कोट उतार मैं अतीत में चला गया -
मेरा गाँव कभी हँसता,कभी मुस्कराता। कभी मौन हो जाता माना पृथ्वी पर हो ही नहीं,कटा- छँटा,एकान्त। अकेला नदियों कल-कल के बीच। लड़ता-झगड़ा तो भी दूर-दूर तक किसी को पता नहीं चलता। इतिहास बनाता और वहीं रह जाता।
श्मशान पर ५-६ लोग थे। पता करने पता चला कि एक घसियारी घास लाते समय पहाड़ की पगडण्डी से गिर गयी और उसकी मृत्यु हो गयी थी। तीन छोटे बच्चे थे उसके। श्मशान की अग्नि, आग नहीं होती, अग्नि देवता कहलाती है।
सुबह लगभग दस बजे गायों को जंगल में चरने छोड़ने जा रहा था, दूर नदी के किनारे एक वृक्ष की डाली से एक आदमी झूल रहा था।
महिलाएं लोकगीत गाती घास काटते-काटते। कभी खेतों में जुटी रहती तो कभी घरों में। मिट्टी का श्रम फलता-फूलता था। बंजर खेत नहीं होते थे।
पगडण्डियों से स्कूल जाते बच्चे। रास्ते में बेड़ू के पेड़ में बेड़ू खाने चले जाते। "बेड़ू पाको बारमासा-- " लोकगीत सा बेड़ू का स्वाद लेकर घर पहुँचते।
तैरना नदी में सीखते। डर रहता था, डूबने का गहरे पानी में। फिर भी तैरने की कला डूबने के डर पर भारी पड़ती थी। पानी इतना साफ की प्रकाश की परावर्तित किरणें नदी के तल को साफ-साफ दिखाती थीं। नदियों में बारह मास पानी बहता था। बरसात में बाढ़ देखने का मन करता था। पत्थरों पर उछलता पानी मुक्त स्वर में बोलता था।
घराट जीवन्तता भरे होते थे। चिड़िया की कट-कट-कट। और फितड़े से पानी की टक्कर से उत्पन्न स्वर मानो कहता हो," अन्न देवो भव।" इस पर एक पहेली भी कहते थे।" गोठ छाँ फाननि,भतेर नौड़ि लाग्यें।"
देवताओं की पूजा विशेष रूप से होती थी। जगरिया ,जागेर गाकर देवता का आह्वान करता था। जिसके शरीर में देवता आता, देवता को दुखी-सुखी सभी लोग अपना मंतव्य कहते। दुखी सुख की और सुखी और सुख की माँग करता। मन की शान्ति इन जागेरों में समायी रहती थी।
सभी लोग चाहते थे,"घास हो,लकड़ियां हों। पशुओं के लिए घास,खाना बनाने के लिये लकड़ियां।" जाड़ों में आग भी खूब सेंकी जाती थी। उस आग के चारों ओर परिवार बैठता था। दूध खूब होता था। घी की कमी नहीं थी।
बचपन में एक पेड़ लगाया। बहुत ही छोटा था वह।उसे बचाने के लिये उसके चारों ओर घेराबंदी की। धीरे-धीरे वह बड़ा होता गया। तना मोटा होने लगा। फिर शाखाएं भी फूटने लगीं। अब उसपर छोटी-छोटी पक्षियां बैठने लगीं थीं।उसकी छाया में स्नेहिल क्षण आने लगे थे।प्रेमी जोड़े भी कह सकते हैं।कबड्डी और गुल्ली-डंडा भी वहाँ खेलते थे, बच्चे। अच्छी-अच्छी गपसप होती थी, उसके नीचे।अब उसमें चढ़ना कठिन हो गया था। विशालकाय रूप उसने ले लिया था।मौसम आने पर फल- फूल देता था।
मुझे याद आया पढ़ा हुआ," धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ हो, माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।"
कक्षा १० में जब कोई फेल होता तो एक रात उसी में बिताता था। विपत्ति का साथी। दुखी का आश्रयदाता। बड़ा तूफान जब आता, उसकी कुछ टहनियां टूट जाती थीं।लगता था जैसे उसकी उम्र मेरी उम्र से बहुत अधिक होगी।जब वह परिपक्व हो गया तो लोग उसे काटने की सोचने लगे।फिर लोगों को समझाया गया कि," एक पेड़ अपने जीवनकाल में करोड़ों रुपये की आक्सीजन देता है। फल-फूल तो देता ही है। वर्षा कराने में सहायक होता है। बाढ़ और मिट्टी के कटाव को रोकता है।" लोग सहमत हो गये और उसे पवित्र मानकर पूजने लगे, पीपल के पेड़ की तरह। फलस्वरूप बहुत से लोगों ने वृक्षारोपण को अपना कर्म बना लिया।
**महेश रौतेला