Agnija - 7 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 7

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अग्निजा - 7

प्रकरण 7

और सच में, बिना समय गंवाए तीन साल की केतकी को उसके नए पिता मिल गए, तो चार साल की जयश्री को नई मां मिली। यशोदा को नया पति मिला लेकिन पहले पति की तरह वह स्नेही नहीं था। यशोदा को इसकी अपेक्षा भी नहीं थी। सच्चा प्रेम और खरा और अच्छा व्यक्ति किसी भाग्यवान को ही इतनी आसानी से प्राप्त होता है। और जीवन में बार-बार ऐसा संयोग तो नहीं ही बनता। शांतिबहन पोते की राह देखने लगी। इस घर में केतकी को कोई पसंद नहीं करता, यह बात यशोदा को जल्दी ही समझ में आ गई थी। रणछोड़ दास काम की जल्दबाजी और व्यस्तता का बहाना करके केतकी की ओर नहीं देखता था। जयश्री तो केतकी से थोड़ी ही बड़ी थीस लेकिन छोटी केतकी के खिलौने, गुड़िया तोड़ती, फेंक देती थी। कभी उसके हाथ की मिठाई छीन लेती, तो कभी उसको दो-चार तमाचे जड़ देती थी। उसका यह व्यवहार छोटी उम्र के कारण चल जाता था, उसे कोई कुछ नहीं बोलता था। शांति बहन तो केतकी की ओर इस तरह से देखती थी कि चबा जाएं या निगल लें। लगातार बड़बड़ाती रहती, “यह साढ़े साती हमारे घर में कहां से आ गई, कौन जाने।” सही कहें तो पहली मुलाकात में ही यशोदा ने रणछोड़ दास को साफ-साफ बता दिया था कि उसे दोबारा शादी करने में बिलकुल भी रुचि नहीं है लेकिन केतकी के भविष्य के सुख को ध्यान में रखते हुए और परिवार वालों के जोर देने पर वह इसके लिए राजी हुई है। उस समय रणछोड़ दास ने कुछ देर विचार करते हुए कहा था, “आपका कहना सही है, मैं भी जयश्री का विचार करते हुए और मां की जिद के सामने झुक कर यहां आया हूं। मां की बात मैं टाल नहीं सकता।”

लेकिन, जयश्री के लिए दूसरी शादी कर रहे हैं, शांति बहन और रणछोड़ दास का यह कहना, दिखावा ही था। वास्तव में तो उन दोनों को घर में एक बेटा चाहिए था। घर का कुलदीपक। वंश के लिए वारिस की आवश्यकता थी। लेकिन उनके झूठमूठ के मधुर व्यवहार के कारण लखीमां और जयसुख चाचा को असली बात समझ में नहीं आई और यह रिश्ता उन्हें ठीक लगा। प्रभुदास बापू अवश्य सोच में पड़ गए थे। जयसुख ने उनसे पूछा तो तब वह केवल इतना ही बोले, “जैसी भोलेनाथ की इच्छा।”और इतना ही कहकर वह केतकी को लेकर भोलेनाथ के मंदिर की ओर निकल गए।

शांति बहन, कानजी चाचा और रणछोड़ दास ने अधिक समय न गंवाते हुए जल्दी ही शादी करने के लिए मजबूर कर दिया। इसके लिए उन्होंने कई कारण बताए, “जयश्री ठीक से खाती-पीती नहीं, रोती रहती है, शांति बहन की बड़ी बहन बहुत बीमार रहती है, इसलिए उन्हें उनके पास बार-बार जाना पड़ता है। रणछोड़ दास को भी बाहर खाना पड़ता है, इस कारण उसकी तबीयत बिगड़ जाती है।”

कानजी चाचा ने तो एक तरह से धमकी ही दे दी थी, “आपकी इच्छा न हो तो हमारे पास एक दूसरा रिश्ता भी है। वे लोग तो राह ही देख रहे हैं। उस जगह तो बच्चे भी नहीं हैं। अमीर हैं, लेकिन मुझ बिचारे को ऐसा लगा कि यदि आपकी यशोदा और उसकी बेटी यदि इस रिश्ते से सुखी होती हो तो पहले उसका ही विचार करना चाहिए। तो अब आपका क्या कहना है?”

जयसुख चाचा ने लखीमां की ओर देखा। दोनों सहमत हो गए। लेकिन, यशोदा से किसी ने पूछा ही नहीं। 

