गोपाल की बात से सहमति जताते हुए मास्टर ने कहा, "बात तो तुम ठीक कह रहे हो बेटा, लेकिन तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह पढ़ी लिखी होने के साथ ही एक सुशील संस्कारी लड़की भी है... और हमारे यहाँ यही विडम्बना है कि आज भी लडके या लड़कियाँ अपने शादी की बात करने लगें तो समाज उन्हें बेशर्म , बेहया , पागल, नासमझ और पता नहीं क्या क्या उपाधियाँ बिना माँगे दे देता है। शहरों की बात एकदम अलग है। वहाँ आधुनिकता और समझदारी की जो बयार बह रही है उसे इन गाँवों तक पहुँचने में शायद दशकों का सफर तय करना पड़ेगा।"
" बाबूजी ! कौन क्या कहता था या क्या कहेगा की चिंता से परे हटकर हमें क्या करना चाहिए इस पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।... और फिर जब तक कोई पहल नहीं करेगा यहाँ गाँवों में बदलाव की बयार बहेगी कैसे ?" गोपाल ने बातों का क्रम संक्षिप्त करने के लिहाज से बोला।
"सही कह रहे हो गोपाल ! किसी न किसी को पहल तो करनी ही होगी, फिर हम ही क्यों न करें ? लेकिन समस्या ये है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे ? " मास्टर ने अपनी विवशता जाहिर की।
तभी दालान से बाहर निकलती हुई साधना ने मुस्कुराते हुए पूछा ,"कौन सी बिल्ली के गले में घंटी बांधने पर ईतनी गहन मंत्रणा हो रही है बाबूजी ?"
उसने शायद मास्टर द्वारा कहे गए अंतिम शब्दों को सुन लिया था। उसके कहने से ऐसा ही लग रहा था जैसे वह उनकी बातों से बिलकुल अंजान हो।
मास्टर ने साधना की तरफ देखते हुए उसकी बात का जवाब देते हुए कहा, "आओ आओ बेटी ! तुम्हारी ही बात हो रही थी।" तब तक साधना दोनों खटियों के बीच खाली जगह में नीचे ही बैठ गई थी।
मास्टर ने संक्षेप में साधना को पूरी बात बताते हुए पूछा, "अब तुम्हीं बताओ बेटा, क्या किया जाय ? हम आपस में इन्हीं सब पहलुओं पर चर्चा करते हुए यह विचार कर रहे थे कि तुम्हें भी क्यों न इस चर्चा में शामिल किया जाय ?"
" अब मैं क्या कहूँ ? ..बाबूजी ! आप लोग बड़े हैं समझदार हैं और सबसे बड़ी बात है कि आप मेरा भला बुरा सब अच्छी तरह सोच समझकर ही फैसला करेंगे इसका मुझे पूर्ण विश्वास है ...लेकिन एक बात अवश्य कहना चाहूँगी।
यदि आपने इनको मेरे जीवन साथी के रूप में स्वीकार कर लिया है तो फिर पंडित जी कौन होते हैं अपनी सलाह देने वाले ? चलिए माना उन्होंने अपनी सलाह दे भी दी तो उसे मानना या न मानना तो हमारे हाथ में ही है न ? पंडितजी का कथन ब्रह्म वाक्य तो नहीं हो गया ? कहना तो नहीं चाहिए लेकिन प्रसंगवश कहना पड़ रहा है। माफ़ी के साथ कहना चाहूँगी कि पिछले दिनों इन्हीं पण्डित जी के छोटे दामाद की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। तब क्या इन्होंने अपने बेटी की कुंडली अपने दामाद से नहीं मिलवाई थी ? जरूर देखी रही होगी। इसमें मेरा विरोध ज्योतिषीय गणनाओं और उस अद्भुत विद्या को लेकर नहीं है। मेरा विरोध इन विद्याओं की अधूरी जानकारी , दोषपूर्ण गणना करके त्रुटिपूर्ण भविष्य बताकर अपने यजमानों को भ्रमित करके उन्हें ग्रहों का भय दिखाकर उनसे उलटे सीधे पैसे ऐंठने का प्रयास करनेवाले ऐसे पंडितों से है जो भविष्य को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत करते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं। कहते हैं न , नीम हकीम ,खतरे जान ' और हमें ऐसे लोगों पर विश्वास न कर के इनसे बचना चाहिए।"
