"फूल नहीं तोड़ेंगे हम"
-आनन्द विश्वास
14 नवम्बर, बाल दिवस, बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू का जन्म-दिवस, कबीर के स्कूल में बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। सभी छात्र बड़े उत्साह और उमंग के साथ इस दिवस को मनाते हैं।
स्कूल में इस दिन बच्चों के लिये भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। शिक्षक-गण एवं विद्यार्थियों द्वारा नेहरू जी के जीवन, दर्शन और अन्य प्रेरक-प्रसंगों की चर्चा की जाती है। विद्यार्थी चाचा नेहरू के विषय में अपने-अपने अनुभव और विचार बाल-सभा में रखते हैं।
खेल-कूद एवं चित्र-स्पर्धा का आयोजन भी किया जाता है इस दिन। प्रोत्साहन हेतु कुछ पुरस्कार भी दिये जाते हैं और इस बार तो चाचा नेहरू के जीवन-दर्शन पर आधारित एक प्रदर्शनी का भी आयोजन किया गया है।
स्कूल का कार्यक्रम शुरू होने में थोड़ा समय था अतः कबीर और उसके साथियों ने सोचा कि क्यों न कुछ देर के लिए बगीचे में घूमा जाय। सभी छात्रों के बीच आज की चर्चा का मुख्य विषय चाचा नेहरू जी ही थे।
किसी ने कहा-“चाचा नेहरू शान्ति-दूत थे, उन्होंने विश्व-शान्ति के लिये अनेक प्रयास किये। ‘भारत की खोज’ पुस्तक उन्हीं की लिखी हुई है।”
सरल ने कहा-“चाचा नेहरू ने ही हमें अंग्रेजों से आज़ादी दिलाई थी। पहले हमारा देश गुलाम था और आज हम आजाद हैं।”
गज़ल को बगीचे में गुलाब का फूल दिखाई दे गया, उसने कहा-“चाचा नेहरू को तो गुलाब का फूल बहुत ही पसन्द था वे हमेशा अपने कोट और जाकेट पर गुलाब का फूल लगा कर ही पहनते थे।”
और अचानक गज़ल के मन में विचार आया क्यों न एक गुलाब का फूल मैं भी अपने बालों में लगाऊँ? ऐसा विचार कर उसने एक गुलाब का फूल तोड़ लिया।
कबीर को यह अच्छा न लगा और कबीर को ही क्यों, उसके दूसरे साथियों को भी अच्छा न लगा। उसने गज़ल से पूछा-“तुमने गुलाब का फूल क्यों तोड़ा है?”
“मुझे अच्छा लगा मैंने तोड़ लिया, इसमें क्या?” गज़ल ने उत्तर दिया।
“क्या तुम्हें मालूम नहीं है यहाँ फूल तोड़ना मना है, फिर भी? और यहाँ ही क्यों, कहीं भी, कोई भी, फूल तोड़ना कोई अच्छी बात तो होती नहीं है।” कबीर की इस बात का समर्थन उसकी सहेली शीला और शालिनी ने भी किया।
“पर सब चलता है।” गज़ल ने बड़ी लापरवाही से उत्तर दिया।
“पर कानून और नियमों का पालन करना तो हमारा नैतिक कर्तव्य होता है। यह हमें नहीं भूलना चाहिये।” कबीर ने गज़ल को समझाते हुए कहा।
“अच्छा, फिर भी तुम इस फूल का क्या करोगी?” कबीर ने फिर पूछा।
“कुछ नहीं, बस यूँ ही, मैं अपने बालों में लगाऊँगी।” गज़ल ने इतराते हुये कहा।
“पर इस फूल को बालों में लगाने से तुम्हारी सुन्दरता में क्या फर्क पड़ेगा?” कबीर ने पूछा।
