया। उसी समय शनै:-शनै: उस आकृति का रूप बदलने लगा। काँटों के मुकुट की जगह किरणें चमकने लगीं। एक अपूर्व प्रभा-मंडल से उद्भासित उस मुख ने स्नेह-चक्षुओं से उसकी ओर देखा। उस कंठ से सुधा की धारा बह निकली। टॉम ने सुना, वाणी कह रही थी - "जैसे मैंने पाप और अत्याचारों पर विजय प्राप्त कर, पिता के साथ पवित्र सिंहासन पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त किया, वैसे ही वह भी मेरे साथ इस सिंहासन पर बैठ सकेगा, जो संसार में पाप और अत्याचारों पर विजय प्राप्त करेगा।"
टॉम कितनी देर तक वहाँ पड़ा रहा, इसका उसे कुछ भी होश न था। जब वह होश में आया, तब उसने देखा कि आग बुझ गई है, उसके कपड़ों और शरीर को ओस ने तर कर दिया है, परंतु आत्मा का वह संकट-काल निकल गया है। अब उसे हृदय में एक अपूर्व आनंद भरा हुआ है। उस आनंद की उमंग में भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, अपमान और नैराश्य आदि की सभी यंत्रणाओं को उसने बिसार दिया है। इस जीवन की समस्त आशाओं को तिलांजलि देकर उसने अपना चित्त अनादि देव के चरणों में लगा दिया। आकाश के उज्ज्वल तारों की ओर आँखें लगाकर टॉम आकाश को प्रतिध्वनित करता हुआ आत्मा के गंभीर आनंद में मगन हो कर, यह गीत गाने लगा -
हिम सम पृथ्वी गल जाएगी, भानु भस्म हो जाएगा।
तब भी मैं प्रभु, तेरा हूँगा, तू मेरा कहलाएगा।।
होगा पूर्ण धरा का जीवन, जड़ शरीर यह मंद।
शांति-सरोवर में तैरूँगा, पाकर के मैं ब्रह्मानंद।।
वर्ष सहस्र यहाँ पर रहकर फिर प्रकाश-युत भानु-समान।
गाता नित्य रहूँगा वैसे जैसे था जब छेड़ा गान।।
यह कोई नई घटना नहीं थी। धर्म-विश्वासी गुलामों में ऐसी अचरज-भरी घटनाएँ प्राय: होती रहती थीं। मनोविज्ञानी पंडितों का मत है कि ऐसी भी अवस्थाएँ हुआ करती हैं, जिनमें मन के भाव और कल्पनाएँ इतनी उत्तेजित और प्रबल हो जाती हैं कि उस समय समस्त बाहरी इंद्रियों पर उनका प्रभाव हो जाता है, और ऐसी अवस्था में कल्पित पदार्थ प्रत्यक्ष-से दीख पड़ने लगते हैं। सर्वव्यापी परमेश्वर मनुष्य को वे शक्तियाँ देकर उसके जीवन में जो अनेक घटनाएँ घटाता है, उनकी गिनती कौन कर सकता है? और इस बात का निर्णय कौन कर सकता है कि वह किन-किन उपायों के द्वारा निराश और असहाय आत्माओं में नए बल का संचार करता है? यदि यह दास विश्वास करे कि ईसा ने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया था, उससे बातें की थीं, तो कौन उसकी बात का प्रतिवाद करेगा!
