तिलक को देखते ही वीर प्रताप अपनी कुर्सी से उठकर खड़े होने लगे। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे कि सामने कोई शीशा है जिसमें उनका भूतकाल का प्रतिबिंब नज़र आ रहा है।
रुकमणी ने वीर का हाथ पकड़कर उन्हें नीचे बिठाते हुए कहा, "अरे आप खड़े क्यों हो गए?"
"रुकमणी देखो कौन है यह लड़का? कितनी मिल रही है उसकी शक्ल मुझसे।"
"मेकअप किया है उसका, आपकी तरह दाढ़ी मूँछ लगाई है, कभी-कभी ऐसा होता है किसी का चेहरा हमसे थोड़ा बहुत मिलता हो। फिल्मों में भी तो डुप्लीकेट होते हैं ना। पर आप यूँ खड़े क्यों हो गए थे?"
"नहीं कुछ नहीं,” कह कर वीर बेफ़िक्र होकर बैठ गए। क्योंकि ऐसा तो वह सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि वह अपने पीछे अपना अंश रागिनी के शरीर में छोड़ आए हैं और अब वह बच्चा जवान हो चुका है।
तिलक अब बड़ा हो गया था और उन आँसुओं की सच्चाई जान चुका था जो उसने हर रोज़ अपनी माँ की आँखों में देखे थे। आज उसने आख़िर अपनी माँ से पूछ ही लिया, "माँ जो कहानी आप मुझे बचपन से सुनाती आई हैं, उस कहानी की नायिका आप ही हैं ना?"
प्रिया अपने बेटे के सीने से लग कर बहुत रोई और रोते हुए पूछा, "बेटा तुम मुझे ग़लत तो नहीं समझ रहे हो? मुझे बदचलन तो नहीं. . . "
"नहीं माँ यह आपकी तपस्या है। बदचलन तो वह इंसान है, जिसने आपके प्यार को धोखा दिया। आप के विश्वास का फायदा उठाया। जिसने एक बेटे को पिता के प्यार क्या उसके नाम तक से वंचित कर दिया। "
रागिनी भी इस कार्यक्रम को देखने आई थी। वह पीछे भीड़ में छिपकर बैठी यह नाटक देख रही थी। वह हैरान थी कि तिलक ने उसे इस बारे में भनक तक नहीं लगने दी थी। यह नाटक क्या रागिनी के जीवन की जीती जागती कहानी थी। रागिनी अपनी आँखों से बहते आँसुओं को बार-बार पोंछ लेती थी। इधर वीर प्रताप नाटक में ही अपनी बेटी को इस हाल में देखकर अपने आँसुओं को रोक नहीं पा रहे थे।
रुकमणी ने वीर की तरफ देख कर कहा, " वीर तुम इतने भावुक क्यों हो रहे हो?"
"रुकमणी मेरी कुमुदिनी. . . "
"वीर तुम कहां खो गए हो । यह सिर्फ़ एक नाटक ही तो है।"
तभी तिलक की आवाज़ आई, "माँ मैं उस इंसान से नफ़रत करता हूँ। मैं आपके ऊपर हुए इस अपमान का, इस अत्याचार का बदला लेकर रहूँगा।"
"नहीं बेटा मैंने तुम्हें यह सब इसलिए नहीं बताया कि तुम उस इंसान से बदला लो। मैंने तुम्हें यह सब इसलिए बताया है कि तुम हमेशा नारी की इज़्जत करना। तुम्हारी वज़ह से कभी किसी भी स्त्री को दुःख ना पहुँचे। तुम यदि किसी से प्यार करो तो जीवन की अंतिम साँस तक उसका साथ निभाना। उसे कभी भी जीवन के मँझधार में नहीं छोड़ना बेटा।"
प्रिया ने फिर कहा, " बेटा तुम मुझे वचन दो, तुम ऐसा कोई काम नहीं करोगे जिससे इस उम्र में अब उनका अपमान हो।"
तिलक ने अपनी माँ के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा, "माँ मैं वचन देता हूँ, मैं समाज के सामने उस इंसान का अपमान कभी नहीं करूँगा लेकिन उसने जो पाप किया है उसका एहसास उसे ज़रूर कराऊँगा, यह मेरा आपसे वादा है।"
"नहीं बेटा नहीं।"
उसके बाद पर्दा गिर गया और उसी जगह उस नाटक का अंत हो गया।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः