(16)
बिहारी ने जमीन पर ही माथा टेका, अन्नपूर्णा के पाँव भी न छुए। माँ जिस तरह गंगासागर में बच्चे को डाल आती है, अन्नपूर्णा ने उसी तरह रात के उस अँधेरे में चुप-चाप बिहारी का विसर्जन किया - पलट कर उसे पुकारा नहीं। देखते-ही-देखते गाड़ी बिहारी को ले कर ओझल हो गई।
आशा ने उसी रात महेंद्र को पत्र लिखा -
आज शाम को एकाएक बिहारी यहाँ आए थे। बड़े चाचा कब तक कलकत्ता लौटेंगे, ठिकाना नहीं। तुम जल्दी आ कर मुझे यहाँ से ले जाओ।
उस दिन रात तक जागते रहने और भारी आवेग के कारण सुबह महेंद्र में एक अवसाद-सा था। फागुन के अधबीच गर्मी पड़नी शुरू हो गई थी। और सवेरे महेंद्र अपने सोने के कमरे के एक ओर बैठ कर पढ़ता था। आज वह तकिए के सहारे फर्श पर पड़ा रहा। बेला हो आई, नहाने नहीं गया। रास्ते में फेरी वाले आवाज लगाते हुए गुजरने लगे। दफ्तर जाने वाली गाड़ियों की अविराम गड़गड़ाहट। पड़ोसी का नया मकान खड़ा हो रहा था। मजदूरिनें छत की कुटाई की ताल पर एक स्वर से गाने लगीं। हल्की गर्म दक्खिनी बयार से महेंद्र की दुखती नसें शिथिल हो आई थीं। कोई कठिन निश्चय, कोई दुरूह चेष्टा, मन से जूझना आज के इस अलसाए गिरे-गिरे-से वसंत के दिन के लायक न था।
भाई साहब, आज हो क्या गया तुम्हें? नहाओगे नहीं, खाना तैयार है। अरे, सो रहे हो। तबीयत खराब है? सिर दुख रहा है?- और, पास आ कर विनोदिनी ने उसके माथे पर हाथ रखा।
अधमुँदी आँखों और लड़खड़ाई आवाज में महेंद्र ने कहा - आज तबीयत कुछ अच्छी नहीं - नहाऊँगा नहीं आज।
विनोदिनी बोली - न नहाओगे, तो थोड़ा-सा खा लो!
जिद करके विनोदिनी उसे रसोई में ले गई और बड़े जतन और आग्रह से खिलाया।
खा-पी कर महेंद्र फिर आ कर लेट गया। विनोदिनी उसके सिरहाने बैठ कर धीरे-धीरे सिर दबाने लगी! आँखें बंद किए महेंद्र ने कहा - तुमने अभी खाया नहीं है, भई किरकिरी! जाओ, खा लो!
मगर विनोदिनी न गई। अलसाई दोपहरी के गर्म झोंकों से घर के परदे उड़ने लगे, दीवार के पास वाले नारियल के पेड़ की बेमानी मरमराहट कमरे में आने लगी। महेंद्र का कलेजा जोर-जोर से थिरकने लगा और विनोदिनी का घना नि:श्वास उसी ताल पर महेंद्र के कपाल पर पड़े बालों को नचाता रहा। किसी के भी गले से एक शब्द न निकला। महेंद्र सोचने लगा - ओर-छोर-हीन इस संसार के अनंत स्रोत में बहा जा रहा हूँ,जरा देर के लिए कभी कहीं नाव अगर किनारे पर लगे तो उससे किसी का क्या आता-जाता है, और कितने दिनों के लिए!
सिरहाने बैठी महेंद्र का सिर सहलाती विनोदिनी का सिर विह्वल यौवन के भार से धीरे-धीरे झुका जा रहा था और अंत तक उसकी लटों की नोक महेंद्र के कपोल को छूने लगी। हवा से हिलती हुई लटों के कोमल स्पर्श से उसका सारा शरीर रह-रह कर काँप उठने लगा, साँस मानो कलेजे के पास रुक गई, बाहर निकलने की राह न मिली। महेंद्र झट-पट उठ बैठा। बोला - मेरी क्लास है। कॉलेज चलूँ!
