Aankh ki Kirkiri - 28 in Hindi Fiction Stories by Rabindranath Tagore books and stories PDF | आँख की किरकिरी - 28

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आँख की किरकिरी - 28

(28)

विनोदिनी का वह दुबला-पीला चेहरा देख कर महेंद्र के मन में ईर्ष्या जल उठी। उसमें ऐसी कोई शक्ति नहीं कि वह बिहारी की चिंता में लगी इस तपस्विनी को जबरदस्ती उखाड़ सके? गिद्ध जैसे मेमने को झपट्टा मार कर देखते-ही-देखते अपने अगम अभ्रभेदी पहाड़ के बसेरे में ले भागता है, क्या वैसी ही कोई मेघों से घिरी दुनिया की निगाहों से परे जगह नहीं, जहाँ महेंद्र अकेला अपने इस सुंदर शिकार को कलेजे के पास छिपा कर रख सके?

 विरह की जलन स्त्रियों के सौंदर्य को सुकुमार कर देती है, ऐसा महेंद्र ने संस्कृत काव्यों में पढ़ा था। आज विनोदिनी को देख कर वह जितना ही अनुभव करने लगा, उतना ही सुख-सने दु:ख के आलोड़न से उसका हृदय बड़ा व्यथित होने लगा।

 विनोदिनी जरा देर स्थिर रही। फिर पूछा - तुम चाय पी कर आए हो?

 महेंद्र ने कहा - समझ लो, पी कर ही आया हूँ, मगर इस वजह से अपने हाथ से प्याला देने की कंजूसी मत करो - प्याला मुझे दो।

 शायद जान कर ही विनोदिनी ने निहायत निर्दयता से महेंद्र से इस उच्छ्वास को चोट पहुँचाई। कहा - बिहारी भाई साहब इन दिनों कहाँ हैं, मालूम है?

 महेंद्र का चेहरा फक हो गया। बोला - कलकत्ता में तो वह नहीं हैं इन दिनों।

 विनोदिनी - पता क्या है उनका?

 महेंद्र - यह तो वह किसी को बताना नहीं चाहता।

 विनोदिनी - खोज नहीं की जा सकती पूछ-ताछ करके?

 महेंद्र - मुझे ऐसी जरूरत नजर नहीं आती।

 विनोदिनी - जरूरत ही क्या सब-कुछ है, बचपन से आज तक की मैत्री क्या कुछ भी नहीं?

 महेंद्र - बिहारी मेरा छुटपन का साथी है, तुम्हारी दोस्ती महज दो दिन की है, फिर भी ताकीद तुम्हारी ही ज्यादा है।

 विनोदिनी - इसी से तुम्हें शर्म आनी चाहिए। दोस्ती कैसे करनी चाहिए, यह तुम अपने वैसे दोस्त से भी न सीख सके?

 महेंद्र - मुझे इसका कतई मलाल नहीं, मगर धोखे से औरत का दिल कैसे लिया जाता है, यह विद्या उससे सीखता तो आज काम आती।

 विनोदिनी - केवल चाहने से वह विद्या नहीं सीखी जा सकती, उसकी क्षमता होनी चाहिए।

 महेंद्र - गुरुदेव का पता मालूम हो, तो मुझे बताओ, इस उम्र में उनसे दीक्षा ले आऊँ, फिर क्षमता की कसौटी होगी।

 विनोदिनी - मित्र का पता ढूँढ़ निकालने की जुर्रत न हो तो प्रेम की बात जुबान पर मत लाओ! बिहारी भाई साहब से तुमने ऐसा बर्ताव किया है कि तुम पर कौन यकीन करेगा?

