(8)
उसने आशा से फिर कहा - तुम्हारा यह भिखारी देवर मुझे इंगित करके तुमसे ही दुलार की भीख माँगने आया है- कुछ दे दो न, बहन!
आशा बहुत खीझ उठी।जरा देर के लिए बिहारी का चेहरा तमतमा उठा, दूसरे ही दम वह हँस कर बोला - दूसरे पर यों टाल देना ठीक नहीं है।
विनोदिनी समझ गई कि बिहारी सब बंटाधार करके आया है - इसके सामने हथियारबंद रहना जरूरी है। महेंद्र भी आजिज आ गया। बोला - बिहारी, तुम्हारे महेंद्र भैया किसी व्यापार में नहीं पड़ते, जो पास है, उसी से खुश हैं वे।
बिहारी - खुद न पड़ना चाहते हों चाहे, मगर किस्मत में लिखा होता है तो व्यापार की लहर बाहर से भी आ सकती है।
विनोदिनी - बहरहाल, आपका तो हाथ खाली है, फिर आपकी लहर किधर से आती है?
और व्यंग्य की हँसी हँस कर उसने आशा को दबाया। आशा कुढ़ कर चली गई। बिहारी मुँह की खा कर गुस्से में भी चुप रहा। वह जाने को तैयार हुआ, तो विनोदिनी बोल उठी - हताश हो कर न जाइए बिहारी बाबू, मैं आँख की किरकिरी को भेजे देती हूँ।
विनोदिनी के उठने से बैठक टूट गई। इससे महेंद्र मन-ही-मन नाराज हुआ। महेंद्र की नाराज शक्ल देख कर बिहारी का आवेग उमड़ आया।
बोला - महेंद्र भैया, अपना सत्यानाश करना चाहते हो, करो! तुम्हारी ऐसी ही आदत रही है। लेकिन जो सरल हृदय की साध्वी तुम्हारा विश्वास करके पनाह में है, उसका सत्यानाश तो न करो। अब भी कहता हूँ, ऐसा न करो!
कहते-कहते बिहारी का गला रुँध गया।
दबे क्रोध से महेंद्र ने कहा - बिहारी, तुम्हारी बात बिलकुल समझ में नहीं आती। बुझौअल रहने दो, साफ-साफ कहो।
बिहारी ने कहा - मैं दो टूक ही कहूँगा। विनोदिनी तुम्हें जान-बूझ कर पाप की ओर खींच रही है और तुम बिना समझे कदम बढ़ा रहे हो।
महेंद्र गरज उठा - सरासर झूठ है। तुम अगर भले घर की बहू-बेटी को गलत शुबहे की निगाह से देखते हो तो तुम्हारा घर के अंदर आना ठीक नहीं।
इतने में विनोदिनी एक थाली में मिठाइयाँ ले कर आई और बिहारी के सामने रखीं। बिहारी बोला - अरे, यह क्या! मुझे बिलकुल भूख नहीं।
विनोदिनी बोली - ऐसी क्या बात! मुँह मीठा करके ही जाना होगा।
बिहारी बोला - मेरी दरखास्त मंजूर हुई शायद? आदर-सत्कार शुरू हो गया?
विनोदिनी होठ दबा कर हँसी। कहा - आप जब देवर ठहरे, रिश्ते का जोर तो है। जहाँ दावा कर सकते हैं, वहाँ भीख क्या माँगना? आदर तो आप छीन कर ले सकते हैं। आप क्या कहते हैं, महेंद्र बाबू?
महेंद्र बाबू ने कोई टिप्पणी नहीं की।
विनोदिनी - बिहारी बाबू, आप शर्म से नहीं खा रहे हैं या नाराजगी से! किसी और को बुलाना पड़ेगा?
बिहारी - नहीं, जरूरत नहीं। जो मिला है, काफी है।
विनोदिनी - मजाक? आप से तो पार पाना मुश्किल है। मिठाई से भी मुँह बंद नहीं होता।
रात को आशा ने महेंद्र से बिहारी की शिकायत की। महेंद्र और दिन की तरह हँस कर टाल नहीं गया, बल्कि उसने साथ दिया। सुबह ही महेंद्र बिहारी के घर गया। बोला - बिहारी, लाख हो, विनोदिनी आखिर अपने घर की तो नहीं है। तुम सामने होते हो तो उसे कैसी झिड़क होती है।
बिहारी ने कहा - अच्छा! तब तो यह ठीक नहीं। उन्हें अगर एतराज है, तो मैं सामने न जाऊँगा।
महेंद्र निश्चिंत हुआ। यह अप्रिय काम इस आसानी से बन जाएगा वह सोच भी न सका था। बिहारी से वह डरता था।
वह उसी दिन महेंद्र के घर गया। बोला - विनोद भाभी, मुझे माफ कर दो!
विनोदिनी - कैसी माफी?
बिहारी - महेंद्र से मालूम हुआ, मैं यहाँ आ कर सामने होता हूँ, इसलिए आप नाराज हैं। इसलिए मैं माफी माँग कर रुखसत हो जाऊँगा।
विनोदिनी - ऐसा भी होता है भला! मैं तो आज हूँ, कल नहीं रहूँगी - मेरी वजह से आप क्यों रुखसत होंगे? इतना झमेला होगा, यह जानती होती तो मैं यहाँ न आती...। कह कर विनोदिनी मुँह मलिन किए बिना आँसू छिपाने को तेजी से चली गई।
बिहारी के मन में आया - झूठे संदेह पर मैंने नाहक ही विनोदिनी के मन को चोट पहुँचाई है।
उस दिन मानो मुश्किल में पड़ी राजलक्ष्मी महेंद्र के पास जा कर बोली - महेंद्र विपिन की बहू घर जाने के लिए उतावली हो गई है।
महेंद्र ने पूछा - क्यों, यहाँ उन्हें कोई तकलीफ है?
राजलक्ष्मी - तकलीफ नहीं, वह कहती है, मुझ-जैसी विधवा ज्यादा दिन दूसरे के घर रहेगी, तो लोग निंदा करेंगे।
महेंद्र क्षुब्ध हो कर बोला - तो यह पराया घर है!
बिहारी बैठा था। महेंद्र ने उसे खीझी निगाह से देखा।
बिहारी ने सोचा था, कल मैंने जो कुछ कहा, उसमें निंदा का आभास था - शायद उसी से विनोदिनी का जी दुखा।
पति-पत्नी दोनों विनोदिनी से रूठे रहे।
ये बोलीं - हमें पराया समझती हो, बहन!
वे बोले - इतने दिनों में हम पराए हो गए।
विनोदिनी ने कहा - हमें क्या तुम आजीवन पकड़े रहोगी?
महेंद्र बोला - ऐसी जुर्रत कहाँ!
आशा बोली - फिर ऐसे क्यों हमारे जी को चुराया तुमने?
उस दिन कुछ भी तय न हो सका। विनोदिनी बोली - नहीं बहन, बेकार है, दो दिनों के लिए ममता न बढ़ाना ही ठीक है।
कह कर अकुलाई हुई आँखों से उसने एक बार महेंद्र को देखा।
दूसरे दिन बिहारी ने आ कर कहा - विनोद भाभी, यह जाने की जिद क्यों? कोई कुसूर किया है - उसी की सजा?
मुँह फेर कर विनोदिनी बोली - कुसूर आप क्यों करने लगे, कुसूर है मेरी तकदीर का।
बिहारी - आप अगर चली जाएँ, तो मुझे यही लगता रहेगा कि मुझी से नाराज हो कर चली गईं आप।
करुण आँखों से विनती जाहिर करती हुई विनोदिनी ने बिहारी की ओर ताका। कहा - आप ही कहिए न, मेरा रहना उचित है?
बिहारी मुश्किल में पड़ गया। रहना उचित है, यह बात वह कैसे कहे?
बोला - ठीक है, आपको जाना तो पड़ेगा ही, लेकिन दो-चार दिन रुक कर जाएँ, तो क्या हर्ज है?
अपनी दोनों आँखें झुका कर विनोदिनी ने कहा - आप सब लोग रहने का आग्रह कर रहे हैं, आप लोगों की बात टाल कर जाना मेरे लिए मुश्किल है, मगर आप लोग गलती कर रहे हैं।
कहते-कहते उसकी बड़ी-बड़ी पलकों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें तेजी से ढुलकने लगीं।
बिहारी इन मौन आँसुओं से व्याकुल हो कर बोल उठा - महज इन कुछ दिनों में ही आपने सबको मोह लिया है, इसी से आपको कोई छोड़ना नहीं चाहता। अन्यथा न सोचें विनोद भाभी, ऐसी लक्ष्मी को चाह कर विदा भी कौन करेगा?
आशा घूँघट काढ़े एक कोने में बैठी थी। घूँघट सरका कर वह रह-रह कर आँखें पोंछने लगी।
आइंदा विनोदिनी ने जाने की बात न चलाई।
बीच में यह जो झमेला खड़ा हुआ, उसे एकबारगी चुका देने की नीयत से महेंद्र ने प्रस्ताव रखा कि अगले इतवार को दमदम के बगीचे में पिकनिक कर आएँ।
आशा बहुत खुश हो गई। लेकिन विनोदिनी राजी न हुई। उसके तैयार न होने से आशा और महेंद्र मायूस हो गए। उन्हें लगा, इन दिनों विनोदिनी न जाने क्यों दूर हट जाना चाहती है!
तीसरे पहर बिहारी आया। विनोदिनी बोली - जरा देखिए तो बिहारी बाबू महेंद्र बाबू दमदम जा रहे हैं पिकनिक के लिए। मैं नहीं जाना चाहती, तो सुबह से दोनों मुझसे रूठे हैं।
बिहारी बोला - नाराज होना उनका बेजा नहीं। आप साथ न गईं तो इनकी जो पिकनिक होगी, ईश्वर करे सातवें दुश्मन की भी वैसी न हो।
विनोदिनी - फिर आप भी चलिए न! आप चलें, तो मैं भी चलूँगी।
बिहारी - ठीक तो है। मगर बात यों है कि कर्म दरअसल कर्त्ता की इच्छा पर होता है। बाबू की क्या राय है।?
बिहारी के प्रति इस पक्षपात से मालिक और मालकिन, दोनों ही भीतर-भीतर कुढ़ गए। बिहारी को साथ ले चलने की बात से महेंद्र का आधा उत्साह जाता रहा। वह बिहारी को हर तरह से यह जता देने को आतुर था कि उसकी मौजूदगी विनोदिनी को कभी पसंद नहीं - लेकिन अब तो उसे छोड़ जाना असंभव होगा।
महेंद्र ने कहा - बेजा क्या है, अच्छा ही तो है। लेकिन बिहारी, तुम्हारा खास ऐब है कि जहाँ जाते हो, वहाँ कोई-न-कोई हंगामा मचाने से बाज नहीं आते। या तो वहाँ आस-पास के बच्चों की जमात जुटा लोगे या फिर गोरों से मार-पीट की नौबत। क्या कर बैठोगे क्या पता?
बिहारी महेंद्र की अनिच्छा को समझ गया। मन-ही-मन हँसा। बोला - दुनिया में यही तो मजा है। क्या से क्या हो जाए, कहाँ कौन-सा फसाद खड़ा हो जाए - पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता। तो विनोद भाभी, तड़के ही चल देना पड़ेगा। मैं समय से हाजिर हो जाऊँगा।
सामान और नौकरों के लिए एक थर्ड क्लास और उन लोगों के लिए एक सेकेण्ड क्लास की बग्घी लाई गई। खासा बड़ा एक पैक बक्स लिए बिहारी ठीक समय पर हाजिर हो गया।
महेंद्र ने कहा - अरे यह फिर क्या उठा लाए? नौकरों वाली गाड़ी में तो अब यह आएगा नहीं।
बिहारी बोला - आप परेशान न हों, मैं ठीक किए देता हूँ।
विनोदिनी और आशा गाड़ी पर सवार हुए। बिहारी का क्या करे, महेंद्र जरा आगा-पीछा करने लगा। बिहारी ने अपना सामान गाड़ी के ऊपर पटका और आप कोच-बक्स पर जा बैठा।
महेंद्र के जी में जी आया। वह सोच रहा था, जाने बिहारी अंदर ही बैठ जाएगा कि क्या करेगा!
विनोदिनी ने परेशान हो कर पूछा - गिर तो नहीं पड़ेंगे बिहारी बाबू?
बिहारी बोल उठा - आप फिक्र न करें, गिरना या बेहोश हो जाने की भूमिका नहीं।
जैसे ही गाड़ी खिसकी, महेंद्र ने कहा - न हो तो मैं ही ऊपर जाता हूँ, बिहारी अंदर आ जाए।
आशा ने जल्दी से उसकी चादर खींची। कहा - नहीं, तुम नहीं जा सकते।
विनोदिनी बोली - आपको आदत नहीं, क्या पता गिर-विर पड़ें।
जोश में आ कर महेंद्र ने कहा - गिर पडूँगा? हर्गिज नहीं।
और वह गाड़ी से बाहर निकलने का प्रयत्न करने लगा।
विनोदिनी - तोहमत आप बिहारी बाबू पर लगाते हैं, मगर हंगामा मचाने में बेजोड़ तो आप ही हैं।
महेंद्र ने जरा मुँह लटका कर कहा - अच्छा एक काम करें। मैं एक और गाड़ी ले कर चलता हूँ, बिहारी यहाँ आ जाए।
आशा ने कहा, तो मैं तुम्हारे ही साथ चलूँगी।
विनोदिनी बोली - और मैं तब गाड़ी में से कूद पडूँ? होते-होते झंझट आखिर निबट गया।
रास्ते भर महेंद्र बड़ा गंभीर रहा।
गाड़ी दमदम के बगीचे में पहुँच गई। नौकरों वाली गाड़ी बहुत पहले ही रवाना हुई थी, लेकिन अभी तक उसका पता न था।
शरत का सवेरा! बड़ा ही सुहाना। धूप निकल आई थी। ओस की बूँदें सूख चुकी थीं, पर निर्मल प्रकाश से पेड़-पौधे झिलमिला रहे थे। दीवार से लगी हरसिंगार की कतार थी। नीचे फूल बिछ गए थे। मह-मह खुशबू!
कलकत्ता की ईंट की ऊँची दीवार के घेरे में बाहर आ कर आशा वन की हिरनी-सी उमग उठी। विनोदिनी के साथ उसने ढेरों फूल बीने, पेड़ से शरीफे तोड़े और नीचे बैठ कर खाए। दोनों सखियों ने पोखर में देर तक स्नान किया। एक निरर्थक आनंद से इन दो नारियों ने पेड़ों की छाया और छिटकी किरणों, पोखर के पानी और कुंजों के फूल-पत्तों को पुलकित सचेतन कर दिया।
दोनों सखियाँ नहा आईं। देखा, नौकरों वाली गाड़ी अब भी नदारद है। महेंद्र बँगले के बरामदे में बिछी एक चौकी पर बैठा-बैठा उदास हो कर एक विलायती इश्तहार पढ़ रहा था।
विनोदिनी ने पूछा - और बिहारी बाबू?
संक्षेप में महेंद्र बोला - पता नहीं।
विनोदिनी - चलिए, उन्हें ढूँढ़े।
महेंद्र - आखिर उन्हें कोई चुरा कर तो ले नहीं जाएगा! ढूँढ़े बिना भी मिल जाएँगे।
विनोदिनी - मगर हो सकता है, आपकी फिक्र से वह बेहाल हो रहे हों। चल कर उन्हें दिलासा ही दे आएँ।
तालाब के किनारे बँधा हुआ विशाल बरगद था। उसी के चौंतरे पर बिहारी अपना पैक-बक्स खोल कर मिट्टी के तेल का चूल्हा जला कर पानी गरम कर रहा था। जैसे ही लोग पहुँचे, उसने सबको चौंतरे पर बिठा कर एक-एक प्याला गरम चाय और तश्तरी में दो-एक मिठाइयाँ दे कर उनकी खातिर की। विनोदिनी बार-बार कहने लगी - गनीमत है कि बिहारी बाबू सारा सरंजाम साथ ले आए हैं! वरना चाय न मिलती तो क्या हाल होता महेंद्र बाबू का।
चाय मिली, तो महेंद्र जी उठा। फिर भी बोला - यह सब बिहारी की ज्यादती है। आए हैं हजरत पिकनिक को और यहाँ भी बदस्तूर सारा इंतजाम उठा लाए हैं। इससे मजा नहीं रहता!