कह कर वह विनोदिनी की तरफ ताके बिना खड़ा हो गया।
विनोदिनी बोली - परेशान न हो, कपड़े मैं ला देती हूँ।
जा कर वह महेंद्र के कॉलेज जाने के कपड़े ले आई।
महेंद्र जल्दी-जल्दी चला गया, लेकिन कॉलेज में मन न लगा। देर तक पढ़ने में जी लगाने की कोशिश की मगर बेकार। आखिर जल्दी ही घर लौट आया।
कमरे में दाखिल हुआ तो देखा, पेट के नीचे तकिया रखे जमीन पर बैठी विनोदिनी कोई किताब पढ़ रही है - घने काले बालों का ढेर उसकी पीठ पर बिखरा पड़ा है। महेंद्र के जूतों की आवाज शायद उसे सुनाई नहीं दी। पैर दबा कर महेंद्र उसके करीब जा खड़ा हुआ। पढ़ते-पढ़ते उसने विनोदिनी को एक दीर्घ-नि:श्वास छोड़ते हुए देखा।
महेंद्र ने कहा - अरी ओ करुणामयी, कल्पना की दुनिया के लिए हृदय की फिजूलखर्ची मत करो! पढ़ क्या रही हो?
घबरा कर विनोदिनी उठ बैठी। किताब अपने आँचल में छिपा ली। महेंद्र ने झपट कर छीनने की कोशिश की। देर तक हाथापाई, छीना-झपटी के बाद महेंद्र ने विनोदिनी से किताब छीन ली। देखा बंकिम बाबू की लिखी विषवृक्ष थी। जल्दी-जल्दी साँस लेती हुई गुस्से में मुँह फेर कर विनोदिनी चुप हो रही।
महेंद्र के कलेजे में बेहद उथल-पुथल मची थी। बड़ी कोशिश के बाद वह हँस कर बोला - जा, बेहद छका दिया। मैंने सोचा था, कुछ बड़ी ही गोपनीय चीज होगी और पहाड़ खोदने के बाद निकली क्या, चुहिया ही न! बंकिम बाबू का विषवृक्ष?
विनोदिनी बोली - मेरे पास भला क्या गोपनीय हो सकता है, सुनूँ तो जरा।
महेंद्र फट से कह उठा - कहीं बिहारी की चिट्ठी आई होती!
पल में विनोदिनी की निगाह से बिजली छिटक पड़ी। अब तक मानो कामदेव कमरे के कोने में खिलवाड़ कर रहा था - वह मानो दूसरी बार जलकर राख हो गया। जलती हुई एक लपट की तरह विनोदिनी लमहे भर में उठ खड़ी हुई। उसकी कलाई पकड़ कर महेंद्र ने कहा -माफ करो, मैंने मजाक किया था।
विनोदिनी ने तेजी से अपनी कलाई छुड़ा ली और कहा - मजाक आखिर किसका! उनसे मैत्री के योग्य होते, तो मैं मजाक सह लेती। तुम्हारा दिल बड़ा छोटा है - मैत्री करने की जुर्रत नहीं, फिर मजाक!
विनोदिनी चलने लगी। महेंद्र ने दोनों हाथों से उसके पैर थाम लिए।
ठीक इसी समय सामने एक छाया दिखी। महेंद्र ने चौंक कर उसके पैर छोड़ दिए। देखा, बिहारी खड़ा था।
बिहारी ने अपनी स्थिर दृष्टि से दोनों को जलाते हुए शांत और धीर स्वर से कहा - बड़े बे-मौके आ पहुँचा मैं। खैर! ज्यादा देर ठहरना नहीं है। एक बात कहनी थी। मैं काशी गया था। पता नहीं था कि भाभी वहाँ हैं। अनजाने उनके प्रति यह कसूर हो गया। उनसे माफी माँगने का अवसर नहीं है, सो तुमसे माँगने आया हूँ। जाने-अनजाने अगर कभी मेरे मन को कोई पाप छू गया हो, तो उसके लिए उन्हें भी कोई दु:ख न सहना पड़े, तुमसे यही मेरी विनती है।
अचानक बिहारी के सामने उसकी कमजोरी जाहिर हो गई, इससे महेंद्र का मन दहक उठा। अभी उदार बनने का मौका न था। वह जरा हँस कर बोला, एक कहावत है - ठाकुर घर में कौन? तो मैंने केला नहीं खाया। तुम्हारा ठीक वही हाल है। मैंने न तो तुम्हें दोष मानने को कहा, न इनकार करने को ही। फिर माफी माँग कर साधु बनने क्यों आए?
