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बहुत सी चीज़ें होती हैं रसभरी यानि रस से भरी और बहुत सी बातें भी तो होती हैं ऐसी रस से भरी जो भूले नहीं भूलतीं और यदि इन दोनों का समिश्रण हो जाए तो क्या ही कहने ! वैसे भी बामन कुल में जन्म लेकर रसभरी की आदत से सराबोर हम जैसे लोग किसी भी उम्र में इस रसभरी को ढूँढने के लिए ऐसे लपकते हैं कि क्या बताएँ और जब नहीं मिलती तो ऐसे बौखला उठते हैं जैसे मृग अपनी क्स्तूरी को तलाशता हुआ इधर-उधर लपकता है और जब कस्तूरी उसे नहीं मिलती तो पागल होकर इधर-उधर चक्कर लगाता रहता है! ऐसे ही हम भी मीठे की सुगंध आई नहीं कि चक्कर लगाने शुरू और न मिलने पर मुँह लटकाकर बैठ गए |
सच्ची सच्ची बात बता रही हूँ, अब आप मानें या न मानें | हम दो पक्के दोस्त ! एक जाट तो दूसरा पक्का बाम्मन ! नहीं वैसे हमें कोई फ़र्क थोड़े ही पड़ता था इससे लेकिन हमारे ज़माने में यह तो कहा ही जाता था –“बाम्मन को खिला दो, भई खाना नहीं उनका, पाप लगेगा|” हम हो—हो करके हँसते ! वही करते जो करने के लिए हमें मना किया जाता | खूब खाया हमने उन दोस्तों के यहाँ जिनको ऐसे उपदेश मिलते थे और खूब खिलाया उनको | अब हमें तो कोई पाप चढ़ने वाला था नहीं, अब चढ़े उन लोगों को जो हम जैसे बाम्मन का खाते हैं और वो भी चटकारे लेकर !
कितने बेशर्म थे हम कोई कुछ भी कहता रहे हमें जो करना होता, करते ही ! आज सोचते हैं तो दाँत फाड़कर हँसने को जी चाहता है | उसमें भी ध्यान रखना पड़ता है कि भाई कोई यह न कह दे कि बूढ़ी घोड़ी, लाल लगाम ! ---या फिर ये मुँह और मसूर की दाल ! शरम नहीं आती ऐसी हरकतें करते ! नहीं आती थी और न ही अब भी आती है | अब किया क्या जाय? आदमी अपनी आदतों से बाज़ कहाँ आता है जी ?
अच्छा ! एक बात बताइए मित्रों, फ़र्क पड़ना चाहिए क्या कुछ ? भाई ! दिमाग हमारा, शरारत हमारी, शैतानी हमारी और आप दुबले यूँ ही हुए जा रहे हैं ‘सहर के अंदेसे से?’ तो होते रहिए जी, हम तो अपनी बात साझा किए बिना अब चुप तो हो नहीं सकते, वर्ना पेट दर्द हो जाएगा | अपने दिल की बात साझा कर लेनी चाहिए वरना ---
वही तो कर रही थी कि बीच में और कुछ याद आ गया | ये स्मृतियाँ भी बड़ी ढीठ होती हैं, बिना पूछे दिल की गलियों में ऐसे छ्लांग लगा देती हैं कि हम देखते ही रह जाते हैं | न कोई द्वार, न झरोखा ! कहाँ से कोई पुकार आ जाती है, हम स्वयं ही अपने अवतार और स्वयं ही अपनी नैया के खेवनहार !
अब भटका दिया न ! भाई, बात तो पूरी करने दिया करो –न –न आपको नहीं कह रही हूँ, आप तो खामाखाँ मुह फुला लेते हैं जी, अब पाठक ही नाराज़ हो जाएँगे तो लिखकर भी क्या होगा ? मैं याद कर रही हूँ उनकी जो बेबात ही बीच में कूद पड़ते हैं यानि उन लोगों की जिनको हमारी बातें सुने बिना चैन ही नहीं पड़ता था और बिना माँगे सलाह-मशविरा भी देना होता है |अब क्या कर सकते हैं जी, दुनिया रंग-बिरंगी तो लोग भी तो रंग –बिरंगे, भाँति-भाँति के ! हम दोनों मित्रों की योजनाएँ बाद में बनतीं, पहले हवा में पसर जातीं यानि हमारी योजनाएँ ज़रा कम ही फलीभूत हो पातीं|
ख़ैर, तो बात कर रही थी एक जाटनी चुन्नी और एक बामनी मुनिया की ! आमने-सामने घर, एक घर में खाना खाओ तो दूसरे घर में पानी पीओ | दोनों चटोरी, यहाँ तक कि जाटनी तो भैंस के थन से सीधा दूध पी जाती और बामनी खड़ी-खड़ी ‘औ—औ—‘करती रहती | उसे लगता अभी वह सब उलटकर रख देगी | पता नहीं कैसे पी जाती है, दुष्ट !
