तीन दिनों तक एन.आई.सी.यू में रहने के बाद "कुणाल बर्मन" एक अजीब से रिपोर्ट के साथ घर लौट रहा था। कुणाल बर्मन तीन दिनों पहले बरसात की एक झमझमाती रात में,एक समान्य से सरकारी अस्पताल में जिसका जन्म हुआ था अब अस्पताल के कागजों में उसका नाम कुणाल और पिता से मिला उपनाम बर्मन यानी कुणाल बर्मन दर्ज़ हो चुका था। उसके पिता एक बहुत बड़े बिज़नेस मेन थे लेकिन माँ गृहणी थी। शादी के लगभग चौदह वर्ष बाद इन्हें बच्चे को जन्म देने का सौभाग्य मिला था। कुणाल के पिता अखिलेश बर्मन बहुत अधिक पढ़े लिखें नहीं थे, डॉक्टरों की रिपोर्ट उन्हें कुछ ख़ास समझ नहीं आयी थी। वे बस इतना ही समझ पाये थे कि उनका लाड़ला बेटा आम बच्चों जैसा नहीं है, उनकी नज़र में वो "ख़ास" था। ठीक जैसे हजारों की संख्या में सैनिकों के साथ लड़ रहा अकेला राजा "ख़ास"होता है।
घर में उसके स्वागत की तैयारियां ज़ोरो पर थी। हो भी क्यों न करोड़ो की जायदाद का वो अकेला वारिस था। उसकी माँ सकुंतला देवी बार बार अपने लाड़ले की बलैयां लेती। इधर घर के कुछ पढ़े लिखे सदस्य उसकी रिपोर्ट को देखकर अच्छे खासे सदमे में थे। मतलब वो वाक़ई आम तो नहीं था।
डॉक्टरों का कहना था कि सामान्य मनुष्य को जब चोट लगती है तब एक तंत्रिका उसके दिमाग़ को ये सन्देश पहुचाती है, तब जाकर इंसान उस दर्द को महसूस कर पाता है, उसके बाद ही वो प्रतिक्रिया देता है। जैसे :- रोना या चिल्लाना। लेकिन कुणाल बर्मन के केस में उसकी वो तंत्रिका ही काम नहीं करती है, जो दिमाग़ तक ये संदेश पहुचाएं की उसे चोट लगी है। दर्द या बुरा लगना वो महसूस ही नहीं कर सकता। मतलब उसके घाव तो होंगे लेकिन वो उसके दर्द को समझ ही नहीं पायेगा। ये एक बेहद पेचीदा बीमारी है, जो बहुत ही कम लोगों को होती है। ये एक गम्भीर विषय है, जो आगे जाकर बहुत सारी मुश्किलों का बुलावा देती है। लेकिन अखिलेश बर्मन और उनकी पत्नी बेटे के जन्म की ख़ुशी में उसकी इस कमी को बड़ी आसानी से नजरअंदाज किये जा रहे थे। ख़ैर डॉक्टरों ने जरूर कुणाल की इस कमी को इंसानी भाषा मे किसी बीमारी का नाम देकर ख़ुद को और लोगों को समझा लिया था। लेकिन.....इसके पीछे की असल वजह क्या थी ये इंसानी सोच से ही परे था।
शहर का दूसरा कोना यानी घाटियों वाले हिस्से में इन दिनों कुछ अजीब सी अफवाहें फैल रही है। लोग रात में बाहर निकलने से डरने लगे है। हुआ यूं ही तीन दिनों पहले गन्ने के खेत का मालिक रघु आधी रात को अपने खेत की निगरानी करने गया था। अक्सर रात में पहाड़ी बंदर आकर खेत उजाड़ जाते थे। रघु लगभग हर दिन ही रात के दूसरे तीसरे पहर आकर खेतों को देख जाता। लेकिन उस दीन उसे कुछ अलग सा महसूस हो रहा था, खेतों के बीच से कोई अजीब सी गुर्राहट और एक बर्दाश्त न कर पाने वाली बदबू माहौल में फैली हुई थी। रघु हिम्मत कर आगे बढ़ा और वो "चीज़" उसे दिखा। रघु ने जैसे ही उसपर टोर्च मारी उसके जिस्म के सारे रौंगटे खड़े हो गए। वो आख़िर क्या था......? काली बिल्कुल काली आंखें किसी बन्दर की तरह शरीरीक बनावट लेकिन बिल्कुल अलग। शरीर का एक हिस्सा किसी पानी के जंतु की तरह तो दूसरा हिस्सा खुरदुरे बालों से भरा। मुँह से टपकता एक घिनौने लार जैसा कोई तरह पदार्थ, वो रोता तो उसकी आवाज़ जैसे कान के भीतर से सुइयां गुज़रने लगती। कितना अजीब था ये, ऐसा कोई जानवर तो उसने आज तक नहीं देखा।
