[ कहानी -- मरजानी ✍ ]
"ऐ मरजानी ! उठ कब तक पड़ी रहेगी, जा काम पर निकल अपना यह मनहूस मुँह लेकर" ।
सुबह-सुबह दादी के कटु वचन सुनकर मरजानी का माथा गर्म हो गया और हो भी क्यों न , वह उसे इंसान समझती ही कहाँ थी ।जानवरों की तरह काम लेना,दुत्कारना,फटकारना और यहाँ तक कि मारना भी ।
मरजानी ने गुस्से से फुकारते हुए कहा--"कुछ पेट में दो दाने पड़ेंगे तभी शरीर भी काम करेगा न, है कुछ खाने के लिए कि नहीं " ?
"है पर तेरे लिए नहीं है ।खाने के लिए भी कूड़े करकट में ही मिल जायेगा बहुत कुछ तेरे लिए ,जा अब यहाँ से" ।
दादी की बात सुनकर गुस्से में भी मरजानी की आँखें भर आईं ।एक दादी ही थी जिससे वह इतनी नफ़रत करती थी ।इसी औरत ने उससे उसकी माँ छीन ली, वह दिन वह कैसे भूल सकती है जब दादी ने माँ को जिन्दा जला कर मार डाला था ।उसकी छोटी-छोटी मासूम आँखें बस बेबसी से यह नज़ारा देखती रहीं और आज जब वह बीस बसंत पार कर चुकी है तब भी सिर्फ़ बेबसी का लिबास ही है उसके पास ।
और यह दुनिया भी तो कितनी दोगली है ।जब भरी भीड़ के बीच से निकलती हूँ तब सभी मर्द कैसे नाक भौं सिकोड़ते हैं और अकेले में कैसे इसी मैले ज़िस्म को भेड़ियों की तरह ताड़ते हैं ।साले,कुत्ते,कमीने,हरामी और भी न जाने कितनी गालियाँ वह बुदबुदाने लगी ।
आज मन बहुत खिन्न था ।सड़क पर पड़े पत्थरों पर ठोकरें मारती-मारती वह कौन सी दिशा में जा रही थी इसका उसे ख़्याल ही कहाँ था ।जीवन भार-सा हो गया था, क्या मक़सद है उसके जीवन का, जीने का ।बहते-बहते आँसू की नदियाँ भी सूख गईं और मन अनमना सा चितकार करने लगा ।सुबह से शाम,शाम से रात हो गई तभी उसे एक कूड़े के ढेर में रोने की आवाज़ सुनाई दी ।
उसने जाकर देखा एक मासूम परी कूड़े के ढेर में पड़ी है ।उसने उसे अपनी बाँहों में उठाकर माथा चूम लिया ।
"ज़ालिम लोग ! बेटा होता तो राजकुमार बनाकर घर में रखते और बेटी है तो कूड़े में फेंक गए" । पीड़ा और क्रोध से उसके होठ फड़कने लगे
अब क्या करूँ इस बच्ची का किसी पुलिस स्टेशन में दे आऊँ या मन्दिर की सीढ़ियों पर रखूँ ।दादी के पास भी नहीं ले जा सकती ,दुष्ट औरत इस मासूम को कच्चा ही चबा जाएगी ।
अगले ही पल ख़्याल आया क्यों न मैं अपने पास इसे रखू ।इसे बहुत प्यार दूंगी, पढ़ाऊँगी लिखाऊँगी ।उस डायन को भी तो अपनी मेहनत की कमाई देती हूँ न ,बदले में वह पेट भर खाना भी नहीं देती ।कब तक ऐसे ही यातना सहती रहूँगी और यह बच्ची भी तो आगे चलकर मरजानी ही बन जाएगी न, मेरी तरह अपने और परायों की यातना झेलने को बाध्य ।अब उस दुष्टा के पास उस झोंपड़ पट्टी में नहीं जाऊँगी ।उसने बच्ची का माथा चूमा और एक अनजानी राह पर चल पड़ी ।अब उसकी नज़र राह के पत्थरों पर नहीं बल्कि उस मासूम फूल पर थी ।
पुष्प सैनी 'पुष्प'