Mamta ki Pariksha - 49 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 49

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ममता की परीक्षा - 49



गोपाल और साधना की शादी को लगभग एक महीना हो चुका था। गोपाल रोज सुबह जल्दी उठता और आँगन में ही नहाधोकर तैयार हो जाता और पैदल ही स्कूल पहुँच जाता। खुद खड़े होकर बच्चों से स्कूल की साफ़ सफाई करवा देता। आज एक महीने में उसने स्कूल के साथ ही आसपास के परिसर को भी स्वच्छ करवा दिया था। बच्चों को भी प्यार से स्वच्छता का महत्त्व समझाते हुए उन्हें भी स्वच्छ धुले हुए कपडे पहनना सीखा दिया था।

स्कूल के तीनों कक्षा के सभी छात्र तो उससे खुश थे ही अन्य छात्र भी उससे काफी प्रसन्न रहते। अक्सर कोई न कोई छात्र उसके लिए अपने घर में बनी कोई विशेष चीज अवश्य लाता। गोपाल ने भलीभाँति खुद को ग्रामीण परिवेश के अनुसार ढाल लिया था।

कभी फुर्सत में बैठता तो अपनी पिछली जिंदगी को याद करके उसके अधरों पर एक मीठी मुस्कान तैर जाती। उसने सुना था कि प्रेम में बड़ी शक्ति होती है, लेकिन इतनी शक्ति होती है यह वह अब जाकर महसूस कर रहा था। इससे पहले कैसी खोखली दुनिया में वह जी रहा था जहाँ भौतिक सुविधाओं की कोई कमी नहीं थी। रूपया पैसा गाडी बँगला ,क्या नहीं था उसके पास ? अगर कुछ नहीं था उसके पास तो वह था किसी का प्यार !

कॉलेज से वापस आकर उसका जिगरी दोस्त जमनादास भी अपने घर में ही व्यस्त हो जाता। उसकी माँ बृंदा देवी एक कम पढ़ी लिखी महिला थी जिसे खुद को उच्च वर्ग की चोंचलेबाजियों मसलन किट्टी पार्टीज और अन्य संगठनों की मीटिंगों से ही फुर्सत नहीं थी। पिता सेठ शोभनाथ अग्रवाल जी बहुत बड़े व्यवसायी थे, कई कंपनियों के मालिक ! अलग अलग कंपनियों के अधिकारियों से मिलते हुए परिवार के लिए उनके पास समय ही नहीं बचता था। एक ही घर में साथ ही रहते हुए गोपाल अपने पिता के प्यार को तरस गया था, उनके स्नेह से वंचित था। उसने जबसे होश सँभाला था खुद को आया कमली बाई की गोद में पाया था। जब तक वह छोटा था वही उसकी देखभाल करती। दिन रात उसकी गोदी में पड़ा रहता और जब कुछ और बड़ा हुआ एक पूरा कमरा खिलौने से भर दिया गया था उसके लिए। जब उसका बालमन कुछ देर खिलौनों से खेलकर उकता जाता था तब भी उसे माँ बाप के स्नेह और दुलार के नाम पर कमली बाई की गोदी ही मिलती थी। कई बार वह रोते रोते ही सो जाता था। वह कुछ और बड़ा हुआ और स्कूल जाने लगा। स्कूल में भी उसे दोस्त नहीं मिले। सभी बच्चे पैदल ही स्कूल आते जबकि गोपाल को उसका ड्राइवर कार से स्कूल के गेट पर छोड़ देता और स्कूल से छूटने पर वापस लेने भी आ जाता। दूसरे बच्चे कुतूहल और हसरत से उसकी कार को देखते रहते और जब वह किसी बच्चे से बात करने की कोशिश करता वह लड़का या लड़की झट से उससे दूर हो जाते। उसे कुछ समझ में नहीं आता कि आखिर सब बच्चे ऐसा क्यों कर रहे थे ? जल्द ही उसे इसका जवाब भी मिल गया। हुआ यूँ कि एक दिन शाम को स्कूल छूटने के बाद गोपाल भी सभी बच्चों के साथ ही गेट पर पहुँचा लेकिन आज उसकी कार अभी तक नहीं आई थी। गोपाल परेशान हो गया। एक एक करके सभी बच्चे अपने अपने घरों को निकल गए लेकिन एक लड़का अभी तक खड़ा उसी की तरफ देख रहा था। वह शायद उसकी परेशानी को भाँप गया था।
वह उसके नजदीक आया और बोला, "ओह ! लगता है आज तुम्हारी कार नहीं आई इसलिए परेशान हो। मेरे साथ चलो ! मेरा घर यहीं नजदीक ही है और मेरे घर में भी कार है। ड्राइवर अंकल से कहकर तुमको तुम्हारे घर पहुँचवा दूँगा। चिंता न करो, चलो।" कहते हुए उस लड़के ने उसका हाथ थाम लिया।