कहने के बाद साधना कुछ पल के लिए रुकी और फिर आगे बोली, "बाबूजी, आपने अपने विवेक , तर्क और अनुभव की कसौटी पर परखकर मेरे लिए जिस हीरे को चुना है ,एक पंडित की बातों पर यकीन करके आप उसपर अविश्वास कैसे कर सकते हैं ? और अगर आपने पंडित जी की बात पर भरोसा किया और उनके कहे अनुसार करने का प्रयास किया तो इसका सीधा सा संदेश जायेगा कि आपका अविश्वास उसके लिए नहीं था आपने जिसे पसंद किया है बल्कि आपका खुद पर यकीन नहीं है। एक बात मैं और कहना चाहूँगी ! क्या हमें अपने कर्मों पर भरोसा नहीं ? गीता में स्पष्ट कहा गया है ' प्रत्येक प्राणी को निरंतर कार्यशील रहना चाहिए। अपने जीवन निर्वाह के लिए और सृष्टि चक्र के संचालन के लिए आवश्यक है कि नियति द्वारा निर्धारित हम अपने कार्य में परिणाम की चिंता किए बगैर संलग्न रहें। यही 'कर्म-योग ' है।' हम अक्सर आपस में बातें भी करते हैं कि होगा वही जो नियति ने पहले ही निर्धारित कर रखा है, फिर ऐसे अंधविश्वास के सामने हमारा सारा ज्ञान क्यों धरा रह जाता है ? दुनिया एक विशाल रंगमंच है, जिसपर सृष्टि के सबसे बड़े नाटककार के लिखे नाटक का मंचन होता है। पूर्व निर्धारित पटकथा के अनुसार हर प्राणी इस रंगमंच पर अपनी भूमिका के अनुसार प्रकट होता है और अपनी भूमिका समाप्त हो जाने पर पुनः परदे के पीछे चला जाता है। मेरा सवाल यही है कि जब हमें अपने कर्म पर पूरा विश्वास है, हमें ऊपरवाले पर भी पूरा यकीन है और हम यह भी मानते हैं कि जब जब जो जो होना निर्धारित है तब तब वही होना तय है फिर एक पंडित जी की बात को लेकर इतनी चिंता क्यों ?"
साधना की बात समाप्त होते ही गोपाल ने ख़ुशी से ताली बजाकर उसका समर्थन किया, जबकि मास्टर के चेहरे से भी तनाव कुछ हटता हुआ सा प्रतीत हुआ। मास्टर ने बहुत ही धीमे स्वर में बोला ,"क्या करूँ बेटी ? मुझे याद है कि मैं तुम्हारे बाप के साथ ही तुम्हारे लिए माँ भी हूँ। तुम्हारी बेहतरी और भला बुरा सोचते हुए तुम्हारी राह में आया छोटा सा रोड़ा भी पहाड़ लगता है, लेकिन कोई बात नहीं। मैं सहमत हूँ तुम्हारी बात से, ईश्वर ही सबका पालनहार है।'होइहैं वही जो राम रचि राखा ...' !" कहने के बाद मास्टर खटिये पर सोने का उपक्रम करते हुए साधना से बोले ,"रात गहरा गई है। नींद आ रही होगी। अब तुम दोनों भी सो जाओ, सुबह बात करेंगे।"
"जी बाबूजी !" कहकर साधना घर में अपनी कोठरी में सोने चली गई जबकि गोपाल उसी खटिये पर लेट गया जिसपर वह बैठा हुआ था।
सुबह गोपाल की नींद देर से खुली। रात में ख़ुशी की अधिकता से नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी। मानव मन भी बड़ा अजीब है और मन का आँखों से नाता भी बड़ा अजीब है। दुःख या तकलीफ में तो आँसू बहते ही हैं लेकिन बहुत अधिक ख़ुशी में भी ये आँसू बरबस ही पलकों से छलक पड़ते हैं। उसी तरह बेचैन मन नींद को पलकों के पास भी फटकने नहीं देता। ख़ुशी की अवस्था में भी यही क्रिया दुहराई जाती है। ख़ुशी से प्रफुल्लित मन तरह तरह के सपने बुनने में व्यस्त हो जाता है। भाँति भाँति के विचार मन में डेरा जमाए रहते हैं और फलस्वरूप निंदिया रानी पलकों के पास तक आने से भी कतराती हैं। यही वजह थी गोपाल के देर से उठने की। देर रात तक वह जागती आँखों से सुहाने सपने देखने में व्यस्त रहा और ऐसे ही साधना के साथ सुखमय भविष्य के सपने देखते देखते वह अंततः निंदिया रानी की आगोश में समा गया था लेकिन तब तक रात का तीसरा पहर बीत चुका था।
जल्दी जल्दी नित्यकर्म से फारिग होकर वह दातून कर ही रहा था कि उसे मास्टर रामकिशुन गाँव की तरफ से आते हुए दिखे।
नजदीक आकर उन्होंने गोपाल से कहा, "बेटा, जरा पंडित जी के यहाँ चला गया था। भले उनकी कुंडली मिलाने की बात से हमारी सहमति न हो लेकिन विवाह तो शुभ मुहूर्त में ही करना होगा न ...और ईश्वर की मर्जी देखो। परसों ही विवाह के लिए शुभ मुहूर्त है। मैंने पंडित जी से कहकर परसों का दिन तय कर लिया है।"
क्रमशः