“आ-देख तो सही, तू भी पीकर देख, कितना मीठा होता है ? तू तो बस समोसे चाटती रहा कर फिर खौं, खौं करके मौसी जी की जान खाती रहा कर –“ मुनिया यानि मेरे टॉन्सिल्स थे और खटाई खाने की मनाई थी | पापा मिनिस्टरी ऑफ कॉमर्स में दिल्ली थे और माँ मुजफ्फरनगर में कॉलेज में संस्कृत की अध्यापिका ! सो, दोनों स्थानों पर खिंचाई होती रहती |
दिल के छाले मित्रों के सामने रख रही हूँ | हमारे शहर में एक नंदू हलवाई था, बड़ा फेमस !हमारी सड़क के कोने पर ही थी उसकी दुकान उसकी दो चीज़ें बड़ी प्रसिद्ध थीं | एक तो कुल्हड़ वाला दूध और दूसरी गर्मागर्म जलेबी |पूरे वातावरण में ऐसी सुगंध पसरती कि हम जैसे छौने उस सुगंध को तलाशते हुए घूमते रहते | जी ! हम दोनों मित्र जलेबी को रसभरी कहते थे, रस से भरी होती है न वह ! एक रसभरी फल भी तो होता है किन्तु मैं उसकी बात नहीं कर रही | सुबह नाश्ते के समय यानि लगभग 8 से 10 के बीच एक कढ़ाहे पर गरमागरम जलेबियाँ छनतीं तो दूसरे कढ़ाहे पर गरमागरम समोसे !एक भट्टी पर कढ़ाहे में दूध औट रहा होता जो नंदू अपने ग्राहक को मिट्टी के धुले हुए सौंधी खुशबू से भरे कुल्हड़ में इत्ती मोटी मलाई मारकर देता कि देखते ही देखते कब ख़त्म हो जाता पता ही नहीं चलता|
कभी हमारे पास पैसे होते तो कभी नहीं भी होते थे, हम दोनों सहेलियाँ पैसों का जुगाड़ करने में व्यस्त रहते | कभी उसकी बीबी (मम्मी) तो कभी मेरी अम्मा (मम्मी), यानि किसी न किसी की खुशामद तो करनी ही पड़ती | दोनों समय जलेबी बनतीं और समोसे भी तले जाते थे, खूब बड़े-बड़े होते समोसे ! मेरे मुँह में तो समोसों को देखकर पानी भर आता लेकिन चुन्नी ठहरी दूध और जलेबी की दीवानी ! सो अगर पैसों का इंतज़ाम होता तो दोनों चीज़ें खाई जातीं, हममें से एक तो कोई खाने की हिम्मत ही नहीं कर सकता था वरना तो उसका जीना दूभर हो जाता |
ख़ैर आप सब तो जानते हैं, ब्राह्मण हैं तो चटोरा न होना उनके लिए बड़ी हिकारत की बात है जी | तो हमें लानत-मलामत थोड़े ही पड़वानी थी अपने ऊपर ?तो रोज़ जलेबियों और समोसों की शामत आती |अक्सर डांट भी पड़ती कि चटोरे हो दोनों | जी, वो तो कहाँ गलत था |
एक दिन कोई नहीं था जो हमारे इस भोज के नेक काम में तरस खाकर हमारी सहायता करता | हम सोच ही रहे थे कि जुगाड़ कैसे किया जाए | उस ज़माने में एक रुपए की बड़ी कीमत होती, हम बेचारे तो पच्चीस पैसे में अपना काम चला लेते थे | दस पैसे का समोसा और पंद्रह पैसे की जलेबी | समोसा तो अधिकतर मैं ही डकारती लेकिन जलेबी पर जाटनी चुन्नीकी नज़र जमी रहती | हमने कहाँ उसे समोसे के लिए मना किया लेकिन वह छोटा सा टुकड़ा लेती और उसे मिर्ची लग जातीं और वह जलेबी के दौने पर टूट पड़ती |ये तो सरासर अन्याय था| हम दोनों को दोनों चीज़ें आधी-आधी खानी चाहिए थीं |