दूसरे दिन प्रात:काल, जब हड्डियों के ढाँचे बने गुलाम लोग खेतों की ओर चले, तब उन चीथड़ों में लिपटे, जाड़े से काँपते अभागों में केवल एक ही व्यक्ति ऐसा था, जो उमंग से पैर रखता मस्तानी चाल से जा रहा था। कारण यही था कि ईश्वर के अनंत प्रेम पर उसका अटल विश्वास जम गया था। अरे लेग्री! तू अब अपनी सारी शक्ति आजमा कर देख ले। अति दारुण यंत्रणा, शोक, अपमान सब-के-सब इसके लिए शांति-निकेतन ही सीढ़ियाँ बनकर इसे स्वर्ग की ओर अग्रसर करने में सहायता करेंगे।
उत्पीड़ित टॉम का विनीत हृदय अब और भी अधिक शांतिपूर्ण हो गया। नित्य-पवित्र परमेश्वर ने उसके श्रद्धापूर्ण हृदय को अपना पवित्र मंदिर बना लिया। इस जीवन का मर्मांतक परिताप बीत चुका। इस जीवन की आशा, भय और आकांक्षा का उद्वेलन पीछे छूट गया और पल-पल की संग्राम-क्लिष्ट रुधिराक्त मानवीय इच्छाएँ संपूर्ण रूप से ईश्वरीय इच्छा में विलीन हो गईं। टॉम को अपनी जीवन-यात्रा का बचा भाग बहुत अल्प प्रतीत होने लगा और अनंत शांति तथा अनंत सुख इतना पास और इतना स्पष्ट जान पड़ने लगा कि जीवन के दुस्सहतम कष्ट भी उसके हृदय पर असर न कर सके।
उसका यह बाहरी परिवर्तन सबको दिखाई पड़ने लगा। उसका मुख हर समय प्रफुल्ल रहने लगा और हर काम में उसका फुर्तीलापन फिर दिखाई देने लगा। वह बड़े धीरज, सहिष्णुता और शांति के साथ अत्याचार और निष्ठुर व्यव्हार सहने लगा। किसी भी प्रकार के दुर्व्यव्हार से उसके मन में उद्विग्नता या उत्कंठा नहीं पैदा होती थी। यह देखकर एक दिन लेग्री ने सांबो से कहा - "टॉम पर आजकल कौन-सा भूत सवार हो गया है? थोड़े दिन हुए तब तो वह बिलकुल हिल गया था, लेकिन आजकल तो वह बड़ी तेजी दिखलाता है!"
सांबो ने कहा - "कुछ ठीक नहीं मालूम, सरकार! शायद यहाँ से भाग जाने की जुगत कर रहा होगा।"
लेग्री ने अपनी छिपी इच्छा व्यक्त की - "एक बार भागने की कोशिश करे तो अपना काम ही बन जाए। मैं भी यही चाहता हूँ।"
सांबो ने हँसते हुए कहा - "जान पड़ता है, हम लोगों को जल्दी ही वह दिन देखना नसीब होगा। जरूर वह भागने की ताक में है। भागने पर जब शिकारी कुत्ते उसे दाँतों में दबा लाएँगे तब बड़ा मजा आएगा। एक बार जब भोली नाम की दासी भागी थी तो कैसा तमाशा हुआ था। मेरा तो उस वक्त हँसते-हँसते पेट फटा जा रहा था। कुत्तों ने जाकर उसे पकड़ा और हम लोगों के पहुँचने से पहले ही उसका आधा शरीर नोच डाला। उसे देखकर मुझे ऐसी हँसी छूटती थी कि क्या कहूँ!"
लेग्री बोला - "मालूम होता है, लूसी अब शीघ्र ही कब्र में आराम करेगी; लेकिन सांबो, जब भी कोई दास या दासी बहुत खुश और तेज दिखाई पड़े तो तुम्हें फौरन उसका मिजाज दुरुस्त करने की ओर ध्यान देना चाहिए।"
सांबो ने उत्तर दिया - "आप बेखटक रहिए। मैं खुद ही सब ठीक कर लूँगा।"
यह तीसरे पहर की बात थी, जब लेग्री घोड़े पर सवार होकर पास के किसी कस्बे में जा रहा था। उसने मन-ही-मन सोचा था कि उधर से लौटते हुए कुलियों के झोपड़े देखता चलूँगा।
कस्बे से लौटते हुए जब वह कुलियों की झोपड़ियों से थोड़ी दूर रह गया, तब उसे किसी के गाने की आवाज सुनाई पड़ी। उसने जरा ठहरकर सुना तो मालूम हुआ कि टॉम गा रहा है:
जब देखूँगा, लिखा हुआ है स्वर्ग-द्वार पर मेरा नाम,
भय-भावना बिदा कर दूँगा, अश्रु पोंछ लूँगा विश्राम।
वैरी बन जग लड़ने आवे और नरक से बरसें बाण,
तो भी धरा भृकुटि को निर्भय देखूँ गिनूँ तुच्छ शैतान।
प्रलय-समु्द्र उमड़ आवे या घोर शोक का हो तूफान,
मुझको कुछ परवाह न होगी, कुछ न पड़ेगा मुझको जान।
मिले निरापद मुझे स्वर्ग-गृह परम पिता सर्वस्व-समान।
यह गीत सुनकर लेग्री मन-ही-मन कहने लगा - "हा-हा, बदमाश सोचता है कि स्वर्ग जाऊँगा। इसका गीत सुनकर मेरे तो कान जल उठते हैं!"
