(27)
महेंद्र - वे हैं कहाँ?
आशा - अपने सोने के कमरे में हैं। नींद नहीं आ रही है।
महेंद्र - अच्छा, चलो, उन्हें देख आऊँ।
बहुत दिनों के बाद आशा से इतनी-सी बात करके महेंद्र जैसे हल्का हुआ। किसी दुर्भेद्य किले की दीवार-सी नीरवता मानो उन दोनों के बीच स्याह छाया डाले खड़ी थी - महेंद्र की ओर से उसे तोड़ने का कोई हथियार न था, ऐसे समय आशा ने अपने हाथों किले में एक छोटा-सा दरवाजा खोल दिया। आशा सास के कमरे के दरवाजे पर खड़ी रही। महेंद्र गया। उसे असमय में अपने कमरे में आया देख कर राजलक्ष्मी को डर लगा। सोचा, कहीं फिर दोनों में कहा-सुनी हो गई और वह चल देने की कहने आया हो। पूछा - अब तक सोया नहीं, महेंद्र?
महेंद्र ने कहा - क्या दमा उखड़ आया है, माँ?
जमाने के बाद यह सवाल सुन कर उनके मन में मान हो आया। समझीं, जब बहू ने जा कर बताया, तो यह माँ का हाल पूछने आया है। इस आवेश से उनका कलेजा और भी काँपने लगा। किसी तरह बोलीं - तू सो जा कर, यह कुछ नहीं।
महेंद्र - नहीं, नहीं एक बार जाँच देखना अच्छा है। यह बीमारी टालने की नहीं।
महेंद्र को पता था, माँ को हृदय की बीमारी है। इस वजह से तथा उनके चेहरे का लक्षण देख कर उसे घबराहट हुई।
माँ ने कहा - जाँचने की जरूरत नहीं। मेरी यह बीमारी नहीं छूटेगी।
महेंद्र ने कहा - खैर, आज की रात के लिए सोने की दवा ला देता हूँ। सवेरे अच्छी तरह से देखा जाएगा।
राजलक्ष्मी - दवा ढेर खा चुकी, दवा से कुछ होता-जाता नहीं। बहुत रात हो गई, तुम सो जाओ।
महेंद्र - तुम्हें जरा चैन तो मिले।
इस पर राजलक्ष्मी ने दरवाजे पर खड़ी बहू को संबोधित करके कहा - बहू, तुम रात में महेंद्र को तंग करने के लिए यहाँ क्यों ले आईं!
कहते-कहते उनकी साँस की तकलीफ और भी बढ़ गई। तब आशा कमरे में आई। उसने कोमल किन्तु दृढ़ स्वर में महेंद्र से कहा - तुम सोओ जा कर। मैं माँ के पास रहूँगी।
महेंद्र ने आशा को अलग बुला कर कहा - मैंने एक दवा लाने भेजा है। दो खुराक दवा होगी। एक से अगर नींद न आए तो घंटे बाद दूसरी खुराक देना। रात में साँस और बढ़े तो मुझे खबर देना।
कह कर महेंद्र अपने कमरे में चला गया। आशा आज जिस रूप में उसके सामने प्रकट हुई, उसके लिए वह रूप नया था। इस आशा में संकोच नहीं, दीनता नहीं - यह आशा अपने अधिकार में खड़ी हुई थी। अपनी स्त्री की महेंद्र ने अपेक्षा की थी, मगर घर की बहू के लिए संभ्रम हुआ।
आशा ने जवाब न दिया। पीछे बैठ कर पंखा झलने लगी। राजलक्ष्मी ने कहा - तुम सोओ जा कर, बहू।
आशा धीमे से बोली - मुझे यहीं रहने को कह गए हैं।
आशा समझती थी कि यह जान कर माँ खुश होंगी कि महेंद्र उसे माँ की सेवा के लिए छोड़ गया है।
राजलक्ष्मी ने जब साफ समझ लिया कि आशा महेंद्र के मन को बाँध नहीं पा रही है, तो उनके जी में आया, कम-से-कम मेरी बीमारी के नाते ही महेंद्र को यहाँ रहना पड़े, तो भी अच्छा है। उन्हें डर लगा, कहीं वे सचमुच ठीक न हो जाएँ। इसलिए आशा से छिपा कर दवा फेंकने लगीं।
