सुबह गोपाल की नींद खुली। उसने अपने आसपास का जायजा लिया। यह एक छोटा सा कमरा था जिसके बीचोंबीच एक पलंग बिछी हुई थी।
पहली नजर में कमरा तो साफसुथरा नजर आ रहा था लेकिन दीवारों पर खूंटियों के सहारे बहुत सी अजीब अजीब चीजें टंगी हुई थीं। कपडे की कई पोटलियाँ भी खूँटीयों पर टंगी हुई थीं। साइकिल के दो पहिए भी एक तरफ दीवार की शोभा बढ़ा रहे थे। कमरे की यह हालत देखकर एक बार तो गोपाल को बरबस हँसी आ गई, लेकिन अगले ही पल उसे भान हुआ कि वह देहात के एक घर के एक कमरे में है जहाँ अपने सामानों को इसी तरह दीवार के भरोसे हिफाजत से रखा जाता है। उन सामानों की तरफ देखते हुए उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कमरे की दीवारों में चुने गए ईंट मानो उसकी ही तरफ देख रहे हों और हँस रहे हों और उससे कह रहे हों, " देखो, हम निर्जीव भले हैं लेकिन फिर भी अपनी क्षमता से अधिक ही काम करते हैं !"
उसने पलंग पर ही सिरहाने की तरफ तकिए के नीचे रखी हुई घडी निकालकर समय देखा। बुरी तरह चौंक गया था वह।
"अरे बाप रे,...नौ बज गए ? और मैं अभी तक सोया हूँ ? क्या सोचेंगे सब ?" बड़बड़ाते हुए गोपाल एक झटके से पलंग से उठ खड़ा हुआ और कमरे से बाहर आ गया। उसकी निगाहें साधना को तलाश रही थीं। वह जानता था कि भले साधना को नींद न आई हो लेकिन वह सुबह भोर में ही उठ गई होगी अपने हमेशा के समय पर। कमरे से बाहर आते हुए साधना के साथ रात गुजारे गए एक एक पल की सजीव तस्वीरें उसके जेहन में ताजा हो उठी।
' काश, रात और लंबी होती !' सोचते हुए उसके अधरों पर मुस्कान गहरी हो गई।
नित्य की भाँति दिशा मैदान आदि से निवृत्त होकर गोपाल जब घर के दरवाजे पर पहुँचा, मास्टर दालान से साइकिल निकाल रहे थे। गोपाल दौड़कर आगे बढ़ा और साइकिल बाहर निकालने में उनकी मदद की।
साइकिल पर सवार होते हुए मास्टर ने गोपाल से कहा, "नाश्ता कर लो और मेरी पाठशाला में आ जाना। देखता हूँ तुम्हारे लिए काम की कोई गुंजाईश बनती है तो प्रयास करता हूँ।"
"जी ठीक है।" कहकर गोपाल ने हाथ जोड़ लिया।
मास्टर जी पैडल मार कर साइकिल तेजी से भगाते हुए आगे बढ़ गए।
गोपाल दालान से होते हुए आँगन में पहुँचा जहाँ साधना चुल्हा फूँक रही थी। सब्जी तैयार बनी हुई दिख रही थी और अब आटा मलकर वह फिर से चुल्हे की अग्नि को तेज करने का प्रयास कर रही थी। धुएं और चुल्हे की गर्मी से उसका गोरा मुखडा रक्तिम आभा लिए हुए और खूबसूरत लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे जिस्म का सारा खून चेहरे से छलक पड़ने को आतुर हों। मुस्कुराते हुए गोपाल ने इधर उधर देखा और फिर पीछे बैठकर बेखबर साधना की आँखें दोनों हाथों से ढँक लिया।
"उफ्फ ! क्या कर रहे हो ? छोडो ! कोई देख लेगा।" साधना जो कि पीछे बैठे गोपाल की गोद में भहरा गई थी, कसमसाते हुए फुसफुसाई।
गोपाल ने उसकी आँखों पर से हाथ हटा लिया और उसकी कसमसाहट का आनंद लेते हुए अपनी ठोड़ी उसके सर पर रखकर उसे अपने आगोश में जोर से भींच लिया और बोला, "अब हमें किसी का डर थोड़े न है ! भरे पूरे समाज के सामने तुमसे विधिवत विवाह किये हैं, अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे लिए हैं। अब तो हमारा तुम्हारा जन्मजन्मांतर का साथ है !" सुनकर साधना का मन मयूर नाच उठा। उसका दिल चाह रहा था काश ! वक्त यहीं थम जाता ! लेकिन स्त्री सुलभ लज्जा और मर्यादा का भी उसे पूरा ध्यान था।
अचानक साधना ने चिहुँकने का शानदार अभिनय किया और बाहर की तरफ इशारा करते हुए बोली, "काकी ! "
गोपाल हड़बड़ाहट में जल्दी से उसे छोड़कर उठ खड़ा हुआ और आँगन में खुलनेवाले दरवाजे की तरफ देखा। साधना खिलखिलाकर हँस पड़ी और दरवाजे में किसी को न देख गोपाल समझ गया कि साधना ने बड़ी चालाकी से उसे बेवकूफ बना दिया है।
कुछ देर बाद साधना के हाथों बनी गरम गरम रोटी और सब्जी का नाश्ता कर के गोपाल निकल पड़ा मास्टर के स्कूल की तरफ।
भोजन करते हुए गोपाल ने साधना से इस बाबत बात की थी। सुनकर वह बहुत खुश हुई, "अगर यह काम मिल जाता है तो इससे बढ़िया और क्या होगा ?"
