Agnija - 10 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 10

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अग्निजा - 10

प्रकरण 10

सुबह से ही शांति बहन और रणछोड़ दास आपस में कुछ फुसफुसा रहे थे। रविवार को सुबह चाय जरा देर में बनती थी। जैसे ही यशोदा चाय लेकर आई, वैसे ही दोनों एकदम चुप हो गए। रणछोड़ दास ने कठोर आवाज में पूछा, “चाय देने आई हो, या बातें सुनने?” यशोदा वहां से चुपचाप निकल गई। नाश्ते के थेपले लेकर केतकी को भेजा तो शांति बहन ने उसके हाथों से प्लेट छीन ली। रणछोड़ दास ने उसका हाथ खींचा, “जिस समय मैं घर में रहूं मेरे सामने आना नहीं। कितनी बार तुझे बताया है, चल निकल यहां से। ” केतकी वहां से भाग गई। मां के पास जाने की बजाय बाहर सीढ़ियों पर बैठकर रोने लगी। उसी समय जयश्री बाहर से खेलकर लौटी। उसने सीढ़ियों पर बैठकर रो रही केतकी को देखा और अंदर आकर अपनी दादी को बताया. “वो कबसे सीढ़ी पर बैठकर लोगों को देख रही है।” शांति बहन रसोई घर में गईं और उन्होंने पानी का लोटा लिया और वहीं जमीन पर पानी गिरा दिया। उसके बाद आवाज लगाई, “केतकी”. वह बेचारी आवाज सुनकर डर गई और भागकर आई, “यह देख, ये गिरा हुआ पानी पोंछ डाल। उसके बाद पूरे घर में पोछा मार देना। रविवार को आराम से खाते नहीं बैठना चाहिए। दो काम करोगी तो खाया-पिया पचेगा भी और हमारा खर्च भी वसूल होगा। ” केतकी चुपचाप काम करने लगी। केतकी की स्थिति तो गुलामों से भी बदतर हो गई थी। उसके मत्थे घर के इतने काम टिका दिए गए थे कि यदि वह सुबह से लेकर रात तक काम करती रहे, तो भी  काम खत्म नहीं होने वाले। छोटा सी जान जैसे-तैसे स्कूल जाने लगी थी। स्कूल में भी उसे बचे हुए कामों की याद आती थी। बीच की छुट्टी में सभी बच्चे खेलते-कूदते, मौज-मस्ती करते थे, खाते-पीते थे लेकिन केतकी भागकर पांच मिनट में घर आती। दो मिनट भी बिना रुके घर के काम करती। कभी पूरे घर को पोछा मारती, कभी बरतन मांजती तो कभी कपड़े सुखाने लगती। काम निपटाकर फिर सरपट भागकर स्कूल पहुंच जाती। वास्तव में उससे ये सब होता नहीं था। उसके छोटे से शरीर और मन पर भी बड़ा अत्याचार हो रहा था, लेकिन वह कुछ बोल नहीं सकती थी। क्योंकि कहीं उसकी वजह से मां को मार पड़ गई तो? और यशोदा भी कुछ नहीं बोलती थी क्योंकि यदि वह कुछ बोली और केतकी को बेल्ट से मार पड़ने लगी तो?

इन्हीं विचारों में खोई यशोदा बड़ी देर से रसोई घर में सब्जियां चुनते हुए बैठी थी। शांति बहन ने आकर देखा तो उसके ध्यान में आया कि वह उंधियू बनाने की तैयारी कर रही है। शांतिबहन को आश्चर्य हुआ कि रणछोड़ दास को उंधियू बहुत पसंद है, ये इसे कैसे पता चला? उस पर से यदि उंधियू स्वादिष्ट न गया तो वह इस पर खुश हो जाएगा। पुरुष के दिल तक पहुंचने का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है, यह बात इस औरत ने कहीं पढ़ी हो, इसकी तो संभावना कम ही थी लेकिन इतना तो तय है कि यह औरत बड़ी पहुंची हुई थी। मन में कोई विचार बनाकर वह रणछोड़ दास के पास आकर बैठ गईं। और धीरे से बड़बड़ाना शुरू कर दिया, “महंगाई कितनी बढ़ गई है, और तेरे तकलीफ मुझसे देखी नहीं जाती। हमारे समय में तो सुबह-शाम सब्जी-रोटी पकाई जाती थी। उसमें से भी बच जाए तो सुबह नाश्ते में भी खा ली जाती थी। लेकिन आजकल भला कौन इस तरह की कटौती करता है? किसी को भी कष्ट नहीं उठाना है। बाप का पैसा थोड़े ही लग रहा है, फिर मनाओ रोज दिवाली। लेकिन किसके दम पर हो रहा है ये सब?” “क्या हुआ?” शांति बहन बड़बड़ाती ही रही, “कुछ नहीं, तुम भला क्यों बिना कारण परेशान होते हो? मुझ मुई से देखने के बाद रहा नहीं जाता इसलिए...” रणछोड़ दास को चिढ़ गया, “साफ-साफ बोलो।” शांति बहन ने झूठ बोलना शुरू किया, “वो कलमुंही...बोली...आई, नाना के घर के समान उंधियू बनाओ न...तो सेठानी बिना किसी से पूछे रसोई घर में सुबह से तैयारी में जुटी हुई है।” रणछोड़ दास गुस्से में उठ खड़ा हुआ। शांति बहन ने उसे रोक लिया और धीरे से उसके कान में कुछ कहा। रणछोड़ दास मुट्ठियां भींचते हुए फिर से बैठ गया। 

दोपहर को रणछोड़ दास, जयश्री और शांति बहन खाना खाने के लिए बैठे। यशोदा ने सबकी थालियां लगाईं। उंधियू के साथ तली हुई मिर्ची, लहसुन की चटनी और छाछ। बाजरे की रोटी भी तैयार थी। अब बस गरमागरम रोटियां बनानी बाकी थीं। उसने रसोई घर में केतकी को साथ लिया। यशोदा फटाफट रोटियां सेंक रही थी। रोटियों पर घी की धार छोड़कर केतकी के हाथो में दे रही थी और केतकी उन रोटियों को भागकर बाहर खाना खाने बैठे तीनों लोगों को परोस रही थी। 

तीनों ने खूब मजे से खाना खाया। बाकी दिनों से चार कौर ज्यादा ही खाए। डकार दी। रणछोड़ दास पहली बार यशोदा पर खुश हुआ था। लेकिन उसी समय शांति बहन से उसे इशारा किया। रणछोड़ दास ने यशोदा को आवाज लगाई। शादी होने के बाद पहली बार ही राहत महसूस हो रही थी। “चलो, कम से कम आज तो वो खुश हुए मालूम पड़ते हैं।” शाबाशी, दो मीठे शब्द या तारीफ की अपेक्षा लेकर यशोदा बाहर आई। लेकिन रणछोड़ दास उसकी तरफ निर्विकार चेहरे से देखता रहा। फिर चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लाकर अपना दायां हाथ बड़े प्रेम से यशोदा के गाल पर रखा। यशोदा को भरोसा ही नहीं हो रहा था। केतकी को भी नहीं। तभी अचानक रणछोड़ दास ने बायां हाथ उठाकर केतकी के गाल पर जोरदार थप्पड़ मार दिया। फिर दोनों हाथों से उसके गालों पर थप्पड़ बरसाने लगा। “महंगाई का कुछ होश है? पैसे क्या तेरे बाप के घर से आते हैं या तेरा पति छोड़कर गया है? साली...रां...उंधियू पर इतना खर्च किया... इतने खर्च में पंद्रह दिनों की सब्जी-भाजी आ गई होती। और क्यों बनाया उंधियू, इस हरामी लड़की के लिए न? साली दोनों मेरे मत्थे पड़ गई हैं।” रणछोड़ दास के तन-बदन में आग लग गई। उसके शरीर में कोई जंगली जानवर प्रवेश कर गया था, इसी तरह से वह यशोदा को मारने लगा। हाथों से, पैरों से...गला दबाने का प्रयास किया। डरी हुई केतकी से रहा नहीं गया। वो यशोदा और रणछोड़ दास के बीच में जाकर खड़ी हो गई। किसी राक्षस को, पिशाच को या हैवान को भी उस पर दया आ गई होती। अचानक केतकी ने रणछोड़ दास के पैर पकड़ लिए। इस कारण उसका गुस्सा और भी बढ़ गया। “ तू...तू....तुमने मुझे क्यों छुआ? सारे पाप की जड़ तू ही है...सारी झंझटों का घर तू ही है। दूसरे का बच्चा मेरे माथे मार दिया। खूब संभाल लिया तुझे...खूब...अब और नहीं...” 

इतना कहकर रणछोड़ दास ने केतकी को जोरदार लात जमाई। केतकी दूर जाकर गिरी। उसका सिर जमीन पर पटका गया। उसके सिर से खून निकलने लगा। जैसे बेसुध होकर गिर गई हो, उसके मुंह से एक भी शब्द बाहर नहीं निकला। खुद पर हुए अत्याचार और केतकी के साथ जानवरों जैसा बर्ताव देखकर यशोदा लंगड़ाती हुई तेजी से केतकी के पास गई। “केतकी...केतकी ...बेटी...मेरी ओर देखो...केतकी।” यशोदा की आवाज बढ़ती गई। उसने रणछोड़ दास और शांति बहन की ओर देखा। दोनों कुछ बोले बिना ही वहां से निकल गए। परंतु रणछोड़ फिर से लौटा। यशोदा के पास ठहर कर बोला, “ध्यान देकर सुन ले...आखिरी बार बता रहा हूं...किसी दिन मैं इसे मार डालूंगा या कहीं बहुत दूर होस्टल में छोड़ दूंगा फिर तुम उसका मुंह भी नहीं देख पाओगी। समझ गई? ”

इतना कहकर रणछोड़ दास बाहर गया। आगे निकल चुकी शांति बहन के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी, वह यशोदा को दिखाई ही नहीं पड़ी। उसी समय जयश्री ने कहा, “दादी, मैं शाम को भी यही सब्जी खाऊंगी, ठीक है!!” शांति बहन हंसकर बोलीं, “ हां, हां, जरूर खाना...मौज मनाओ...बहुत सारी बचेगी। शाम को सभी को वही खानी है।” यशोदा भागकर पानी का गिलास ले आई और केतकी के चेहरे पर पानी के छींटे मारे। उसे पानी पिलाने का प्रयास किया। “हे भगवान, हे महादेव, मेरी बेटी को बचाओ...ये तुम्हारी केतकी है...तेरी..इसकी रक्षा करो...” 

यशोदा रोने लगी और केतकी ने हलचल की। यह देखकर यशोदा ने उसे अपनी छाती से चिपकाया। उसे राहत महसूस हुई लेकिन तभी उसे रणछोड़ दास के शब्द याद आ गए, “किसी दिन मैं इसे मार डालूंगा या कहीं बहुत दूर होस्टल में छोड़ दूंगा फिर तुम उसका मुंह भी नहीं देख पाओगी। ”

यशोदा चीखकर बोली, “नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूंगी।” उसने केतकी को गोद में उठाया। जैसे-जैसे घर के दरवाजे तक पहुंची और दरवाजे के बाहर निकलते ही ऐसे भागने लगी मानो कोई नरभक्षी बाघ उसके पीछे पड़ा हो...

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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