अनमना महेंद्र खास कुछ खयाल नहीं करता था। लेकिन आशा यह देख रही थी कि राजलक्ष्मी की बीमारी दबने के बजाय कुछ बढ़ ही रही है। वह सोचती, महेंद्र खूब सोच-विचार कर दवा नहीं दे रहा है - उसका मन इतना ही खराब हो गया है कि माँ की तकलीफ भी उसे सचेतन नहीं कर पाती। उसकी इस दुर्गति पर आशा अपने मन में उसे धिक्कारे बिना न रह सकी। एक तरफ से बिगड़ने पर कोई क्या हर तरफ से बर्बाद हो जाता है। एक दिन शाम को बीमारी की तकलीफ में राजलक्ष्मी को बिहारी की याद आ गई। जाने वह कब से नहीं आया। आशा से पूछा - जानती हो बहू, बिहारी आजकल कहाँ है? उसका महेंद्र से कुछ झगड़ा है, क्यों? यह उसने बड़ा बेजा किया, बहू! उस-जैसा महेंद्र का भला चाहने वाला और कोई दोस्त नहीं।
कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू जमा हो आए। एक-एक करके आशा को बहुतेरी बातें याद आईं। अंधी और भोली आशा को समय पर चेताने के लिए जाने कितनी बार, कितनी कोशिश बिहारी ने की और उन्हीं कोशिशों के चलते वह आशा का अप्रिय हो उठा।
फिर बड़ी देर तक चुपचाप चिंतित रह कर राजलक्ष्मी बोल उठीं - बहू, बिहारी होता तो हमारे इस आड़े वक्त में बड़ा काम आता। वह हमें बचाता, बात यहाँ तक न बढ़ पाती।
आशा चुपचाप सोचती रही। उसाँस ले कर राजलक्ष्मी ने कहा - उसे अगर मेरी बीमारी का पता चल जाए, तो वह हर्गिज नहीं रुक सकता।
आशा समझ गई, राजलक्ष्मी चाहती हैं कि बिहारी को यह खबर मिले। बिहारी के न होने से वह असहाय-सी हो गई हैं।
कमरे की बत्ती गुल करके चाँदनी में महेंद्र खिड़की के पास चुप खड़ा था। पढ़ना अच्छा नहीं लग रहा था। घर में कोई आराम नहीं। जो नितांत अपने हैं, उनसे जब सहज नाता टूट जाता है तो उन्हें बिराने की तरह आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता और फिर प्रियजन के समान सहज ही अपनाया भी नहीं जा सकता।
पीछे आहट मिली। महेंद्र ने समझा, आशा आई है। मानो आहट उसे मिली ही नहीं, इस भाव से वह स्थिर रहा। आशा बहाना ताड़ गई, फिर भी वह कमरे से बाहर नहीं गई। पीछे खड़ी-खड़ी बोली - एक बात है, वही कह कर मैं चली जाऊँगी।
महेंद्र ने पलट कर कहा - जाना ही क्यों पड़ेगा - जरा देर बैठ ही जाओ।
इस भलमनसाहत पर उसने ध्यान दिया। स्थिर खड़ी-खड़ी बोली - बिहारी भाई साहब को माँ की बीमारी की खबर देना लाजिमी है।
बिहारी का नाम सुनते ही महेंद्र के गहरे जख्म पर चोट लगी। अपने को सँभाल कर वह बोला - लाजिमी क्यों है, मेरे इलाज का भरोसा नहीं हो रहा है, क्यों?
आशा ने मन में यह शिकायत भरी-सी थी कि महेंद्र माँ के इलाज में उतना ध्यान नहीं दे रहा है, तो उसके मुँह से निकल पड़ा - कहाँ, उनकी बीमारी तो जरा भी नहीं सुधरी, बल्कि दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है।
इस मामूली बात में जो आँच थी, महेंद्र अपने अहंकार से आहत हो विस्मित व्यंग्य के साथ बोला - देखता हूँ, तुमसे डाक्टरी सीखनी पड़ेगी।
इस व्यंग्य से आशा को उसकी जमी हुई वेदना पर अप्रत्याशित चोट लगी। तिस पर कमरा अँधेरा था, जो सदा ही चुप रह जाने वाली आशा आज बे-खटके तेजी के साथ बोल उठी - डाक्टरी न सही, माँ की सेवा सीख सकते हो।
आशा से ऐसा जवाब पा कर महेंद्र के अचरज की सीमा न रही। ऐसे तीखे वाक्य सुनने का वह आदी न था। वह कठोर हो उठा। बोला - तुम्हारे बिहारी भाई साहब को यहाँ आने की मनाही क्यों की है - तुम तो जानती हो - शायद फिर याद आ गई है!
