Tom Kaka Ki Kutia - 21 in Hindi Fiction Stories by Harriet Beecher Stowe books and stories PDF | टॉम काका की कुटिया - 21

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टॉम काका की कुटिया - 21

21 - घर की देख-भाल

कुछ दिनों बाद बुढ़िया प्रू की जगह एक दूसरी स्त्री बिस्कुट और रोटियाँ लेकर आई। उस समय मिस अफिलिया रसोईघर में थी। दीना ने उस स्त्री से पूछा - "क्यों री, आज तू रोटी कैसे लाई है? प्रू को क्या हुआ?"

 "प्रू अब नहीं आएगी" , उस स्त्री ने यह बात ऐसे ढंग से कही, जैसे इसमें कुछ रहस्य हो। दीना ने पूछा - "क्यों नहीं आएगी? क्या वह मर गई?"

 उस स्त्री ने मिस अफिलिया की ओर देखते हुए कहा - "हम लोगों को ठीक-ठीक मालूम नहीं है। वह नीचे के तहखाने में है।"

 मिस अफिलिया के रोटियाँ ले लेने के बाद दीना उस स्त्री के पीछे-पीछे दरवाजे तक गई। उससे पूछा - "प्रू है कहाँ? कुछ तो कह!"

 वह स्त्री कहना चाहती थी, पर डर से नहीं कह रही थी। अंत में दबी जबान से चुपके-चुपके बोली - "अच्छा देख, तू किसी से कहना मत। प्रू ने एक दिन फिर शराब पी ली, इस पर उन लोगों ने उसे नीचे के तहखाने में बंद करके दिन भर रख छोड़ा। फिर मैंने लोगों को कहते सुना कि उसके शरीर पर मक्खियाँ भिन-भिना रही हैं और वह मरी पड़ी है।"

 यह सुनकर दीना ने विस्मय से हाथ उठाया और पीछे हट गई। तभी देखती क्या है कि इवान्जेलिन उसके पास खड़ी है। इवा की आँखें स्थिर हैं, मुँह सूख गया है, गालों और होंठों की सुर्खी गायब होकर सफेदी छा रही है। दीना चिल्ला उठी - "बाप-रे-बाप! भगवान बचाएँ! इवा बेहोश हो रही है। अरे, हम लोगों को क्या पड़ी थी जो उसे ये सब बातें सुनने दीं? मालिक को पता लगने से वह बहुत नाराज होंगे।"

 बालिका ने दृढ़ता से कहा - "मुझे बेहोशी नहीं होगी। और मुझे ये बातें सुननी क्यों नहीं चाहिए? कष्ट की बातें सुनने में मुझे उतनी पीड़ा नहीं होगी, जितनी प्रू को कष्ट सहने में।"

 दीना ने कहा - "नहीं, तुम-सरीखी कोमल नन्हीं बालिकाओं को ये कष्ट-कथाएँ नहीं सुननी चाहिए। इन बातों से तुम्हें बड़ी पीड़ा होती है।"

 इवा ने फिर ठंडी साँस ली, और बड़े वितृष्ण चित्त से पैर धरती हुई दुमंजिले कमरे में चली गई।

 मिस अफिलिया ने प्रू के बारे में बड़ी सरगर्मी से पूछताछ की। दीना से जो कुछ सुना था, उसे खूब नमक-मिर्च लगाकर कह सुनाया। टॉम ने अपने पहले दिन की तहकीकात सुनाई।

 सेंटक्लेयर जिस कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था, उसमें जाकर पैर रखते ही मिस अफिलिया ने कहा - "ओफ, कैसा बीभत्स कांड है! कैसा जघन्य व्यापार है!"

 सेंटक्लेयर ने पूछा - "जीजी, आज कौन-सा अधर्म का पहाड़ टूट पड़ा?"

 मिस अफिलिया बोली - "तुम्हारे लिए कोई बात ही नहीं है। मैंने तो ऐसी बात कभी नहीं सुनी। उन लोगों ने मारे कोड़ों के प्रू को मार डाला।" मिस अफिलिया ने बहुत विस्तार से वह बात कह सुनाई।

 सेंटक्लेयर ने अखबार पढ़ते-पढ़ते कहा - "मैंने तो पहले से समझ रखा था कि किसी दिन यही होना है।"

 अफिलिया बोली - "तुमने समझ रखा था और इसके प्रतिकार का कोई उपाय नहीं किया! क्या तुम्हारे यहाँ ऐसे पाँच भलेमानस नहीं हैं, जो मिलकर इन निष्ठुरताओं का निवारण करने का यत्न करें।"

 सेंटक्लेयर ने कहा - "जो अपने दास-दासियों की जान लेता है, वह स्वयं अपना माल नष्ट करता है। इसमें दूसरे को बोलने का कोई अधिकार नहीं। अपना नफा-नुकसान हरेक आदमी दूसरे की अपेक्षा अच्छी तरह समझता है। भरसक अपने दास-दासियों को मारकर अपना नुकसान कोई नहीं करता, पर प्रू पैसे चुरा-चुराकर शराब पीती थी, इससे उसके मालिक का बहुत नुकसान होता था, इसी से उसे मार डाला होगा।"

