धीरे-धीरे कॉलेज के चुनाव का समय नज़दीक आ रहा था। कुमुदिनी तिलक के प्रति बहुत आकर्षित हो रही थी लेकिन जब कुमुदिनी ने तिलक को अपने भाई वरुण के विरुद्ध चुनाव में खड़ा होने की बात जानी तब वह उससे नाराज़ हो गई। तिलक तो हमेशा उसका बहुत ख़्याल रखता था। वह आख़िर उसकी बहन थी लेकिन उसके ख़्याल रखने को भी कुमुदिनी उसका भी अपनी तरफ आकर्षण ही समझती थी।
एक दिन कुमुदिनी ने तिलक से नाराज़ होते हुए कहा, "तिलक मेरे दिल में तुम्हारे लिए बहुत इज़्जत थी, प्यार भी पनप रहा था लेकिन मेरे भाई वरुण के विरुद्ध खड़े होकर तुमने बहुत ग़लत किया है।"
अपनी बहन के मुँह से प्यार वाला शब्द सुनकर तिलक के पाँव तले से ज़मीन खिसक गई। उसने उसी समय यह निर्णय ले लिया कि वह दुनिया में चाहे किसी को यह बात ना बताए लेकिन कुमुदिनी को उसे यह बताना ही होगा कि वह उसका भाई है। इसलिए तिलक ने कुमुदिनी से कहा, " कुमुदिनी मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।"
"मुझे तुमसे कोई बात नहीं करनी, मैंने जो कहना था उसी दिन कह दिया था। तुम्हें चुनाव से अपना नाम हटाना ही होगा।"
"ठीक है कुमुद मैं चुनाव से मेरा नाम वापस ले लूँगा यदि तुम मेरी पूरी बात सुनने के बाद भी वही कहोगी तो।"
"ठीक है क्या बोलना चाहते हो तिलक?"
"मैं कुछ बोलूँ उससे पहले तुम्हें किसी से मिलना होगा।"
"मिलना होगा लेकिन किससे? और मैं क्यों किसी से मिलूँ?"
"तुम्हें मिलना ही होगा कुमुदिनी, तुम्हें मेरी दोस्ती की कसम है।"
"ठीक है तिलक बोलो कब कहाँ और किस से मिलना है?"
"तो आओ मेरे साथ, तुम्हें कहीं चलना होगा।"
"लेकिन कहाँ?"
"मुझ पर विश्वास करती हो तो बिना कोई भी सवाल पूछे बाइक पर बैठ जाओ।"
"ठीक है," कहते हुए कुमुदिनी बाइक के पीछे बैठ गई। तिलक ने बाइक स्टार्ट कर दी।
कुमुदिनी ने पूछा, "तुम मुझे कहाँ ले जा रहे हो?"
"तुम डरो नहीं कुमुदिनी, जहाँ मैं ले जा रहा हूँ, वह एक पवित्र मंदिर है, जहाँ जाकर तुम्हें भी बहुत अच्छा लगेगा।"
इतने में तिलक घर पहुँच गया। दरवाज़े पर दस्तक दी तब रागिनी ने दरवाज़ा खोला। कुमुदिनी को देखते ही रागिनी समझ गई कि तिलक तो वीर की बेटी को घर ले आया है। उस दिन नाटक के बाद रागिनी ने कुमुदिनी वीर प्रताप नाम सुन लिया था। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह कैसी प्रतिक्रिया करे। उसने संभलते हुए प्यार से कहा, "आओ कुमुदिनी बेटा।"
कुमुदिनी हैरान थी उसने कहा, " नमस्ते आंटी आप मेरा नाम कैसे जानती हैं?"
"नमस्ते बेटा, उस दिन नाटक के समय ही तुम्हें देखा था और नाम भी सुना था, आओ-आओ बैठो। "
तिलक आज यह जान कर हैरान हो गया कि उस दिन उसकी माँ भी वह नाटक देखने के लिए उस हॉल में मौज़ूद थी।
कुमुदिनी और तिलक सोफे पर बैठ गए। तिलक ने कहा, " माँ थोड़ी चाय बना दो।"
"हाँ-हाँ बेटा अकेली चाय क्यों साथ में कुछ खाने के लिए भी ले आती हूँ।"
"नहीं आंटी सिर्फ़ चाय चलेगी।"
रागिनी अंदर चाय बनाने चली गई तब कुमुदिनी ने कहा, "तिलक मैंने आज तक तुमसे नहीं पूछा, तुम्हारे पिताजी क्या वह इस दुनिया में . . . "
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः