(26)
पहले तो कोई जवाब न मिला। फिर आवाज दी- कौन है? इस पर महेंद्र चुपचाप कमरे में आया।
आशा खुश तो क्या होती, महेंद्र की लज्जा देख कर लज्जा से उसका हृदय भर गया। अब महेंद्र को अपने घर में ही चोर की तरह आना पड़ा है। ज्योतिषी जी और उनकी बहन के रहने से उसे और भी शर्म आई। दुनिया-भर के सामने अपने स्वामी के लिए लाज ही आशा को दु:ख से बड़ी हो उठी थी। और अब राजलक्ष्मी ने धीमे से कहा - बहू, पार्वती से कह दो, महेंद्र का खाना लगा दो, तो आशा बोली - न, मैं ही ले आती हूँ।
घर की दास-दासियों से भी वह महेंद्र को ढँके रखना चाहती।
इधर ज्योतिषी जी और उनकी बहन को देख कर महेंद्र मन-ही-मन बड़ा नाराज हुआ। उसकी माँ और स्त्री जंतर-मंतर से उसे वश में लाने के लिए इन अशिक्षित मूर्खों के साथ बेहयाई से साजिश कर रही हैं, यह महेंद्र को सहन नहीं हुआ। इस पर जब ज्योतिषीजी की बहन ने जरूरत से ज्यादा शहद-सने स्वर में पूछा - कुशल तो है, बेटे! तो उससे वहाँ बैठा न गया। उनके कुशल-प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही बोला - माँ, मैं जरा ऊपर चलता हूँ।
माँ ने समझा, महेंद्र शायद एकांत में बहू से बात करना चाहता है। बेहद खुश हो कर खुद रसोई में गई। जा कर आशा से कहा - जाओ, जल्दी से ऊपर जाओ, महेंद्र को शायद कुछ काम है।
आशा धड़कते हृदय और सकुचाते कदमों से ऊपर गई। सास के कहने से उसने यह समझा कि महेंद्र ने शायद उसे बुलाया है। लेकिन अचानक ही उससे कमरे में जाते न बना, वह पहले अँधेरे दरवाजे की आड़ से महेंद्र को देखने लगी।
महेंद्र बड़े ही सूने मन से फर्श के बिस्तर पर तकिए के सहारे लेटा-लेटा छत के शहतीर गिन रहा था। वही महेंद्र तो था। सारा कुछ वही मगर कितना परिवर्तन!
आशा अँधेरे में खड़ी-खड़ी जितना ही महेंद्र को देखने लगी, उतना ही उसके मन में होने लगा कि महेंद्र अभी-अभी उसी विनोदिनी के यहाँ से आया है, उसके अंगों में उसी विनोदिनी का स्पर्श है, आँखों में उसी की मूरत, कानों में उसी विनोदिनी की आवाज, मन में उसी विनोदिनी की वासना घुली-मिली है। आशा इस महेंद्र को अपनी पवित्र भक्ति कैसे दे, कैसे एक मन से कहे कि आओ, मेरे हृदय में विराजो।
विनोदिनी का महेंद्र मानो आशा के लिए पराया पुरुष हो। इतने में छत के लोहे-लक्कड़ से महेंद्र की अनमनी नजर सामने की दीवार की तरफ उतरी। उसकी नजर का अनुसरण करते हुए आशा ने देखा, दीवार पर महेंद्र की तस्वीर के पास ही आशा का एक फोटो लटक रहा है। उसके जी में आया, दामन से उसे ढँक दे। अभ्यासवश क्यों वह आज तक उसकी नजर में न आया, क्यों अब तक उसने उतार नहीं फेंका, यही सोच कर वह अपने को धिक्कारने लगी। उसे लगा, महेंद्र मन-ही-मन हँस रहा है। अंत में आजिज आए महेंद्र की नजर दीवार से नीचे उतर आई। अपनी मूर्खता मिटाने के लिए आशा आजकल साँझ को काम-काज और सास की सेवा से फुरसत पाते ही काफी रात तक लिखा-पढ़ी करती थी। उसके पढ़ने-लिखने की कापी-किताबें कमरे में एक तरफ रखी हुई थीं। महेंद्र ने उनमें से एक कापी उठा ली और देखने लगा। आशा की ख्वाहिश होने लगी कि चीख कर उसे छीन लाए। अपने कच्चे हरफ पर महेंद्र की व्यंग्य दृष्टि की कल्पना करके वह एक पल-भर भी और न खड़ी रह सकी। तेजी से नीचे उतर गई - आहट छिपाने की भी चेष्टा न रही।
