एक दिन कुमुदिनी ने तिलक से कहा, "तिलक भैया आप क्यों मेरी मम्मी को यह बात नहीं बता देते। बता दो ना? मेरे पापा, मम्मी से बहुत डरते हैं। यदि माँ के सामने वह स्वीकार कर लेंगे तो शायद फिर वह समाज के सामने भी . . ."
"नहीं कुमुदिनी मैं नहीं चाहता कि जिस दर्द को मेरी माँ ने वर्षों तक झेला है, उसका एक छींटा भी रुकमणी आंटी के ऊपर पड़े। इस सब में उनकी क्या ग़लती है। वह तो पिक्चर में थीं ही नहीं। हो सकता है उन्हें वह सब मालूम होता तो शायद वह यह शादी ही नहीं करतीं। वह कितनी ख़ुश हैं, उन्हें ख़ुश ही रहने दो। कोई तो ख़ुश रहे हमारे परिवार में। मेरी माँ यह कभी नहीं चाहेंगी कि रुक्मणी आंटी के ख़ुशी के दामन में उनके कारण ग़म का छींटा पड़ जाए।"
कुमुदिनी तिलक की बातों को ध्यान से सुनकर सोच रही थी कितनी अच्छी सोच है तिलक की। रागिनी भी वहीं खड़ी थी। उसने कहा, "कुमुदिनी बेटा यह सुख क्या कम है कि आज तुम दोनों भाई बहन साथ-साथ हो। तुम्हें भाई मिल गया और तिलक को बहन। शायद भगवान ने हमारे परिवार के भाग्य में ही ऐसा लिख दिया था कि भाई बहन का संगम, उनका मिलन इस तरह से होगा। बस जैसा चल रहा है बेटा वैसा ही चलने दो।"
"लेकिन आंटी तिलक भैया का भी तो हक़ है पापा के प्यार पर।"
"नहीं कुमुदिनी ऐसा कभी मत सोचना क्योंकि तिलक को हक़ दिलाने में कहीं तुम्हारा इतना प्यारा परिवार ना टूट जाए। तुम छोटी हो बेटा, भावनाओं में बह रही हो। हमारे समाज के दायरे बहुत ही संकुचित होते हैं जिन्हें मैंने भोगा है। अब तुम्हारे परिवार को ऐसा ही पाक साफ़ रहने दो। लोगों को कीचड़ उछालने में देर नहीं लगती।"
कुमुदिनी ने उसके बाद इन बातों की गहराई को समझते हुए कहा, "ठीक है आंटी आप जैसा चाहती हैं वैसा ही होगा।"
उधर वीर प्रताप जब भी तिलक को देखते उन्हें अपनी ग़लती पर पछताने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं दिखाई देता। शायद अब उनके पास अपने आप को माफ़ करने की कोई गुंजाइश भी नहीं थी क्योंकि जिस हवेली की लालच में उन्होंने रागिनी का साथ छोड़ा था आज तिलक के सामने उस हवेली की औकात उन्हें केवल शून्य का आभास कराती थी। आज उन्हें वह हवेली नहीं अपना बेटा तिलक चाहिए था, जो अब केवल एक कभी भी पूरा ना होने वाला सपना मात्र ही था। लेकिन उन्हें एक ख़ुशी तो ज़रूर मिल रही थी कि उनकी बेटी कुमुद और उनका बेटा तिलक दोनों भाई बहन एक दूसरे को बहुत प्यार करते हैं। वह एक बार रागिनी को देखना चाहते थे, उससे माफ़ी माँगना चाहते थे किंतु इतनी हिम्मत वह कहाँ से लाते।
रागिनी तो आज उनके लिए ऐसी देवी की तरह थी जिसे वह आँखों में महसूस कर सकते थे लेकिन प्रत्यक्ष, साक्षात कभी नहीं देख सकते थे। अब वह अपने ख़ुद के गिरेबान में झांक कर देखते कि वह किसके-किसके दोषी हैं तो उन्हें रागिनी का चेहरा, तिलक का चेहरा और उनके साथ ही साथ रुक्मणी का चेहरा भी साफ़-साफ़ दिखाई देता जो उन्हें भगवान मानती है। वह यह भी जानते थे कि उनकी एक ही सज़ा है, जो जेल की सलाखों से बड़ी मन की सलाखों में कैद होने वाली सज़ा है और वह सज़ा है घुटन की। जिससे वह जीवन की अंतिम साँस तक भी शायद मुक्त ना हो पाएँगे।
वह आज सोच रहे थे कि सुंदरता तो केवल एक छलावा है। रागिनी को छोड़ देने का एक कारण वही सुंदरता भी तो थी, जो वक़्त के साथ, उम्र के साथ, ना जाने कहाँ खो गई। सुंदरता कितनी अस्थायी होती है, कभी मोटापे के अंदर छुप जाती है, कभी गालों की झुर्रियों के अंदर कुलबुलाती है, कभी टूटे हुए दांतों के अंदर से हमें चिढ़ाती है और कभी बालों की सफेदी दिखा कर यह एहसास कराती है कि मुझ पर कभी घमंड मत करना। मेरी वज़ह से किसी का दिल नहीं दुखाना, कभी किसी को धोखा मत देना। मैं तो आज हूँ कल नहीं लेकिन तुम्हारा ज़मीर आज भी है और अंतिम साँस तक भी तुम्हारे साथ रहेगा। यदि वह सुंदर है तो वही जीवन की असली सुंदरता होगी लेकिन यहाँ तो वीर प्रताप का ज़मीर ही सुंदरता के जाल में फँस गया था और अब उस घुटन से उन्हें मुक्ति मिल पाना असंभव ही था।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
समाप्त