" हाँ, सचमुच ! सही कह रही हो। इससे बढ़िया और क्या होगा ? ठीक है, मैं वापस आकर खुशखबरी सुनाता हूँ !" कहने के बाद गोपाल निकल पड़ा स्कूल की तरफ।
घर से दक्षिण की तरफ जानेवाली पगडंडियों ने शिघ्र ही उसे स्कूल पहुँचा दिया। गाँव से थोड़ी दूर एक आम का बड़ा सा बगीचा था। इसी बगीचे में एक तरफ दो कमरे की एक छोटी सी इमारत बनी हुई दिख रही थी। कमरे के ऊपरी हिस्से पर मोटे काले अक्षरों में लिखा हुआ था 'सुजानपुर माध्यमिक शाला '।
कई पेड़ों के नीचे भी अलग अलग कक्षाएं चल रही थीं। ऐसी ही एक कक्षा को एक गुरूजी पढ़ा रहे थे। पेड़ के सहारे टिके श्यामपट्ट पर दो का पहाड़ा लिखा हुआ था और एक लड़का जिसके जिस्म पर मैला कुचैला सा कमीज टँगा हुआ सा लग रहा था उसे देखते हुए जोर जोर से पढ़ रहा था। नीचे जमीन पर बैठे कुछ लडके और दो लड़कियाँ भी उसका अनुसरण करते हुए जोर जोर से चिल्लाकर पढ़ रहे थे। कुछ लडके फटे हुए बोरे जो शायद उन्होंने घर से लाये हों बिछा कर बैठे थे जबकि कुछ नीचे धूल में ही बैठ गए थे। उनके फटे हुए कपडे बेतरतीब उनके जिस्मों से झूलते हुए से लग रहे थे। और गुरूजी एक कुर्सी पर बैठे अपनी दोनों टाँगे पसारे मुँह में दबे पान का मजा ले रहे थे।
दूसरे पेड़ों के नीचे भी कमोबेश इसी तरह कक्षाएं चल रही थीं। शिक्षक विहीन कक्षाओं में कुछ बच्चे जोर जोर से किताबें पढ़ रहे थे तो वहीं कई बच्चे गिनती पहाड़ा का रट्टा मार रहे थे। सबको देखते परखते गोपाल उस दो कमरे के स्कूल में घुस गया।
पहले कमरे में एक तरफ दीवार पर ही काला रंग पोतकर श्यामपट्ट बना दिया गया था और उसपर अंग्रेजी में कुछ शब्द लिखे हुए थे। उन अंग्रेजी शब्दों को देखकर गोपाल का जी किया खूब जोर से ठहाके लगाये लेकिन अगले ही पल गुस्से की वजह से उसने अपना विचार बदल लिया। धीरे से स्वतः ही बड़बड़ाया, "अजीब लोग हैं यहाँ। जिन्हें खुद कुछ नहीं आता वह यहाँ अध्यापक बने बैठे हैं। पेड़ के नीचे अध्यापक महोदय आराम फरमा रहे हैं और बच्चे मस्ती और शोरगुल में व्यस्त हैं। ऐसे हो रहा है हमारे देश के भविष्य का निर्माण ?"