शादी एक मंदिर में एकदम साधारण विधि के साथ संपन्न हुई। यशोदा को ससुराल भेजते समय प्रभुदास बापू और केतकी-दोनों ही इस तरह रो रहे थे मानो उनका सर्वस्व खो गया हो। वे बहुत दुःखी हुए। केतकी जाना नहीं चाहती थी। वह बार-बार प्रभुदास बापू की दौड़कर आ जाती थी। लगातार “नाना, नाना...” पुकार रही थी। यशोदा ने उसे अपनी ओर खींच लिया। केतकी बुक्का फाड़कर रोने लगी। यह देखकर यशोदा विवश हो गई। लखीमां भी केतकी को अपने सीने से लगाकर खड़ी रहीं। केतकी “नानी मुझे यहीं रहना है” की रट लगा रही थी। यह देखकर रणछोड़ दास बेचैन होने लगा। शांति बहन का तो मुंह टेढ़ा कर लिया। उन्होंने धीरे से जयश्री को चिकोटी काटी तो जयश्री जोर-जोर से रोने लगी। शांति बहन ने रोती हुई जयश्री को उठाया और उसे यशोदा के हाथों में जबरदस्ती सौंप दिया। ऐसे में यशोदा ने लाचार होकर केतकी को किनारे कर दिया। इस क्षण यशोदा के मन में शंका पैदा हुई कि कहीं केतकी उससे दूर तो नहीं हो जाएगी। उसने उसी समय दूसरे हाथ से केतकी को उठा लिया। जयश्री और केतकी-दोनों ही रो रही थीं। दोनों को अपने गले से लगाकर यशोदा भी रोने लगी। यह देखकर लखीमां को थोड़ी निश्चिंतता हुई। “मेरी यशोदा परायों को भी अपना बनाने वाली है।” शांतिबहन ने लेकिन उसी समय अपने होठ पर दांत पीसकर मन में निश्चय कर लिया था कि अपनी जयश्री के हिस्से की कोई चीज इस लड़की को हासिल नहीं होने दूंगी। 

जयसुख को लगा कि अब उसकी लाड़ली भतीजी सुख-सौभाग्य में जीएगी। लेकिन यशोदा को बिदा करने के बाद जब सभी लोग निकल गए, तो प्रभुदास बापू के चेहरे से रौनक ही उड़ गई। ऐसा लग रहा था मानो शरीर से प्राण निकल गए हों। वह एक जगह पर सुन्न होकर बैठ गए। किसी से बात नहीं की, कुछ खाया भी नहीं। मंदिर में नहीं गए। जयसुख ने एक जत्रा में केतकी का फोटो खींचा था, वह उसी फोटो के ऊपर हाथ फेरते बैठे रहे। कितनी ही बार दोहराते रहे, “मुझे माफ कर दो बेटा, तुम बहुत छोटी हो इसलिए मैं तुम्हें कुछ भी बता नहीं सकता था, कुछ समझा भी नहीं सकता था। भगवान शंकर के इस प्रिय फूल के पास बहुत सारे काले, विषैले सांप भी हो सकते हैं, अपना ध्यान रखना, यह भी समझा पाने का अवसर मुझे नहीं मिल पाया। अब भगवान भोलेनाथ जो करें, वही सही।”

सभी लोगों ने खूब समझाया, लेकिन प्रभुदास बापू उसी जगह पर रजाई ओढ़कर सो गए। दिन में तो नींद आई ही कहां थी, पर उनकी तो उस रात की भी नींद उड़ गई थी। उस रात को केतकी भी नहीं सोई थी। रणछोड़ दास दोबार कमरे में देखकर चला गया। तीसरी बार जब अंदर आया तो उसने रोती हुई केतकी को यशोदा से छीन लिया और बाहर खड़ी शांति बहन के पास उसे रख दिया। वापस कमरे में आकर कमरे के दरवाजे की कुंडी भीतर से लगा ली। 

केतकी बाहर और यशोदा अंदर-दोनों ही मन ही मन रोती रहीं। रणछोड़ दास के शरीर का राक्षस दोन-तीन घंटे बाद शांत होकर सो गया, तो यशोदा दौड़कर बाहर गई। केतकी जमीन पर अकेले ही सोई हुई थी। वह नींद में भी हिचकियां भर रही थी। वह केतकी को उठाने ही वाली थी कि शांति बहन आ गईं, “रणछोड़ के पास जाओ। उसके पास समय बहुत कम होता है। रात के समय बीवी उसके पास होनी ही चाहिए। वह जाग जाए और नाराज हो जाए, इसके पहले पास जाकर सो जाओ...जाओ जल्दी भीतर जाओ। ”

“लेकिन, केतकी?”

“उसे क्या होगा? मस्त खा-पीकर खर्राटे भर रही है..जाओ जल्दी...” शांति बहन ने लगभग ढकेलकर ही यशोदा को भीतर भेजा। उसके बाद उन्होंने केतकी की ओर देखा, “खा-पीकर खर्राटे भर रही है...हुह ...भूखी ही सो गई...और तुम्हें तो भूखा ही मारना है...समझ गई न...आज से आदत डाल ले...” बड़बड़ाती हुए भीतर जाते समय शांतिबहन ने केतकी को धीरे से लात मार दी। तभी केतकी नींद से जागकर फिर से रोने लगी। यह देखकर शांतिबहन को पैशाचिक आनंद हुआ। “इस बोझ को जल्दी से जल्दी वापस भेजना होगा, तेरा बाप तेरे लिए यहां क्या छोड़ गया जो हम तुझे यहां खिलाएं-पिलाएं...वैसे भी जन्म लेते ही बाप को खा गई...ऐसी बदनसीब को मैं अपने घर में भला क्यों रखूं?”

इतना कहकर उसने केतकी को जोर-जोर से हिलाया। वह जोर-जोर से रोने लगी। शांतिबहन ने उठकर रणछोड़ दास के कमरे का दरवादा बाहर से भी बंद कर लिया। केतकी का रोना बढ़ता ही गया। उधर, प्रभुदास बापू चौंक कर जाग गए। उनके मुंह से अपने आप ये शब्द निकले, “केतकी...केतकी बेटा मत रोओ...चुप हो जाओ मेरी मां....हे भोलेनाथ।”  

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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