(29)
पूजनीय मौसी,
तुम्हारे सिवाय आज मेरा कोई नहीं। एक बार आओ और अपनी इस दुखिया को अपनी गोद में उठा लो, वरना मैं जिऊँगी कैसे! क्या लिखूँ, नहीं जानती। चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम।
तुम्हारी प्यारी
चुन्नी
अन्नपूर्णा काशी से आईं। धीरे-धीरे राजलक्ष्मी के कमरे में जा कर उन्हें प्रणाम करके उनके चरणों की धूल माथे ली। बीच में इस बिलगाव के बावजूद अन्नपूर्णा को देख कर राजलक्ष्मी ने मानो कोई खोई निधि पाई। उन्हें लगा, वे मन के अनजान ही अन्नपूर्णा को चाह रही थीं। इतने दिनों के बाद आज पल-भर में ही यह बात स्पष्ट हो उठी कि उनको इतनी वेदना महज इसलिए थी कि अन्नपूर्णा न थीं। एक पल में उसके दुखी चित्ता ने अपने चिरंतन स्थान पर अधिकार कर लिया। महेंद्र की पैदाइश से भी पहले जब इन दिनों जिठानी-देवरानी ने वधू के रूप में इस परिवार के सारे सुख-दु:खों को अपना लिया था - पूजा-त्योहारों पर, शोक-मृत्यु में दोनों ने गृहस्थी के रथ पर साथ-साथ यात्रा की थी - उन दिनों के गहरे सखीत्व ने राजलक्ष्मी के हृदय को आज पल-भर में आच्छन्न कर लिया। जिसके साथ सुदूर अतीत में उन्होंने जीवन का आरंभ किया था - तरह-तरह की रुकावटों के बाद बचपन की सहचरी गाढ़े दु:ख के दिनों के उनकी बगल में खड़ी हुई। यह एक घटना उनके मौजूदा सुख-दु:खों, प्रिय घटनाओं में स्मरणीय हो गई। जिसके लिए राजलक्ष्मी ने इसे भी बेरहमी से चोट पहुँचाई थी, वह आज कहाँ है!
अन्नपूर्णा बीमार राजलक्ष्मी के पास बैठ कर उनका दायाँ हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोलीं- दीदी!
राजलक्ष्मी ने कहा - मँझली!
उनसे और बोलते न बना। आँखों में आँसू बहने लगे। यह दृश्य देख कर आशा से न रहा गया। वह बगल के कमरे में जा कर जमीन पर बैठ कर रोने लगीं। राजलक्ष्मी या आशा से अन्नपूर्णा महेंद्र के बारे में कुछ पूछने का साहस न कर सकीं। साधुचरण को बुला कर पूछा - मामा, महेंद्र कहाँ है?
मामा ने महेंद्र और विनोदिनी का सारा किस्सा कह सुनाया। अन्नपूर्णा ने पूछा - बिहारी कहाँ है?
साधुचरण ने कहा - काफी दिनों से वे इधर आए नहीं। उनका हाल ठीक-ठीक नहीं बता सकता।
अन्नपूर्णा बोलीं - एक बार बिहारी के यहाँ जा कर खोज-खबर तो ले आइए!
साधुचरण ने उसके यहाँ से लौट कर बताया- वे घर पर नहीं हैं, अपने बाली वाले बगीचे में गए हैं।
अन्नपूर्णा ने डॉक्टर नवीन को बुला कर मरीज की हालत के बारे में पूछा। डॉक्टर ने बताया, दिल की कमजोरी के साथ ही उदरी हो आई है, कब अचानक चल बसें, कहना मुश्किल है।
शाम को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ने लगी। अन्नपूर्णा ने पूछा - दीदी, नवीन डॉक्टर को बुलवा भेजूँ?
राजलक्ष्मी ने कहा - नहीं बहन, नवीन डॉक्टर के करने से कुछ न होगा।
अन्नपूर्णा बोलीं - तो फिर किसे बुलवाना चाहती हो तुम?
राजलक्ष्मी ने कहा - एक बार बिहारी को बुलवा सको, तो अच्छा हो।
अन्नपूर्णा के दिल में चोट लगी। उस दिन काशी में उन्होंने बिहारी को दरवाजे पर से ही अँधेरे में अपमानित करके लौटा दिया था। वह तकलीफ वे आज भी न भुला सकी थीं। बिहारी अब शायद ही आए। उन्हें यह उम्मीद न थी कि इस जीवन में उन्हें अपने किए का प्रायश्चित करने का कभी मौका मिलेगा।
अन्नपूर्णा एक बार छत पर महेंद्र के कमरे में गई। घर-भर में यही कमरा आनंद-निकेतन था। आज उस कमरे में कोई श्री नहीं रह गई थी - बिछौने बेतरतीब पड़े थे। साज-सामान बिखरे हुए थे, छत के गमलों में कोई पानी नहीं डालता था, पौधे सूख गए थे।
आशा ने देखा, मौसी छत पर गई हैं। वह भी धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे गई। अन्नपूर्णा ने उसे खींच कर छाती से लगाया और उसका माथा चूमा। आशा ने झुक कर दोनों हाथों से उनके पाँव पकड़ लिए। बार-बार उनके पाँवों से अपना माथा लगाया। बोली - मौसी, मुझे आशीर्वाद दो, बल दो। आदमी इतना कष्ट भी सह सकता है, मैंने यह कभी सोचा तक न था। मौसी, इस तरह कब तक चलेगा?
अन्नपूर्णा वहीं जमीन पर बैठ गईं। आशा उनके पैरों पर सिर रख कर लोट गई। अन्नपूर्णा ने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और चुपचाप देवता को याद करने लगीं।
जमाने के बाद अन्नपूर्णा के स्नेह-सने मौन आशीर्वाद ने आशा के मन में बैठ कर शांति का संचार किया। उसे लगा, उसकी मनोकामना पूरी हो गई है। देवता उस-जैसी नादान की उपेक्षा कर सकते हैं, मगर मौसी की प्रार्थना नहीं ठुकरा सकते।
मन में दिलासा और बल पा कर आशा बड़ी देर के बाद एक लंबा नि:श्वास छोड़ कर उठ बैठी। बोली - मौसी, बिहारी भाई साहब को आने के लिए चिट्ठी लिख दो!
अन्नपूर्णा बोलीं - उँहूँ, चिट्ठी नहीं लिखूँगी।
आशा - तो उन्हें खबर कैसे होगी?
अन्नपूर्णा बोलीं - मैं कल खुद उससे मिलने जाऊँगी।
जिन दिनों बिहारी पश्चिम में भटकता फिर रहा था, उसके मन में आया, जब तक कोई काम ले कर न बैठूँ चैन न मिलेगा। यही सोच कर उसने कलकत्ता के गरीब किरानियों के मुफ्त इलाज और सेवा-जतन का भार उठाया। गर्मी के दिनों में डाबर की मछलियाँ जिस तरह कम पानी और कीचड़ में किसी प्रकार जिंदा रह लेती हैं, तंग गलियों के सँकरे कमरों में परिवार का बोझ उठाने वाले बेचारे किरानियों की जिन्दगी वैसी ही है - उन दुबले, पीले पड़े, चिंता से पिसने वाले भद्रवर्ग के लोगों के प्रति बिहारी को बहुत पहले ही दया हो आई थी - इसलिए उसने उन्हें बगीचे की छाँह और गंगा-तट की खुली हवा दान देने का संकल्प किया।
बाली में उसने बगीचा खरीदा और चीनी कारीगरों से छोटे झोपड़े बनवाने शुरू किए। लेकिन मन को राहत न मिली। काम में लगने का दिन ज्यों-ज्यों करीब आने लगा, उसका मन अपने निश्चय से डिगने लगा। बार-बार उसका मन यही कहने लगा - इस काम में कोई सुख नहीं, रस नहीं, सौंदर्य नहीं - यह महज एक नीरस भार है। काम की कल्पना ने इसके पहले कभी भी बिहारी को इतना परेशान नहीं किया।
कभी ऐसा भी था कि बिहारी को खास कोई जरूरत ही न थी, जो कुछ भी सामने आ जाता, उसी में वह सहज ही अपने को लगा सकता था। अब उसके मन में न जाने कौन-सी भूख जगी है, उसे बुझा लेने के पहले और किसी भी चीज में उसकी आसक्ति नहीं होती। जैसी शुरू से आदत रही है, इस-उस में हाथ डाल कर देखता और दूसरे ही क्षण उसे छोड़ कर छुटकारा पाना चाहता!
बिहारी के अंदर जो जवानी निश्चय सोई पड़ी थी, जिसके विषय में उसने कभी सोचा तक नहीं, वह जवानी विनोदिनी की जादू की छड़ी छूकर जाग उठी है। अभी-अभी पैदा हुए गरुड़ की तरह अपनी खुराक के लिए वह सारी दुनिया को झिंझोड़ती फिर रही है। इस भूखे जीव से बिहारी को पहले पहचान न थी - इसके चलते वह परेशान हो उठा है, अब कलकत्ता के इन दीन-दुर्बल अल्पायु किरानियों को लेकर वह क्या करेगा?
सामने आषाढ़ की गंगा। रह-रहकर उस पार नीले मेघों की पनी पाँत भी से झुके पेड़-पौधों पर घिर आती-नदी का पाट कहीं तो इस्पात की तलवार-सा चमकता, श्याम रंग लेता, कहीं आग-जैसा झकमका उठता। वर्षारंभ के इस समारोह पर बिहारी की ज्यों ही निगाह पड़ती, त्यों ही उसके हृदय का दरवाजा खोलकर आकाश की इस नीली आभा में न जाने कौन एकाकिनी बाहर निकल पड़ती, वर्षा का आकाश चीरकर छिटकी पड़ती सारी किरणों को बीनकर न जाने कौन केवल उसी के मुँह पर अपलक आँखों की दमकती हुई कातरता बिखरेती।
बिहारी का जो पिछला जीवन सुख और सन्तोष से कट गया, उसे वह अब भारी नुकसान समझता। ऐसी मेघघिरी साँझ जाने कितनी आईं, पूर्णिमा की कितनी रातें - वे सब हाथों में अमृत का पात्र लिए बिहारी के सूने हृदय के द्वार से चुपचाप लौट गईं - उन दुर्लभ शुभ घड़ियों में कितने गीत घुटे रहे, कितने उत्सव न हो पाए, इसकी कोई हद नहीं। बिहारी के मन में जो पुरानी सुधियाँ थीं, उन्हें विनोदिनी ने उद्यत चुंबन की रक्तिम आभा से ऐसा फीका और तुच्छ कर दिया था। जीवन के ज्यादातर दिन महेंद्र की छाया में कटे! उनकी सार्थकता क्या थी? प्रेम की वेदना में सारे जल-थल-आकाश के केन्द्र-कुहर से ऐसी ताप में इस तरह बाँसुरी बजती है, यह तो अचेतन बिहारी कभी सोच भी न पाया था। विनोदिनी ने बिहारी को बाँहों में लपेट कर अचानक एक पल में जिस अनोखे सौंदर्य-लोक में पहुँचा दिया, उसे वह कैसे भूले! उसकी निगाह, उसकी चाहना आज सब ओर फैल गई है, उसकी अकुलाई साँसें बिहारी के रकत-प्रवाह को पल-पल पर लहराए दे रही हैं और उसके परस की कोमल आँच बिहारी को घेरकर उसके पुलकित हृदय को फूल की तरह खिलाए हुए है।
लेकिन फिर भी उस विनोदिनी से बिहारी आज इस तरह दूर क्यों है? इसलिए कि विनोदिनी ने जिस सौंदर्य-रस से बिहारी का अभिषेक किया उस सौंदर्य के अनुकूल संसार में विनोदिनी से किसी संबंध की वह कल्पना नहीं कर सकता। कमल को तोड़ो तो कीच भी उठ आती है। क्या बताकर, कौन-सी ऐसी जगह में उसे बिठाए कि सुन्दर वीभत्स न हो। फिर कहीं महेंद्र्र से छीना-झपटी होने लगे, तो माजरा इतना घिनौना हो उठेगा, जिसकी सम्भावना को बिहारी मन के कोने में भी जगह देने को तैयार नहीं। इसीलिए एकान्त गंगा-तट पर विश्व-संगीत के बीच अपनी मानसी प्रतिमा को बिठाकर वह अपने हृदय को धूप-सा जला रहा है। चिट्ठी भेजकर वह इसलिए विनोदिनी की खोज-खबर भी नहीं लेना चाहता कि कहीं कोई ऐसी खबर न मिल जाए, जिससे उसके सुख के सपनों का जाल बिखर जाय!
अपने बगीचे के दक्खिन में फले जामुन-तले बिहारी मेघ-घिरे प्रभात में चुपचाप पड़ा था, सामने से कोठी की डोंगी आ-जा रही थीं। अलसाया-सा वह उसी को देख रहा था। वेला धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। नौकर ने आ कर पूछा, भोजन का प्रबंध करे या नहीं? बिहारी ने कहा - अभी रहने दो।
इतने में उसने चौंक कर देखा, सामने अन्नपूर्णा खड़ी है। बदहवास-सा वह उठ पड़ा, दोनों हाथों से उनके पाँव पकड़ कर जमीन पर माथा टेक कर प्रणाम किया। अन्नपूर्णा ने बड़े स्नेह से अपने दाएँ हाथ से उसके बदन और माथे को छुआ। भर आए से स्वर में पूछा - तू इतना दुबला क्यों हो गया है, बिहारी?
बिहारी ने कहा - ताकि तुम्हारा स्नेह पा सकूँ।
सुन कर अन्नपूर्णा की आँखें बरस पड़ीं। बिहारी ने व्यस्त हो कर पूछा - तुमने अभी भोजन नहीं किया है, चाची?
अन्नपूर्णा बोलीं - अभी मेरे खाने का समय नहीं हुआ।
बिहारी बोला - चलो-चलो, मैं रसोई की जुगत किए देता हूँ। एक युग के बाद तुम्हारे हाथ की रसोई पत्तल का प्रसाद पा कर जी जाऊँगा मैं।
महेंद्र और आशा के बारे में बिहारी ने कोई चर्चा नहीं की। इसका दरवाजा तो एक दिन खुद अन्नपूर्णा ने ही अपने हाथों बंद कर दिया था। मान में भर कर उसने उसी निष्ठुर निषेध का पालन किया।
खा चुकने के बाद अन्नपूर्णा ने कहा - घाट पर नाव तैयार है बिहारी, चल, कलकत्ता चल!
बिहारी बोला - कलकत्ता से मेरा क्या लेना-देना।
अन्नपूर्णा ने कहा - दीदी बहुत बीमार है, वे तुम्हें देखना चाहती हैं एक बार।
सुन कर बिहारी चौंक उठा। पूछा - और महेंद्र भैया?
अन्नपूर्णा- वह कलकत्ता में नहीं है, बाहर गया है।
सुनते ही बिहारी का चेहरा सफेद पड़ गया। वह चुप रहा।
अन्नपूर्णा ने पूछा - तुझे क्या मालूम नहीं है सारा किस्सा?
बिहारी बोला - कुछ तो मालूम है, अंत तक नहीं।
इस पर अन्नपूर्णा ने विनोदिनी को ले कर महेंद्र के भाग जाने का किस्सा बताया। बिहारी की निगाह में जल-थल-आकाश का रंग ही बदल गया, उसकी कल्पना के खजाने का सारा रस सुनते ही कड़वा हो गया - तो क्या वह मायाविनी उस दिन शाम को मेरे साथ खेल खेल गई? उसका प्रेम-निवेदन महज मक्कारी था! वह अपना गाँव छोड़ कर बेहया की तरह महेंद्र के साथ भाग गई! विश्वास है उसको, और धिक् हूँ मैं कि मैंने एक पल के लिए भी उसका विश्वास किया। हाय री मेघ-घिरी साँझ, हाय री बारिश-खुली पूनो की रात, तुम्हारे जादू के करिश्मे कहाँ गए!
बिहारी सोच रहा था, दुखिया आशा की ओर वह देखेगा कैसे! डयोढ़ी के अंदर कदम रखते ही स्वामीहीन घर की घनीभूत पीड़ा उसे दबोच बैठी। घर के नौकर-दरबानों की ओर ताकते हुए बौराए हुए महेंद्र के भाग जाने की शर्म ने उसके सिर को गाड़ दिया। पुराने और जाने-पहचाने नौकरों से उसने पहले की तरह मुलायमियत से कुशल-क्षेम न पूछी। हवेली में जाने को मानो उसके कदम नहीं उठ रहे थे। दुनिया के सामने खुले-आम महेंद्र बेबस आशा को जिस गहरे अपमान में छोड़ गया है, जो अपमान औरत के सबसे बड़े परदे को उघाड़ कर उसे सारी दुनिया की कौतूहल-भरी कृपा-दृष्टि के बीच खड़ा कर देता है, उसी अपमान के आवरणहीन स्वरूप में बिहारी सकुचाई और दुखित आशा को कौन-से प्राण ले कर देखेगा!