Agnija - 1 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 1

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अग्निजा - 1

प्रफुल शाह

प्रकरण-1

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अरी यशोदा...इतना सुनते ही वह पीछे पलटकर देखती और उसके चेहरे से मुस्कान बिखरने लगती।

अरी ओ यशोदा.. ये शब्द कान पर पड़ते ही उसका सारा ध्यान आ रही आवाज की ओर लग जाता। उसे ये शब्द थोड़े भाते भी थे।

यशोदा दीदी...इस नाम को तीन बार पुकारे जाने के बावजूद, उसके दिमाग ने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। दरअसल, वह अपने इस असली नाम को सुनने की आदी नहीं थी। लेकिन, कम से कम इस समय तो वह अपना भूतकाल बिसरा कर अपने ही विचारों में खोई हुई थी। आने वाले शिशु के प्रेम में खोई हुई थी। यशोदा ईश्वर का धन्यवाद देते थक नहीं रही थी, “हे भगवान, तुमने मुझे अच्छे कपड़े, अच्छा खानपान, पढ़ाई और सुख-सुविधाएं नहीं दीं, उसका मुझे कोई दुःख नहीं है। लेकिन, देवतुल्य पति और उसके साथ-साथ अब गोद में खेलने वाला बच्चा... मैं तुम्हारे जितने उपकार मानूं, उतना ही कम होगा।”

अपने प्रिय भगवान से उसकी बातचीत चल ही रही थी कि अचानक उसकी नींद खुल गई। उसकी बूढ़ी सास झमकू उसका हाथ हिला रही थी, “करमजली, न जाने किन सपनों में खोई रहती है। ले, विभुतनाथ बाबा की यह भभूति ले। तीन बार ‘जय विभूतिनाथ बाबा’ कहकर पानी के साथ यह भभूति खा ले। मेरे आंगन में श्रीकृष्ण ही खेले.... ”

यशोदा को अपनी सास की यह बात कुछ अच्छी नहीं लगी, और उसे कुछ समझ में भी नहीं आया। बूढ़ी सास ने जो पानी का गिलास आगे बढ़ाया था, उसने वह अपने हाथ में ले लिया। झमकू ने पुड़िया खोली ही थी कि उसे जोर से छींक आई और भभूति हवा में उड़ गई। छींक निकल जाने के बाद झमकू यशोदा की ओर देखती ही रही, और फिर एकदम भड़क उठी, “मनहूस कहीं की, मन में बाबा पर शंका की होगी। चल, अब ये जमीन पर गिरी हुई भभूति चाट ले...नासपीटी। ”

झमकू ने यशोदा को खटिया से नीचे खींचा और उसके सिर को जमीन पर जोर से टिका दिया। यशोदा की आंखों में आंसू आ गए। ये आंसू पेट में उठने वाले दर्द के कारण था या अंधश्रद्धावश होने वाले अत्याचार के कारण, उस बिचारी को कुछ समझ में ही नहीं आया। भभूति की राख और आंखों के पानी को वह बिचारी कितनी ही देर तक कुत्ते-बिल्ली की तरह चाटती रही। बुढ़िया झमकू उसे वहीं पर छोड़कर निकल गई। इसके बाद यशोदा हिचकियां ले-लेकर रोने लगी. रोते-रोते वहीं सो भी गई।  

शाम को थक-हार कर जनार्दन आया। आते ही वह यशोदा के पास पहुंचा। उसके बाएं ओठ पर लगी हुई भभूति के दाग को उसने अपने हाथों से पोंछा और हंसते हुए उससे पूछा, “ये कैसा मेकअप करके बैठी हो?” यशोदा ने उसकी वह उंगली अपने मुंह में डाल ली। उंगली को अच्छे से चाटने बाद बोली, “अरे, ये तो बेटा होने के लिए प्रसाद था। अच्छा हुआ जो आपका ध्यान इस तरफ चला गया। ”