 मिस अफिलिया ने कहा - "अगस्टिन, वास्तव में यह बड़ा ही भयंकर धंधा है। निश्चय ही इसके लिए तुम्हें ईश्वर का कोप-भाजन बनना पड़ेगा।"

 सेंटक्लेयर बोला - "प्यारी जीजी, मैंने कभी ऐसा नहीं किया, पर मैं दूसरों को नहीं रोक सकता। यदि नीच पशु के जैसे मनुष्य अपनी इच्छानुसार यह अत्याचार करते हैं तो बताओ, मैं उसमें क्या करूँ? कानूनन हर आदमी अपने-अपने दास-दासियों पर पूर्ण अधिकार रखता है। दास-दासियों को जान से मारकर भी कोई दंड नहीं पा सकता। जब कानून ने उन्हें इतना अधिकार दे रखा है तो कोई क्या कर सकता है? इसलिए सबसे भली बात चुप रहना है। उधर से अपने आँख-कान बंद किए बैठे हैं। जो होता है सो होता है।"

 मिस अफिलिया ने कहा - "तुम कैसे अपनी आँखों और कानों को इधर से बंद कर लेते हो? तुम कैसे चुपचाप ये अत्याचार होने देते हो? इस भयंकर आचरण की कैसे उपेक्षा की जा सकती है?"

 सेंटक्लेयर बोला - "बहन, तुम क्या आशा करती हो? देखो, यह एक मूर्ख, आलसी, भले-बुरे का ज्ञान न रखने वाली, चिर-पराधीन मनुष्य-जाति दूसरी बहुत ही स्वार्थ-परायण, अर्थ-पिशाच मनुष्य-जाति के पंजों में फँसी हुई है। इन स्वार्थियों को जब इतनी बेहिसाब ताकत दे दी गई है, तब ऐसे भयंकर और कठोर आचरणों का होना अवश्यंभावी है। ऐसे समाज में एकाध सज्जन होकर ही क्या कर सकते हैं? मेरी अकेले की ऐसी बिसात नहीं कि इस देश भर के गुलामों को खरीदकर उन्हें दु:ख से मुक्त कर दूँ।"

 यह कहते-कहते सेंटक्लेयर का सदा प्रफुल्ल मुख कुछ देर के लिए कुम्हला गया। उसकी आँखें डबडबाई-सी जान पड़ीं, पर तुरंत उसने अपने मनोभाव को छिपाकर मुस्कराते हुए कहा - "बहन, तुम वहाँ यमराज की नानी का-सा मुँह बनाए क्या खड़ी हो? इधर आओ। तुमने अभी देखा क्या है? इस संसार भर के पाप, अत्याचार और सख्तियों का हिसाब लगाकर सोचा जाए तो जीवन मुश्किल हो जाए। इस संसार में कुछ भी अच्छा न लगे।"

 यह कहकर सेंटक्लेयर लेट गया और अखबार पढ़ने लगा।

 मिस अफिलिया जमीन पर बैठी-बैठी उदासी के साथ मोजा बुनने लगी। उसके हाथ चलते थे, पर जब वह उन बातों को सोचने लगी तो अकस्मात उसके हृदय में आग भभक उठी और अंत में वह फूट पड़ी। उसने कहा - "अगस्टिन, मैं तुम्हारी भाँति इस विषय की उपेक्षा नहीं कर सकती। मेरा मत है कि इस प्रथा का समर्थन करना तुम्हारे लिए बहुत ही घृणाजनक है।"

 सेंटक्लेयर बोला - "क्यों बहन, तुमने फिर वही पचड़ा छेड़ा।"

 अफिलिया ने और तेजी के साथ कहा - "मैं कहूँगी कि इस प्रथा का समर्थन करना तुम्हारे लिए बहुत ही घृणाजनक है।"

 सेंटक्लेयर बोला - "प्यारी बहन, मैं इसका समर्थन करता हूँ? किसने कहा कि मैं इसका समर्थन करता हूँ।"

 अफिलिया ने कहा - "निस्संदेह तुम इसका समर्थन करते हो - तुम सब जितने दक्षिणी हो वे सब। नहीं, तो बताओ कि तुमने दासों के लिए क्या किया?"

 सेंटक्लेयर बोला - "क्या तुम मुझे संसार में कोई ऐसा निर्दोष मनुष्य बताओगी, जो किसी काम को बुरा समझ लेने पर फिर उसे नहीं करता? क्या तुमने कभी ऐसा काम नहीं किया या नहीं करती हो, जिसे तुम बिलकुल ठीक नहीं समझती?"

 अफिलिया ने कहा - "यदि कभी करती हूँ तो मैं उसके लिए पश्चाताप करती हूँ।"

 सेंटक्लेयर ने नारंगी छीलते-छीलते कहा - "मैं भी ऐसा ही करता हूँ। सारा समय इस पश्याताप ही में बीतता है।"

 अफिलिया बोली - "पश्याताप करने के बाद आखिर उस को क्यों करते जाते हो?"

 सेंटक्लेयर ने कहा - "बहन, तुम क्या अनुमान करने के बाद फिर उस बुरे काम को नहीं करती?"

 अफिलिया ने उत्तर दिया - "केवल ऐसी दशा में जब मैं बहुत लोभ में पड़ जाती हूँ।"

 सेंटक्लेयर बोला - "हाँ, तो मैं बड़े लोभ ही में फँसा हुआ हूँ। जो मुश्किल तुम्हें पड़ती है, वही मुझे भी पड़ती है।"

 अफिलिया ने कहा - "पर मैं सदा अपने दोष को दूर करने की चेष्टा किया करती हूँ।"

 सेंटक्लेयर बोला - "बहुत ठीक। मैं भी तो दस वर्षों से चेष्टा कर रहा हूँ, पर अभी तक मैं अपने कितने ही दोष दूर नहीं कर पाया। कहो बहन, तुम क्या सब पापों से छुटकारा पा चुकी हो?"

 इस बार मिस अफिलिया ने बड़ी गंभीरता से बुनने के काम को किनारे रखकर कहा - "भाई अगस्टिन, मुझमें अनेक दोष हैं, उनके लिए तुम मेरी भर्त्सना कर सकते हो। तुम्हारा कथन यथार्थ है। अपनी कमजोरी के विषय में मुझसे अधिक कोई दूसरा अनुभव नहीं कर सकता। पर मैं तुमसे कहूँगी कि अपना यह दाहिना हाथ काटकर फेंक सकती हूँ, पर अपने दोष की उपेक्षा कभी नहीं कर सकती। जिस काम को मैं बुरा समझती हूँ, उसे सदा कभी नहीं करती रह सकती।"

 अगस्टिन ने कहा - "बहन, क्या तुम्हें मेरी बात पर गुस्सा आ गया? तुम तो जानती हो कि मैं बराबर दुष्ट लड़का था। मुझे तुम्हें खिझाने में हमेशा आनंद आया करता था। तुम्हारा स्वाभाव कितना पवित्र है, सो क्या मैं जानता नहीं! तुम्हारी सहृदयता क्या मैं भूल गया हूँ? पर तुम जरूरत से ज्यादा भली हो - इतनी भली कि तुम्हारे मरने का खयाल करके मुझे बड़ा दु:ख होता है।"

 अफिलिया ने माथे पर हाथ रखकर कहा - "अगस्ट, यह बड़ी गंभीर बात है। हँसी-मजाक की नहीं।"

 सेंटक्लेयर बोला - "हाँ, हिसाब से गंभीर है सही, पर मैं इतनी गर्मी में तो गंभीर होने से रहा। गर्मी तो गर्मी, उस पर मच्छरों का उपद्रव अलग परेशान किए हुए है। इस समय कोई भी इतनी ऊँचाई की नैतिक आलोचना नहीं कर सकता।"

 सेंटक्लेयर ने एकाएक अपने आप उठकर कहा - "मैंने अब समझा कि तुम्हारे यहाँ के उत्तरवाले लोग हम दक्षिणवालों से यों अधिक धार्मिक होते हैं। इसका कारण यह जान पड़ता है कि तुम्हारे वहाँ यहाँ के जैसी गर्मी नहीं पड़ती। लो, मुझे इस नए आविष्कार के लिए बधाई दो।"

 अफिलिया बोली - "अगस्टिन, तुम बड़े ही खफ्ती दिमाग के हो।"

 सेंटक्लेयर ने कहा - "मैं खफ्ती दिमाग का हूँ! ठीक है, होऊँगा, कोई ताज्जुब की बात थोड़े ही है। पर अब मैं एक बार गंभीर बनता हूँ। तुम जरा यह नारंगी की टोकरी मुझे उठा देना। देखो, तुम मेरे लिए थोड़ा कष्ट करो, मैं भी तो गंभीर बनने में कितना कष्ट उठाऊँगा।"

 इतना कहने के बाद सचमुच ही उसका चेहरा गंभीर हो आया। वह बड़ी संजीदगी से, अपने भाव प्रकट करने लगा - "बहन जहाँ तक मेरा खयाल है, इस दासत्व-प्रथा के खयाल पर कोई मतभेद नहीं हो सकता। पर हमारे यहाँ के अर्थलोभी गोरे जमींदार, स्वार्थवश, दासत्व प्रथा को न्यायसंगत बताते हैं और उनके टुकड़ों पर बसर करनेवाले खुशामदी पादरी इन्हें खुश रखने के लिए इसे बाइबिल से साबित करने को तैयार रहते हैं। वकील और नीति के पंडित अपना मतलब गाँठने के लिए आडंबर फैलाकर इस भयंकर रीति का समर्थन करते हैं। ये लोग अपने मतलब के लिए भाषा, नीति और धर्मशास्त्र का मनमाना अर्थ लगाते हैं। इस काम में इनकी अक्ल की दौड़ देखकर हैरान होना पड़ता है। पर सच तो यह है कि चाहे इसे बाइबिल से सिद्ध किया जाए, अथवा कानून की दुहाई दी जाए, या कितनी युक्तियाँ क्यों न दिखाई जाएँ, किंतु दुनिया कभी उनपर विश्वास नहीं कर सकती। यह घृणित दास-प्रथा नरकीय प्रथा है, नरक से निकली हुई है।"

 अगस्टिन बड़ी उत्तेजना से ये बातें कह रहा था। मिस अफिलिया को इस पर बड़ा विस्मय हुआ। वह अपना बुनना छोड़कर सेंटक्लेयर का मुँह देखने लगी। उसे विस्मित देखकर सेंटक्लेयर फिर कहने लगा - "तुम मेरी बात पर विस्मित-सी जान पड़ती हो, पर मैं आज जब कहने ही बैठा हूँ तब सारी बातें खोलकर कहता हूँ। गुलामी की इस घृणित प्रथा का मूल कारण देखना चाहिए, इसके ऊपर के सारे आवरणों को अलग करके देखना चाहिए कि यह क्या है? वास्तव में, हम भी इंसान हैं और कुएशी (जो लोग दास बनाए जाते थे) भी इंसान हैं। पर वे बेचारे मूर्ख और निर्बल हैं और हम बुद्धिमान और सबल हैं। हम छल-बल में पक्के हैं, इससे हम उनका सब कुछ हर लेते हैं और उसमें से जितना हमारा जी चाहता है, उन्हें लौटा देते हैं। जो काम गंदा, कठिन और अप्रिय जान पड़ता है, उसे हम कुएशियों से कराते हैं, क्योंकि हमें मेहनत करना पसंद नहीं, इसलिए कुएशी हमारे लिए पिसेंगे। हमें धूप अखरती है, कुएशी धूप में जलेगा। कुएशी रुपए कमाएगा और हम उसे खर्च करेंगे। हमारे जूतों में कीचड़ न लगे, इसके लिए कुएशी अपने हाथ से कीचड़ उठाकर रास्ता साफ रखेगा। यहाँ तो कुएशी को हमारी इच्छा के अनुसार चलना ही है, किंतु उसके परलोक के स्थान के निर्णय का ठेका भी हमीं लोगों के हाथ में है। हमारी कोई स्वार्थ-सिद्धि होती हो तो उसे अवश्य नरक में जाना पड़ेगा। हमारे देश के कानून का मतलब इसके सिवा और कुछ नहीं है। गुलामी की प्रथा के दुर्व्यव्हार करने का हल्ला मचाना पागलपन है। इतनी बड़ी कुप्रथा का और क्या दुरुपयोग हो सकता है? इस घृणित रिवाज का जारी होना ही मनुष्य-शक्ति का घोरतर दुरुपयोग है। इस पाप से यह पृथ्वी रसातल को क्यों नहीं चली जाती? इसका कारण यह है कि हम में से सब जंगली जानवर ही नहीं है, कोई-कोई आदमी बनकर पैदा हुए हैं। हम में से कुछ के हृदय में थोड़ी बहुत दया भी है। कानून ने गुलामों पर अत्याचार करने की जो शक्ति प्रदान की है, उसका भी हम पूरा-पूरा प्रयोग नहीं करते। इस देश का नीच-से-नीच दास-लज्जा गुलामों के साथ चाहे जितना बुरा बर्ताव करता हो, चाहे जितने अत्याचार करता हो, सब कानून की सीमा के अंदर ही हैं।"

 इतना कहते-कहते सेंटक्लेयर बेहद उत्तेजित हो गया। वह उठकर फर्श पर जल्दी-जल्दी टहलने लगा। उसका सुंदर चेहरा सुर्ख हो गया, और उसके विशाल नेत्रों से आग-सी निकलने लगी। इसके पहले मिस अफिलिया ने कभी उसकी ऐसी भावभंगिमा नहीं देखी थी। इससे विस्मित होकर वह चुपचाप उसकी ओर देखती रही। सेंटक्लेयर ने एकाएक मिस अफिलिया के सामने रुककर कहा - "इस विषय पर कुछ कहने या सोचने का कोई नतीजा नहीं है। पर मैं तुमसे कहता हूँ, एक समय था जब मैं सोचता था कि सारी पृथ्वी रसातल में चली जाए और यह भीषण अन्याय और अविचार निबिड़ अंधकार में लुप्त हो जाए, तो मैं सानंद इसके साथ रसातल को चला जाऊँगा। जब-जब मैं जहाज की यात्रा में या अपने खेतों के दौरे के समय सैकड़ों नीच, निष्ठुर पशुप्रकृति गोरों को अन्याय से प्राप्त किए गए धन द्वारा उन अनगिनत स्त्री-पुरुषों और बालक-बालिकाओं को खरीदकर उनपर मनमाना अत्याचार करते देखता हूँ तब मेरी छाती फट जाती है। मैं मन-ही-मन अपने देश को कोसता हूँ और सारी मनुष्य-जाति को शाप देता हूँ।"

 मिस अफिलिया बोली - "अगस्टिन, अगस्टिन, मैं समझती हूँ कि तुमने बहुत-कुछ कह डाला। मैंने अपने जीवन में गुलामी की प्रथा के विरुद्ध ऐसे ओजस्वी घृणापूर्ण वाक्य कभी उत्तर प्रदेश में भी नहीं सुने।"

 यह सुनकर सेंटक्लेयर के मुँह का भाव बदल गया। उसने स्वाभाविक व्यंग्य के साथ कहा - "उत्तर प्रदेश में? तुम्हारे उत्तर प्रदेशीय लोगों का खून बहुत ही सर्द है। तुम लोग हर बात में ठंडे हो। हृदय के आवेग द्वारा उत्तेजित होकर उत्तर प्रदेशवाले हम लोगों की भाँति अन्याय के विरुद्ध जोरदार आंदोलन करके आकाश-पाताल नहीं गुँजा सकते। तुम्हारे उत्तर प्रदेश में निम्नश्रेणी के लोगों से क्या सच्ची सहानुभूति रखी जाती है?"

 पाठक जरा ध्यान से देखेंगे तो उन्हें मालूम हो जाएगा कि गुलामी की यह प्रथा संसार भर में फैली हुई है। संसार में कोई स्थान ऐसा नहीं है, कोई जाति ऐसी नहीं है, जहाँ और जिसमें यह घृणित प्रथा किसी-न-किसी रूप में प्रचलित न हो। मनुष्य-समाज के मानसिक भावों की जाँच कीजिए और देखिए कि प्रत्येक व्यक्ति के अंदर क्या भाव काम कर रहे हैं। दूसरों पर प्रभुत्व रखना, दूसरों को नीचे रखकर स्वयं ऊपर जाना, यही मनुष्यों के मन का एक सार्वभौमिक भाव है। इसी लिए समाज में, जहाँ देखिए, वहीं सबल निर्बल को सताता है, पंडित मूर्ख पर प्रभुत्व जमाता है। बड़े आदमी अपने से छोटी श्रेणी के मनुष्यों का खून चूस-चूसकर मोटे बन रहे हैं। अपने से ऊपरवाली श्रेणी के कारण निम्न श्रेणी के लोग बड़े दु:ख से दिन बिता रहे हैं।

 मिस अफिलिया ने उत्तर प्रदेश क बात सुनकर कहा - "ठीक है, पर यहाँ एक प्रश्न उठता है।"

 सेंटक्लेयर बोला - "मैं तुम्हारे प्रश्न को समझ गया। तुम यही कहना चाहती हो न कि यदि मैं गुलामी की प्रथा का अनुमोदन नहीं करता, तो फिर क्यों इन दास-दासियों को रखकर अपने सिर पाप की गठरी लादता हूँ? ठीक है, मैं तुम्हारे ही शब्दों में इसका उत्तर दूँगा। तुम बचपन में मुझे बाइबिल पढ़ाने के समय कहा करती थीं कि हमारे पाप पुरुष-परंपरा से हमारे पीछे लगे हुए हैं। वही बात इन दासों के संबंध में भी है। ये पुरुष-परंपरा से मुझे मिले हैं। मेरे दास मेरे पिता के थे। और तो क्या, मेरी माता के भी थे। अब वे मेरे हैं। तुम जानती हो कि मेरे पिता पहले न्यू इंग्लैंड से यहाँ आए थे और उनकी प्रकृति बिलकुल तुम्हारे पिता के समान ही थी। वह सब तरह से प्राचीन रोमनों की भाँति न्यायी, तेजस्वी, महानुभाव और दृढ़-प्रतिज्ञ मनुष्य थे। तुम्हारे पिता न्यू इंग्लैंड में ही रहकर पत्थरों और चट्टानों पर शासन करते हुए कमाने-खाने लगे और मेरे पिता लुसियाना आकर अगणित नर-नारियों पर प्रभुत्व फैलाकर उन्हीं के परिश्रम से अपनी जीविका का निर्वाह करने लगे। मेरी माता..."

 कहते-कहते सेंटक्लेयर उठ खड़ा हुआ और कमरे में दूसरे सिरे पर लटकती हुई माता की तस्वीर के पास जाकर खड़ा हो गया और बड़े भक्ति-भाव से उस चित्र की ओर देखकर कहने लगा - "वह देवी थी... मेरी ओर इस तरह क्या देखती हो? तुम जानती हो कि मेरे कहने का तात्पर्य क्या है। यद्यपि माता ने मानव का तन धारण किया था तथा जहाँ तक मेरा अनुभव है, मैंने देखा और समझा है, उनमें मानसिक दुर्बलता और भ्रम का लेश तक न था। क्या अपने, क्या पराए, और क्या दास-दासी, सभी की यही राय है। बहन, माता ने ही मुझे कट्टर नास्तिकता के भाव से उबारा। मेरी माता एक जीती-जागती धर्मशास्त्र थीं और मैं उस धर्मशास्त्र की सत्यता में संदेह नहीं कर सकता।"

 यह कहते हुए सेंटक्लेयर का हृदय एकदम उछल उठा। वह अपने को भूलकर हाथ जोड़कर माता के चित्र की ओर देखते हुए, "माँ, माँ" कहकर पुकारने लगा और फिर सहसा अपने को सँभालकर वह लौट आया। अफिलिया के पास एक कुर्सी पर बैठकर उसने फिर कहना आरंभ किया - "मेरा भाई और मैं, दोनों जुड़वा पैदा हुए थे। लोग कहा करते हैं कि जुड़े हुए पैदा होनेवाले दो भाइयों में विशेष समानता होती है; पर हम दोनों में सब विषयों में भिन्नता थी। उसकी गठन रोमनों की भाँति दृढ़ थी, आँखें दोनों काली और ज्योतिपूर्ण थीं, सिर के बाल घने और छल्लेदार थे, शरीर का रंग भी गोरा था। मेरी आँखें नीली, बाल सुनहरे, देह की गठन ग्रीकों की-सी और रंग सफेद है। वह कामकाजी और चतुर था; मैं भावुक था, पर कामकाज में बिलकुल निकम्मा। वह बराबरवालों तथा मित्रों के साथ बड़ी सज्जनता का व्यव्हार करता था; पर अपने से छोटे लोगों पर बड़ा रौब रखता था। अपनी इच्छा के विरुद्ध काम करनेवाले पर वह कभी दया नहीं करता था। हम दोनों ही सत्यवादी थे। उसकी सत्य-प्रियता साहस और अहंकार से उत्पन्न हुई थी, और मेरी सत्यनिष्ठा भावुकता से। हम दोनों एक-दूसरे को चाहते थे। वह पिता का प्यारा था और मैं माता का दुलारा। मैं बड़ा भावुक था। मैं हर बात की बारीकी से छान-बीन करता था, जरा-सी बात से मेरा हृदय टूट जाता था। मेरे इस भाव से उसकी और पिता की जरा भी सहानुभूति न थी, पर माता मेरे हृदय को समझती थी और मेरे भाव से पूरी हमदर्दी रखती थी। इसी कारण अलफ्रेड से झगड़ने पर जब पिता मुझे तीखी निगाह से देखते थे, तब मैं माता के कमरे में आकर उसके पास बैठ जाता था। माँ की उस समय की वह स्नेह-भरी दृष्टि मुझे आज भी याद आती है। वह हमेशा सफेद कपड़े पहना करती थीं। मैं जब कभी बाइबिल के "रेवेलेशन" अंश में निर्मल, शुभ्रवस्त्रधारी देवताओं का वर्णन पढ़ता हूँ तब मुझे अपनी माता की याद आ जाती है। अनेक विषयों में माता बड़ी पारदर्शिनी थी। संगीत में उनकी बड़ी पहुँच थी। माँ जब आर्गन बाजे पर अपने देवोपम कंठ से गातीं, तब मैं उनकी गोद में सिर रखकर कितना विह्वल हो जाता, कितने स्वप्न देखता, कितना सुख पाता - इसका वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।..."

 "उन दिनों दास-प्रथा का विषय इतने वाद-विवाद का विषय नहीं था। कोई व्यक्ति स्वप्न में भी इसे हानिप्रद नहीं समझता था।"

 "मेरे पिता जन्म से ही जात्यभिमानी थे। जान पड़ता है कि इस लोक में जन्म होने के पूर्व वे आध्यात्मिक जगत की किसी उच्च श्रेणी में थे और वहीं से अपनी कुल-मर्यादा और अहंकार को साथ लेकर उतरे थे, नहीं तो दरिद्र और उच्च-कुल से रहित व्यक्ति के घर में जन्म लेकर भी कुल का ऐसा अभिमान होना पूर्वसंस्कार के सिवा और क्या कहा जा सकता है? मेरे भाई ने पिता की प्रकृति पाई थी।"

 "तुम जानती हो, जाति-कुलाभिमानियों के हृदय में सार्वभौम प्रेम का स्थान नहीं हो सकता। उनकी सहानुभूति समाज की एक निर्दिष्ट-सीमा के पार नहीं जा सकती। इंग्लैंड में सीमा की यह रेखा एक जगह टिकी हुई है, तो ब्रह्मदेश में दूसरी जगह, अमरीका में तीसरी जगह; पर इन सब देशों के जाति-कुलाभिमानियों की दृष्टि इससे आगे कभी नहीं बढ़ती। इस श्रेणी के लोग केवल अपने बराबरवालों से ही सहानुभूति रखते हैं। वे अपनी श्रेणीवालों के लिए जिन बातों को अत्याचार और अन्याय में गिनते हैं, उन्हीं बातों को दूसरी श्रेणीवालों के लिए कुछ भी नहीं समझते। पिता की दृष्टि में "रंग" सीमा-निदर्शक था। गोरों को वह अपनी श्रेणी का समझते थे और उनके साथ उनका व्यव्हार भी न्याय-संगत और आदर्श था। पर इन बेचारे गुलामों को वह मनुष्य नहीं समझते थे - इन्हें तो वे मनुष्यों और पशुओं के बीच की श्रेणी का जीव मानते थे। मैं समझता हूँ कि अगर कोई उनसे पूछता कि इन गुलामों में आत्मा है या नहीं, तो वह बड़े संदेह में पड़कर, "हाँ" में इसका उत्तर देते। मेरे पिता आध्यात्मिक आलोचना की कुछ भी परवा नहीं करते थे। धर्म पर भी उनकी वैसी श्रद्धा न थी। वह समझते थे कि कोई ईश्वर है तो जरूर, पर वह भी उच्चजाति के लोगों का ही रक्षक है।"