आशा तेजी से बाहर चली गई। शाम की आँधी मानो उसे ढकेल कर ले गई। शर्म अपने लिए न थी। जो आदमी सिर से पैर तक अपराध में डूबा हो, वह जुबान पर ऐसे झूठे अपवाद भी ला सकता है! इतनी बड़ी बेहयाई को लाज के पहाड़ से भी नहीं ढँका जा सकता।
आशा के चले जाने के बाद ही महेंद्र अपनी पूरी हार का अनुभव कर सका। महेंद्र को मालूम भी न था कि आशा कभी भी किसी भी अवस्था में महेंद्र को इस तरह धिक्कार सकती है। उसे लगा, जहाँ उसका सिंहासन था, वहीं वह धूल में लोट रहा है। इतने दिनों के बाद अब उसे यह शंका होने लगी, आशा की वेदना कहीं घृणा में न बदल जाए।
और उधर बिहारी की चर्चा आते ही विनोदिनी की चिंता ने उसे बेताब कर दिया। पश्चिम से बिहारी लौटा या नहीं, कौन जाने? हो सकता है, इस बीच विनोदिनी उसका पता ले आई हो, विनोदिनी से बिहारी की भेंट भी असंभव नहीं। महेंद्र से अब प्रतिज्ञा का पालन न हो सका।
रात को राजलक्ष्मी की तकलीफ बढ़ गई। उससे न रहा गया। उन्होंने महेंद्र को बुलावा भेजा। बड़ी तकलीफ से बोली फूटी- महेंद्र, बिहारी को देखने को मेरा बड़ा जी चाहता है - बहुत दिनों से वह नहीं आया है।
आशा सास को पंखा झल रही थी। मुँह नीचा किये बैठी रही। महेंद्र ने कहा - वह यहाँ नहीं है। जाने कहाँ पछाँह गया है।
राजलक्ष्मी ने कहा - मेरी अंतरात्मा कह रही है, वह यहाँ है, सिर्फ तुझसे रूठ कर नहीं आ रहा है। मेरे सिर की कसम रही, कल तू एक बार उसके यहाँ जाना।
महेंद्र ने कहा - अच्छा, जाऊँगा।
आज सब बिहारी के लिए परेशान हैं।
दूसरे दिन तड़के ही महेंद्र बिहारी के यहाँ पहुँच गया। देखा, दरवाजे पर कई बैलगाड़ियों पर नौकर-चाकर सामान लाद रहे हैं। महेंद्र ने भज्जो से पूछा - माजरा क्या है? भज्जो ने कहा - बाबू ने बाली में गंगा के किनारे एक बगीचा लिया है। यह सब वहीं जा रहा है। महेंद्र ने पूछा - बाबू घर पर हैं क्या? भज्जो ने कहा - वे सिर्फ दो दिन कलकत्ता रुक कर कल बगीचे चले गए।
सुनते ही महेंद्र का मन आशंका से भर गया। उसकी गैरहाजिरी में बिहारी से विनोदिनी की भेंट हुई है, इस पर उसे कोई संदेह न रहा। उसने कल्पना की आँखों से देखा, विनोदिनी के डेरे के बाहर भी बैलगाड़ियाँ लद रही हैं। उसे यह निश्चित-सा लगा कि इसलिए मुझ नासमझ को विनोदिनी ने डेरे से दूर ही रखा है।
पल की भी देर न करके महेंद्र गाड़ी पर सवार हुआ और कोचवान से हाँकने को कहा। बीच-बीच में कोचवान को इसके लिए गालियाँ सुनाईं कि घोड़े तेज नहीं चल रहे हैं। गली के अंदर डेरे के दरवाजे पर पहुँच कर देखा, यात्रा की कोई तैयारी नहीं है। डर लगा, वहीं यह काम पहले ही न हो चुका हो। तेजी से किवाड़ के कड़े खटखटाए। अंदर से जैसे ही बूढ़े नौकर ने दरवाज़ा खोला, महेंद्र ने पूछा - सब ठीक तो है?
उसने कहा - जी हाँ, ठीक ही है।
ऊपर जा कर महेंद्र ने देखा, विनोदिनी नहाने गई है। उसके सूने सोने के कमरे में जा कर महेंद्र विनोदिनी के रात के बिस्तर पर लोट गया, दोनों हाथों से खींच कर चादर को छाती के पास ले आया और पहुँच कर उस पर मुँह रखते हुए बोला - बेरहम, निर्दयी!
