Mamta ki Pariksha - 41 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 41

Featured Books
Categories
Share

ममता की परीक्षा - 41



" बेटी, आज तुम्हारी माँ बहुत याद आ रही है। नन्हीं सी थीं तुम मात्र तीन साल की जब महामारी के प्रकोप की वजह से वह तुम्हें मुझे सौंपकर मुझसे हमेशा हमेशा के लिए बहुत दूर चली गई। तब से आज तक मैंने तुम्हें एक पिता का संबल ही नहीं एक माँ का प्यार और स्नेह देने का भी पूरा प्रयास किया है। कितना सफल हो सका हूँ इसका अहसास तो तुम्हें ही होगा बेटी।
आज अगर तुम्हारी माँ जिंदा होतीं तो यह बात वही पूछतीं जो मैं तुमसे पूछने जा रहा हूँ। इस वक्त तुम मुझे अपना बाबूजी समझकर नहीं अपनी माँ समझकर बात करो बेटा। तुम अच्छी तरह जानती हो कि मैंने तुम्हें कभी किसी बंधन में नहीं रखा। मेरे लिए तुम्हीं मेरी बेटी भी हो और तुम्हीं मेरा बेटा भी। इसके पीछे मेरी सोच ये है कि मैं लड़की और लडके में कोई फर्क नहीं समझता। लड़की या महिला भी उसी हाड मांस की बनी होती है जिससे लड़का या पुरुष ! उसके सीने में भी एक दिल होता है जो धड़कता भी है, सबसे ऊपर एक सिर होता है जिसमें दिमाग होता है और जो सोचता भी है। रगों में वैसे ही खून बहता है जैसे किसी लड़के की रगों में। किसी तरह के दुःख से उसकी भी आँखें नम होती हैं। सुख और दुःख का अहसास उसे भी होता है और सबसे बड़ी बात, बेटा हो या बेटी उसे पैदा करने में जब एक माँ को उतनी ही तकलीफ उठानी पड़ती है अर्थात कुदरत कोई भेदभाव कोई फर्क नहीं करती तो हम कौन होते हैं कुदरत की राह में रोड़े अटकाने वाले ? अपनी इसी सोच के चलते मैंने तुम्हारी परवरिश अपना बेटी नहीं बेटा समझकर की थी, लेकिन बेटा ! यह भी उतना ही सत्य है कि हम चाहे जितना आत्मनिर्भर हो जाएं, संपन्न हो जाएं, हम यह मान लें कि हमें किसी के सहारे की जरुरत नहीं लेकिन समाज की अहमियत और उसकी अदृश्य सत्ता से इंकार नहीं कर सकते। सामाजिक नियमों के खिलाफ नहीं जा सकते और इन्हीं सामाजिक नियमों के मुताबिक हर बाप को अपनी बेटी के हाथ पीले करने होते हैं। अब वह घडी आ गई है बेटा जब मैं भी यह बात सोचूँ !
बेटी, मैं जानता हूँ और मानता भी हूँ और साथ ही अपने खून पर और अपने दिए गए संस्कारों पर मुझे पूरा भरोसा है कि चाहे जान पर भी बन आये तुम मुझे और मेरे नाम को शर्मिंदा नहीं होने दोगी। मेरी ख़ुशी के लिए अपनी हजारों खुशियाँ कुर्बान कर दोगी, लेकिन बेटी ! मैं भी इतना खुदगर्ज नहीं हूँ। मुझे भी तुम्हारी पसंद नापसंद की उतनी ही परवाह है जितनी कि तुम्हें मेरी पसंद नापसंद की। इसीलिये मैं तुमसे तुम्हारी पसंद जानना चाहता हूँ। क्या तुम्हें गोपाल पसंद है ?"

कहने के बाद मास्टर ने साधना की तरफ गहरी नज़रों से देखा, कुछ इस तरह मानो उसके मन के भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहे हों लेकिन साधना तो कोई जवाब दिए बिना ही खाली हो चुके लोटे को लेकर तेजी से आंगन में चली गई।

मास्टर ने महसूस किया गोपाल का नाम सुनते ही उसका चेहरा कनपटियों तक सुर्ख हो गया था। गोरे चेहरे पर लाज और हया की लाली मास्टर की अनुभवी आँखों से छिपी नहीं रही।
एक गहरी साँस लेते हुए उनके अधरों पर भी मुस्कान फ़ैल गई। समीप ही बिछे खटिये पर बैठते हुए मास्टर ने मुस्कुरा कर गोपाल की तरफ देखा और उसे अपने पास बैठने का संकेत किया।
किसी आज्ञाकारी बालक की तरह उनके इशारे को समझकर गोपाल सामने की दूसरी खटिया उनके नजदीक खींचकर उसपर बैठ गया। साधना का बिना कुछ जवाब दिए चले जाना उसकी समझ में नहीं आ रहा था। उसका मन आशंकाओं से घिर गया। पता नहीं साधना क्या कहेगी ? उसने अभी जवाब क्यों नहीं दिया ? भागकर अंदर क्यों चली गई ? ओह, ...और अब पता नहीं बाबूजी क्या कहने वाले हैं ? उनसे बात करने के लिए वह खुद को मानसिक रूप से तैयार करते हुए उनकी तरफ आशाभरी निगाहों से देखने लगा।
मास्टर ने आंगन के बंद हो चुके दरवाजे की तरफ देखते हुए कहा, "बेटा, बधाई हो ! साधना की खामोशी में छिपी उसकी सहमति को मैं समझ गया हूँ। कभी कभी ख़ामोशी भी बहुत कुछ कह जाती है और अब मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों शीघ्रताशीघ्र समाज के सामने विवाह के बंधन में बंध जाओ और अपना नया जीवन शुरू करो।"