“तुम्हें क्या? इसे बालों में लगाने का फैशन है। सब कोई लगाते हैं, अपने को सुन्दर दिखने के लिये। मैं भी इसे अपने बालों में लगाऊँगी।” गज़ल ने उत्तर दिया।
“पर सुन्दर दिखने के लिए, तुमने तो सुन्दर हँसते खिलते फूल को डाली से तोड़कर उसकी हत्या ही कर डाली। अरे, तुम तो हत्यारी हो, तुम सुन्दर कैसे हो सकती हो?” कबीर ने घृणा और उपेक्षा के भाव से कहा।
“फूलों को तोड़ने से कोई हत्या थोड़े ना हो जाती है। ये कोई जानदार थोड़े ना होते हैं।” गज़ल ने दलील दी।
“हाँ, पेड़-पौधों में भी जीवन होता हैं और वे भी हमारी तरह ही श्वसन क्रिया भी करते हैं। हमारी तरह उनमें भी जान होती है। हमें कभी भी फूल नहीं तोड़ना चाहिये।” अनन्या ने कबीर की बात का समर्थन करते हुए कहा।
“अच्छा, बाबा चलो बस, अब मैं कभी भी फूल नहीं तोड़ूँगी।” गज़ल ने अपनी गलती स्वीकारते हुये कहा।
कबीर ने गज़ल को समझाते हुये कहा कि-“गुलाब सुन्दर होता है। यह सच है और मानव-मन उससे भी ज्यादा सुन्दर होता है। पर क्या हमें अपनी सुन्दरता बढ़ाने के लिये, हँसते-खिलते गुलाब को तोड़ कर, उसकी हत्या कर देनी चाहिये? फूल तो डाली पर ही हँसते-खिलते अच्छे लगते हैं, न कि बालों में।”
जरा सोचो, जिस प्रकार तुम गुलाब को तोड़ कर अपने बालों में लगा कर अपनी सुन्दरता में बृद्धि करना चाहते हो, ठीक उसी प्रकार यदि गुलाब भी तुमसे कहे कि आपके हाथ बहुत ही सुन्दर हैं। आप अपने हाथों को काट कर मुझे दे दो, मैं आपके सुन्दर हाथों को अपने काँटों के साथ लगा कर अपनी सुन्दरता में बृद्धि करना चाहता हूँ।
तो क्या तुम गुलाब को अपने हाथ काट कर देने के लिये सहर्ष तैयार हो जाओगे? नहीं, ना? और हरगिज़ नहीं। या फिर हाँ?
फिर जो व्यवहार तुम्हें पसन्द नहीं, वैसा व्यवहार तुम दूसरों के साथ क्यों करते हो? अगर तुम किसी से कुछ लेते हो तो उसे कुछ देने के लिये भी तो तुम्हें तैयार रहना चाहिए। व्यवहार तो यही होता है।
गज़ल को कबीर और उसके साथियों की बात पसन्द आई और उसने अपनी गलती को स्वीकार किया और फूल न तोड़ने का वचन भी दिया।
और इतनी ही देर में घण्टी बज गई, अतः कबीर और उसके सभी साथी अपनी-अपनी कक्षाओं में चले गये। कक्षा में हाजिरी ली गई और फिर सभी कक्षाएँ सभाखण्ड में एकत्रित हुईं, जहाँ प्रार्थना एवं भाषण आदि का कार्यक्रम था।
कबीर ने गज़ल को तो समझा दिया और शायद वह उसकी बात समझ भी गई और सहमत भी हो गई।
पर कबीर अपने आप को नहीं समझा पा रहा था। वह सोच रहा था कि मम्मी कहतीं हैं-“हमें फूल नहीं तोड़ना चाहिये।” पापा कहते हैं-“हमें फूल नहीं तोड़ना चाहिये।” मैडम कहती हैं-“हमें फूल नहीं तोड़ना चाहिये।” और मेरा मन भी कहता है,“हमें फूल नहीं तोड़ना चाहिये।”
तो फिर चाचा नेहरू हर रोज़ एक गुलाब का फूल तोड़ कर अपने कोट पर क्यों लगाते थे?
क्यों हर रोज़ गुलाब और फूलों की अनगिन मालाऐं मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारों में चढ़ाईं जातीं हैं? क्या ये फूलों की बलि नहीं है? भेंसों, बकरों, सुअर और भेड़ की बलि और फूलों की बलि में क्या कोई अन्तर है? जानदार तो फूल भी हैं।
और शायद इसीलिए हम भेंसों, बकरों, सुअर, भेड़ और फूलों की बलि का विरोध भी नहीं करते, क्योंकि हम एक शरीफ इन्सान हैं।
बाल-मन में उठा विचार, जो विद्वानो को भी सोचने को विवश कर दे। उसके मन में विचार आया कि भाषण देने के लिये जब उसका नम्बर आयेगा तो वह अपनी बात सभी के सामने जरूर रखेगा।
प्रार्थना के बाद विद्यार्थियों और शिक्षकों ने नेहरू जी के जीवन के आदर्शों पर प्रकाश डाला। उनकी अच्छी-अच्छी आदतों की चर्चा की। विद्यार्थियों को अनेक ज्ञान-वर्धक बातें तथा अनेक प्रेरक-प्रसंग बताए गए।
कबीर ने नेहरू जी के प्रेरणा-पुंज गुलाब के विषय में अपने विचार व्यक्त किये। उसने बताया कि चाचा नेहरू का प्रेरणा-पुंज गुलाब, मेरा भी प्रेरणा-पुंज है।
चाचा नेहरू अपने प्रेरणा-पुंज गुलाब को सदैव अपने पास में रखने पसन्द करते थे। डाल से तोड़कर, अपने कोट या जाकेट पर लगा कर। पर मैं तो चाहता हूँ कि मेरा प्रेरणा-पुंज गुलाब, सदैव डाल पर ही खिलखिलाता रहे, सदा मुस्कुराता रहे और उसे डाली से कोई भी न तोड़े।
गुलाब तो काँटों के बीच में ही खिलता हुआ अच्छा लगता है, विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष का दूसरा नाम ही तो गुलाब है। काँटों के बीच में रह कर, अपने आप की चिन्ता किये बिना, सदा मुस्कुराते रहना, तो अच्छे-अच्छों के वश की बात नहीं होती है।
हर परिस्थिति में, हर पल, हर घड़ी, हँसते रहना तो कोई गुलाब से सीखे। इसी दृढ़-संकल्प और आत्म-विश्वास के कारण ही तो गुलाब, मेरा प्रेरणा-पुंज है। जो सदैव मुझे संघर्ष-मय जीवन जीने की प्रेरणा देता रहता है।
यदि हम वास्तव में गुलाब और उसके संघर्ष को सही सम्मान देना चाहते हैं तो हमें चाहिये कि हम कम से कम एक-एक गुलाब का पौधा अवश्य ही लगायें और गुलाब को या किसी भी फूल को कभी भी न तोड़ने का संकल्प भी लें।
गुलाब के फूल को डाली से तोड़ लेना, किसी को भेंट कर देना, खुद उसका उपयोग करना या फिर फूलों की बनी अनगिन मालाओं को मन्दिर, मस्जिद और गुरुद्वारों में चढ़ा देना, क्या ये फूलों की बलि नहीं है? जानदार तो फूल भी होते हैं।
क्या हमें भेंसों, बकरों और फूलों की बलि का विरोध नहीं करना चाहिए? बलि तो बलि ही होती है, भेंसों, बकरों और फूल में फर्क ही क्या है। जीव-हत्या तो होती ही है।
और सच में तो आज हमें संकल्प लेना चाहिए कि हम कभी भी फूल नहीं तोड़ेंगे और कम से कम एक-एक गुलाब का पौधा तो अवश्य ही लगायेंगे।
बाल-दिवस का मनाना तभी सफल होगा जब सभी ओर खिलते हुये गुलाब के फूल हमें संघर्षों में आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहेंगे।
कबीर के प्रभावशाली विचार ने सभी को सोचने के लिये विवश कर दिया। कुछ ने तो कबीर के वक्तव्य को चाचा नेहरू की आलोचना की संज्ञा दी। पर मौलिक विचार ने विद्वानों को सोचने के लिये विवश तो कर ही दिया।
प्राचार्या आरती मैडम, कबीर के विचार और राय से प्रभावित हुये बगैर न रह सकीं। उन्होंने कबीर के परामर्श को सही और सकारात्मक बताया और घोषणा की कि अब से हर बर्ष बाल-दिवस के अवसर पर स्कूल के द्वारा एक सौ एक गुलाब के पोधे लगाये जाया करेंगे और सभी विद्यार्थियों से संकल्प करवाया गया कि हम भविष्य में कभी भी कोई भी फूल नहीं तोड़ेंगे।
प्राचार्या आरती मैडम ने कबीर के मौलिक विचारों की खूब-खूब प्रशंसा की और सभी विद्यार्थियों और शिक्षकों ने स्कूल के द्वारा लिये गये निर्णय का स्वागत किया और सब ने मिल कर एक ही स्वर में कहा-“फूल नहीं तोड़ेंगे हम।”
-आनन्द विश्वास