 महेंद्र - मुझ पर पूरा यकीन न होता तो मेरा इतना अपमान न कर पाती - मेरे प्रेम पर अगर इतनी निश्चिंतता न होती, तो शायद मुझे इतनी तकलीफ न होती। बिहारी पालतू न बनने की कला जानता है, वह कला अगर इस बदनसीब को बता देता तो वह एक दोस्त का फर्ज अदा करता।

 आखिर बिहारी आदमी है, इसी से पालतू नहीं बनता - यह कह कर विनोदिनी खुले बालों को पीठ पर बिखेर कर खिड़की पर जिस तरह खड़ी थी, खड़ी रही। महेंद्र अचानक खड़ा हुआ। मुट्ठी कस ली और नाराजगी से गरज कर बोला - आखिर बार-बार मेरा अपमान करने का साहस क्यों करती हो तुम? इस इतने अपमान का कोई बदला नहीं मिलता, वह तुम्हारी क्षमता के कारण या मेरे गुण से? इतना बड़ा पुरुष मैं नहीं कि चोट करना जानता ही नहीं।

 इतना कह कर वह विनोदिनी की तरफ देखता हुआ जरा देर स्तब्ध रहा, फिर बोला - विनोद, चलो यहाँ से चलें - कहीं और। चाहे पछाँह, चाहे किसी पहाड़ पर, जहाँ तुम्हारा जी चाहे - चलो! यहाँ जीना मुहाल है। मैं मरा जा रहा हूँ।

 विनोदिनी बोली - चलो, अभी चलें पछाँह।

 महेंद्र - पछाँह?

 विनोदिनी - किसी खास जगह नहीं। कहीं भी दो दिन रहते-घूमते फिरेंगे।

 महेंद्र - ठीक है, आज ही रात को चलो!

 विनोदिनी राजी हो कर महेंद्र के लिए खाना बनाने गई। महेंद्र ने समझ लिया, बिहारी वाली खबर विनोदिनी की नजरों से नहीं गुजरी। अखबार में जी लगाने-जैसी स्थिति अभी उसके मन की नहीं है। कहीं अचानक उसे वह खबर न मालूम हो जाए, इसी उधेड़-बुन में महेंद्र पूरे दिन चौकन्ना रहा।

 बिहारी की खोज-खबर ले कर महेंद्र लौटेगा, इस आशा से घर में उसकी रसोई बनी थी। काफी देर हो गई तो दुखी राजलक्ष्मी बेचैन हो उठीं। रात-भर नींद न आई थी, इससे वह काफी थकी थीं, फिर महेंद्र के लिए यह बेताबी उन्हें और कष्ट दे रही थी। यह देख कर आशा ने पूछ-ताछ कर यह पता किया कि महेंद्र की गाड़ी वापिस आ चुकी है। कोचवान से मालूम हुआ, महेंद्र बिहारी के यहाँ से होता हुआ पटलडाँगा के डेरे पर गया है। राजलक्ष्मी ने सुना और दीवार की तरफ करवट बदल कर लेटी रहीं। आशा उनके सिरहाने चित्र-लिखी-सी बैठी पंखा झलती रही और दिन समय पर आशा को खाने के लिए जाने का वह आदेश किया करती थीं - आज कुछ न कहा। कल जब उनकी तबीयत ज्यादा खराब थी, यह देख कर भी महेंद्र विनोदिनी के मोह में चला गया, तो राजलक्ष्मी के लिए दुनिया में कुछ भी करने का मन बुझ गया।

 कोई दो बजे आशा बोली - माँ, दवा पीने का वक्त हो गया।

 राजलक्ष्मी ने कोई जवाब न दिया, चुप रहीं, आशा दवा लाने जाने लगी, तो बोलीं - दवा की जरूरत नहीं बहू, तुम जाओ!

 आशा ने माँ के रूठने का मर्म समझा और उसकी समझ ने उसके हृदय के आंदोलन को दूना कर दिया। आशा से न रहा गया। अपनी रुलाई रोकते-रोकते वह फफक पड़ी। राजलक्ष्मी धीरे-धीरे करवट बदल कर आशा की तरफ हो गई और स्नेह से उसका हाथ सहलाने लगीं। कहा - बहू, तुम्हारी उम्र ही क्या है, सुख का मुँह देखने का तुम्हें बहुत समय है। मेरे लिए तुम परेशान मत होओ बिटिया, मैं काफी जी चुकी, अब क्या होगा जी कर?