गोपाल की तो मानो चिर प्रतीक्षित मुराद ही पूरी हो गई हो। वह तुरंत उसके साथ पैदल ही चल पड़ा। रास्ते भर वह उससे बात करता रहा। उसने अपना नाम जमनादास बताया था।

रास्ते में जमनादास ने उसे बताया, "तुम कार से स्कूल आते हो न ? इसीलिये बाकी सब लडके लड़कियाँ तुमसे डरते हैं। उन्हें पता है कि तुम्हारे पिता जी बहुत रईस हैं और कुछ भी कर सकते हैं। कार मेरे पास भी है लेकिन मैं नहीं चाहता कि मैं कार से स्कूल आऊँ और अपने गरीब साथियों में हीन भावना पनपने दूँ !"

गोपाल को लगा ही नहीं कि वह उस लड़के से पहली बार बातें कर रहा है। वह लड़का उसके दिल पर गहरा असर छोड़ गया था। हालाँकि वह उस दिन उसके साथ उसके घर तक नहीं जा पाया था क्योंकि उसके घर पहुँचने से पहले ही उसे अपनी कार आती हुई दिख गई थी। कार एक झटके से उसके पास रुकी। ड्राइवर कुछ घबराया हुआ सा लग रहा था। एक तरह से गोपाल की खुशामद करते हुए वह बोला ," छोटे मालिक ! दरअसल कार का टायर पंचर हो गया था इसलिए मुझे थोड़ी देर हो गई। आप ये बात मालकिन को नहीं बताना, नहीं तो बहुत नाराज हो जाएँगी मुझसे।"
गोपाल बिना कुछ बोले कार में बैठ गया। उसने जमनादास को भी कार में बैठने के लिये कहा लेकिन उसने सामने वाला घर दिखाते हुए कहा ,"वो देखो, वो जो बड़ा सा नीम का पेड़ दिख रहा है न, उसी के सामने वाला सफेद रंग का बंगला मेरा है ! मैं तो अपने घर के सामने ही हूँ। तुम चलो, कल मिलते हैं।" कहकर जमनादास अपने घर की तरफ बढ़ गया।

यह जमनादास और गोपाल की पहली बातचीत थी। इसके बाद दोनों की घनिष्ठता दिन ब दिन बढ़ती गई। उसी स्कूल में दसवीं तक की पढाई पूरी करने के बाद दोनों ने शहर के दूसरे छोर पर बने कॉलेज में दाखिला ले लिया और फिर तो उनकी जिगरी दोस्ती कॉलेज में भी चर्चा का विषय बन गई थी। दोनों एक ही गाड़ी में साथ ही कॉलेज आते , मस्ती करते , घूमते फिरते और फिर अपने अपने घर चले जाते।

आज गोपाल की तबियत कुछ सही नहीं थी। मास्टर रामकिशुन से पूछ कर वह समय से कुछ पहले ही घर पहुँच गया। हमेशा स्कूल से घर पहुँचने पर साधना उसे बाहर ही खड़ी उसका इंतजार करती हुई मिलती। आज घर के बाहर के मुख्य दरवाजे पर साँकल लगा देखकर उसका दिल धड़क उठा।
"ओह, यह तो घर बंद है। गनीमत है ताला नहीं लगा है, लेकिन कोई नहीं है और साधना भी नजर नहीं आ रही है। वह भला घर छोड़कर कहाँ जा सकती है ? और फिर ताला भी नहीं लगाया।"
और फिर अगले ही पल उसे खुद के विचार पर हँसी आ गई। ताला लगाने की जरुरत साधना को क्यों होने लगी ? क्या है मास्टर के पास जो कोई चोर चोरी कर लेगा ? उनकी सबसे बड़ी दौलत उनकी बेटी साधना पर तो वह पहले ही डाका डाल चुका है। कुछ सोचते हुए उसके कदम स्वतः ही पड़ोस में पराबतिया काकी के घर की तरफ मुड़ गए।

बाहर कोई नहीं था। दोपहर का समय होने की वजह से सभी पुरुष खेतों में गए हुए थे। दालान में एक खटिये पर साधना निश्चेष्ट पड़ी हुई थी और परबतिया काकी उसके सिरहाने की तरफ बैठी हाथ की पंखी से उसे हवा पहुँचाने की कोशिश कर रही थी। साधना या तो बेसुध थी या फिर किसी गहरी पीड़ा से आँखें बंद किये निढाल सी पड़ी हुई थी। गोपाल उसकी हालत का आकलन करना भी नहीं चाहता था। वह तो उसे इस हालत में देखकर ही परेशान हो गया था। वह तेजी से उसकी तरफ लपका ही था कि परबतिया काकी ने हाथ के इशारे से उसे खामोश रहने के लिए कहा और फिर धीरे से फुसफुसाई, "शोर मत करो ! कुछ देर उसे आराम कर लेने दो ठीक हो जायेगी।"

क्रमशः