जी, तो उस दिन हमारे पास पैसों का कोई जुगाड़ नहीं था | क्या किया जाए ?हमारे घर गंगा देवी नाम की एक सेविका थीं, उम्रदराज़ थीं, सो हम पर रौब भी खूब झाड़तीं | उस दिन माँ ने कॉलेज जाने से पहले शायद कुछ खरीदारी करने के लिए उन्हें एक रुपया दिया था| उन्होने पच्चीस पैसे का कुछ सौदा सुलफ़ लाकर बारह आने यानि पिछतर पैसे कार्निश पर रखा दिए थे | हम दोनों की नज़र उन पैसों पर पड़ी | हम उन्हें माँ जी कहते थे | मालूम था वो हमें एक पैसा भी देने वाली नहीं थीं और हमारा जलेबियों का समय समाप्त हो जाता तो जलेबियाँ कुरकुरी न रह पातीं | हम दोनों ने आँखों ही आँखों में एक दूसरे को देखा और चुपचाप एक चवन्नी यानि पच्चीस पैसा वहाँ से खिसका लिए और कूदते-फाँदते जा पहुँचे नंदू हलवाई की दुकान पर और अपना मनपसंद नाश्ता लेकर घर पहुँच गए |
न जाने उस दिन क्या हुआ कि चुन्नी को भी समोसा खाने का मन हो आया, उसने मुझसे आधा समोसा ले लिया | अब कायदे की बात तो यह थी कि उसे मुझको मेरे हिस्से की आधी जलेबियाँ देनी चाहिए थीं| लेकिन चाशनी टपकती हुई जलेबी का दौना देखकर उसकी नीयत ही बदल गई शायद | उसमें से एक जलेबी उसने मुझे पकड़ाई और दूसरी ओर भाग खड़ी हुई | मैंने एक बार ही में अपने मुँह में जलेबी धकेलने की कोशिश की जिससे मेरे मुँह के चारों ओर चाशनी फैल गई और मुँह चिपचिपा हो गया | मैं उस जलेबी को इतने स्वाद से नहीं खा पा रही थी जितना स्वाद लेकर हर रोज़ खाती थी क्योंकि मेरे सामने तो चुन्नी के हाथ में रखा दौना था, उसमें कई जलेबियाँ थीं जिन्हें वह अकेले खाने वाली थी |
भयंकर अन्याय ! अपने मुँह में रखी जलेबी का कोई स्वाद ही नहीं था, स्वाद तो उस दौने में था जिसे वह उछल उछलकर मुझे दिखा रही थी और खाती जा रही थी | आँगन काफ़ी बड़ा था जिसमें चारपाइयाँ पड़ीं थीं | वह कभी चारपाई पर चढ़ती, कभी उस पाए से नीचे कूदती | मैं भी कहाँ कम थी, बहुत देर से झपट्टा मार रही थी, वह हाथ ही नहीं आ रही थी |
“ले, कैसे खाएगी अकेली ---ये पकड़ा !” मेरा एक ज़ोरदार हाथ दौने पर पड़ा और दौना बेचारा अपनी चाशनी भरी, रसभरियों के साथ ज़मीन का हिस्सा बन गया |चुन्नी भी गिर पड़ी और भैंकड़ा फाड़कर रोने लगी | गिर तो मैं भी पड़ी थी| हमारी आँखों कोटरों से झरने सी अश्रुधार प्रवाहित हो रही थी | वैसे भी पता चलने पर हमें मार तो पड़ने वाली ही थी, न जाने चोरी के इलज़ाम में कैसी पिटाई बनेगी, कान ऐंठे जाएँगे या थप्पड़ खाने पड़ेंगे ? एक तो धूलि –धूसरित जलेबियाँ मुँह चिढ़ा रही थीं ऊपर से घबराहट हो रही थी मार खाने की|हम समझदार तो थे ही दोनों उठ गए| हमारे हाथ और मुँह चिपके हुए थे और आँखों से आँसुओं के पतनाले बह रहे थे| अब क्या करते दोनों चिल्लाकर रोने लगे, वैसे भी अम्मा आकर चवन्नी के बारे में पूछने वाली तो थीं ही, उसकी पूर्व तैयारी तो करनी ही थी, उस डांट के लिए हमें तैयार होना ही था, वहाँ सफ़ाई करना हमारे लिए आसान थोड़े ही था ।एक दूसरे का मुँह देखते रहे, सुबकते हुए| सीढ़ियों में माँ की पदचाप सुनाई दे रही थी और हम दोनों रोते हुए अपने धूलि-धूसरित जलेबियों के दौने को बेबसी से देख रहे थे |
डॉ.प्रणव भारती