इसके बाद वह टॉम के सामने पहुँचा और चाबुक ऊँचा उठाकर बोला - "हरामजादे! इतनी रात में बाहर पड़ा क्या गोलमाल कर रहा है?"
बहुत ही प्रसन्न और विनम्र-भाव से "जो हुकुम सरकार" कहकर जब टॉम अपनी झोपड़ी में जाने लगा, तो उसकी प्रसन्नता देखकर लेग्री के मन में असीम क्रोध की ज्वाला भड़क उठी और तत्काल उसने उसके कंधों और पीठ पर कोड़े बरसाते हुए कहा - "क्यों रे सूअर, तू यहाँ बड़ी मौज उड़ा रहा है!"
परंतु यह चाबुक की मार ऊपर-की-ऊपर ही रह गई, टॉम के भीतर हदृय पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसे इस मार का कोई दुख नहीं हुआ। वह अब जीवनमुक्त हो चुका है। उसकी यह पंचभौतिक काया आत्मा से पृथक हो चुकी है। अत: कोई भी बाह्य कष्ट उसे नहीं जान पड़ता था। टॉम सिर झुकाए खड़ा रहा। लेग्री ने महसूस किया कि इसे अपने ढंग पर लाना शक्ति से बाहर है। उसने समझा, ईश्वर अत्याचारों से इसकी रक्षा कर रहा है। ऐसा सोचकर वह ईश्वर को गालियाँ देने लगा। ताने, धमकियों और बेतों की मार, किसी से भी टॉम के हृदय की शांति को लेग्री नष्ट नहीं कर सका। इन दशाओं में जब उसने टॉम को विनम्रता और प्रफुल्लता से दिन काटते देखा, तो वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गया। ईसा को सतानेवालों ने, उन्हें प्रसन्नता से अत्याचारों को सहते देखकर कहा था - "ईसा, तू क्या हम लोगों के हृदय की अग्नि को समय से पूर्व ही सुलगा देगा?" लेग्री के हृदय में भी आज यही भाव उत्पन्न हुआ। वह टॉम को दुखी देखने के लिए कोड़े लगाता, परंतु टॉम इससे तनिक भी दु:खी न होता। यह देखकर लेग्री के हृदय में अशांति की भयानक आग धधकने लगी।
लेग्री के खेत में काम करनेवाले दीन-दुखी कुलियों की दुर्दशा देखकर टॉम के हृदय में बड़ा ही क्लेश हुआ। उसके अपने दु:खों का अंत हो गया है, स्वयं वह स्वर्गीय शांति का अधिकारी बन चुका है, अब वह अपनी इस शांति-संपदा का कुछ अंश इन दीन-दुखियों को बाँटने की चिंता करने लगा। उसने कुलियों के साथ धर्म-चर्चा करके उन्हें शांति के रास्ते पर लाने की बात सोची, परंतु उनके साथ धर्म-चर्चा करने का बिलकुल ही अवकाश नहीं था। केवल खेत में आते-जाते समय बातें करने का कुछ अवसर था। टॉम ने इन्हीं क्षणों का सदुपयोग करके अभागे कुलियों के साथ धर्म-चर्चा प्रारंभ कर दी। पहले तो उसके सद्विचार का मर्म कोई भी नहीं समझ सका, परंतु धीरे-धीरे उनका वह कठोर हृदय भी पसीजने लगा। कभी वह आप भूखा रहकर अपना भोजन किसी दूसरे को दे डालता, कभी किसी सर्दी से परेशान रोगी कुली का कष्ट देखकर उसे अपना फटा कंबल दे देता और खुद जमीन पर ही पड़ा रहता। कभी किसी कमजोर स्त्री मजदूर को कपास चुनने में असमर्थ देखकर अपनी चुनी हुई कपास उसकी टोकरी में डाल देता। यह सब करते हुए उसने एक बार भी परवा नहीं की कि इन कार्रवाइयों से उसकी पीठ की चमड़ी उधेड़ी जा सकती है।
उसका ऐसा दयालुतापूर्ण आचरण देखकर खेत के सारे कुलियों का हृदय उसकी ओर आकर्षित होने लगा। कुछ समय बाद कपास चुनने के दिन निकल गए, अत: कुलियों को अब उतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। उन्हें काफी अवकाश रहता था। इस समय वे अक्सर टॉम के पास बैठकर धर्म-कथाएँ सुनते तथा टॉम के साथ-साथ प्रार्थना किया करते थे।