महेंद्र का खाना तैयार था। राजलक्ष्मी सोच रही थी, महेंद्र बहू से हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा, लिहाजा भोजन ले जा कर बीच ही में रुकावट डालने को जी नहीं चाह रहा था। आशा को उतरते देख खाने की जगह पर थाली रख कर उन्होंने महेंद्र को खबर दी। महेंद्र खाने जाने को उठा ही था कि आशा दौड़ कर कमरे में गई और दीवार से अपनी तस्वीर उतार कर छत की दीवार के बाहर फेंक दी और अपनी कापी-किताबें उठा ले गई।
खा-पी कर महेंद्र कमरे में आ बैठा। राजलक्ष्मी ने लेकिन बहू को आस-पास कहीं नहीं पाया। अंत में रसोई में जा कर देखा, आशा उनके लिए दूध उबाल रही थी। कोई जरूरत न थी इसकी, क्योंकि जो नौकरानी रोज दूध उबाला करती थी, वह पास ही थी और आशा के इस निरर्थक उत्साह पर ऐतराज कर रही थी। पानी डाल कर जितना दूध वह रोज गायब करती थी, आज वह हाथ से जाता रहा, इससे वह अकुला रही थी।
राजलक्ष्मी बोलीं- अरे, यहाँ क्यों बहू, ऊपर जाओ! आशा ने ऊपर जा कर सास के कमरे में पनाह ली। बहू के इस व्यवहार से राजलक्ष्मी नाराज हुईं। सोचा, उस मायाविनी के फंदे से निकल कर महेंद्र घड़ी-भर के लिए घर भी आया, तो नाराज हो कर, रूठ कर बहू फिर उसे घर से निकालने को तैयार! और विनोदिनी के फंदे में जो महेंद्र पड़ा वह ही तो आशा के ही चलते। मर्द तो गलत राह पर चलने के लिए पाँव बढ़ाए ही रहता है। औरत का कर्तव्य है, छल-बल कौशल से उसे सही रास्ते पर रखे।
राजलक्ष्मी ने फटकार बताई - यह तुम्हारा क्या रवैया है, बहू! खुश-किस्मती से स्वामी कहीं घर आ गए तो मुँह लटकाए तुम इस-उस कोने में क्यों छिपी फिरती हो?
खुद को कसूरवार समझ अंकुश खाए हुए किसी तरह आशा ऊपर गई और मन को आगा-पीछा करने का जरा भी मौका न दे कर वह एक साँस में कमरे के अंदर चली गई। दस बज चुके थे। उस समय महेंद्र बिस्तर के पास खड़ा बेमतलब बड़ी देर से चिंतित-सा मच्छरदानी झाड़ रहा था। उसके मन में विनोदिनी के लिए एक तीखा अभियान हो गया था। वह मन में सोच रहा था कि विनोदिनी ने आखिर मुझे ऐसा खरीदा हुआ गुलाम समझ रखा है कि मुझे आशा के पास भेजते हुए उसके जी में जरा भी आशंका न हुई। कहीं मैं आज से आशा के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करूँ तो वह किसके सहारे इस दुनिया में खड़ी होगी? उसने सोचा वह विनोदिनी से अपनी उपेक्षा का बदला जरूर लेगा।
आशा ने जैसे ही कमरे में कदम रखा, महेंद्र का अनमना हो कर मच्छरदानी झाड़ना बंद हो गया। एक समस्या हुई कि आशा से वह बोल-चाल कैसे शुरू करे।
बनावटी हँसी हँस कर अचानक जो बात उसकी जबान पर आ गई, महेंद्र वही बोला। बोला, मैं देख रहा हूँ, तुमने भी मेरी तरह पढ़ने में जी लगाया है। यहाँ कापी-किताबें पड़ी देखी थीं, कहाँ गईं?
