परबतिया अभी दालान पार भी नहीं कर पाई थी कि उसी समय साधना आंगन से निकल कर दालान में आ गई। परबतिया हाथ में पकड़े डंडे के सहारे वहीँ खड़ी हो गई। साधना को देखते ही प्यार से बोली, " खाना बन गया बेटी ? मैं तेरे पास ही आ रही थी।"
साधना ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया, "जी काकी ! लगभग तैयार ही समझो। अभी सब्जी की कढ़ाई चुल्हे से उतारकर ही आ रही हूँ। बाबूजी खाने बैठें तो गरम गरम रोटियाँ सेंक दूँ।"
दो पल की खामोशी के बाद उसने बड़े अपनेपन से परबतिया से पूछा, "मुझसे कुछ काम था काकी ?"
"हाँ, अभी बड़ी बहू ने बताया कि नमक नहीं है। बड़ी बेवकूफ हैं दोनों। थोड़ा सा नमक दे दे मुझे। कल ही इनसे मँगवाती हूँ बनिए की दुकान से।" परबतिया ने कहा।
"हाँ काकी, अभी लाई।" कहकर साधना आँगन में जाकर नमक की बरनी उठा लाई और उसमें से मुट्ठी भर नमक निकालकर परबतिया को देने लगी।
तभी परबतिया ने मुस्कुराते हुए कहा, "चाहे जितनी पढ़ाई कर लो बिटिया, लेकिन जब तक समाज के नियम कायदे नहीं समझ जातीं तुम कहलाओगी बुद्धु ही।"
मुट्ठी में नमक थामे हुए ही साधना मुस्कुरा उठी। परबतिया की बात का बुरा नहीं मानते उसने मुस्कुरा कर ही पूछा, "अब क्या हुआ काकी ? मुझसे कोई भूल हो गई ?"
" हाँ बेटी ! आगे से भी ध्यान रखना। अगर कोई रोटी माँगे तो उसे खाली रोटी नहीं देते। भले चटनी ही क्यों न हो उसे साथ में जरूर देते हैं। इसी तरह हमारी और भी बहुत सी मान्यताएं हैं जिनका पालन हम गाँववाले जरूर करते हैं। इन्हीं कुछ मान्यताओं में से एक मान्यता यह भी है कि नमक और मिर्ची खाली हाथों में नहीं थमाई जाती।" परबतिया ने उसे समझाने का प्रयास करते हुए अच्छा खासा प्रवचन सुना दिया।
और कोई लड़की होती तो ख़ामोशी से उसकी बात मान भी लेती, लेकिन साधना तो साधना ही थी। पढ़ी लिखी , समझदार। उसे कहाँ गाँववालों के ढकोसले पसंद थे ? लेकिन खुलकर विरोध भी नहीं कर सकती थी। संस्कार की बेड़ियाँ मजबूरी जो बन गई थी उसकी। फिर भी परबतिया की बात ख़त्म होते ही उसने अपना सवाल दाग दिया, "काकी ! आपकी यह बात तो समझ में आई कि किसी को भी रोटी के साथ सब्जी और न हो सके तो चटनी अवश्य दिया जाना चाहिए ताकि उस भूखे का पेट भर सके, लेकिन ये मिर्ची और नमक की बात समझ में नहीं आई। क्या हो जायेगा अगर मिर्ची सीधे हाथ में दे दिया जाय ?"
" बिटिया, ज्यादा तो हमको भी नहीं मालूम लेकिन हमरी अम्मा हमको बताई थीं कि कभी किसी को मिर्ची हाथ में नहीं पकड़ाना। जिसको पकड़ाओगी उससे वैर हो जाता है मिर्ची की मानिंद।"
परबतिया का ज्ञान सुनकर साधना जोर से खिलखिला पड़ी, "वाह काकी ! क्या लॉजिक है तुम्हारा भी ? मिर्ची के तीखेपन का रिश्तों की कड़वाहट से क्या संबंध ? इसका कोई सही जवाब भी नहीं और फिर भी इसे ढोये जा रही हो। काकी, हमारे पुरखों ने सभी रीति रिवाज बड़े ही शास्त्र संमत व विज्ञान की कसौटी पर परखकर बनाये हैं लेकिन कालांतर में सभी शास्त्र संमत प्रथाओं को तोड़ मरोड़कर समाज के ठेकेदारों ने अपने अपने स्वार्थ हित के लिए सभी रीति रिवाजों को तोड़मरोड़ कर अनपढ़ व भोले भाले लोगों के समाज में लाद दिया है। इन ठेकेदारों द्वारा हर जायज नाजायज नियम को लागू करवाने के लिए भगवान का डर दिखाना पड़ा है। व्रत के विधान को आस्था से जोड़ दिया गया है जबकि यह शुद्ध रूप से स्वास्थ्य का मामला है। ऐसे ही महीने के कुछ दिनों महिलाओं को अछूत मान लेते हैं जबकि ऐसा कुछ नहीं होता। सब कुछ प्राकृतिक है लेकिन यहाँ तो आस्था के नाम पर भगवान का डर लोगों के दिलोदिमाग पर इस कदर हावी करा दिया गया है कि लोग ऐसे ही अनगिनत रिवाजों का पालन आँखें मूंदकर बिना उसकी वजह जाने बस करते रहने को अभिशप्त हैं ..........!"
