Tom Kaka Ki Kutia - 22 in Hindi Fiction Stories by Harriet Beecher Stowe books and stories PDF | टॉम काका की कुटिया - 22

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टॉम काका की कुटिया - 22

22 - आपसी चर्चाएँ

मिस अफिलिया सेंटक्लेयर की इस बात का प्रतिवाद करने जा रही थी, पर सेंटक्लेयर ने उसे रोककर कहा - "तुम जो कहना चाहती हो, उसे मैं जानता हूँ। मैं यह नहीं कहता कि वे बिलकुल एक से-ही थे। मैं मुक्त कंठ से स्वीकार करता हूँ कि तुम्हारे और मेरे पिता के कामों में भिन्नता थी, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वाभाव दोनों का एक ही-सा था। इस संसार में दो तरह के आदमी होते हैं। एक तो जो वृथाभिमान में फूलकर लोगों के साथ बात तक नहीं करते, मनुष्यों को मनुष्य नहीं गिनते; अपने को सबसे बड़ा और दूसरों को अपने से छोटा समझते हैं। और दूसरे वे जो इन सब दुर्गुणों के रहते हुए भी लोगों के सामने यह साबित करने की फिक्र में लगे रहते हैं कि उनमें अहंकार की छूत भी नहीं है। इसी लिए वे छोटे-बड़े सबका ऊपर से आदर-सत्कार करते हैं, खुले दिल से आत्माभिमानियों की निंदा करते हैं, वे भी वैसे ही कुलाभिमानी हैं जैसे पहली श्रेणी वाले। एक खुल्लमखुल्ला दूसरों से घृणा करके अपने हार्दिक अभिमान को तृप्त कर लेते हैं और दूसरी श्रेणीवाले वैसा अवसर न पाने के कारण अपने अभिमान को तृप्त करने के लिए दूसरे उपाय की शरण लेते हैं। इन दो श्रेणियों के मनुष्यों में जितना भेद है, उतना ही भेद तुम्हारे और मेरे पिता के आचरणों में भी था। तुम्हारे पिता जाति के अभिमान से घृणा दिखाकर हृदय के महत्व का परिचय देते थे और मेरे पिता हजारों मनुष्यों के मस्तक पर पैर रखकर अपनी श्रेष्ठता साबित करते थे। दोनों अगर लुसियाना के जमींदार होते तो बिलकुल ही एक प्रकृति के होते, इसमें कोई संदेह नहीं।"

 अफिलिया ने कहा - "अगस्टिन, तुम कैसे आदमी हो!"

 अगस्टिन बोला - "मैं पिता या चाचा की निंदा की नीयत से ये बातें नहीं कहता, लेकिन किसी पर मेरी झूठी भक्ति भी नहीं है, विशेषकर मुझे अपने जीवन की घटनाओं के प्रसंग में इन बातों का उल्लेख करना पड़ा है। पर अब फिर मैं अपने रामकहानी चलाता हूँ। पिता मरते समय सारी संपत्ति हम दोनों भाइयों के लिए छोड़ गए और उसको आपस में बाँट लेने का भार हमीं लोगों पर रहा। हम दोनों भाइयों ने बड़ी सफाई से आपस में बँटवारा कर लिया। मैं कहूँगा कि आपसवालों के साथ उत्तम व्यव्हार करने में अल्फ्रेड-सरीखा आदमी इस संसार में शायद ही दूसरा होगा। हम दोनों ने खेत का काम उठा लिया। थोड़े ही दिनों में अल्फ्रेड खेत के काम में बड़ा पक्का अनुभवी और पारदर्शी मनुष्य बन गया। पर मैंने दो वर्षों के परिश्रम से समझ लिया कि मुझसे यह काम पार नहीं पड़ेगा, क्योंकि कम-से-कम सात सौ कुली हमारे खेतों में काम करते थे। उन्हें पीट-पीटकर काम लेना, उनकी देख-रेख के लिए शैतान से बढ़कर देखभाल करनेवाला रखना, इत्यादि सैकड़ों तरह के ऐसे काम थे, जिनसे मुझे बड़ी घृणा थी। यह पैशाचिक व्यव्हार मुझे असह्य हो उठा। मुझे अपनी जननी के वचनों का ध्यान आने लगा कि इन काले दीन-दु:खी गुलामों में भी हमारी-जैसी आत्मा है, ये भी उसी मिट्टी के बने हैं, जिसके हम। इन्हें सताने से उतना ही दु:ख मिलता है, जितना हमें। ये सब बातें सोचकर तथा दास-दासियों की यंत्रणा देखकर मेरा हृदय पिघल जाता था। मैं ईश्वर से प्रार्थना किया करता था कि इस पाप-भरे संसार से मुझे शीघ्र उठाकर माता के पास पहुँचा दो। भला ऐसी मानसिक दशा में क्या कभी किसी का काम में जी लग सकता है? धीरे-धीरे मेरे दिल में यह खयाल पक्का होने लगा कि इन गुलामों का सत्यानाश हम लोगों के हाथों से हो रहा है। ईश्वर ने इन्हें मनुष्य बनाया है, पर हमने इन्हें पशुओं से बदतर बना डाला है। वास्तव में ऐसी पराधीन अवस्था में रहकर मनुष्य क्या मनुष्यत्व को पहुँच सकता है? मनुष्य की स्वाधीन इच्छा में बाधा पड़ते ही वह मनुष्यत्व-विहीन हो जाता है। यह सब सोचते-सोचते मैंने खेत का काम छोड़ने का संकल्प कर लिया।"