इतने में बगल के कमरे से मास्टर रामकिशुन आ गए। उसे देखकर खुश होते हुए बोले, "बहुत अच्छा किया बेटा जो तुम यहाँ आ गए। मैंने स्कूल के प्रबंधकों से बात कर लिया है। तुम्हें कुसुम जी की जगह पर पाँचवीं , छठवीं और सातवीं कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी पढ़ाना है।"
"जी बहुत बढ़िया बाबूजी ! आपने मेरे लिए कुछ अच्छा ही सोचा होगा। मैं आपको निराश नहीं करुँगा और आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने का पूरा प्रयास करूँगा। एक बात पूछनी थी आपसे बाबूजी ! ये श्यामपट्ट पर अंग्रेजी के शब्द किसने लिखे हैं ?" गोपाल ने बड़ी विनम्रता से पूछा।
मास्टर जी अचानक गंभीर हो गए। बोले, "बेटा ! यह उन्हीं अध्यापिका श्रीमती कुसुम जी का ही लिखा हुआ है। आज वह अनुपस्थित हैं। स्कूल के प्रबंधकों की सिफारिश से मैंने उन्हें स्वीकार तो कर लिया था एक अध्यापिका के रूप में लेकिन इसके अलावा भी गलती मुझसे हुई है जिसका मुझे अफसोस है।"
" कैसी गलती बाबूजी ? " गोपाल ने फिर विनम्रता से पूछा।
मास्टर रामकिशुन ने गहरी साँस ली और बेहद अफसोस जताते कहा, " मेरी तो सबसे पहली गलती यही थी कि संचालकों की सिफारिश की वजह से ज्यादा कुछ पूछताछ किये बिना उसे अंग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेदारी दे दी और दूसरी गलती ये हुई कि बीच में कभी उसकी कक्षा का निरीक्षण भी नहीं किया। ये तो अचानक मुझे सातवीं कक्षा के विद्यार्थियों की अंग्रेजी की उत्तर पुस्तिका मिल गई। कुछ कॉपियों को मैंने उत्सुकता से देखा तो पाया कि किसी का भी जवाब सही नहीं था और कुसुम जी ने उसे सही टिक किया था और पूरे नंबर भी दिए थे। हद तो तब हो गई जब एक विद्यार्थी ने सही लिखा था और कुसुम जी ने उसे गलत बताते हुए शून्य दे दिया था। मैं परसों ही उनकी कक्षा में गया था और उनसे कुछ शब्द लिखवाये। ये वही शब्द हैं...देखो, बॉय की स्पेलिंग क्या लिखा है उन्होंने।.. बी ए वाय बाय और गर्ल की स्पेलिंग लिखा है जी ए एल गल ! अब बताओ, ये पाँचवीं के बच्चों की कक्षा है। जब इन्हें शुरू से ही गलत पढ़ाया जायेगा तो भविष्य में ये क्या पढ़ेंगे ? कैसा होगा हमारे देश का भविष्य ? परसों ही संचालक तिवारीजी को बुलाकर मैंने यह सब दिखाया और उनसे कहा ऐसे अध्यापकों के साथ मैं मुख्याध्यापक बनकर नहीं रह सकता। तुरंत ही वो उसे हटाने के लिए राजी हो गए, लेकिन मैंने उसे हटाया नहीं है। वह पहली कक्षा के बच्चों को पढ़ाएगी कल से और अब उसकी जिम्मेदारी तुम्हें उठानी है।"
"बहुत बढ़िया किया आपने बाबूजी जो उसे काम पर से नहीं हटाया। पता नहीं उसकी क्या मजबूरी रही हो नौकरी करने के पीछे। नहीं तो आज कौन औरत घर से बाहर निकलती है काम करने के लिये ? मैं पूरी कोशिश करूँगा आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की। बहुत बहुत धन्यवाद बाबूजी !" गोपाल ने कृतज्ञता व्यक्त की और शिक्षिका कुसुम को लेकर अपना मत स्पष्ट किया।
कुछ देर के बाद गोपाल बोला, "अब मैं चलूँ बाबूजी ? मुझे कल से पढ़ाना है न ?"
" कल से क्यों ? अभी से क्यों नहीं ? शुभस्य शीघ्रम् ! यह पाँचवीं कक्षा है। यहीं से शुरू कर दो। कल से तुम्हारा टाइम टेबल बन जायेगा। ...और हाँ किताबें भी किसी बच्चे से ही लेकर काम चला लो कुछ दिन तक ...ठीक है ?" मास्टर ने समझाया था।
गोपाल भी सिर झुकाकर आज्ञाकारी बच्चे की तरह कक्षा की तरफ बढ़ गया।
क्रमशः