ख़ुशी से दमक उठा था चेहरा गोपाल का ! ख़ुशी के अतिरेक में वह एक झटके से उठा और मास्टर के कदमों में झुक गया। अपने दोनों बाजुओं से उसके दोनों कन्धों को पकड़कर उठाते हुए मास्टर ने उसके ऊपर आशीर्वादों की झड़ी लगा दी।
आशीर्वाद देते हुए ही अचानक मास्टर की आँखें भीग गईं और गला भर आया। उनकी भर्राई हुई आवाज सुनकर गोपाल हतप्रभ रह गया। अभी तो ईतने खुश होकर ढेर सारा आशीर्वाद दे रहे थे और फिर अचानक आँखों में आँसू ? कुछ समझ नहीं पा रहा था गोपाल सो ख़ामोशी से उनकी तरफ देखता रहा। कंधे पर रखे गमछे से अपनी भीगी पलकें साफ़ करते हुए मास्टर ने चेहरे पर मुस्कराहट लाने का प्रयास करते हुए बोला, "बेटा, साधना मेरे कलेजे का टुकड़ा है। गाँव में लाख अभाव सही लेकिन अपने प्यार की दौलत से मैंने उसे हमेशा मालामाल रखा है और मैं चाहता हूँ कि जीवन में सुख या दुःख जो भी मिले अच्छे बुरे दिन जो भी भगवान दिखाये उसे प्यार की दौलत से कभी महरूम न रखना। मेरी बेटी किसी भी तरह रह लेगी, हर चीज की कमी सह लेगी, लेकिन स्नेह और प्यार की कमी बरदाश्त नहीं कर पाएगी। बेटा ! मुझसे वादा करो, उसे हमेशा खुश रखोगे। उसका हमेशा ख्याल रखोगे।"

गोपाल ने हाथ जोड़कर अपनी मौन स्वीकृति दे दी और उसके मौन की भाषा समझते हुए मास्टर ने उसके कंधे पर हाथ रखकर पुनः उसे आशीर्वाद दिया।

कुछ पल की खामोशी के बाद गोपाल ने मास्टर से कहा, "बाबूजी ! बुरा न मानें तो मैं आपसे भविष्य को लेकर एक बात कहना चाहता हूँ।"
" हाँ, हाँ ! कहो ! क्या कहना चाहते हो ?" मास्टर ने उसे अपनी बात रखने की इजाजत दे दी।

"बाबूजी, मैं चाहता हूँ कि शादी के बाद साधना मेरे साथ शहर चले और मेरे घर रहे।" गोपाल ने अपने मन की बात कह दी।

" घर ? कौन सा घर ? वही जहाँ से मेरी बेटी को अपमानित करके बाहर कर दिया था ? और फिर वह घर तुम्हारा भी कहाँ रहा ? जिस घर में तुम्हें तुम्हारी मर्जी के साथ रहने नहीं दिया गया वह घर तुम्हारा कैसे ? बेटा ! घर बनता है उसमें रहनेवाले लोगों से और उनमें पनपे आपसी समझदारी और प्यार से। ईंट पत्थरों से तो मकानों की चारदिवारियां बनाई जाती हैं, घर नहीं ! नहीं बेटा, मैं तुम्हें फिर से अपनी बेटी के साथ ठोकरें खाने और अपमानित होने की इजाजत नहीं दे सकता। माफ़ करना बेटा ! मैं इस मामले में तुम्हारी कोई मदद नहीं कर पाऊँगा।" कुछ इसी तरह बेहद कड़े शब्दों में मास्टर ने अपना रोष व्यक्त किया।

गोपाल को कुछ नहीं सूझा तो लगे हाथ अपना स्पष्टीकरण दाग दिया ," कोई बात नहीं बाबूजी ! आप नहीं चाहते तो हम वहाँ नहीं जायेंगे, लेकिन शहर में हम अपना घर लेकर तो रह ही सकते हैं न ? मैं कोई छोटी मोटी नौकरी कर लूँगा। इतना तो कमा ही लूँगा कि हम दोनों सुख से रह सकें। साधना भी पढ़ी लिखी है। यदि वह चाहेगी तो वह भी कुछ काम कर लेगी। उसका भी जी लगा रहेगा। मुझे उसकी प्रतिभा पर पूरा भरोसा है।"

क्रमशः