 अफिलिया ने कहा - "अगस्टिन, मेरा सदा से यह विश्वास था कि तुम सब लोग दास-प्रथा को बाइबिल से सिद्ध सचाई मानते हो। और तुम लोगों की दृष्टि में दास-प्रथा ईश्वरीय विधान है।"

 अगस्टिन बोला - "हम लोगों का अभी यहाँ तक पतन नहीं हुआ है। अल्फ्रेड इतना सख्त आदमी है कि बाध्य होने पर दासों की जान लेने में संकोच नहीं करता। दासों को किसी प्रकार के मानुषिक अधिकार हैं - इस बात तक को वह स्वीकार नहीं करता, किंतु इस दास-प्रथा को तो वह भी बाइबिल-अनुमोदित या ईश्वर-सम्मत विधान नहीं समझता। इस विषय में उसका यह मत है कि जब तक एक श्रेणी के मनुष्य आत्मविहीन होकर पशुओं की भाँति काम न करें, तब तक मनुष्य-समाज की उन्नति नहीं होती, संसार की सभ्यता आगे नहीं बढ़ती। उसका कथन है कि मनुष्य-समाज के अधिकार उन्नत बनाने के लिए बलवान और बुद्धिमानों का निर्बल मूर्खों पर प्रभुत्व रहना आवश्यक है, अपने इस मत के समर्थन में वह कह सकता है कि दास-प्रथा कहाँ नहीं, सारे विश्व में तो छाई हुई है। अमरीका के जमींदार अपने गुलामों से जैसा सख्त बर्ताव करते हैं, इंग्लैंड के बड़े आदमी और महाजन लोग दूसरी तरह से अपने देश के मजदूरों से ठीक वैसा ही व्यव्हार करते हैं कि मानव-समाज की व्यवस्था को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि जब तक एक श्रेणी के लोगों का दासत्व न करें तब तक किसी प्रकार सामाजिक-उन्नति और सभ्यता का विकास संभव नहीं है। उसके मतानुसार संसार की समता-वृद्धि के लिए निर्बल और मूर्खों को सदा बलवान और बुद्धिमानों के अधीन रहना पड़ेगा; आजन्म उन्हें पशुवत्-कार्य करना पड़ेगा और बलवान तथा बुद्धिमानों के आराम के लिए अपने शरीर को कष्ट देना पड़ेगा। पर मैं अल्फ्रेड की इन युक्तियों में सार नहीं देखता। स्वार्थी मनुष्य ही अपने मन को समझाने के लिए ऐसी युक्तियों का सहारा लेते हैं।"

 अफिलिया बोली - "भला इंग्लैंड के मजदूरों के साथ तुम्हारे यहाँ के गुलामों की तुलना कैसे हो सकती है? तुम्हारे यहाँ की तरह न वे बेचे ही जाते हैं, न उनका सौदा ही किया जाता है, और न वे अपने कुटुंब से अलग ही किए जाते हैं। उन्हें दोष भी नहीं लगाए जाते।"

 अगस्टिन ने कहा - "बहन, हम कोड़ों की मार से गुलामों को मारते हैं, पर इंग्लैंडवाले क्या करते हैं कि मजदूरों का सारा धन चूसकर उन्हें भूखों मारते हैं। हम लोग गुलामों के बाल-बच्चो को उनके माता-पिता से अलगकर बेचते हैं; पर इंग्लैंड के मजदूरों के बाल-बच्चे बिना भोजन के भूखों मरते हैं। इसमें कौन बुरा और अच्छा है, यह नहीं कहा जा सकता।"

 अफिलिया ने कहा - "पर तुम्हारी इस युक्ति से दास-प्रथा का पाप दूर नहीं होता। दूसरी जगह कोई बुराई होती हो, तो क्या उसका उल्लेख करके तुम अपने यहाँ के अत्याचार का समर्थन कर सकते हो?"

 अगस्टिन बोला - "मैंने दास-प्रथा के समर्थन के अभिप्राय से इस विश्वव्यापी अत्याचार का उल्लेख नहीं किया। मैंने तो उन्हीं युक्तियों को दोहराया है, जिनके बल पर अल्फ्रेड दास-प्रथा का समर्थन करता है। मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि हमारे यहाँ की गुलामी की चाल हद से ज्यादा घृणित है। यह भी सही है कि अन्य देशों में निम्न श्रेणी के मनुष्यों पर जो अत्याचार होते हैं, उनसे हजार गुना भारी अत्याचार और उत्पीड़न हमारे यहाँ के गुलामों को सहना पड़ता है। हमारे देश के गोरे इन कालों को निरा पशु समझते हैं। क्रीत-दासियों के गर्भ से संतान पैदा करके उन्हें भेड़-बकरियों की भाँति बेचते हैं। ऐसा हृदय कँपानेवाला व्यापार और कहीं नहीं दिखाई पड़ता। और देशों में निर्बल को सताने के लिए छल-बल की दरकार होती है, पर यहाँ कोई जरूरत नहीं। जैसे जी चाहे, निर्बल को सताया जा सकता है, उनके प्राण तक लेने में कोई कानून किसी तरह की बाधा नहीं डालता।"

 अफिलिया ने कहा - "आज मैंने दास-प्रथा के संबंध में तुमसे बहुत-सी नई बातें सुनीं। मैंने इस विषय में कभी इतना नहीं सोचा था।"

 अगस्टिन बोला - "मैंने इंग्लैंड के अनेक स्थानों की सैर करके वहाँ की निचली श्रेणी के लोगों की अवस्था का खूब अनुभव किया है। उनकी दुर्दशा देखकर हृदय पिघल जाता है। अल्फ्रेड सदैव बड़े अहंकार से कहा करता है कि उसके गुलाम इंग्लैंड के मजदूरों से अधिक सुखी हैं। वह सचमुच अपने दास-दासियों को खाने-पहनने का कष्ट नहीं देता। यों उसकी प्रकृति बहुत कठोर भी नहीं है। कोई उसका कहा नहीं मानता, तभी वह आग-बबूला होकर उसकी जान तक लेने में नहीं हिचकता। उसके कहे पर चलने से वह किसी को कभी नहीं पीटता। जब हम दोनों भाई साथ-साथ खेत का काम करते थे तब मैंने अल्फ्रेड से बड़ा अनुरोध किया कि इन दास-दासियों की शिक्षा के लिए एक पादरी रख दो। अल्फ्रेड का खयाल था कि कुत्ते-बिल्लियों के लिए पादरी रखने से जो नतीजा होता है, वही इन गुलामों के लिए पादरी रखने से होगा। फिर भी उसने मेरी प्रसन्नता की खातिर गुलामों की शिक्षा के वास्ते एक पादरी रख दिया। हर रविवार को पादरी साहब आकर उन्हें धर्म-शिक्षा दिया करते थे, लेकिन गुलामी में पड़े-पड़े इन गुलामों की आत्माएँ जड़ हो गई हैं। अच्छे-अच्छे उपदेश और शिक्षा का इनके जड़ हृदय पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता। बहन, तुम मुझे इन गुलामों को शिक्षा देने के संबंध में अक्सर कहा करती हो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूँ कि जब तक इन्हें गुलामी की जंजीर मुक्त करके स्वाधीनता नहीं दी जाएगी, तब तक इन्हें शिक्षा देने का कोई नतीजा न होगा। इनमें कुछ धर्म जीवित जरूर दीखता है, पर उस धर्म-भाव में किसी प्रकार की वीरता व निर्भीकता का भाव नहीं है। यह भयभीत प्रकृति से उत्पन्न धर्म है।"

 अफिलिया बोली - "हाँ, तुमने खेती के काम से कब संबंध छोड़ा, सो तो बताया ही नहीं।"

 अगस्टिन ने कहा - "हाँ, दो बरस तक मैंने अल्फ्रेड के साथ खेत का काम किया। पर इतने दिनों के अनुभव से ही मुझे मालूम हो गया कि मेरे लिए यह काम बड़ा मुश्किल है और अल्फ्रेड ने भी जान लिया कि मुझसे कोई काम नहीं होता। मेरे संतोष के लिए वह कुलियों को नाना प्रकार की सुविधाएँ भी देने लगा, पर मेरा मन किसी तरह राजी न हुआ। मुख्य बात यह थी कि मैं कुलियों के साथ जैसा बर्ताव करने को कहता था, वैसा करने से काम में पूरी हानि होने की संभावना थी। मैं कुलियों से पशुओं की भाँति काम लेना बिलकुल नहीं चाहता था। मनुष्य को पशु बनाकर धन बटोरने की फिक्र करना मुझे अत्यंत घृणित मालूम होने लगा। मैं स्वयं बड़ा आलसी हूँ, इससे स्वाभावत: मुझे आलसी कुलियों पर भी तरस आ जाता था। आलस्य करने पर भी मैं उन्हें कभी मारने नहीं देना चाहता था। ऐसी दशा में मैंने सोचा तो यही उचित जान पड़ा कि मुझसे कुछ होना-जाना तो है नहीं, मेरे द्वारा अल्फ्रेड के काम में उल्टे और अड़चन पड़ती है, इससे उस काम को मैंने बिलकुल छोड़ दिया। अल्फ्रेड ने सब खेत ले लिए और मैंने मकान और नकद संपत्ति ले ली।"

 अफिलिया बोली - "इसके बाद फिर अपने दासों को तुमने क्यों नहीं छोड़ दिया?"