परंतु प्रार्थना से लेग्री बहुत चिढ़ता था। वह जब सुनता कि कुली लोग टॉम के पास बैठकर धर्म-चर्चा कर रहे हैं, तो वह वहाँ पहुँचकर उन्हें बहुत मारता-पीटता। इससे उनकी धर्म-चर्चा की तृष्णा और भी बढ़ गई। वास्तव में धर्म-विद्वेषियों का अपना स्वयं का आचरण ही धर्म-प्रचार में सर्वाधिक सहायक होता है।
निरंतर अत्याचारों और हृदयहीनता के कारण लूसी का धर्मभाव सर्वथा नष्ट होनेवाला था, पर टॉम के उपदेशों और धर्म-संगति से उसका मृतप्राय विश्वास पुन: सजीव हो उठा। औरों की बात जाने दीजिए, कासी जो इतनी प्रतिहिंसक, क्रूर और उन्मत्त हो गई थी, उसके हृदय में भी भक्ति, विश्वास और प्रेम का संचार हो गया।
कासी का हृदय पहले से ही असह्य यंत्रणाओं की आग में जल रहा था, संतान-शोक के कारण वह प्राय: सनकी-सी हो गई थी, इससे उसने मन-ही-मन ठान लिया था कि मौका मिलने पर वह इस अत्याचारी लेग्री को उसके कुकर्मों का मजा जरूर चखाएगी।
एक दिन रात के समय, जब और सब लोग सो रहे थे, टॉम ने एकाएक उठ कर देखा कि कासी उसे इशारे से बाहर बुला रही है।
टॉम कुटिया से बाहर आया। रात के दो बजे होंगे। चारों ओर चाँदनी छिटकी हुई थी। टॉम ने आज कासी के चेहरे पर विलक्षण आशा और उत्साह का भाव देखा। वैसे उसका चेहरा सदा निराशा की मूर्ति बना रहा था, परंतु आज उस सर्वग्रासी निराशा की जगह पर आशा की चमक थी।
कासी ने बड़ी व्यस्तता से टॉम की कलाई इस सख्ती से पकड़कर, मानो उसके हाथ इस्पात के बने हों, उसे आगे को खींचते हुए कहा - "पिता टॉम, इधर आओ, तुमसे एक खास बात कहनी है।"
टॉम ने कुछ शंकालु-भाव से पूछा - "क्यों, क्या बात है?"
कासी ने कहा - "क्यों, तुम स्वतंत्र होना पसंद नहीं करते?"
टॉम बोला - "जब ईश्वर की मर्जी होगी, तब स्वतंत्रता मिलेगी।"
कासी ने बड़े उल्लास से कहा - "लेकिन तुम्हें आज ही रात को स्वतंत्रता मिल सकती है। इधर आओ, इधर आओ!"
इसके बाद कासी चुपके-चुपके टॉम के कान में कहने लगी - "अभी लेग्री नींद में बेहोश है। मैंने ब्रांडी में अफीम मिला दी है। अत: जल्दी नींद नहीं खुलेगी। इधर आओ। पिछवाड़े का दरवाजा खुला है। वहाँ मैंने पहले से ही एक कुल्हाड़ी रख छोड़ी है। मैं तुम्हें मार्ग बताए देती हूँ। मैं अपने हाथों से काम कर लेती, पर मेरे हाथों में इतना बल नहीं है। तुम मेरे साथ आओ।"
टॉम ने बड़ी दृढ़ता से कहा - "संसार भर का राज्य मुझे मिले तो भी मैं ऐसा पाप-कर्म नहीं करूँगा।"
कासी बोली - "पर जरा इन अभागों की दुर्दशा पर तो विचार करो। हम लोग इन सब गुलामों को मुक्त कर देंगे और फिर किसी द्वीप में चलकर बसेंगे।"
टॉम बोला - "मिस कासी, मैं तुम्हें भी मना करता हूँ। ऐसा बुरा काम कभी न करना। बुरे काम का नतीजा कभी अच्छा नहीं होगा। ईश्वर के लिए कष्ट सहो, पर इस पाप से हाथ न रंगो। कासी, ऐसा काम मत करना। नहीं-नहीं, तुम एक तो यों ही पाप के समुद्र में डूब रही हो, उस पर अब यह नया पाप मोल मत लो। हमें कष्ट सहते हुए समय का इंतजार करना चाहिए।"
कासी कुछ क्रोध में बोली - "इंतजार! क्या मैंने इंतजार नहीं किया? मैंने बहुत इंतजार किया है। अब इस हाड़-मांस के शरीर से ज्यादा नहीं सहा जाता।"
टॉम ने कासी को समझाया - "देखो कासी, ईसा ने अपना रक्त दिया, लेकिन किसी दूसरे का खून नहीं गिराया। हमें शत्रु को भी प्यार करना चाहिए।"
कासी बोली - "प्यार करूँ? ऐसे दुश्मन को प्यार करूँ? क्या मेरा शरीर लोहे का बना हुआ है?"
