40-पर्यटन
एकलिंग जी का मंदिर
झाीलों, फव्वारों और अरावली की श्रृंखलाओं वाले उदयपुर से उत्तर में राप्टीय राजमार्ग 8 पर 22 किलोमीटर दूर एक अत्यन्त रमणीय, सुन्दर और मनमोहक स्थान अवस्थित है। जी हां, मेरा मतलब एकलिंगजी या कैलाशपुरी से ही है।
प्राचीन मेवाड़ राज्य के स्वामी भगवान एकलिंग ही है। मवाड़ के महाराणा एकलिंग के दीवान का कार्य करते हुए राज-काज संभालते थे।
लगभग 1200 वर्प पूर्व जब बप्पा रावल ने मेवाड़ राज्य की स्थापना की, तो उन्होंने एकलिंग जी को अपना आराध्यदेव बनाया तथा मेवाड़ राज्य उन्हें समर्पित कर दिया। तभी से मेवाड़ राज्य के स्वामी एकलिंगजी है।
श्री बप्पा रावल के संबंध में एक किंवदंती प्रचलित है। बप्पा से पूर्व के सभी राजा मौर्य वंश के लोगों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। मेवाड़ के सौभाग्य से बप्पा के पिता अपराजित की रानी किसी तरह बच गयी।
यह रानी एकलिंग जी के पास नागदा नामक स्थान पर वहां के पुरोहित रावल के यहां रही, और वहीं पर उसने बप्पा को जन्म दिया
बप्पा को रावल ने गाये चराने का कार्य दिया। बप्पा नियमित रुप से गायेां को लेकर जंगल जाते और सांयकाल वापस आते।
एक दिन रावल ने बप्पा से कहा कि एक गाय दूध नहीं देती है, क्या कारण है? बप्पा को यह लांछन अच्छा नहीं लगा, उन्होंने गायों की चौकसी शुरु कर दी ।
उन्होंने देखा कि एक गाय अपने झुण्ड से अलग चरने चली गयी। वहीं पर एकलिंग जी पर गाय का दूध अपने आप झर रहा था, गाय की इस भक्ति पर बप्पा मंत्र मुग्ध हो गये।
इस कुंज में प्रख्यात ऋपि हारीत का आश्रम था। ऋपि ने बप्पा को आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम मेवाड़ राज्य को स्थापित करो। भगवान एकलिंग तुम्हारा कल्याण करेंगे।
कालान्तर में बप्पा ने मवाड़ राज्य की स्थापना कर भगवान एकलिंग का मंदिर बनवाया। सन् 734 से 753 के मध्य यह मंदिर बना। अपने अंतिम समय में बप्पा ने सन्यास ग्रहण कर पास ही स्थित बप्पा रावल नामक स्थान पर रह कर एकलिंग जी की पूजा उपासना की।
मुख्य मंदिर
वर्तमान में स्थित एकलिंग जी का मंदिर लगभग 15 मीटर उंचा है, मंदिर का व्यास 20 मीटर के करीब है। इसका शिखर अत्यंत सुन्दर और श्वेत प्रस्तर से बना है।
यह मंदिर पाशुपत साम्प्रदाय का अत्यंत प्राचीन तीर्थ स्थल रहा है। इसके अलावा पाशुपत के मंदिर नेपाल तथा मंदसौर में पाये गये है। ‘मन्दसौर का मंदिर नवीन और अभी अधूरा है।’
कहते है कि यह मंदिर कई बार यवनों द्वारा क्ष्तिग्रस्त किया गया था तथा इस वक्त की मूर्ति महाराणा रायमल द्वारा प्रतिप्ठित की गयी है। यहां पर एक वैप्णव-मंदिर भी बनवाया था।
काले पत्थर से बना भगवान शिव का श्री विग्रह चतुर्मुखी है। पूर्व का मुख सूर्य का है, पश्चिम का ब्रहमा् का, उत्तर का विप्णु का तथा दक्षिण का मुख रुद्र का है। इन मुखों के बीच शिवलिंग स्थित है। चारों मुखों के दर्शनार्थ चार द्वार बनाये गये थे।
पूर्व के द्वार के अन्दर पार्वती, गणपति तथा दक्षिण द्वार के भीतर गंगा व कार्तिकेय की मूर्ति है, जो सम्पूर्ण शिव परिवार को दर्शाती है।
मण्डप के बीच में चादी का नन्दिकेश्वर बना है। मंदिर के मुख्य किवाड़ चांदी के बने है।
इसके अलावा मंदिर में और भी कई महत्वपूण छोटे मंदिर हैं, जिनमें, अम्बाजी, गणपति, कालिका, नाथों, का मंदिर तुलसी कुण्ड, करन कुण्ड, पातालेश्वर, मीरा मंदिर, करमरिया मंदिर आदि मुख्य है।
दर्शनीय स्थल
श्री कौशलपुरी गांव में कुल 108 मंदिर है। इसके अलावा आस पास में कई अत्यंत रमणीय व दर्शनीय स्थल हैं, जिनकी शोभा वर्पाकाल व बसन्तकाल में देखते ही बनती है।
म्ंदिर के पीछे की ओर एक सुन्दर जलाशय बना है, जिसे इन्द्र सरोवर कहते हैं। कहते हैंकि भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये इन्द्र ने यहां पर तपस्या की थी। तालाब के पास पहाड़ी पर अर्बदा माता का मंदिर है जो जीर्णशीर्ण अवस्था में है।
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण और दर्शनीय है सास बहु का मंदिर, जो मेवाड़ की प्रथम राजधानी नागदा में स्थित है। एकलिंगजी से लगभग 2 कि.मी. दूर यह स्थान है।
ये मंदिर अत्यंत कलात्मक हैं लेकिन अब इन मंदिरो में आराध्यदेव की मूर्तियां नहीं है। कहते हैं, राजघराने की बहू ने शेप नाग का मंदिर बनवाया तथा सास ने विप्णु मंदिर का निर्माण कराया। कला के आधार पर इन मंदिरो की कारीगरी देलवाड़ व रणकपुर के समकक्ष है। सास के मंदिर पर महाभारत की कथा चित्रित है। मंदिर में मण्डप के तोरण है जो अत्यंत लुभावने हैं। मंदिर के बाहर शिव-पार्वती व विप्णु की मुर्तियां भी सुन्दर है।
बहू वाले मंदिर के गुम्बद में सवा मीटर लम्बी कई मूर्तियां बनी हुई है जो उत्कृप्ट स्थापत्य कला का नमूना है।
इन मंदिरों के अलावा नागदा में ब्रह्मा मंदिर का निर्माण 11 शताब्दी में हुआ। मार्ग में वापसी पर पहाड़ो पर एक जैन मंदिर दिखाई देता है, जिसमें 3 मीटर उंची शांतिनाथ जी की मूर्ति है। यह मूर्ति महाराणा कुम्भा के कार्यकाल में बनी।
एकलिंगजी से 2 कि.मी. दूर मुख्य सड़क से हट कर जंगल में बप्पा रावल स्थान है, जहां पर बप्पा ने अपने जीवन का अंतिम समय बिताया तथा यहीं से वे रोज एकलिंगजी की सेवा करते थे।
यहां पर मंदिर में शिवलिंग के पास बप्पा की मूर्ति है जिससे निरन्तर जल शिवलिंग पर गिरता रहता है। यह भूतपूर्व महाराणा की निजी सम्पति है।
एकलिंगजी से 5 की.मी. दूर देलवाड़ा है जहां पर 4 जैन मंदिर है। इनकी कला आबू के देलवाड़ा के जैन मंदिरों के समकक्ष है।
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आइये, नारियलों के प्रदेश में चलें
लम्बे समय से दक्षिण भारत की ओर जाने की कोशिश में था अचानक केरल की राजधानी त्रिवेन्द्रम जाने और वहां पर कुछ समय रहने का मौका आया। मैंने अपनी अटेची उठाई और चल दिया। दिल्ली से ही जयन्ती जनता मिल गई। लगभग पैंतालीस घण्टों के बाद ही केरल की सीमा शुरु हो गयी। चारों ओर हरे भरे जंगल, चावल के खेत, और नारियल के बाग, इलायची, लौंग, काली मिर्च के पौधे, काजू का मौसम शुरु हो रहा था, यदा-कदा वे भी दिख जाते। कोचीन और अर्नकुलम देखने के बाद हम त्रिवेन्द्रम की ओर बढ़ने लगे। दक्षिण के सौन्दर्य ने मन मोह लिया। प्राकृतिक सुपमा का जो आनन्द दक्षिण भारत के इस ाुन्दर प्रदेश में दिखाई दिया। वैसा आनन्द और कहीं नहीं है।कहते है, भगवान परशुराम ने नाराज होकर एक बार अपनी कुल्हाड़ी का भरपुर वार दक्षिण के समुद्र पर किया। परिणाम स्वरुप लहरों में समुद्री जीव के आकार की भूमि कट गयी और गोकरनम से कन्याकुमारी तक केरल प्रदेश बन गया।
भारत के सुदूर अंतिम दक्षिण पश्चिमी किनारों पर बसा यह प्रदेश 590 किलो मीटर अरब सागर तट से जुड़ा हुआ है। प्रदेश का कुल क्षेत्रफल 39,000 किलो मीटर है। भारत की लगभग 4 प्रतिशत आबादी केरल की है।
बावजूद अत्यधिक जनसंख्या के केरल ने अपनी प्राकृतिक सुपमा, प्राकृतिक सौन्दर्य को बनाये रखा है। वनों की अनावश्यक कटाई या दोहन अभी शुरु नहीं हुआ है। इसी कारण केरल आकर्पक है, खूबसूरत है, नयनाभिराम है।
श्री मद भागवत के दशम स्कन्ध के 79 श्लोक में बलराम के तीर्थाटन के वर्णन के अन्तर्गत एक श्लोक में तिरुवन्तपुरम का उल्लेख है। इसी प्रकार ब्रह्मांड पुराण में भी स्थानंदद्वरपूरं ‘त्रिवेन्द्रम’ का उल्लेख है। केरल का शुरु से ही बाहरी प्रदेशों से जलमार्ग से सम्पर्क रहा है। विचलोन, अलाप्या, ढालीकट, केनोरु कोचीन आदि समुद्री बन्दरगाहों का उपयोग लम्बे समय से होता आया है। इस कारण केरल की संस्कृति में ईसाई, मुस्लिम, जैन, बुद्ध और हिन्दू दर्शनों का संयुक्त प्रभाव है।
आज भी केरल में सर्वाधिक पढ़े-लिखे व्यक्ति है। ये बात अलग है कि बेरोजगारी भी सर्वाधिक है।
केरल के चारों तरफ हरियाली है, साथ ही हवा में उछलते हुए नारे भी है, लोग जागरुक हैं, मजदूर एक है और हिन्दी के प्रति विरोध है। मुख्य मंत्री जी अपने भापणों में जानबूझ कर हिन्दी विरोध की बातें करते रहते हैं। लेकिन अब लगातार उत्तर भारत में रहने के कारण कई स्थानों पर हिन्दी का प्रयोग बढ़ने लगा है। विरोध कम हो रहा है। हिन्दी फिल्मों की अच्छी मांग है और हिन्दी विरोध मूल रुप से राजनैतिक हथियार बन कर रह गया है। त्रिवेन्द्रम में ही भगवान पदमनाथ स्वामी का विशाल और भव्य मंदिर है, जिसमें भगवान महाविप्णु शेपनाग शैया पर सोये हुए हैं। यह मंदिर शहर के ईप्ट फोर्ट इलाके में बना है। त्रिवेन्द्रम में ही श्री कण्ठेश्वर महादेव तथा गणेशम् मंदिर है। श्री कण्ठेश्वर महादेव के मंदिर में शिव रात्रि को वृहद आयोजन होता है। यहां पर शिवरात्री एक बड़े त्यौहार के रुप में मनाया जाता है। शिवरात्री के अलावा ओणम सबसे बड़ा त्यौहार है जो अगस्त सितम्बर के माह में आता है। ओणम कई दिनों तक धूमधाम से मनाया जाता है। लोगों का विश्वास है कि उनके भूतपूर्व महाराजा महाबली इस त्यौहार के दौरान आकर अपनी प्रजा के सुखदुख की जानकारी प्राप्त करते हैं। इस अवसर पर महिलाएं स्थानीय सोने की जरी की साड़ी पुरुप लुंगी पहनकर मंदिरों के दर्शन करते हैं। सामान्यतया स्त्री पुरुप नंगे पांव ही आते जाते है। फूलों से पूरे घर को बहुत अच्छी तरह सजाया जाता है। वैसे भी पूरे दक्षिण में पुप्प श्रृंगार को बहुत महत्व है। ओणम के अवसर पर लड़कियां झूला डाल कर झूलती हैं। इसके अलावा कई प्रकार के नृत्य किये जाते हैं।
ओणम के अलावा केरल में तिरुवादिश मनाया जाता है जो उत्तर भारत के करवाचौथ की तरह ही सुहाग की रक्षा का त्यौहार है। होली का कोई आयोजन यहां पर नहीं होता है। इसके अलावा बिचूर, गुरुवायूर, देकोम आदि स्थानों पर कई अन्य त्यौहार मनाये जाते हैं। सर्व नौका दौड़ भी केरल का अपना विशेप आकर्पण है। मुस्लिम तथा क्रिचियन त्यौहार भी धूमधाम से मनाये जाते है।
त्रिवेन्द्रम से आगे बढ़ने पर पास ही थुम्वा राकेटकेन्द्र है, जो भारतीय वैज्ञानिकों का कमाल है। त्रिवेन्द्रम से कुछ दूरी पर विश्व प्रसिद्ध कोवालमबीच है, जहां पर विदेशी पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं, और सूर्यस्नान का आनन्द लेते हैं।
केरल में ही प्रसिद्ध पेरियार वन्य जीवन योजना दर्शनीय है। इसके पोनमुछी,नट्यर बाकथ, विचलोन, वरकला, कोट्टामय कोचीन आदि स्थान भी दर्शनीय है। केरल के पास ही कन्याकुमारी और रामेश्वरम् है। जो हिन्दू दर्शन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ है।
केरल के आदिवासी हस्तशिल्प व लकड़ी का काम भी महत्वपूर्ण है। कथकल्ली यहां का प्रसिद्ध नृत्य है। कथकल्ली के अलावा कद्रकली, कुरुमर्बकली, मनकली, कूरलकली आदि नृत्य आदिवासियों के प्रमुख नृत्य है। लोक नृत्यों की अत्यन्त विशिप्ट परम्परा केरल में उपलब्ध है। 50 से अधिक प्रकार के लोक नृत्य केरल में है। कालीयदमनम्,मुडियेटटु, कोलमथुलाल कोलकली, मपलकली, यप्पाकली तथा कुम्भी यहां के प्रसिद्ध लोक नृत्य हैं। कोथू, पटकम्, कुडियट्टम, कृप्णानाट्यम, रामनाट्यम, कथकली, धुलाल तथा मोहिनी नाट्यम यहां के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य है।
कथकली सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण नृत्य माना जाता है कला के क्षेत्र में राजा रवि वर्मा का नाम कौन पहीं जानता। साहित्य, कला, पेंटिंग, मूर्तिकला आदि सभी में केरल एक अलग स्थान रखता है। वास्तव में नारियलों के इस प्रदेश में रहकर ही यहां की संस्कृति को समझाा जा सकता है।
वैसे भी केरल खेती में सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तुओं की पैदावार करता है। चाय, काफी, रबर, लोंग, इलायची, कालीमिर्च, सुपारी, चावल, काजू, नारियल, केलाों आदि के उत्पादन में केरल बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। केरल को देखकर बरबस यह कहना पड़ता है कि सुदूर दक्षिण का छोटा सा एक ऐसा प्रदेश है, जिसे देखकर बार-बार देखने की इच्छा होती है।