एकदम से चिढ़ती हुई परबतिया नीचे से कटोरा उठाकर उसमें साधना के हाथ में थमी बरनी से नमक लेते हुए बड़बड़ाई, "चल चल ! रहने दे अपना ज्ञान अपने पास। हमें नहीं जानना कोई सच्चाई वच्चाई ! पूरी जिंदगी तो बित चुकी, थोड़ी सी बची है यह भी कट जायेगी लेकिन हमें विद्रोही बनाकर पाप का भागी ना बनाओ।"
कटोरा हाथ में थामे परबतिया जैसे आई थी वैसे ही डंडा फटकते हुए अपने घर की तरफ बढ़ गई।
उसके पीछे पीछे साधना भी दालान से बाहर आ गई जहाँ मास्टर और गोपाल बैठे अभी भी कुछ खुसर फुसर कर रहे थे।
साधना उनकी बात नहीं सुन सकी थी। मास्टर से बोली, "बाबूजी, चलिए आप लोग हाथ धो लीजिये। भोजन तैयार है।"
"अरे वाह !" गोपाल पहले ही बोल पड़ा, "बहुत बढ़िया ! पेट में चूहे कबसे उछलकूद मचाए हुए हैं।"
उसकी बात सुनकर मास्टर एक दम से चौंक गए। अभी अभी इतनी गहन मंत्रणा करनेवाला गोपाल जिसके सामने जीवन मरण जैसा प्रश्न उपस्थित था उसकी भोजन के लिए इतनी बेताबी ? इसका क्या मतलब निकाला जाए ? क्या वह संवेदनहीन है ?.. या लापरवाह ? या फिर इन सबसे अलग आपदाओं में भी न डरनेवाले बुलंद हौसले और जीवट का स्वामी ? वह असल में कैसा था ? मास्टर की निगाहें कुछ सोचने के अंदाज में सिकुड़ गईं।
शीघ्र ही भोजन करके मास्टर और गोपाल दालान के बाहर आ गए थे। बाहर आकर गोपाल ने देखा दोनों खाट बिछी हुई थी और उनपर करीने से बिस्तर बिछा हुआ था। तकिया और चद्दर भी रखा हुआ था। पता नहीं कब साधना ने आकर यह सब कर लिया था गोपाल देख भी नहीं सका था। मन ही मन वह साधना की तारीफ किये बिना नहीं रह सका था। उसके हाथ की बनी रोटियों में कितना प्यार और मिठास भरा हुआ था। ' कितना खुशनसीब है वह अब उसे रोज ही ऐसी गरमागरम रोटियाँ खाने को मिलेंगी।' ऐसे ही ख्याली घोड़े दौड़ाते हुए वह बाहर खड़ा था। मास्टर बाहर आते ही उनमें से एक खटिये पर बैठ गए। उनके बैठने के बाद गोपाल दूसरी खटिये पर बैठ गया।
मास्टर ने गोपाल की तरफ देखते हुए बातों का क्रम फिर से शुरू करते हुए पूछा, " तो अब तुम्हारा क्या ख्याल है गोपाल ? अब क्या किया जाना चाहिए ? "
गोपाल कुछ देर खामोश रहा, फिर गंभीर स्वर में बोला, "बाबूजी, यह सामान्य बात नहीं है। हमारी जिंदगी मरण के साथ ही आपका मान सम्मान भी इस फैसले से जुड़ा हुआ है। माफ़ किजिएगा, मुझे ऐसा लगता है कि इस मामले में साधना की राय भी ली जानी चाहिए। पढ़ी लिखी है समझदार है और सबसे बड़ी बात हम उसकी जिंदगी का फैसला उसको अँधेरे में रखकर नहीं कर सकते।"
क्रमशः