 अगस्टिन ने कहा - "मेरा दिल इतना ऊँचा नहीं था। मैंने सोचा कि इन्हें रुपए कमाने की कल न बनाना ही काफी है, घर रखकर इनका भरण-पोषण करने से कोई दोष न होगा, खासकर इनमें से बहुतेरे हमारे पुराने नौकर हैं। मैं उन्हें बहुत चाहता था, और वे भी मुझे बहुत चाहते थे। जिन नए लोगों को तुम देखती हो, ये सब उन्हीं पुराने गुलामों के वंशज हैं। ये हमारे घर से किसी तरह हटना नहीं चाहते। ये यहीं पैदा हुए, यहीं बड़े हुए, इससे मुझसे इनकी बड़ी ममता हो गई है। बहन, मेरे जीवन में भी कोई समय था जब मैं बड़े-बड़े खयाली पुलाव बनाता था। मैं सोचा करता था कि इस संसार में मैं कुछ-न-कुछ करूँगा जरूर। यों ही निकम्मा जीवन नहीं बिताऊँगा। देश-सुधारक बनकर जन्म-भूमि से दास-प्रथा का कलंक दूर करने की मेरी बड़ी इच्छा थी, पर कोई भी इच्छा पूरी न हुई। जान पड़ता है, युवावस्था में सबके मन में ऐसी ही तरंगे उठा करती हैं। पर जब संसार की बेड़ी पाँव में पड़ जाती हैं तो जवानी के सब मंसूबे जहाँ-के-तहाँ रह जाते हैं।"

 अफिलिया ने पूछा - "तुमने अपने जीवन के इस महान उद्देश्य को छोड़ क्यों दिया? अभी क्या बिगड़ा है। अब से तुम अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए यत्न कर सकते हो।"

 अगस्टिन बोला - "युवा-अवस्था के आरंभ में ही मेरी आशा-लता पर पाला पड़ गया। मैं जैसे जीवन की आशा करता था, उसे प्राप्त नहीं कर सका। इसी से किसी काम में मेरा उत्साह नहीं रह गया। अब तो घटना-स्रोत के साथ बह रहा हूँ। पूर्णरूप से अवस्था का दास बन गया हूँ। संसार की वर्तमान अवस्थाओं और घटनाओं के पीछे खिंचा चला जा रहा हूँ। सच तो यह है कि अल्फ्रेड मुझसे सौगुना मजे में है। वह अर्थ-संग्रह को ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य समझता है और अपने उसी विश्वास के अनुसार काम भी कर रहा है। पर मेरा जीवन व्यर्थ ही जा रहा है। वही मसल हुई कि "धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का"।"

 अफिलिया ने कहा - "भैया, यों लक्ष्यहीन जीवन बिताकर क्या तुम शांति प्राप्त कर सकते हो?"

 "शांति! कहाँ है शांति? अपने इस पाप-भरे जीवन में मुझे स्वयं से घृणा है। अपने आचरण और व्यव्हार से मैं स्वयं संतुष्ट नहीं हूँ। ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि शीघ्र ही यहाँ से उठाकर जननी से मिला दे। मैं इस दास-प्रथा के संबंध में कभी अपना मत प्रकट नहीं करता, पर आज तुमने बड़े आग्रह से बार-बार पूछा, तब मुझे अपने मन की इतनी बातें तुमसे कहनी पड़ीं। इस देश में ऐसे बहुत से आदमी हैं, जो मेरी ही तरह गुलामी की प्रथा से हृदय से घृणा करते हैं। इस प्रथा के कारण सारे देश का सत्यानाश हुआ जा रहा है। तरह-तरह के पाप और व्यभिचार हमारे समाज में घुसते जाते हैं। नैतिक वायु दूषित होकर नाना प्रकार के मानसिक रोग उत्पन्न कर रही है। इस घृणित दास-प्रथा के कारण गुलामों का ही बुरा नहीं हो रहा है, बल्कि जो लोग इन्हें अपने घर में रखते हैं, इन पर प्रभुत्व करते हैं, उनकी इनसे भी अधिक क्षति हो रही है। मानसिक रोग भी, कई शारीरिक रोगों की भाँति, संक्रामक होते हैं। इन गुलामों की गिरी हुई मानसिक अवस्था संक्रामक रोग की भाँति हमारे सभ्य समाज का नाश कर रही है। यह निश्चित बात है कि जहाँ कहीं अथवा जिस किसी जाति में किसी एक श्रेणी के लोग बिलकुल गिरी हुई दशा में जीवन बिताते हैं, वहाँ अथवा उस जाति के सब लोगों की अंतरात्माएँ उन गिरी हुई दशावाले लोगों की छूत से धीरे-धीरे कलुषित हो जाती हैं। समाज में एक श्रेणी के लोगों की अवनति दूसरी श्रेणी के लोगों को भी अवनति की ओर आकर्षित करती है। पर हमारे यहाँ इन गुलामों की गिरी हुई अवस्था सभ्य लोगों के जीवन को जितना कलुषित करती है, वैसी दशा और कहीं नहीं है। कारण यह है कि हमें दिन-रात इनके साथ रहना पड़ता है, क्योंकि इन्हें आठ पहर चौंसठ घड़ी घर में ही रखना पड़ता है, पर इंग्लैंड में यह बात नहीं। वहाँ गरीब मजदूरों के साथ रईस, जमींदार और महाजनों को रहना नहीं पड़ता। वहाँ काम लिया, दाम लिया और छुट्टी। यहाँ तो ये दिन-रात घर में बने रहते हैं। इसलिए इनके जीवन के बुरे उदाहरण, इनसे मालिकों का कठोर व्यव्हार हमारे बाल-बच्चे दिन-रात देखते रहते हैं। इन बुरे उदाहरणों का प्रभाव उनके जीवन पर पड़े बिना नहीं रह सकता। इससे उनके चरित्र बिगड़ जाते हैं और मन विकृत हो जाते हैं। इवा यदि जन्म से ही देव-बाला सरीखी निर्मल प्रकृति की न होती तो अवश्य इनके साथ बरबाद हो जाती। हैजे के रोगी के पास रहने से जैसे हैजा होने का डर रहता है, वैसे ही इन्हें घर में रखकर सदैव अपना बुरा होने का डर है। हमारे यहाँ के राज-कर्मचारी इन्हें शिक्षित नहीं बनाना चाहते। वे कहते हैं कि शिक्षा पाते ही इनकी आँखें खुल जाएँगी और फिर ये तत्काल अपनी स्वाधीनता के लिए विद्रोही बन खड़े होंगे। पर इन अक्ल के अंधों को यह बात नहीं सूझती कि शिक्षा पाने से तो ये स्वाधीनता के लिए विद्रोही होंगे और दासता की बेड़ी काटने की चेष्टा करेंगे, पर बिना शिक्षा के कौन-सी भलाई हो रही है? भीतर-ही-भीतर उससे भी अधिक नाश हुआ जा रहा है, इसका उन्हें ख्याल ही नहीं। सचमुच इन कानून बनानेवालों और वकीलों से मनुष्य-समाज का जितना नुकसान हो रहा है, उतना और किसी श्रेणी के लोगों से नहीं।"

 अफिलिया बोली - "गुलामी की इस प्रथा का अंतिम परिणाम क्या होगा?"

 अगस्टिन ने कहा - "पता नहीं। पर एक बात निश्चित है; इनकी आँखें खुल रही हैं और इनकी दृष्टि स्वाधीनता की ओर बढ़ रही है। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि थोड़े ही दिनों में बड़ा भारी सामाजिक विप्लव होनेवाला है। संसार के सभी देशों में निम्नश्रेणी के लोगों में नवजीवन का संचार दिखाई दे रहा है। मेरी माता कभी-कभी कहा करती थी कि जगत में शीघ्र ही स्वर्ग का राज्य होगा। उस समय ईसा मुकुट धारण करके इस संसार में राज्य करेंगे। तब संसार में दु:ख, कष्ट और यंत्रणा का नाम भी न रहेगा। सारे संसार में शांति छा जाएगी। मेरी माता ने जो प्रार्थना मुझे सिखलाई थी, उसमें यह वाक्य भी था-"हे पिता! संसार में आपका राज्य हो।" कभी-कभी मैं इन बेचारे गुलामों की आहें और उत्तेजित भाव देखकर, सोचता हूँ कि अब शीघ्र ही संसार में वह राज्य होनेवाला है। पिछले फ्रांसीसी विप्लव की आलोचना करने से सहज ही मालूम हो जाता है कि संसार में बहुत थोड़े ही दिनों में समानाधिकार की दुंदुभि बजनेवाली है।"

 अफिलिया ने अपना बुनने का काम छोड़कर कहा - "मैं तो कभी-कभी सोचती हूँ कि तुम इसी स्वर्ग-राज्य में विचरते हो।"

 अगस्टिन बोला - "हाँ, मेरी बातों से यही जान पड़ेगा, पर कार्य देखकर मालूम होगा कि मैं घोर नरक में पड़ा हुआ हूँ।"

 ये बातें हो ही रही थीं कि भोजन की घंटी हुई।

 भोजन के समय मेरी ने प्रू की घटना का उल्लेख करके कहा - "दीदी, मैं समझती हूँ कि तुम हम सब लोगों को जंगली जानवर समझती हो।"