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पालीथाना के जैन मन्दिर
जैन धर्म व दर्शन में पांच तीर्थों का महत्व बहुत अधिक दर्शाया गया है। आबू के दकलवाड़ा जैन मन्दिर, बिहार में समेत शिखर, तथा गुजरात के गिरनार, पालीथाना व तरंग जैन मंदिर।
पालीथाना के जैन मंदिर भी देलवाड़ा की तरह ही विश्व प्रसिद्ध है। भावनगर जिले के सौराप्ट क्षेत्र में पालीथाना स्थित है। भावनगर से 56 कि.मी. व अहमदाबाद से यह 214 कि.मी. दूर है। शत्रुंजय पहाड़ी पर जैन मंदिरों की एक विशाल श्रृंखला है। इस पहाड़ी की उंचाई 660 मीटर है। कुल मंदिर 864 है। प्रमुख मूर्ति और मंदिर भगवान आदिनाथ स्वामी की है। इसके अलावा कुमारपाल, विमलशा, सम्पति राजा और चौमुख मंदिर भी दर्शनीय है। चौमुख मंदिर के सामने सभागृह में यात्री प्रार्थना करते हैं।
पालीथाना शहर में से मंदिरों में जाने हेतु पहाड़ी के उपर तक छोटी लेकिन काफि चौड़ी सीढ़ियां बनी हुई है। अनुमानित तीन चार हजार सीढ़ियां चढ़कर उपर मंदिरों की श्रृखला तक पहुंच जाता है। वापसी पर दूसरी तरफ गेंती स्थल है जहां पर जाने के लिए उपर से ही सीढ़ियां जाती है। गेंती तक पहुंचने पर एक यात्रा पूरी होती है। यदि वापस उपर चढ़कर पालीथाना की तरफ उतरें तो दो यात्राएं पूरी मानी जाती है।
आखा तीज पर यहां काफी बड़ा मेला लगता है। पूरे देश से वर्पी तपक रने वाले श्रद्धालुजन यहां पर गन्ने के रस का पारणा करने के लिए एकत्रित होते हैं। कल्याणजी आनन्दजी की पेढि की ओर से सम्पूर्ण व्यवस्था की जाती है।
मंदिर की यात्रा
यात्रा के लिए जूते, लाठी आदि नीचे से ही लें। पानी की व्यवस्था जगह-जगह पर उपलब्ध है। यात्रा के मध्य में चार कुण्ड आते हैं, इनमें नाम हैं-इच्छाकुण्ड, कुमारकुण्ड, छाला कुण्ड तथा सूर्य कुण्ड आदि। रास्ते में भी छोटे मंदिर आते है।
मुख्य मंदिर के प्रवेश द्वार का नाम रामपोल है। रामपोल से अन्दर आने पर दोनों तरफ मंदिरों की श्रृंखलाएं दिखाई देती है और यात्री की थकान मिट जाती है। पहाड़ियां रमणीय हैं। दही का पान किया जाता है। पत्थरों पर नक्काशी का काम है, लेकिन वह देलवाडा़ की तरह बेजोड़ नहीं हैं। दोनों तरफ कई मंदिर हैं, जिनमें प्रमुख हैं-
1. श्री ष्शांतिनाथ मंदिर 2. श्री नेमीनाथ 3.पाप-पुण्य की बाटी
4.विमलनाथ 5.पार्श्वनाथ मंदिर 6. सुमतिनाथ मंदिर आदि।
दूसरी ओर पंचतीर्थ मंदिर, महावीर स्वामी का मंदिर, श्री चन्द्रप्रभा मंदिर आदि
है। इनमें से कई मंदिर बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के है। मंदिरों में केसर चढ़ाने व पूजा की विशेप व्यवस्था है। यात्रियों को उपर ही स्नान करने, वस्त्र बदलने, केसर घोटने आदि के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध है। पूजा आदि के लिए पेढ़ी से पर्ची कटानी होती है। सभी मंदिरों में मूर्ति बहुत आकर्पक व सुन्दर हैं। मुख्य मूर्ति भगवान आदिनाथ की है।