 "मेरे पिता के कपास के खेतों में कम-से-कम पाँच सौ गुलाम काम करते थे। इनके काम की देखरेख के लिए स्टव नाम का एक नर-पिशाच रखवाला था। वह गुलामों को दिन-रात सताया करता था। वह व्यक्ति माता को और मुझे फूटी-आँख न सुहाता था, पर पिता उसे चाहते और उसका विश्वास करते थे, इससे गुलामों को वह खूब सताता और मारता-पीटता था..."

 "मैं उस समय बच्चा ही था, पर उसी समय से मामूली आदमियों पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया था। मैं सदा खेत और घर के गुलामों की झोंपड़ियों में जाया करता, उनकी सब तरह की शिकायतें सुनकर आता और माता से कहता। फिर हम दोनों मिलकर उनका दु:ख दूर करने के उपाय साचते थे। हम लोगों की कोशिश से जुल्म कुछ कम होने लगे। हम जब कभी गुलामों का दु:ख थोड़ा भी दूर करने में सफल हो जाते, तो हमारे हर्ष की सीमा न रहती। इन सब बातों को देखकर एक दिन स्टव ने जाकर मेरे पिता से शिकायत की कि उससे प्रबंध नहीं हो सकेगा, उसका इस्तीफा मंजूर कर लिया जाए। मेरी माता पर पिता का बड़ा अनुराग था, पर वह जिस काम को आवश्यक समझते थे, उसमें कभी पीछे नहीं हटते थे। सो उन्होंने सम्मानसूचक पर स्पष्ट शब्दों में मेरी माता से कहा कि घरेलू दास-दासियों पर उनका पूरा अधिकार है, किंतु खेत के गुलामों के संबंध में उनकी कोई बात न मानी जाएगी। वह कहा करते कि मेरी माता ही क्या, स्वयं ईसा की माता मेरी भी आकर उनके काम में व्याघात डालें तो वह ऐसी ही खरी-खरी सुनाएँगे।"

 "इसके बाद भी माता कभी-कभी पिता से स्टव के अत्याचारों की बातें कहा करती थी। पिता अविचलित मन से उन बातों को सुन लेते और अंत में कह देते कि क्या करें, स्टव को नहीं छुड़ा सकते। उसके जैसा काम में होशियार और बुद्धिमान आदमी दूसरा नहीं मिलेगा। स्टव इतना ज्यादा सख्त भी नहीं है। यों कभी-कभी थोड़ी-बहुत सख्ती कर लेता है, उसके लिए उसे दोष नहीं दिया जा सकता। बिना शासन के काम बिगड़ जाता है। कहीं की शासन-प्रणाली देख लो, कोई भी निर्दोष नहीं मिलेगा। आदर्श शासन-प्रणाली इस संसार में है ही नहीं। जिनका हृदय मेरी माता की भाँति कोमल और ममतामय है, जिनकी प्रकृति महान है, वे जब चारों ओर अत्याचार-अविचार और दु:ख यंत्रणाएँ देखते हैं तथा उन्हें दूर नहीं कर सकते, तब उन्हें जैसी मानसिक वेदना होती है, इसका हाल अंतर्यामी के सिवा दूसरा नहीं जान सकता। वे जिसे अन्याय समझते हैं उसे दूसरा कोई अन्याय नहीं कहता; वे जिसे भीषण निष्ठुर समझते हैं, उसे दूसरे दस निष्ठुरता नहीं मानते। इसी से लाचार होकर वे चुपचाप अपने मन के दु:ख को मन ही में दबाए बैठे रहते हैं। इस पाप-संताप-कलुषित पृथ्वी पर उनका जीवन सदा दु:खों का आधार बना रहता है। मेरी माता ने जब देखा कि वह दु:खी दासों का दु:ख दूर नहीं कर सकतीं तब वह निराश हो गईं। लेकिन हम दोनों भाइयों को भविष्य में निष्ठुर न होने देने के विचार से अपने विचारों और भावों की शिक्षा देने लगीं। शिक्षा के संबंध में तुम चाहे जो कुछ क्यों न कहो, पर मैं समझता हूँ कि जन्म से मनुष्य की जैसी प्रकृति होती है, वह सहज में नहीं बदलती। अलफ्रेड जन्म से ही हुकूमत-पसंद और जात्याभिमानी था। उस पर माता के उपदेशों और अनुरोधों का कोई असर न होता था। मानो संस्कारवश अलफ्रेड की युक्तियाँ और तर्क दूसरा पक्ष समर्थन करते थे, परंतु मेरे हृदय में माता की कथनी अच्छी तरह जमने लगी। उनका जीता-जागता विश्वास और उनके हृदय की गाढ़ी भक्ति, उनके प्रत्येक उपदेश के साथ-साथ मेरे हृदय में प्रवेश करती थी। वह मुझे समझाया करती थीं कि "मनुष्य धनी हो या दरिद्र, उसके धनी या दरिद्र होने से उसकी आत्मा का महत्व नष्ट नहीं हो जाता। एक दिन आकाश में तारे दिखाकर मुझे कहने लगीं, "बेटा अगस्टिन! आकाश में जो लाखों तारे दिखाई दे रहे हैं, किसी समय इनका नाम-निशान मिट जाए ऐसा हो सकता है; सारा संसार भी नष्ट हो सकता है, और सूर्य का पूर्व से पश्चिम में उदय हो सकता है; पर एक आत्मा का चाहे वह कितना ही दीन और दरिद्र क्यों न हो, नाश नहीं हो सकता। धनी, निर्धन, पंडित, मूर्ख, सब अमर रहेंगे और मंगलमय ईश्वर की गोद में सदा सुख-शांति पाएँगे। प्रत्येक दीन-दरिद्री के लिए उसकी भुजाएँ सदा फैली रहती हैं।"

