और पिताजी को आराम आया तब नौ बजे वह बोले,"दिवाली है,पूजा नही करोगे?"
और पिताजी ने(हम उन्हें बापू कहते थे)हम सब को बैठाकर लक्ष्मी पूजन किया फिर हमारे साथ खाना खाया और फिर बोले,"फटाके चला लो।"
फटाके दीवाली से कई दिन पहले आ जाते थे।पिताजी ने बरामदे में बैठकर हम सब से फटाके चलवाये थे।काम सब हो रहे थे।लेकिन मेरी माँ के चेहरे पर भी अनहोनी की आशंका साफ दिख रही थी।और फिर हम लोग सो गए।नींद मेरी और माँ की आंखों में नही थी।
सुबह चार बजे पिताजी के पेट मे दर्द उठा।हमारे पीछे वाली लाइन में क्वाटर में काशी राम गौतम रहते थे।वह रेलवे में ड्राइवर थे।वह सादाबाद के थे।उनसे अच्छे रिश्ते थे।उन्हें बुला लिया।
मैं और इन्द्र भाई डॉक्टर को बुलाने के लिए गए।डॉक्टर जौहरी वरिष्ठ और अनुभवी थे लेकिन उन्होंने आने से मना कर दिया।तब हम उसी डॉक्टर के पास पहुंचे जो पिताजी का इलाज कर रहा था।वह हमारे साथ आ गए।
पिताजी के पेट मे भयंकर दर्द था।दर्द की वजह से उनसे लेटा नही जा रहा था।वह आंगन में चक्कर काट रहे थे।उनको भयंकर पशीना आ रहा था।काशी राम उनके साथ घूमते हुए पसीना पोंछ रहे थे।रुंये के तोलिये को उन्हें बार बार निचोड़ना पड़ रहा था।
डॉक्टर इंजेक्शन लगाने के बाद बोला,"इन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ेगा।"
और काशीराम जी सायकिल ले आये।पिताजी को कैरियर पर बैठाया गया।मैं और माँ भी साथ गए थे।कुछ दूर चलने पर माँ को देखकर बोले,",तू कहाँ चल रही है?"
"तुम्हारे साथ चल रही हूँ।'
"मेरे साथ कहाँ तक चलेगी।लौट जा।"
शायद पिताजी को एहसास हो गया था।और पिताजी को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया था।
11 नबम्बर गोवर्धन का दिन था।कुछ देर बाद पिताजी को आराम आ गया था।उन दिनों आबूरोड बड़ा नही था।पिताजी व्यवहार कुशल भी थे।अपने उच्च अधिकारियों से ही नही सभी विभाग के इंचारजो से उनके मधुर सम्बन्ध थे। सुबह होते ही लोगो को पिताजी के अस्पताल में भर्ती होने का समाचार मिलने लगा और लोग पिताजी को देखने के लिए अस्पताल आने लगे।पिताजी बिल्कुल सामान्य लग रहे थे और सब से बात कर रहे थे। मैं भी उनके पास जाकर गया। लगभग गयारह बजे वह मेरे से बोले,"घर चले जाओ।घर पर लोग आएंगे।
गोवेर्धन के दिन स्टाफ के सभी सिपाही,हेड कांस्टेबल आदि इकट्ठे होकर घर आते थे।करीब साठ सत्तर लोग।वे अपने साथ मिठाई लाते थे।माँ घर मे नमकीन,मिठाई आदि बनाती थी।जो उन्हें खाने के लिए दी जाती थी।रेलवे सुरक्षा बल के अलावा अन्य विभाग के लोग भी घर आते थे।मैं पिताजी को छोड़कर नही आना चाहता था।पर आना पड़ा था।अस्पताल से हनारा क्वाटर करीब एक किलोमीटर या इससे कुछ ज्यादा होगा।
घर के लिए पैदल ही आना पड़ता था।मैं घर आया और कपड़े उतार ही रहा था कि तभी एक सिपाही साईकल से बहुत तेज गति से आया और बोला,"साहब बुला रहे है।जल्दी चलो।"
और मैं साईकल पर बैठ गया।आज मैं 72 साल का हो चुका हूँ।साईकल पर भी बहुत बैठा हूँ।लेकिन उस दिन उस सिपाही ने जिस तूफानी अंदाज में साईकल चलाई उसे मैं नही भूल सकता।पलक झपकते ही वह मुझे लेकर अस्पताल जा पहुंचा था।
मैं तेजी से साईकल से उतरा और वार्ड की तरफ भागा था