इन मंदिरों के अलावा सोनगट, भावनगर आदि में कई जैन मंदिर हैं। पालीथाना में ही अगारपोट की दरगाह है जहां पर बांझ स्त्रियां मनोतियां मानती हैं। गैंती भी एक दर्शनीय स्थल है। जैन मंदिर दर्शनों हेतु सभी के लिए खुले हैं। आखातीज को यहां पर विशाल मेला लगता है। ष्
ष्शहर की जनसंख्या तो बीस हजार ही है, लेकिन लगभग सौ धर्मशालाएं हैं और यात्रियों को किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती है।
प्रत्येक जैनी जीवन में एक बार अवश्य इन स्थानों की यात्रा करता है।
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श्री नाथद्वारा
नाथद्वारा के कीर्तन और कीर्तनकार, मीनाकारी और चित्रकारी, साड़िया या आभूपण सभी कुछ अनोखे हैं और आज भी ब्रज के चौरासी कोसों से बहुत दूर वहां द्वापर युग की संस्कृति जीवित है। शायद आपको वह कहानी अवश्य याद होगी, जिसमें भगवान कृप्ण ने इंद्र की पूजा-अर्चना करने से गोपवासियों को मना कर दिया था। क्रोधित इंद्र ने गोपजनों और उनके सर्वस्व को तहस-नहस करने का निर्णय ले लिया। काले घनघोर बादलों से बारिश की झड़ी लग गयी गर्जन-तर्जन और बिजली की फुफकार से भागे-भागे गोपवासी परेशान हो गये जलप्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था।
ऐसे समय में ग्वाल गाल कृप्ण की शरण में आये। कृप्ण ने अपनी अंगुली पर गिरिराज पर्वत को उठाकर सम्पूर्ण गोपजनों को इन्द्र के क्रोध से बचाया। आधुनिक संदर्भो में भी यह घटना महत्वपूर्ण है, किसी बलशाली बाह्य शक्ति की पूजा-अर्चना करने के बजाय अपनी ही भूमि की पूजा अर्चना उचित है, है न एक क्रांतिकारी दर्शन।
आइए, यह देखें कि गिरिराज और श्रीनाथ जी कैसे जुड़े। बताया जाता है कि गोवर्धन पर्वत की एक गुफा में संवत् 1466 शुक्ल पंचमी को भगवान श्रीनाथ जी प्रकट हुए। लगभग 85 वर्पो के बाद महाप्रभु बल्लभाचार्य ने संवत् 1549 में श्री जी बाबा के दर्शन किये और एक लघु मंदिर की स्थापना की। 1572 में उसके पुत्र विट्ठलनाथजी ने श्री जी बाबा की सेवा-अर्चना को व्यवस्थित किया, समय बदलता गया। देश पर मुगलों का शासन छा गया। औरंगजेब अपनी धर्माध्ता और सत्ता के मद में आकर हिन्दू मंदिरों का तहस नहस करने लगा। ब्रजभूमि छोड़कर भगवान श्रीनाथजी भी मेवाड़ पधारे, नाथद्वारा के पास सियाढ गांव में गोस्वामी दाउदज ने स्वरुप को फाल्गुन कृप्ण सप्तमी को स्थापित किया। इसके अलावा सात अन्य स्वरुपों की स्थापना इस प्रकार की गयी, श्री मधुरेशजी कोटा, श्री विट्ठलनाथ जी नाथद्वारा, श्री द्वारकाधीश जी कांकरोली, श्री गोकुलनाथ जी गोकुल श्री गोकुलचंद्रमाजी और श्री मदनमोहन जी कामवन तथा श्री बालकृप्ण सूरत में ।