टॉम ने कहा - "हम लोगों की सच्ची जीत तभी होगी तब हम शत्रु को भी क्षमा करके उसके कल्याण के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर सकें।"
इतना कहकर टॉम आकाश की ओर देखने लगा।
टॉम का यह हृदय-ग्राही उपदेश सुनकर कासी का हृदय पिघल गया। तब उसने कहा - "पिता टॉम, मैं तो पहले ही कह चुकी हूँ कि मुझपर शैतान सवार है। मैं प्रार्थना करना चाहती हूँ, पर कर नहीं सकती। तुमने जो कहा है, सच है, लेकिन मेरा हृदय न जाने कैसी प्रतिहिंसा से भरा हुआ है कि मैं जब भी प्रार्थना करती हूँ, मेरे हृदय में शत्रु के विरुद्ध आग धधकने लगती है।"
टॉम बोला - "हाय, तुम्हारी आत्मा में कितनी अशांति भरी हुई है। मैं तुम्हारे कल्याण के लिए ईश्वर से प्रार्थना करूँगा। कासी बहन, ईश्वर में मन लगाओ!"
कासी चुपचाप खड़ी रही। उसकी आँखों से आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूँदे गिरने लगीं।
टॉम ने फिर कहा - "कासी बहन, तुम यदि यहाँ से भागकर कहीं निकल सको तो मैं तुम्हें और एमेलिन को भागने की सलाह देता हूँ।"
कासी ने पूछा - "क्या तुम भी हम लोगों के साथ चलोगे?"
टॉम ने बताया - "मैं पहले तो चला भी जाता, लेकिन अब मुझे यहाँ एक काम है। मैं इन दीन-दुखी दास-दासियों को धर्म की ओर ले जाने की चेष्टा करूँगा। ईश्वर ने मुझे यह काम सौंपा है। लेकिन तुम लोगों का यहाँ से भाग जाना ही ठीक है। तुम लोग यहाँ रहोगी तो धीरे-धीरे दूसरी बुराइयों में फँस जाओगी।"
कासी ने कहा - "भागने की कोई सुविधा नहीं है। कहाँ जाएँ? कब्र के सिवा हम लोगों के लिए कहाँ जगह है? जहाँ भी हम जाएँगी, लेग्री शिकारी कुत्तों से पकड़वा मँगाएगा। साँपों और मगरों को रहने की जगह है, पर हम लोगों के लिए इस दुनिया में कहीं ठिकाना नहीं है।"
टॉम ने कुछ देर चुपचाप कासी की बात सुनी, फिर कहा - "जिसने दानियल को सिंह की मांद से बचाया था, अपनी विश्वासी संतानों की अग्नि-कुंड से रक्षा की थी, जो समुद्र पर से चलाया गया था, और जिसके हुक्म देते ही हवा भी रुक गई थी, वह अब भी विद्यमान है। मुझे जान पड़ता है, वह निश्चय ही यहाँ से भाग जाने में तुम लोगों की सहायता करेगा। तुम लोग एक बार यत्न करके देखो, तुम लोगों के उद्धार के लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करूँगा।"
ईश्वर की महिमा विचित्र है! कौन जान सकता है कि किन विचित्र नियमों के अनुसार हमारे मानसिक कार्य-कलापों और चिंताओं का शासन होता है! टॉम की बात सुनकर कासी के मन में अकस्मात एक विचार उत्पन्न हुआ। पहले उसे भागना असंभव जान पड़ता था, पर अब संभव जान पड़ने लगा। कासी ने पहले तो भागने के विषय में बहुत-कुछ सोचा-विचारा था, पर निश्चय न कर सकी थी कि भाग निकलने की भी कोई सूरत है, लेकिन आज उसे ऐसा लगने लगा कि उसके लिए भागना बहुत ही सहज है। इससे उसके मन में आशा का संचार हो गया। वह टॉम से बोली - "पिता टॉम! मैं चेष्टा करूँगी।"
टॉम ने आकाश की ओर देखते हुए कहा - "परमपिता परमात्मा तुम्हारे सहायक हों!"