बात बेसिर-पैर की लगी। इतना ही नहीं, उसने आशा को चोट की। गँवार आशा शिक्षित होने की चेष्टा कर रही है, वह बड़ी ही गोपन बात थी उसकी। और उसका वह संकल्प अगर किसी के हँसी-मजाक के अभ्यास से भी गोपन रखने का विषय था तो वह खास तौर से महेंद्र। और उसी महेंद्र ने जब बोल-चाल के आरंभ में ही हँस कर वही बात चलाई, तो बेरहम बातों की मार खाए कोमल बच्चे की देह-सा उसका मन संकुचित और पीड़ित होने लगा। वह कुछ बोली नहीं, मुँह फेर कर तिपाई का किनारा पकड़े खड़ी रही।
मुँह से बात निकलते ही महेंद्र ने समझ लिया था कि बात संगत और समय के अनुकूल नहीं हुई। लेकिन ऐसी स्थिति में उपयुक्त बात क्या हो सकती है, वह सोच ही न सका। बीच में एक इतना बड़ा विद्रोह हो गया, उसके बाद पहले की तरह कोई सहज बात जँचती नहीं। महेंद्र ने सोचा, मसहरी के अंदर दाखिल हो जाऊँ, तो वहाँ के एकांत से बात करना शायद सहज हो। यह सोच कर अपनी धोती के छोर से वह फिर मसहरी झाड़ने लगा। नया अभिनेता रंगमंच पर जाने से पहले जैसे अपना पार्ट मन-ही-मन दुहराया करता है, महेंद्र वैसे ही मसहरी के सामने खड़ा-खड़ा अपने वक्तव्य और कर्तव्य की सोचता रहा। इतने में हल्की-सी आहट हुई। महेंद्र ने मुड़ कर देखा, लेकिन आशा नहीं थी।
अगले दिन महेंद्र ने माँ से कहा - माँ, पढ़ने-लिखने के लिए मुझे कोई एकांत कमरा चाहिए। मैं चाची वाले कमरे में रहूँगा।
माँ खुश हो गई, तब तो महेंद्र अब घर में ही रहा करेगा। लगता है, बहू से सुलह हो गई। भला अपनी ऐसी अच्छी बहू की सदा उपेक्षा कर सकता है। ऐसी लक्ष्मी को छोड़ कर उस मायाविनी डायन के पीछे वह कब तक भूला रह सकता है?
माँ ने झट कहा - हर्ज क्या है, रहो!
उन्होंने तुरंत कुंजी निकाली, ताला खोला और झाड़-पोंछ की धूम मचा दी- बहू, अरी ओ बहू, कहाँ गई? बड़ी कठिनाई से घर के एक कोने में दुबकी हुई बहू को बरामद किया गया - एक धुली चादर ले आओ! इस कमरे में मेज नहीं है, लगानी पड़ेगी। इस रोशनी से काम नहीं चलेगा, ऊपर से अपना वाला लैंप भिजवा दो। इस तरह दोनों ने मिल कर उस घर के राजाधिराज के लिए अन्नपूर्णा के कमरे में राज-सिंहासन तैयार कर दिया। महेंद्र ने सेवा में लगी हुई माँ-बहू की तरफ ताका तक नहीं, वहीं किताब लिए जरा भी समय बर्बाद न करके गंभीर हो कर पढ़ने बैठ गया।
शाम को भोजन के बाद वह फिर बैठा। सोना ऊपर के कमरे में होगा या वहीं, कोई न समझ सका। बड़े जतन से राजलक्ष्मी ने आशा को मूरत की तरह सजा कर कहा - बहू, महेंद्र से पूछ तो आओ, उसका बिस्तर क्या ऊपर लगेगा? इस प्रस्ताव पर आशा का पाँव हर्गिज न हिला, वह सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही। नाराज हो कर राजलक्ष्मी खरी-खोटी सुनाने लगीं। बड़े कष्ट से आशा दरवाजे तक गई, पर उससे आगे न बढ़ सकी। दूर से बहू का वह रवैया देख कर राजलक्ष्मी नाराज हो कर इशारे से निर्देश करने लगीं। मरी-सी हो कर आशा कमरे में गई। आहट पा कर किताबों से सिर न उठा कर ही महेंद्र ने कहा - मुझे अभी देर है - फिर तड़के से ही उठ कर पढ़ना है - मैं यहीं सोऊँगा। शर्म की हद हो गई! आशा महेंद्र को ऊपर सुलाने के लिए थोड़े ही गिड़गिड़ाने आई थी।
वह निकली। निकलते ही खीझ कर राजलक्ष्मी ने पूछा - क्यों, क्या हुआ?