राजमाता मेवाड़ उदयपुर की प्रेरणा से महाराजा उदयपुर ने काफी सैनिक श्रीनाथ जी की सुरक्षा हेतु तैनात किये। बाद में विशाल मंदिर के बन जाने पर भगवान के स्वरुप को मंदिर में स्थापित किया गया। साथ में आये गुर्जर, अहीर, लोदा, ब्राहम्ण, चित्रकार आदि लोगों ने यहीं पर अपना स्थयी निवास बना लिया और अरावली की सुरम्भ उपत्यकाओं में वैप्णव संप्रदाय के प्रधान तीर्थस्थल नाथद्वारा की स्थापना हो गयी।
आइए, मंदिर में चले, चौपाटी से आप सीधे मंदिर मार्ग पर आ जाइए यह जो खुशबू आपको आ रही है, यह प्रसाद और इत्र की है, थोड़ा आगे आइए, लाल दरवाजा है, देखिए भक्त किस श्रद्धा से माथा टेक रहे हैं। बाहर संमरी खड़ा है। अंदर बांई और श्रीनाथ खर्च भंडार है, अंदर घी तेल के कुएं हैं, सामने ही नक्कारखाने का दरवाजा है, शहनाई की सुमधुर रसमाधुरी वातावरण में मादकता घोल रही है।
जी हां अब आप जहां पर खड़े हैं वह स्थान गोवर्धन-पूजा चौक कहलाता है। दीपावली के दूसरे रोज गोवर्धन-पूजा हेतु इस स्थान पर गोवर्धन को लाकर उसकी पूजा की जाती है।
थोड़ा आग बढ़े, बायीं ओर नवनीत प्रियाजी का मदिर है। अभी दर्शन खुलने में थोड़ी देर है चलिए, श्री कृप्ण भंडार और सामने के सूरजपोल को देख ले। श्री कृप्ण भंडार में ही सोने और चांदी की चक्कीयां हैं जिनमें केसर, कस्तूरी और बरास पीसे जाते हैं।
सूरजपोल पर विशाल हाथी चित्रित है। भित्तिकला का ऐसा अनुपम उदाहरण जो विदेशियों को भी मोहित कर देता है।
लीजिए। आप सीढ़ियां चढ़कर उपर आ गये ये धोली ‘सफेद’ पट्टियां संगमरमर से बनी है।
इस पर माली, चित्रकार, कथावाचक और कीर्तनकार आपकी सेवा में हैं तो सामने जो रास्ता है, वह प्रीतमपोली की ओर जाता है। जहां बैलों द्वारा चलने वाली चक्कियां है।
इस धवली पट्टियां पर बायीं ओर सिंहपोल है। अंदर आइए यह कमल चौक है। स्थानीय कीर्तनकार शास्त्रीय रागों में निबद्ध अप्ठ छाप के पद पा रहे हैं।
इसी कमल चौक के बायीं ओर धुवजी की खिड़की है, जहां से ध्रुव तारा नजर आता है और हाथीपोल दरवाजा है, जहां पर विशाल हाथी लगे हुए हैं। हाथीपोल वाले दरवाजे से ही अंदर चल, आप रतन चौक में आ गये हैं।
रतन चौक से ही आप ध्वजा के ओर सुदर्शन जी के दर्शन कीजिए। श्रीनाथ जी के मंदिर में कृप्ण के बालस्वरुप के दर्शन होते हैं। मंगला, श्रृंगार, राजभोग, उत्थापन, भोग, आरती और शयन।
प्रातः काल सर्दियों में चार बजे और गर्मियों में पांच बजे ही मंदिर में शंखनाद के बाद मंगला के दर्शन शुरु हो जाते हैं।
आज कल मंदिर का प्रबन्ध राज्य सरकार द्वारा बनाये गये श्रीनाथद्वारा मंदिर मंडल अधिनियम 1951 के अधीन गठित बोर्ड करता है।
मंदिर की आय का प्रमुख साधन ‘‘भेट’’ है। इसके अलावा मंदिर के पास के लगभग एक हजार दुकानें और 13,500 बीघा भूमि है तथा तीन लाख रुपया प्रतिवर्प सरकार देती है।
रंगों से कृप्ण उपासना ‘नाथद्वारा की चित्रकला’
राजस्थान में चित्रकला का प्रारम्भ लगभग चार शताब्दी पहले हुआ। मुगलकाल में चित्रकला उन्नत हुई, लेकिन औरंगजेब ने कलाकारों से राज्याश्रय छीन लिया अैर कलाकार इधर-उधर बिखर गये। ऐसी स्थिति में राजपूताना के रजवाड़ों और रावरों में इन कलाकारों को प्रश्रय मिला।