 आशा की रुलाई और उमड़ आई। उसने आँचल से मुँह दबा लिया। रोगी के घर इस तरह निरानंद दिन मंद गति से कट गया। रूठे रहने के बावजूद दोनों नारियों को अंदर-ही-अंदर आशा थी कि महेंद्र अभी आएगा। खटका होते ही दोनों के शरीर में एक चौंक-सी जगती थी, इसे दोनों समझ रही थीं। धीरे-धीरे सूर्यास्त की आभा धुँधली पड़ गई - कलकत्ता के अंत:पुर में उस गोधूलि की आभा में न तो खिलावट है, और न अँधेरे का आवरण ही होता है - वह विषाद को गहरा बनाती है और निराशा के आँसू सुखा डालती है। कर्म और भरोसे के बल को वह छीन लेती है, लेकिन विश्राम और वैराग्य की शांति नहीं लाती। रोग से दुखी घर की उस सूनी और कुरूप साँझ में आशा पाँव दबाए गई और दीया जला कर कमरे में ले आई। राजलक्ष्मी ने कहा, बहू, रोशनी नहीं सुहाती, दीए को कमरे से बाहर रख दो।

 आशा दीये को बाहर रख आई। घना हो कर अँधेरा जब अनंत रात को छोटे-से कमरे में ले आया, तो आशा ने धीमे से राजलक्ष्मी से पूछा - माँ, उन्हें खबर भिजवाऊँ क्या?

 राजलक्ष्मी ने सख्त हो कर कहा - नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, महेंद्र को खबर मत देना!

 आशा स्तब्ध रह गई। रोने की उसमें शक्ति न थी। कमरे के बाहर से बैरे ने आवाज दी- माँजी, बाबू के यहाँ से चिट्ठी आई है।

 यह सुना और तुरंत राजलक्ष्मी के मन में आया, हो न हो, महेंद्र की अचानक तबीयत खराब हो गई है। इसीलिए वह आ न सका और चिट्ठी भेजी है। चिंतित और परेशान हो कर उन्होंने कहा, देखो तो बहू, महेंद्र ने क्या लिखा है?

 काँपते हुए हाथों से आशा ने बाहर जा कर रोशनी में चिट्ठी खोल कर पढ़ी। उसने लिखा था, इधर कुछ दिनों से तबीयत उचाट है, इसलिए वह घूमने के लिए पछाँह जा रहा है। माँ की बीमारी के लिए खास कोई चिंता की बात नहीं। उन्हें बराबर देखने के लिए नवीन डॉक्टर से कह दिया है। रात को उन्हें नींद न आए या सिर-दर्द हो तो क्या करना होगा, यह भी उसने लिखा था। साथ ही दवाखाने से मँगा कर उसने हल्के और ताकतवर पथ्य के दो डिब्बे भी भेज दिए थे। फिलहाल गिरीडीह के पते पर माँ का हाल लिखने के लिए चिट्ठी में पुनश्च में अनुरोध किया था।

 चिट्ठी पढ़ कर आशा स्तम्भित हो गई - एक जबरदस्त धिक्कार ने उसके दु:ख को छिपा लिया। यह कठोर समाचार वह माँ को किस तरह सुनाए?

 आशा के इस विलंब से राजलक्ष्मी बहुत ही उतावली हो उठीं। बोलीं- बहू, मुझे बताओ, महेंद्र ने क्या लिखा है?

 आशा ने आखिर अंदर बैठ कर शुरू से आखिर तक चिट्ठी पढ़ सुनाई। राजलक्ष्मी ने कहा - अपनी तबीयत के बारे में उसने क्या लिखा है, जरा वह जगह फिर से पढ़ो तो...

 आशा ने फिर से पढ़ा - इधर कुछ दिनों से तबीयत उचाट-सी चल रही थी, इसीलिए मैं...

 राजलक्ष्मी - बस, बस, रहने दो। उचाट न हो तबीयत, क्या हो! बुड्ढी माँ मरती भी नहीं और बीमार हो कर उसे तंग करती है। तुम मेरी बीमारी को कहने उससे क्यों गई? कह कर वह बिस्तर पर लेट गई।

 बाहर जूतों की चरमराहट हुई। बैरे ने कहा - डॉक्टर आए हैं।

 खाँस कर डॉक्टर साहब अंदर आए। घूँघट निकाल कर आशा पलँग की आड़ में हो गई। डॉक्टर ने पूछा - आपको शिकायत क्या है, यह तो कहें।

 राजलक्ष्मी झुँझला कर बोलीं- शिकायत क्यों होगी? किसी को मरने भी न देंगे। आपकी दवा से ही क्या मैं अमर हो जाऊँगी?

 डाक्टर ने दिलासा देते हुए कहा - अमर चाहे न कर पाऊँ, तकलीफ घटे, इसकी कोशिश तो...

 राजलक्ष्मी कह उठीं - तकलीफ की दवा तभी होती थी, जब विधवाएँ जल मरती थीं। अब तो बाँध कर मारना ठहरा। आप जाएँ डॉक्टर साहब, मुझे तंग न करें - मैं अकेली रहना चाहती हूँ।

 डॉक्टर ने डर कर कहा - जरा आपकी नब्ज...

 राजलक्ष्मी ने खीझ कर कहा - मैं कह रही हूँ, आप जाइए... मेरी नब्ज सही है - यह खतरा नहीं कि यह जल्दी छूटेगी।

 लाचार हो कर डॉक्टर कमरे से बाहर चला गया। उसने आशा को बुलाया। उससे बीमारी का सारा ब्यौरा पूछा। सब-कुछ सुन कर गंभीर-सा हो कर वह फिर कमरे में गया। बोला - महेंद्र मुझ पर आपके इलाज का भार सौंप गया है। अगर आप इलाज न कराएँगी, तो उसे दु:ख होगा।

 महेंद्र को दु:ख होगा, यह बात राजलक्ष्मी को मजाक जैसी लगी। उन्होंने कहा - महेंद्र की इतनी फिक्र न करें आप। दुनिया में हर किसी को दु:ख भोगना पड़ता है। आप जाएँ, मुझे सोने दें।

 डॉक्टर ने समझा, बीमार को ज्यादा तंग करना ठीक नहीं। वह बाहर निकला और जो कुछ करना था, आशा को बता दिया।

 आशा जब कमरे में लौटी, तो राजलक्ष्मी बोलीं - तुम जरा आराम कर लो जा कर, बिटिया! तमाम दिन मरीज के पास बैठी हो! हारू की माँ से कह दो, बगल के कमरे में बैठेगी।

 आशा राजलक्ष्मी को समझती थी। यह उनके स्नेह का आग्रह नहीं, आदेश था - इसे मान लेने के सिवा चारा नहीं। उसने हारू की माँ को भेज दिया था और अपने कमरे में नीचे लेट गई।

 दिन-भर उसने खाया-पिया नहीं। तकलीफ भी थी। उसका तन-मन चूर-चूर हो गया था। उस दिन पड़ोस में दिन में ब्याह के बाजे बजते रहे। अभी फिर शहनाई पर धुन छिड़ी। उस रागिनी से चोट खा कर रात का अँधेरा काँप कर आशा पर बार-बार आघात करने लगा। उसके अपने विवाह के दिन की छोटी-से-छोटी घटना भी सजीव हो उठी और सबने मिल कर रात के आसमान को स्वप्न की छवि से पूर्ण कर दिया। उस दिन की रोशनी, चहल-पहल, भीड़, उस दिन का माला-चन्दन, नए वस्त्र और यज्ञ के धुँए की खुशबू; नववधू के शंकित, लज्जित, आनन्दित हृदय का निगूढ़ कंपन - सब कुछ ने स्मृति का रूप लेकर चारों ओर से जितना ही उसे घेर लिया, उतनी ही हृदय की पीड़ा जीवन्त होकर जोर डालने लगी। घोर अकाल के दिनों में भूखा बच्चा जैसे भोजन के लिए माँ को मारने लगता है, वैसे ही सुख की स्मृतियाँ अपने खाद्य के लिए रोती हुई आशा की छाती में थपेड़े लगाने लगी। इस स्थिति ने आशा को चैन से न लेटने दिया। वह दोनों हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना करने लगी कि दुनिया में उसकी एक-मात्र देवी उसकी मौसी की पावन स्निग्ध मूर्ति उसके हृदय में जाग पड़ी। उसने प्रतिज्ञा की थी कि तपस्विनी को वह फिर से संसार के झमेलों में नहीं खींचेगी। कमरे में रोशनी जला कर वह कागज लिए लगातार आँसू पोंछती हुई लिखने बैठ गई -