पिताजी के बारे मे लिखकर मुझे नौकरी देने की विनती की गई।मेरे सामने ही पंवार साहब ने लिखा एज ए स्पेशल केस इनका पोस्टिंग किया जाता है।
मेरी पोस्टिंग खलासी के पद पर हुई थी।मुझ से पूछा गया।वर्क शॉप में काम करोगे या आफिस में मुझे मालूम था यहां मूझे कुछ दिनों के लिए काम करना है।मैने अनुकम्पा के आधार पर आर पी एफ में सब इंस्पेक्टर के पद पर नौकरी के लिए अर्जी दी थी।इसलिए मैंने ऑफिस में काम करने की इच्छा जाहिर कर दी।मुझे पे शीट क्लर्क के साथ लगा दिया गया।मेरा काम उनकी मदद करना था।
मैं रोज सुबह साढ़े सात बजे घर से निकलता और गेट पर खड़ा होकर वर्क शॉप में आने वाले कर्मचारियों की हाजरी लेता।दोपहर में लंच में में खाना खाने के लिए घर आता था।शाम को पांच बजे छुट्टी हो जाती।उस समय 141 रु महीना पगार मिलती थी।शाम को मैं चाय पीने के बाद घूमने के लिए निकल जाता था।कोई न कोई दोस्त मिल जाता और एक दिन में कॉलोनी में घूम रहा था कि पचौरी सर मिल गए।पचौरी आबूरोड के रेलवे स्कूल में प्रिंसिपल थे।मेने उन्हें नमस्कार किया।मेरा अभिवादन स्वीकार करने के बाद वह बोले,"क्या कर रहे हो आजकल?"
मैने उन्हें अपने बारे में बताया तब वह बोले,"शाम को मेरी बेटी को आकर पढ़ा दिया करो।"
मेरा एक भाई उनके स्कूल में पढ़ रहा था।इसलिए मैंने हां तो कर ली।लेकिन आज तक यह नही समझ पाया कि वह स्कूल के प्रिंसिपल थे।चाहे जिस टीचर से अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए कह सकते थे।फिर उन्होंने मुझ से ही क्यों कहा?इस क्यों का जवाब मैं आज तक नही तलाश पाया हूँ।
खैर।अगले ही दिन मैं पचौरी के बंगले जो रेलवे अस्पताल के पास था।जा पहुंचा।मेरे पहुंचने पर दो लड़कियां और एक लड़का आ बैठे।पचौरी सर ने अपनी बेटी की बात की थी फिर दो और कौन।एक उनका लड़का था और एक लड़की उनके रिश्तेदार की बेटी थी।जो छुट्टियों में आबूरोड आयी थी।वह मेरठ में दसवीं में पढ़ रही थी।पचौरी सर की लड़की साधारण नेंन नक्श के साथ ही मन्द बुद्धि भी थी।जबकि दूसरी लड़की सुंदर और कुशाग्र थी।और रोज का नियम था कि मेरे पहुंचने पर तीनों आकर बैठ जाते।मैं घण्टे, डेढ़ घण्टे तक उन्हें पढ़ाता था।और उनको पढ़ाने के चक्कर मे मेरा स्टेशन जाना छूट गया था।
और धीरे धीरे दिन गुज़रने लगे।और अब याद नही करीब बीस दिन गुज़र गए थे।और में एक दिन पचौरी सर के बंगले पर पहुंचा तो केवल उनकी लड़की ही पढ़ने के लिए आई थी।उस दिन मैं कुछ नही बोला लेकिन दूसरे दिन भी वह अकेली आयी तो मैं पूछे बिना नही रह सका।
वह बोली,"वह तो चली गयी।"
और अगले दिन से मैने पचौरी सर से बोले बिना पढ़ाने के लिए जाना बंद कर दिया था।और मै फिर से स्टेशन जाने लगा।पिताजी के देहांत के बाद 5300 रु पी एफ के और करीब 3500 रु ग्रेजुटी के मुझे मिले थे।जो मैने पंजाब नेशनल बैंक में जमा करा दिए थे।उस समय बैंको का राष्ट्रीयकरण नही हुआ था।बैंक प्राइवेट ही थे।जैसा मैं पहले भी बता चुका हूँ।हम सात भाई बहन और माँ ।कुल 8 मेम्बर थे।पिताजी ने पेंशन ऑप्ट नही की थी।