बिहारी कुछ देर खड़ा रहा। फिर जवाब देने की जोरदार कोशिश से उसके होंठ काँप उठे, तो विनोदिनी बोल पड़ी - बिहारी बाबू, तुम कोई जवाब मत दो - कुछ मत कहो! यह आदमी जो कुछ भी जबान पर लाया, वह उसी के मुँह का कलंक हो रहा है - वह कलंक तुम्हें नहीं छू पाया है।
जाने विनोदिनी का कहा बिहारी के कानों तक पहुँचा या नहीं - जैसे स्वप्न में चलता हो, वह वहाँ से सीढ़ियों पर हो कर नीचे उतरने लगा।
विनोदिनी पीछे लगी हुई गई। कहा - भाई साहब, मुझसे तुम्हें कुछ भी नहीं कहना है? झिड़कना हो तो झिड़को!
बिहारी फिर भी जब कुछ न बोला और आगे ही बढ़ने लगा तो विनोदिनी ने आगे आ कर दोनों हाथों से दाएँ हाथ को कस कर पकड़ लिया। बेहद नफरत से उसे झटक कर बिहारी चला गया। उसे यह भी न मालूम हुआ कि उस झटके से विनोदिनी गिर पड़ी। गिरने की आवाज सुन कर महेंद्र दौड़ा आया। विनोदिनी के बाएँ हाथ की कोहनी फूट गई थी। लहू बह रहा था।
महेंद्र बोला - उफ, काफी कट गया है! और अपने महीन कुरते से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ कर महेंद्र ने वहाँ पट्टी बाँध देनी चाही।
विनोदिनी ने झट अपना हाथ हटा लिया। कहा - ऊँहूँ, छोड़ दो। लहू बहने दो!
महेंद्र ने कहा - पट्टी बाँध कर एक दवा देता हूँ - दर्द जाता रहेगा, घाव जल्दी ठीक हो जाएगा।
विनोदिनी खिसक गई। बोली - मैं दर्द मिटाना नहीं चाहती - यह जख्म रहे।
महेंद्र ने कहा - आज बेताब हो कर दूसरे के सामने मैंने तुम्हारी हेठी की है, माफ कर सकोगी मुझे?
विनोदिनी बोली - माफी किस बात की? ठीक किया है। मैं क्या किसी से डरती हूँ? मैं किसी को नहीं मानती! जो मुझे धक्का दे कर गिरा जाते हैं, वही क्या अपने सब हैं और जो पैर पकड़ कर खींचते हुए रोक रखना चाहते हैं, वे कोई नहीं?
महेंद्र उन्मत्त-सा गदगद स्वर में बोला - विनोदिनी! तो मेरे प्रेम को तुम पैरों से ठुकराओगी नहीं?
विनोदिनी ने कहा - सिर-आँखों रखूँगी। जिन्दगी में मुझे इतना ज्यादा तो नहीं मिला कि मैं नहीं चाहिए कह कर लौटा दूँ।
महेंद्र ने फिर तो दोनों हाथों से उसके दोनों हाथ थाम कर कहा - तो फिर मेरे कमरे में चलो! आज मैंने तुम्हारा दिल दुखाया है - तुम भी मुझे चोट पहुँचा कर चली आई हो, यह मलाल जब तक मिट नहीं जाता, मुझे न खाने में चैन है, न सोने में।
विनोदिनी बोली - आज नहीं। आज छोड़ दो मुझे। अगर मैंने तकलीफ पहुँचाई हो तो माफ करना!
महेंद्र बोला - तुम भी माफ कर दो मुझे, वरना रात मैं सो नहीं सकूँगा।
विनोदिनी बोली - मैंने माफ कर दिया।
उसी दम विनोदिनी से प्यार और क्षमा का निदर्शन पाने के लिए महेंद्र व्यग्र हो उठा। लेकिन उसके मुँह की ओर नजर पड़ते ही वह ठिठक गया। विनोदिनी नीचे उतर गई और वह भी छत पर टहलने लगा। आज अचानक बिहारी के सामने उसकी चोरी पकड़ी गई, इससे उसके मन में मुक्ति की एक खुशी आई। चोरी-चुपके में एक घिनौनापन है, वह घिनौनापन मानो एक आदमी के पास प्रकट होने से बहुत हद तक जाता रहा। मन-ही-मन वह बोला - खुद को भला बता कर मैं अब यह झूठ नहीं चलाना चाहता- लेकिन मैं प्यार करता हूँ, प्यार करता हूँ - यह बात झूठी नहीं है। अपने प्रेम के गर्व से उसकी अकड़ इतनी बढ़ गई कि खुद को बुरा मानकर वह अकड़ में गर्व का अनुभव करने लगा। साँझ के सन्नाटे में मौन ज्योतिरिंगनों से भरे अनन्त संसार के प्रति एक अवज्ञा का भाव दिखाते हुए वह सोचने लगा - कोई चाहे मुझे कितना ही बुरा क्यों न कहे, लेकिन मैं प्यार करता हूँ। और विनोदिनी की मानस-मूर्ति ने सारे संसार, समूचे आकाश और और अपने सभी कर्तव्यों को छाप लिया। मानो बिहारी ने अचानक आकर आज उसके जीवन की स्याही-भरी सीलबन्द दावात उलटकर तोड़ दी - विनोदिनी की काली आँख और काले बालों ने देखते-ही-देखते फैलकर उसके पहले की सब लिखावट लीप-पोतकर बराबर कर दी।
दूसरे दिन सो कर उठते ही एक मीठे आवेग से महेंद्र का हृदय परिपूर्ण हो गया। प्रभात की सुनहली किरणों ने मानो उसकी सभी चिंता-वासना पर सोना फेर दिया। कितनी प्यारी है पृथ्वी, कितना अच्छा आकाश! फूल के पराग जैसी हवा मानो उसके मन को उड़ा ले जाने लगी।
सवेरे-सवेरे मृदंग-मजीरे लिए वैष्णव भिखारी ने गाना शुरू कर दिया था। दरबान उसे खदेड़ने लगा। महेंद्र ने दरबान को झिड़का और भिखारी को एक रुपया दे दिया। बैरा बत्ती ले कर लौट रहा था। लापरवाही से उसने बत्ती गिरा दी। चूर-चूर हो गई। महेंद्र को देख कर तो उसके प्राण कूच करने लगे। महेंद्र ने लेकिन डाँट नहीं बताई। कहा - वहाँ अच्छी तरह से झाडू लगा दे, किसी को काँच न चुभ जाए।
आज कोई नुकसान उसे नुकसान जैसा न लगा।
अब तक प्रेम पर्दे के पीछे नेपथ्य में छिपा बैठा था। अब सामने आ कर उसने परदा उठा दिया है। मानो सारे संसार पर से परदा उठा गया। रोज-रोज की देखी-सुनी दुनिया की सारी तुच्छता गायब हो गई। पेड़-पौधे, राह चलते लोग, शहर की चहल-पहल... आज सब-कुछ जैसे अनोखा हो! संसारव्यापी यह नवीनता अब तक आखिर थी कहाँ!
उसे लगने लगा, आज विनोदिनी से और दिनों - जैसा साधारण मिलन न होगा। आज सुबह से वह बेताब घूमता रहा - कॉलेज न जा सका। जाने मिलन की घड़ी अचानक कब आ जाए - यह तो किसी पत्र में लिखा नहीं।
घर के धंधों में जुटी विनोदिनी की आवाज कभी भंडार से, कभी रसोई से महेंद्र के कानों में पहुँचने लगी। आज यह उसे अच्छा न लगा। आज मन-ही-मन विनोदिनी को उसने संसार से बहुत दूर ले जा कर स्थापित किया था।
समय काटे नहीं कट रहा था। महेंद्र का खाना-पीना चुक गया। घर के काम-धंधों से छुट्टी हुई। दोपहर सुनसान हो गई। मगर विनोदिनी का पता नहीं। दु:ख और सुख, बेताबी और उम्मीद में महेंद्र के मन के सितार के सारे तार झनझनाने लगे।
कल जिसके लिए छीना-झपटी हुई थी, वह विषवृक्ष किताब फर्श पर पड़ी थी। उसे देखते ही छीना-झपटी की याद हो आई और महेंद्र के मन में पुलकन भरा आवेश जग गया। कल विनोदिनी ने जिस तकिए पर अपना सिर रखा था, उसे करीब खींच कर महेंद्र ने उस पर अपना माथा रखा। पड़ा-पड़ा विषवृक्ष के पन्ने पलटने लगा। जाने कब किताब में जी लग गया और कब पाँच बज गए, पता नहीं।