“ऐसा लगता है कि मां फिर से किसी बाबा को ग्यारह रुपए की दक्षिणा देकर आई है। लेकिन, यसो, मैं जो कह रहा हूं उसे ध्यान देकर सुनो। मुझे तो पहले लाड़ली, तुतला कर बोलने वाली छोटी-सी यशोदा ही चाहिए है...हां..उसके बाद तुम सास-बहू को मिलकर जो करना हो, करती रहो...  ”

यशोदा कुछ कह पाती, इसके पहले ही बूढ़ी झमकू दौड़ते हुए आ पहुंची। जनार्दन को देखते ही उसके पास गई। अपने हाथों में रखी हुई एक पुड़िया उसको भी दी, “जानते हो बाबाजी एकदम अंतर्यामी हैं...मैंने जैसे ही उन्हें यह बताया कि छींक से भभूति उड़ गई थी, तो वह तुरंत बोल उठे कि बहू ने मन में मेरी शक्ति पर संदेह किया होगा। जा अब कुछ नहीं हो सकता। हाथ-पांव जोड़कर उनके सामने अपना आंचल पसार दिया, तब कहीं जाकर बाबाजी का मन पिघला। पुड़िया देकर बोले जा इसे अपने बेटे को खिला देना। उससे कहना कि मन की इच्छा याद करके इस भभूति को खा ले। इसके बाद आधा घंटा कुछ भी खाना-पीना नहीं।” जनार्दन ने अपनी मां को निहारा। उसकी आस भरी आंखों को देखकर चुप ही रह गया। पुड़िया हाथों में ली, यशोदा की ओर देखकर धीरे से आंखों को मिचकाया। भभूति मुंह में डालते-डालते मन ही मन बोला, ‘यदि तुमने छोटी यशोदा दी, तो ही तुम पर विश्वास करूंगा। ’

झमकू, यशोदा की तरफ देखते हुए जोर से बोली, “देखा न, कैसे चुपचाप भभूति ले ली इसने? इसीलिए हम लोग चाहते हैं कि बेटा ही हो। लड़का चाहिए कहने वाला पूरा का पूरा गांव पागल थोड़े ही होता है... ” बड़बड़ाती हुई बुढ़िया वहां से निकलकर दूर बैठी और अपने हाथों में माला लेकर “बेटा देना भगवान...बेटा देना...” की रट लगाने लगी। 

यशोदा को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, बेटा हो या बेटी। जनार्दन को बेटी चाहिए थी, लेकिन सास झमकू को बेटा। और, बेटा-बेटी की परवाह न करने वाली यशोदा के मायके वाले बड़े उत्साह और उल्लास के साथ दिन गिनते जा रहे थे। 

प्रभुदास बापू जाने-माने वैद्य, प्रकांड पंडित और ज्योतिषाचार्य थे। उन्हें वैद्यकी-शास्त्र के बारे में सबकुछ पता था। लेकिन अपने परिवार के लोगों का भविष्य न देखने की शपथ ली थी। वह बहुत कम बोलते थे। प्रत्येक बात के बाद ‘भोलेनाथ की इच्छा’ ये वाक्य उनके मुंह से निकलता ही था। उनकी पत्नी का नाम था लक्ष्मी। लेकिन सभी उन्हें लक्ष्मीमां के नाम से ही पुकारते थे। दोनों का एक बेटा था-जयसुख। हां, बेटा ही कहना होगा। शायद बेटे से भी कहीं अधिक। वास्तव में तो वह प्रभुदास बापू का छोटा भाई ही था। लक्ष्मीआई से सारा गांव कहता था, “यह तो श्रवण कुमार है...श्रवण कुमार।” और, सचमुच जयसुख दोनों की श्रवण कुमार ही ही तरह सेवा करता था। उनकी किसी बात को टालता नहीं था। प्रभुदास के घर-परिवार में इस समय आनंद और उत्साह का वातावरण था। इकलौती बेटी के घर में नया मेहमान के आगमन की प्रतीक्षा थी। जयसुख ने अपनी क्षमता से आगे, उधार लेकर अपनी भतीजी के शिशु के स्वागत की तैयारियां कर रखी थीं। सास झमकू के लिए साड़ी, दामाद के लिए शर्ट-पैंट, भतीजी यशोदा के लिए जरीदार साड़ी, छोटी-सी सोने की चेन और बच्चे के लिए चांदी का झुनझुना, ग्यारह जोड़ी झबले। “सवा पांच किलो के बूंजी के लड्डू भी लगेंगे। ऐसा न हो कि ऐन समय पर वही भूल जाओ।” लक्ष्मीमां ने उसे याद दिलाया। प्रभुदास बापू के मुंह से उसी समय निकला, “भोलेनाथ की इच्छा।”