 अफिलिया बोली - "प्रू के साथ जैसा व्यव्हार हुआ है, उसे मैं अवश्य पशु-तुल्य व्यव्हार समझती हूँ। लेकिन मैं तुम सब लोगों को जंगली जानवर नहीं समझती।"

 मेरी ने कहा - "तुम्हें नहीं मालूम कि इस गुलाम-जाति में कोई-कोई ऐसे पाजी होते हैं कि वे किसी तरह वश में नहीं आते। ऐसे पाजियों का मरना ही भला है। मुझे ऐसे लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं होती। मालिक के कहने पर चलें और भले बनने का यत्न करें तो इन लोगों को मार खाकर कभी न मरना पड़े।"

 इवा ने कहा - "माँ, वह बेचारी बड़ी दु:खी थी। अपना दु:ख भूले रहने के लिए शराब पीती थी।"

 मेरी बोली - "तू रहने दे दु:ख की बातें। दास-दासियों को दुख क्या? मैं तो दिन-रात शारीरिक दु:ख में पड़ी रहती हूँ, पर शराब नहीं पीती। मुझसे अधिक दुख उसे क्या होगा? पर सच तो यह है कि गुलामों की जाति बड़ी पाजी होती है। कितने तो ऐसे भी होते हैं कि हजार बेंत मारो, तब भी वे सीधे नहीं होते। मुझे याद है कि मेरे पिता के यहाँ एक गुलाम बड़ा ही आलसी था। वह काम से बहाना करके दलदल में रहता था। चोरी करता था, और भी कितने ही बुरे-बुरे काम करता था। उस पर बहुत मार पड़ती, पर उसका चाल-चलन तनिक भी न सुधरा। अंत में एक दिन कोड़ों की मार से उसकी चमड़ी उधड़ गई, फिर भी वह भटकते-भटकते दलदल में चला गया और वहीं मर गया। अब कोई क्या करे, पिता तो दासों के साथ बड़ी दया का बर्ताव करते थे।"

 सेंटक्लेयर ने कहा - "मैंने एक बार बदमाश गुलाम को सीधा किया था। कितने ही मालिक और खेतों की देखभाल करनेवाले उससे हार चुके थे।"

 मेरी बोली - "अच्छा, बताओ, तुमने भी इस जन्म में कभी कोई ऐसा काम किया था?"

 सेंटक्लेयर ने कहा - "मैंने जिसे वश में किया था वह आदमी बड़ा बलवान था, सूरत-शक्ल में दैत्स-सा था। बड़ा स्वतंत्रता-प्रिय और तेजस्वी था। किसी से नहीं दबता था। ठीक अफ्रीकी सिंह-सा था। लोग उसे सीपिओ कहते थे। बहुतों के हाथ के नीचे वह रहा, पर किसी से सीधा न हुआ। अंत में अल्फ्रेड ने उसे खरीदा, क्योंकि उसने सोचा कि वह उसे दुरुस्त कर लेगा। एक दिन सीपिओ खेत के ओवरसियर को लात मारकर जंगल में भाग गया। मैं उसी समय अल्फ्रेड से मिलने गया था। यह बात मेरे खेत का साझा छोड़ देने के बाद की है। इस घटना से अल्फ्रेड बड़ा क्रुद्ध हो रहा था। मैंने उससे कहा कि उसके निज के दोष से ऐसा हुआ है। मैं उसे सहज ही वश में कर सकता हूँ। और यह तय हुआ कि उसे पकड़कर दुरुस्त होने के लिए मुझे सौंप दिया जाएगा। उसे पकड़ने के लिए पाँच-छ: आदमी, शिकारी कुत्ते और बंदूकें लेकर चले। हिरन का शिकार करने में मनुष्य जैसे उत्साही रहता है, वैसा ही मनुष्य का शिकार चालू रहने पर शिकार में भी मनुष्य का उत्साह हो जाता है। मैं भी थोड़ा उत्साही हो गया था, पर मेरा भाव उसे शिकारियों से बचाकर ही वश में करने का था। खैर, हम लोगों के इस दल ने उसका पीछा किया। कुछ देर तक तो वह भागा और उछला, पर थोड़ी ही देर में एक बेंत के झाड़-झंकार में उलझ गया और पकड़ा गया। तब उसने घूंसों से लड़ना आरंभ किया, और मैं तुमसे कहता हूँ कि वह बड़ी ही भयंकरता से लड़ा। उसने केवल घूंसों की मार से तीन कुत्तों को मार गिराया, पर अंत में हम लोगों की गोली की चोट खाकर वह धरती पर, मेरे पैरों के पास, गिर पड़ा। उसका सारा शरीर लहू-लुहान हो गया। उसने आँख उठाकर मेरी ओर देखा। उसकी आँखों में वीरता की ज्योति और निराशा का अंधकार, दोनों दिखाई पड़ते थे। मैंने अल्फ्रेड के आदमियों को उसे मारने से मना किया और मैं अल्फ्रेड से उसे खरीदकर ले आया। यहाँ वह पंद्रह दिन में ही इतना सीधा हो गया कि मेरे लिए जान तक दे सकता था।"

 मेरी ने कहा - "तुमने उस पर ऐसा कौन-सा जादू कर दिया था?"

 सेंटक्लेयर बोला - "मुझे उसके लिए कुछ अधिक नहीं करना पड़ा। मैं उसे साथ लेकर अपने निजी कमरे में गया और उसके लिए अच्छा बिछौना लगा दिया, उसकी मरहम-पट्टीकर दी और अपने हाथों से उसकी सेवा करता रहा। जब वह ठीक हो गया, तब मैंने उसे मुक्ति-पत्र देकर कहा कि जहाँ जी चाहे, वहाँ चला जा।"

 अफिलिया ने पूछा - "क्या वह चला गया?"

 सेंटक्लेयर ने जवाब दिया - "नहीं। उस मूरखराज ने उस कागज के दो टुकड़े करके फेंक दिए और मुझे छोड़कर जाने से इनकार कर दिया। ऐसा साहसी और विश्वासी नौकर मुझे फिर कभी नहीं मिला। थोड़े दिनों बाद वह ईसाई हो गया, और बच्चो की तरह सीधा हो गया। एक बार हैजे का बड़ा प्रकोप हुआ। मैं भी उसके चक्कर में आ गया। उस समय उसने मेरे लिए अपनी जान की बाजी लगा दी, क्योंकि मेरे बचने की आशा न देखकर घर के जितने लोग थे सब भाग गए, पर वह निर्भीक होकर जी-जान से मेरी सेवा करता रहा। उसी के यत्न और परिश्रम से मैं जीवित बच गया। पर अफसोस, कुछ ही दिनों बाद उसे भी हैजा हो गया और बहुत कोशिश करने पर भी वह मृत्यु के पंजे से न बच सका। उसकी मृत्यु से मुझे जितना दु:ख हुआ, उतना कभी नहीं हुआ।"

 सेंटक्लेयर जब ये बातें कह रहा था, उस समय इवा धीरे-धीरे उसके पास आकर खड़ी हो गई थी। वह बड़ी उत्सुकता से आँखें फाड़कर एकाग्रता से पिता की ओर देख रही थी। सेंटक्लेयर की बात समाप्त होते ही वह उससे लिपटकर रोने लगी। उसका सारा शरीर काँपने लगा।

 सेंटक्लेयर ने कहा - "इवा, प्यारी बच्ची, क्या हुआ?" और फिर कहा - "तुमको ये बातें नहीं सुननी चाहिए। तुम बहुत ही कमजोर हो।"

 तब इवा ने आत्मसंयम करके कहा - "नहीं बाबा, मैं कमजोर नहीं हूँ; पर ये बातें मेरे हृदय में बहुत चुभती हैं।"

 सेंटक्लेयर बोला - "इवा बेटी, तुम्हारे कहने का क्या मतलब है?"

 इवा ने कहा - "बाबा, मैं तुम्हें समझा नहीं सकती। मेरे मन में बहुतेरे विचार चक्कर लगाया करते हैं। शायद किसी दिन मैं तुमसे कहूँगी।"

 सेंटक्लेयर ने कहा - "बेटी, चाहे जितना सोचती-विचारती रहो, केवल रोकर अपने बाबा का जी मत दुखाना। लो, यह देखो, तुम्हारे लिए मैं कैसा सेब लाया हूँ।"

 पिता के हाथ से सेब लेकर इवा मुस्कराई, किंतु उस समय भी उसके होठ काँप रहे थे। सेंटक्लेयर उसका हाथ पकड़कर उसे बरामदे में ले गया और तरह-तरह की चीजें दिखाकर उसे बहलाने लगा। कुछ ही क्षणों के बाद दोनों को हँसी सुनाई दी, मानो दोनों खेल रहे हों।

 बड़ों की बातें कहते-कहते हम अपने मित्र टॉम की बात भूले जा रहे हैं, पर यदि आप हमारे साथ अस्तबल की कोठरी में चलें तो टॉम की कुछ खबर पा सकते हैं। टॉम की यह कोठरी बहुत ही साफ-सुथरी है। उसमें एक चारपाई, एक कुर्सी और एक मेज रखी है। उस पर एक बाइबिल और भजनों की एक पुस्तक है। टॉम इसी कोठरी में बैठा हुआ किसी गहरी चिंता में डूबा है। सामने एक स्लेट है। स्त्री, पुत्र और कन्या आदि के लिए उसका मन व्याकुल हो रहा है। उनका समाचार जानने के लिए उसने इवा से चिट्टी लिखने का एक कागज माँग लिया है और पत्र लिखने के कठिन काम में जुट गया है। पहले के मालिक के लड़के जार्ज से टॉम ने थोड़ा-थोड़ा लिखना सीखा था; लेकिन सब अक्षर अब उसे याद नहीं हैं। जो याद हैं, उनमें भी कोई कहाँ लिखना चाहिए, यही समझ में नहीं आता। टॉम बड़ी कठिनाई से स्लेट पर पत्र-रचना कर रहा था, इसी समय चिड़ियों की तरह फुदकती हुई इवा चुपके से आकर उसके पीछे खड़ी हो गई और कंधे पर से झाँककर बोली - "अहा टॉम काका! यह तुम क्या तमाशा कर रहे हो?"

 टॉम ने कहा - "मिस इवा! मैं अपनी बेचारी बुढ़िया पत्नी तथा अपने छोटे बच्चो को पत्र लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, पर मैं देखता हूँ कि यह काम मुझसे होगा नहीं।"

 इवा ने कहा - "टॉम, मैं तुम्हारी सहायता करना चाहती हूँ। मैंने कुछ लिखना सीखा था। पिछले साल मैं सब अक्षर जानती थी, पर जान पड़ता है, अब मैं सब भूल गई हूँ।"

 इसके बाद दोनों पास बैठकर एक मन से पत्र लिखने में लग गए। दोनों की विद्या की दौड़ बराबर ही है। बड़े परिश्रम और एक-दूसरे से सलाह करने के बाद एक-एक शब्द लिखा जाने लगा। अंत में इवा ने उत्साह से कहा - "टॉम काका, खूब अच्छी चिट्ठी बन गई। तुम्हारी पत्नी और बच्चे इसे पाकर बड़े खुश होंगे। ओह, बड़े दु:ख की बात है कि इन लोगों को छोड़कर तुम्हें आना पड़ा। मैं किसी दिन बाबा से कहूँगी कि वह तुम्हें उन लोगों के पास लौट जाने दें।"

 टॉम ने कहा - "मेरी मालकिन ने कहा है कि रुपया जुटते ही वह मुझे फिर खरीद लेंगी। मालिक के बेटे जार्ज ने कहा है कि वह खुद आकर मुझे ले जाएँगे। यह देखो, उन्होंने अपनी याद की निशानी के रूप में मुझे यह मुद्रा दी है।"

 उसने कपड़ों के भीतर से मुद्रा निकालकर दिखलाई।

 इवा बोली - "हाँ-हाँ, तब वह जरूर आकर तुम्हें ले जाएँगे। मुझे बड़ी खुशी होती है।"

 टॉम ने कहा - "इसी से मैं पत्र लिखकर उन्हें अपना पता बता देना चाहता हूँ और अपनी कुशल लिख देना चाहता हूँ। इससे मेरी पत्नी लोई को बड़ा संतोष होगा। चलते समय वह मेरे लिए बहुत रोई थी।"

 इतने में सेंटक्लेयर ने दरवाजे से आते हुए आवाज दी - "टॉम!"

 टॉम और इवा दोनों चौंक पड़े।

 सेंटक्लेयर ने अंदर आकर और स्लेट देखकर कहा - "क्या हो रहा है यह?"

 इवा बोली - "यह टॉम की चिट्ठी है। मैं लिखने में इसकी मदद कर रही हूँ। क्या यह अच्छी बात नहीं हुई?"

 सेंटक्लेयर ने कहा - "मैं तुम्हारा साहस भंग नहीं करना चाहता। पर मेरी समझ में अच्छा होता कि टॉम मुझसे चिट्ठी लिखवा लेता। मैं घूमकर आऊँगा तो लिख दूँगा।"

 इवा बोली - "यह जरूर चिट्ठी लिखवाएगा क्योंकि उसकी मालकिन ने उसे रुपया भेजकर फिर खरीद लेने का वादा किया है। वह अभी मुझे बता रहा था।"

 सेंटक्लेयर ने मन-ही-मन सोचा कि यह केवल फुसलाने की बात है। जो लोग कुछ दयालु होते हैं, वे दासों को बेचने के समय ऐसी ही बातें कहकर झूठमूठ उसे समझा देते हैं। लेकिन उसने मुँह से कुछ कहा नहीं, केवल टॉम को घोड़ा कस लाने की आज्ञा दी।

 शाम को लौटकर सेंटक्लेयर ने टॉम की चिट्ठी लिखकर डाक में डलवा दी।

 इधर मिस अफिलिया घर के कामों में लगी रहती थी। दीना से लेकर दास बच्चे तक सब कहते थे कि मिस अफिलिया अजब किसम की स्त्री है, क्योंकि उसके नियमों के कारण सब तंग आ रहे थे।

 उच्च श्रेणी के दास-दासियों अर्थात् एडाल्फ, रोजा और जेन की तो राय थी कि वह भली औरत नहीं है, क्योंकि उसके हावभाव बड़े आदमियों के-से नहीं हैं। इस पर उन्हें बड़ा अचरज होता था कि वह सेंटक्लेयर की चचेरी बहन है। मेरी का कहना था कि अफिलिया दीदी जिस तरह दिन-रात काम में जुटी रहती हैं, उसे देखने से ही आदमी को थकावट हो जाती है।