हृदय के उच्छ्वास को इस तरह निकल कर वह सेज से उठ कर विनोदिनी का इंतजार करने लगा। कमरे में चहलकदमी करते हुए देखा, फर्श के बिछौने पर एक अखबार खुला पड़ा है। समय काटने के खयाल से कुछ अनमना-सा हो कर अखबार उठा कर देखा। जहाँ पर उसकी नजर पड़ी, वहीं पर बिहारी का नाम था। उसका मन बात-की-बात में अखबार देखते-देखते वहीं पर टूट पड़ा। किसी ने संपादक के नाम पत्र लिखा था, मामूली तनखा पाने वाले गरीब किरानियों के बीमार होने पर नि:शुल्क चिकित्सा और सेवा के लिए बिहारी ने बाली में एक बगीचा खरीदा है, वहाँ एक साथ पाँच आदमियों के लिए प्रबंध हो चुका है, आदि-आदि।
यह खबर विनोदिनी ने पढ़ी, पढ़ कर उसके मन में क्या हुआ होगा! बेशक उसका मन उधर ही भाग-भाग कर रहा होगा। न केवल इसीलिए बल्कि महेंद्र का जी इस वजह से और भी छटपटाने लगा कि बिहारी के इस संकल्प से उसके प्रति विनोदिनी की भक्ति और भी बढ़ जाएगी। बिहारी को महेंद्र ने अपने मन में हम्बग और उसके इस काम को सनक कहा।
विनोदिनी के पैरों की आहट सुन कर महेंद्र ने अखबार मोड़ दिया। नहा कर विनोदिनी कमरे में जो आई, महेंद्र उसके चेहरे की तरफ देख कर हैरत में आ गया। उसमें जाने कैसा एक अनोखा बदलाव आ गया था। मानो पिछले कई दिन तक वह धूनी जला कर तप कर रही थी। शरीर उसका दुबला हो गया था और उस दुबलेपन को भेद कर उसके पीले चेहरे से एक दमक निकल रही थी।
बिहारी के पत्र की उम्मीद उसने छोड़ दी है। अपने ऊपर बिहारी की बेहद हिकारत की कल्पना करके वह आठों पहर चुपचाप जल रही थी। बिहारी मानो उसी का तिरस्कार करके पछाँह चला गया है - उस तक पहुँच पाने की कोई तरकीब उसे नहीं सूझी। काम-काजी विनोदिनी काम की कमी से इस छोटे-से घर में घुल रही थी - उसकी सारी तत्परता खुद उसी को घायल करती हुई चोट करती थी। उसके समूचे भावी जीवन को इस प्रेमहीन, कर्महीन, आनंदहीन घर में इस सँकरी गली में सदा के लिए कैद समझ कर उसकी बागी प्रकृति हाथ न आने वाले अदृष्ट के खिलाफ मानो आसमान से सिर मारने की बेकार कोशिश कर रही थी। नादान महेंद्र ने विनोदिनी की मुक्ति के सारे रास्तों को चारों तरफ से बंद करके जीवन को इतना सँकरा बना दिया है, उस महेंद्र के प्रति उसकी घृणा और विद्वेष की सीमा न रही। वह समझ गई थी कि उस महेन्द्र को अब वह ठुकराकर हर्गिज दूर नहीं जा सकती। इस संकरे डेरे में महेन्द्र रोज उसके पास सट कर बैठा करेगा, अलक्षित आकर्षण से प्रतिदिन तिल-तिल वह उसकी ओर खिंचती रहेगी - इस अंधे कुएँ में, इस समाज-भ्रष्ट जीवन के कीच की सेज पर घृणा और आसक्ति के बीच रोज-रोज जो लड़ाई होती रहेगी, वह बड़ी ही वीभत्स है। उसने खुद अपने हाथों, अपने से चाहकर महेन्द्र के मन के अतल से एक लपलपाती जीभ वाली लोलुपता के जिस क्लेद-सने सरीसृप को खोद निकाला है, उसकी पूँछ के बंधन से वह अपने को कैसे बचाएगी? एक तो उसका दुखा हुआ दिल, तिस पर यह छोटा रुँधता-सा डेरा और उसमें महेंद्र् की वासना की लहरों के थपेड़े - इसकी कल्पना से ही विनोदिनी का मन-प्राण पीडि़त हो उठा। जीवन में इसका अन्त कहाँ? इनमें से वह बाहर कब निकल पायगी?