वो वहां से भागने ही वाला था जब उसे एक गहरी,भारी आवाज़ सुनाई पड़ी। "मेरी मदद करो....मैं बेहिसाब दर्द में हूँ"। रघु को यकीन नहीं हुआ ये जानवर बोल भी सकता है। लेकिन डर और आश्चर्य ने उसे कुछ सोचने समझने का वक़्त नहीं दिया, वो वहीं गन्ने के खेतों में लाठी फेंककर घर की तरफ़ दौड़ पड़ा लेकिन इस से पहले की वो दस कदम भी दौड़ पाया कोई चीज़ बहुत तेज़ी से उसके नज़दीक से सरकते हुए रघु के आगे ही खड़ा हो गया।
अब रघु समझ गया था, ये वहीं बला थी जिसे अभी अभी पीछे छोड़कर वो यहाँ से भागना चाह रहा था। उसकी काली आँखों में अंधेरे में भी एक चमक थी और बदबू तो लगता जैसे पेट के सारे अनाज ही बाहर निकाल देगा। हड़बड़ाहट में रघु गन्ने के घने खेतों में ही जा घुसा और दौड़ने लगा। लेकिन तभी कोई उसके पीछे से उसके पीठ में झपट गया, और पूरे शरीर से फिसलते हुए उसके पैरों से लटक गया। थोड़ी ही देर में रघु दौड़ते दौड़ते अचानक गिर गया क्योंकि उस अजीब से जानवर ने रघु के पैरों में अपने दांत गड़ा दिए थे। रघु कुछ देर तक दर्द से बिलखता रहा और फ़िर खौफ़ और आतंक के मारे वो वहीं बेहोश होकर पड़ा रहा।
तड़के सुबह उसकी घरवाली उसे ढूंढते हुए वहां पहुँची तो देखा रघु के बाएं पैर में एक गहरा घाव बन चुका था, और कोई अजीब सा चिपचिपा घिनौना द्रव उसमें से रिस रहा था। उसके गाल पिचक गए थे, दांत अपने आप ही झड़ने लगे थे, कुछ झड़ भी चुके थे। बाल भी एकदम रूखे और खुरदुरे से हो गए थे। आनन फानन में घाटी के कुछ लोगों की मदद से रघु को अस्पताल ले जाया गया जहां डॉक्टरों ने उसे मृत्य घोषित कर दिया। अचानक जैसे घाटी में मौत का साया मंडराने लगा। लोग इसे किसी जंगली जानवर का कृत्य समझ रहे थे, लेकिन जल्द ही वे रूबरू होंगे रघु के असली गुनहगार से।
इधर दिन के उजाले में किसी शातिर खिलाड़ी की तरह वो "चीज़" घाटी के एक पुराने सुख चुके कुएं में जाकर बैठा था और सोच रहा था काश...रघु ने उसकी तरफ़ मदद का एक हाथ बढ़ा दिया होता।
बर्मन विल्ला में आज अच्छी खाँसी रौनक थी। लोग छोटे से कुणाल को देखने आते और तमाम तरह के उपहार भी दे जाते। एक बड़ा सा कमरा तो उपहारों से ही भर चुका था। इन्हीं उपहारों में से एक था, लकड़ी का पालना जो कि कुणाल के ननिहाल से आया था। सकुंतला देवी ने अभी अभी कुणाल को अपना दूध पिलाया था, और कमरे में रखे पालने में उसे सुलाकर दरवाज़े तक बस किसी मेहमान को विदा करने गयी थी।
संयोग से पालना अभी नया था उसके सारे नट्स अभी अच्छे से कसे नहीं गए थे, यहीं वजह रही होगी कि बग़ैर आवाज़ के पालना आहिस्ते आहिस्ते नीचे से खुल गया और कुणाल सीधे ज़मीन पर आ गिरा। पालने से ही खुली एक मध्यम आकार की कील नन्हें कुणाल के आँखों से जा टकराई और आंखों के किनारे से खून बहने लगा।
सकुंतला देवी जब कमरे में लौटी तो कुणाल को और टूटे पालने को देखकर घबराहट में चीखने लगी, उसके हाथ पांव कांपने लगे। लेकिन मासूम सा कुणाल तो पालने में लगे छोटे झुनझुने को देखकर बड़े प्यार से मुस्कुरा रहा था....!!!
दूसरी तरफ़ घाटी के उस सूखे कुएं से दर्द से भरी चीखें बाहर निकल रही थी जिसे सुनने वाला वहां कोई नहीं था....!!
क्रमशः_Deva sonkar