इधर बूढ़ी झमकू की भागदौड़ बढ़ गई थी। ये बाबा, वो बाबा, गंडे-ताबीज, पवित्र जल, मन्नतें बढ़ गईं थी। इधर जनार्दन के मन में भी छोटी-सी गुड़िया के साथ खेलने की इच्छी महंगाई की दर की भांति बढ़ती ही जा रही थी। यशोदा के पेट में बच्चा लातें मार रहा था, इससे उसे कष्ट की बजाय आनंद हो रहा था। 

जैसे-जैसे दिन भरते जा रहे थे, झमकू बुढ़िया यशोदा को आते-जाते टोकती जाती, “अरे नासपीटी, तू पानी मत भर... मेरे समय पर तो मैं आखरी समय तक पानी लाने नदी पर जा रही थी, लेकिन तुम जैसी आजकल की लड़कियां तो बड़ी नाजुक होती हैं। तुम आराम करो.. काम मैं कर लूंगी.. मेरे पोते को यदि भीतर कोई कष्ट हुआ तो याद रखना.... ”

लेकिन, पलस्तर उधड़ी दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी मन ही मन मुस्कुरा रही थी। और फिर वह घड़ी भी आ ही गयी। यशोदा को दर्द शुरू हो गया। झमकू भागकर दाई को ले आई। उसको बोली, “बेटा होने की खबर देना, फिर तुमको एक साड़ी, मिठाई और नकद 51 रुपए ईनाम में दूंगी।”

जनार्दन ने पहले से ही पड़ोस के लड़के को बता रखा था, उसी के अनुसार वह भी भागते हुए टेलीफोन बूथ पर गया और जनार्दन के ऑफिस में खबर दे आया कि जनार्दन को जल्द से जल्द घर भेज दें। 

इधर, यशोदा प्रसव पीड़ा से कराह रही थी उसी समय जनार्दन सीटी बजाते-बजाते अपनी साइकिल से घर आ रहा था। घंटी जोर-जोर से बजाते हुए वह साइकिल भगा रहा था। उसे घर पहुंचने की जल्दी थी। उसकी आंखों के सामने छोटी-सी परी दिखाई देने लगी थी। उसकी हाथों को बेटी की नर्म मुलायम उंगलियों का स्पर्श महसूस होने लगा था। वह आसमान की ओर टक लगाकर देख ही रहा था कि पीछे से एक जोरदार धक्के से उसकी साइकिल पलट गई। पीछे से आ रहे ट्रक को उसकी जल्दबाजी से अड़चन हो रही थी कि जनार्दन ही उसके सामने आ गया, ईश्वर जाने। वह गिरा और उसके सिर से खून का धार निकल पड़ी। उसकी बंद होती आंखों के सामने हंसती-मुस्कुराती छोटी-सी परी दिखाई पड़ रही थी, “एकदम मेरी यशोदा जैसी...वैसे ही लंबे-घने मुलायम रेशम जैसे काले-काले बाल....मेरी यशोदा जैसे ही”

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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