 "माता के कमरे में बहुत-सी तस्वीरें थीं। उनमें एक वह तस्वीर थी, जिसमें ईसा मसीह का अंधे को आँखें देने का द्रश्य दिखाया गया था। उस तस्वीर को दिखाकर माता कहा करतीं, "देखो अगस्टिन, परम धार्मिक यीशु की दीन पर कितनी दया है। वह अपने हाथों से बेचारे अंधे की सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं। अंधे को आराम पहुँचाने का प्रयत्न कर रहे हैं।" यदि मुझे अधिक दिन तक ऐसी स्नेहमयी दयालु जननी की छत्रछाया का सौभाग्य रहता तो मैं अवश्य उच्च कोटि का मनुष्य होता। यदि जवानी तक भी मुझे माता का साथ मिला होता तो मेरा जीवन ऐसा सुगठित हो जाता कि फिर मैं इन दास-दासियों के उद्धार के लिए अपने प्राणों की मोह-माया तज सकता था। देश-सुधार का व्रत ले सकता था। पर मेरा दुर्भाग्य कि मुझे तेरह वर्ष की अवस्था में ही उत्तर की ओर जाना पड़ा और जननी का साथ छोड़ना पड़ा। यही कारण है कि मैं जैसा चाहता था, वैसा जीवन प्राप्त नहीं कर सका।"

 सेंटक्लेयर सिर पर हाथ रखकर जरा देर तक चुप रहा। वह फिर कहने लगा - "इस संसार के कामें में क्या कहीं सत्य धर्म-भाव, न्यायसंगत आचरण और नि:स्वार्थ प्रेम दिखाई पड़ता है? मैंने लड़कपन में भूगोल में पढ़ा था कि सब जगह की जलवायु भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है, इसी से भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न प्रकार के पेड़-पौधे होते हैं। यही हाल मनुष्य-समाज के आचरण और मतामत का है। जिस देश का जैसा आचार-व्यव्हार होता है वहाँ के लोगों का, सामाजिक दशा के अनुसार, वैसा ही चरित्र बन जाता है। हमारे देश में दास-प्रथा प्रचलित है, इसी से यहाँ के लोग इस दास-प्रथा में कोई बुराई नहीं समझते। पर इंग्लैंडवालों के कानों में जब इस प्रथा की कठोरता की भनक पहुँचती है तब उनकी छाती दहल जाती है। इस संसार में क्या शिक्षित और क्या गँवार, अधिकतर लोग ऐसे ही होते हैं कि जिनका निज का कोई स्वतंत्र मत नहीं होता। वे प्रवाह के साथ बहते हैं। वे अवस्था के दास होते हैं। देश में प्रचलित अवस्था उन्हें जिस ओर ले जाती है उसी ओर आँख-कान बंद करके बहे चले जाते हैं।"

 "किसी विषय की भलाई-बुराई की स्वाधीनतापूर्वक परख करने की शक्ति उनमें नहीं होती। तुम्हारे पिता उत्तर की दास-प्रथा के विरोधी संप्रदाय के साथ रहते थे, इससे दासत्व-प्रथा के विरोधी हो गए थे; और मेरे पिता इस दास-प्रथा के चलनेवाले देश में रहते थे, इससे इस प्रथा के पक्षपाती थे। पर इस देश और संग-भेद से उत्पन्न हुई भिन्नता के सिवा उनमें और किसी प्रकार की भिन्नता नहीं थी। और बातों में उनकी प्रकृति में पूरी समता थी। दोनों में ही अपनी जाति का अभिमान था और शासन को पसंद करते थे।"