आशा बोली - अभी पढ़ रहे हैं। वे यहीं सोएँगे।
कह कर वह अपने अपमानित शयन-कक्ष में चली गई। कहीं उसे चैन नहीं - मानो सब कुछ दोपहर की धरती-सा तप उठा है।
कुछ रात बीती, तो उसके कमरे के दरवाजे पर थपकी पड़ी - बहू, बहू, दरवाजा खोलो!
आशा ने झट-पट दरवाजा खोल दिया। दमे की मरीज राजलक्ष्मी सीढ़ियाँ चढ़ कर तकलीफ से साँस ले रही थीं। कमरे में जा कर वह बिस्तर पर बैठ गईं और वाक्-शक्ति लौटते ही बोलीं - तुम्हारी अक्ल की बलिहारी! ऊपर कमरा बंद किए पड़ी हो! यह क्या राग-रोष का समय है! इस मुसीबत के बाद भी तुम्हारे भेजे में बुद्धि नहीं आई! जाओ नीचे जाओ!
आशा ने धीमे से कहा - उन्होंने कहा है, एकांत में रहेंगे।
राजलक्ष्मी - कह दिया और हो गया। गुस्से में जाने क्या कह गया, उसी पर तुम तुनक बैठोगी। ऐसी तुनक-मिजाज होने से काम नहीं चलेगा। जाओ, जल्दी जाओ।
दु:ख के दिनों में सास को बहू से लाज नहीं। जो भी तरकीब उन्हें आती है, उसी से महेंद्र को किसी तरह बाँधना पड़ेगा। आवेग से बातें करते हुए राजलक्ष्मी का फिर से दम फूलने लगा। अपने को थोड़ा-बहुत सँभाल कर उठीं। आशा भी आजिज न हो कर पकड़ कर उन्हें नीचे लिवा ले गई। उनके सोने के कमरे में आशा ने उन्हें बिठा दिया और पीठ की तरफ तकिए लगाने लगी। राजलक्ष्मी बोलीं - रहने दो बहू, किसी को भेज दो। तुम जाओ!
अबकी आशा जरा भी न हिचकी। सास के कमरे से निकल कर सीधे महेंद्र के कमरे में गई। महेंद्र के सामने मेज पर किताब खुली पड़ी थी - वह मेज पर दोनों पैर रख कर कुर्सी पर माथा टेके ध्यान से न जाने क्या सोच रहा था। उसके पीछे पैरों की आहट हुई। चौंक कर उसने पीछे की ओर देखा। मानो किसी के ध्यान में लीन था - एकाएक धोखा हुआ कि वह आ गई। आशा को देख कर महेंद्र सँभला। खुली किताब को उसने अपनी गोद में खींच लिया।
मन-ही-मन महेंद्र को अचरज हुआ। इन दिनों ऐसे बेखटके तो आशा उसके सामने नहीं आती - अचानक भेंट हो जाती है तो वह वहाँ से चल देती है। आज इतनी रात को वह इस सहज भाव से उसके कमरे में आ गई, ताज्जुब है! किताब से आँखें हटाए बिना ही महेंद्र ने समझा, आज आशा के लौट जाने का लक्षण नहीं। वह महेंद्र के सामने आ कर स्थिर भाव से खड़ी हुई। इस पर महेंद्र से मान करते न बना। सिर उठा कर उसने देखा। आशा ने साफ शब्दों में कहा - माँ का दम उखड़ आया है। चल कर एक बार देख लो तो अच्छा हो!