शहर के इस हिस्से में पानी की कोई कमी नहीं थी। छोटे छोटे कई सारे झील थे यहां। ये पुराना कुआं वैसे भी जर्जरता के आख़िरी चरम पर था। पास के ही मकान में, जो कि अब बस खंडहर में तब्दील होने ही वाला था, किसी समय में यहां एक बंगाली परिवार रहा करता था।
माँ, पिता और एक सात आठ वर्ष की उनकी बेटी, प्रज्ञा नाम था उसका। माँ और पिता की लाड़ली थी। कोई कमी नहीं थी इस परिवार को, संपन्नता से भरा था सबकुछ। लेकिन....तक़दीर भी आख़िर कोई चीज़ होती है। बात कोई बीस वर्ष पुरानी होगी, उस वक़्त ये कुआं खाली नहीं था, साफ़ शीतल, ठंडा पानी हमेशा ही कुएं में मौजूद होता था। उस दिन उस परिवार ने घर में सत्यनारायण भगवान की कथा रखवाई थी। बेटी प्रज्ञा पूजा पाठ से थोड़ी दूर ही रहती थी। उसकी इस आदत की वजह से माँ अक्सर उसे झिड़कती भी थी। उसे शायद कोई मानसिक बीमारी थी, जिसके लिए ये परिवार अक्सर किसी बड़े शहर में बेटी के इलाज़ के लिए जाता था।
ख़ैर उस दिन प्रज्ञा अपनी गुड़िया लिए घर से बाहर ही थी, घर में सत्यनारायण भगवान की पूजा बड़े विधिवत तरीक़े से हो रही थी। लाउडस्पीकर से पंडित जी के मंत्रों की उच्चारण की आवाज़ पूरे घाटी में गूंज रही थी। प्रज्ञा अगरबत्ती की ख़ुशबू को बर्दाश्त नहीं कर पाती थी, पता नहीं क्यों धूप की ख़ुशबू,मंत्रो का उच्चारण, दिए कि लौ और सिंदूर का लाल रंग ये सारी चीजें जब आपस में मिलती तो प्रज्ञा बैचेन हो जाती। माँ समझती थी इन सबके बीच प्रज्ञा का व्यवहार कठोर हो जाता। वो गुस्से में चीखने लगती।
इसलिए तो उस दिन उसे गुड़िया के साथ बाहर भेज दिया गया था। कुएं के तट पर बैठी प्रज्ञा अपनी गुड़िया से खेल रही थी, खेल खेल में ही उसकी गुड़िया शायद कुएं में जा गिरी थी। नासमझ प्रज्ञा गुड़िया के पीछे ख़ुद भी कुएं में चली गयी थी, चूँकि कुएं में अंदर जाने के लिए लोहे की सीढ़ीयां बनी थी, इसलिए उसे कुछ ख़ास दिक्कत नहीं हुई थी नीचे उतरने में। वो गुड़िया लेकर ऊपर आ रही थी जब उसका पैर फिसल गया और वो वापस कुएं में जा गिरी। बाहर निकलने के लिए बहुत हाथ पैर मारे उसने लेकिन लाउडस्पीकर की तेज़ आवाज़ में उसकी घुटी घुटी सी आवाज़ कहीं दबकर ही रह गयी। एक हँसता खेलता परिवार उजड़ गया।
पूजा के बाद जब प्रज्ञा की तलाश हुई तो पानी से फूली उसकी लाश कुएं में तैरती हुई मिली। माँ, पिता तो अपना होश ही खो बैठे थे। किसी तरह घाटी के लोगों ने मिलकर प्रज्ञा को बाहर निकाला और उसकी लाश को जला दिया गया। प्रज्ञा के कुएं में गिरते वक़्त उसके सर के कुछ बाल सीढ़ियों में फँसकर टूट गए थे। काश लोगों ने प्रज्ञा के साथ साथ उसकी गुड़िया को भी उस दिन कुएं से बाहर निकाल लिया होता....!!!!
कहते है एक शैतान जब किसी दूसरे शैतान से मिलता है, तब उसकी ताकतें भी दुगुनी हो जाती है। फ़िर ये दोनों बुरी शक्तियां मिलकर कायनात पर क़यामत बरसाने लगती है। शायद घाटी में ऐसा ही कुछ शुरू होने वाला था।
बर्मन विल्ला में उपस्थित एक-एक इंसान इस वक़्त आश्चर्य में था। कुणाल के आँखों में झूले की कील का गिरना और खून बहना तो उन्हें सामान्य ही लगा लेकिन इन सब के बाद भी बच्चे का ज़रा सा भी न रोना सामान्य तो नहीं था। खुसर फुसर शुरू हो गयी थी। लेकिन जैसा कि सभी जानते है रईसों के पीठ पीछे लोग कितनी ही "चुगलियां" कर ले लेकिन सामने से मिश्री ही बोलते है। ख़ैर नन्हें कुणाल की मुँह दिखाई की रस्म बहुत अच्छे से निपट गयी।
एक तरफ़ जहां जन्म की खुशियां मनाई जा रही थी, वही शहर के दूसरे कोने यानी घाटियों पर हर रात मौत का खौफ़ बरस रहा था। अब तो इस ख़ौफ़ को नया नाम भी मिल गया था "घिनु"...!!
दरसल कुछ दिनों पहले की घाटी का एक पालतू कुत्ता किसी तरह पगला कर मर गया था, अपने पागलपन के हालत में वो अक्सर लोगों को काट लेता था। उसी का नाम घिनु था। घाटी के लोगों को लग रहा था घिनु का प्रेत और भी खतरनाक तरीक़े से अब लोगों को काट रहा है। गन्ने के खेत में रघु को काटकर मारने के बाद भी उस "चीज़" ने या कहें घिनु ने और दो लोगों पर बुरी तरह हमला किया था। उसमें से एक बूढ़ी जो अंधेरी भोर में शौच के लिए निकली थी, वो तो घिनु के प्रकोप से मर ही गयी। सुबह होने तक तो उसके जिस्म के मांस ही गलकर खत्म हो गए थे। लोगों को हड्डियों का ढांचा ही मिला था सुबह, और कुछ बचे हुए टूटे दांत। दूसरा गाँव का ही एक किसान था जो अभी जिंदा तो था लेकिन बहुत ही बुरी हालत में। धीरे धीरे उसका शरीर भी ख़त्म होता जा रहा था। पता नहीं ये कौन सा दानव था, जो अचानक ही घाटी के भोले भाले लोगों में ज़हर फैला रहा था। फ़िलहाल तो घाटी के लोगों के लिए वो घिनु कुत्ते का प्रेत था। घाटी में झाड़फूंक वाले ढोंगी बाबाओं आना शुरू हो गया था। ये बातें जंगल में लगी आग की तरह ही तो फ़ैलती है। लेकिन इन बाबाओं को इस बार ज़रा भी अंदाजा नहीं था इस बार उनका पाला किस "चीज़" से पड़ा है।
वक़्त धीरे धीरे बीत रहा था। घाटी के लोग अब सावधान हो गए थे। उस आख़िरी किसान के तड़प तड़प कर मरने के बाद दुबारा कोई मौत अब तक नहीं हुई थी। लोग रात में घरों से बाहर निकलना बंद कर चुके थे। लेकिन सिर्फ़ इतना होने से ही तो सदियों पहले उपजा वो "श्राप" चुप नहीं बैठ सकता। वो तो साजिशें कर रहा था, एक शैतान की मदद से वो ताकतें बटोर रहा था। वो सिर्फ़ घाटी को ही नहीं पूरे शहर को बर्बाद करने की तैयारी में था।
कुएं के इर्द गिर्द इन दिनों बालों के गुच्छे कुछ ज़्यादा ही नज़र आते है। सालों से उलझे,फंसे हुए बालों के गुच्छे जिनमें से अजीब से छोटे छोटे कीड़े निकलते है, उड़ने वाले, काले लेकिन बेहद छोटे छोटे कीड़े। हालांकि इस ओर किसी का ध्यान अब तक नहीं गया था। अभी कल ही तो घाटी की एक औरत मोहनी उस कुएं वाले रास्ते से होकर बाज़ार से लौट रही थी, जब उसके झोले में बहुत सारे बालों के गुच्छे फंसकर उसके घर तक चले आये थे। घर आकर उसने रास्ते मे पड़ने वाले बंसी नाईं वाले को अनगिनत गालियां दे डाली थी। उसे लगा था ये हरक़त जरूर बंसी की होगी। उसी ने पीछे से उसके झोले में अपने सैलून से बालों के गुच्छे फेंके होंगे।
बेचारी बालों के गुच्छे तो देख पाई थी, लेकिन उनमें छुपे घिनौने काले कीड़े नहीं देख सकीं, जो धीरे धीरे उसके पूरे घर में अपने पंख पसार चुके थे। ना जाने इन कीड़ो का इस तरह घरों में डेरा डालने के पीछे कौन सा भयानक मक़सद होगा...?
क्रमशः_ Deva sonkar