राजस्थान की प्रसिद्ध चित्र शैलियों में नाथद्वारा की चित्रशैली बहुत महत्वपूर्ण है। नाथद्वारा का सम्बन्ध श्रीनाथजी से है। श्रीनाथजी कृप्ण के अवतार माने जाते हैं और नाथद्वारा में बड़ी श्रद्धा से पूजे जाते हैं।
राजस्थन में वैप्णव समाज का सबसे महत्वपूण तीर्थस्थल है नाथद्वारा। इतिहासकारों के अनुसार राजस्थान में श्रीनाथजी के आगमन के साथ उनके चितेरे भी आये। दिल्ली पर औरंगजेब ने अपने शासन काल में बहुत सी प्रतिमाओं का खण्डन करवाया। इन अत्याचारों से त्रस्त और भयभीत होकर महाराज गोपीनाथ जी ने मेवाड़ के महाराणा से शरण मांगी। उदारमना महाराणा ने श्रीनाथजी को नाथद्वारा में रखने की इजाजत दी और महाराज गोपीनाथ जी को अपना धर्मगुरु बनाया। इसके बाद मेवाड़ में सियाढ़ के बाद श्री नाथ जी की प्रतप्ठा नाथद्वारा में हुई।
श्री नाथ जी जब नाथद्वारा आये तो उनके भक्त मण्डल भी उनके साथ आये। इस मण्डल में कई चित्रकार भी थे। धीरे-धीरे उन्होंने जिस अद्भुत चित्र-शैली का विकास किया, वहीं आगे चलकर नाथद्वारा की चित्र-शैली कहलायी।
नाथद्वारा शैली में श्रीनाथजी के चित्र ही प्रमुख हैं। और विभिन्न रेगों की विपमताओं का समन्वय ही इस शैली की मौलिकता है। नाथद्वारा के कलाकार रंग सम्मिश्रित नहीं करते, बल्कि रंगों का समन्वय करते है।
कृप्ण जन्म से लेकर, ब्रज की रासलीला, गोचारण, भोजन, दैत्यों का संहार तथा गोपियों के साथ की गयी ठिठोलियों का विस्तृत चित्रण इस शैली का प्रमुख आग्रह रहा है। बारह मासों, छत्तीस रागरागनियों के चित्र भी लम्बे समय तक इस शैली में बनाये जाते रहे हैं और इन्हें सोने-चांदी के काम से सजाया जाता रहा है।
मंदिर की देहरी पर बैठकर यहां के चित्रकार अपने चित्रों को ग्राहकों तक पहुंचाते रहे हैं। लगभग 500 चित्रकार इस व्यवसाय में लगे हुए है।
श्रीनाथजी के चित्रों के अलावा नाथद्वारा में सबसे महत्वपूर्ण है पिछवाई। श्रीनाथ जी की प्रतिमा के पीछे दीवारों को सजाने के लिए कपड़े पर मंदिर के आकार के अनुसार चित्र बनाये जाते हैं। ये पर्दो का काम करते हैं, इन्हें पिछवाई कहा जाता है। यह नाथद्वारा की अपनी मौलिकता है, जो अन्य किसी शैली में नजर नहीं आती। पिछवाई का आकार कुछ भी हो सकता है, और मूल्य भी 500 रुपये से 20,000 रुपये तक हो सकता है। साथ ही यहां के चित्रकार महत्वपूर्ण अवसरों पर भित्ति चित्र भी बनाते हैं।
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जवाब नहीं मसूरी का
पहाड़ों की रानी बहारों की मलिका और गर्मियों में सैलानियों का स्वर्ग है मसूरी। हरिद्वार से लगभग 100 कि.मी. तथा देहरादून से 35 कि.मी. दूर है मसूरी। समुद्र से 2005 मीटर उंची बसी है मसूरी। पर्वत शिखरों पर चहुं ओर बिखरा मादक सौन्दर्य और नयनाभिराम प्रकुति। सब ओर खिली हरियाली देखकर सैलानी सारी गर्मी और थकान भूल जाता है। शीतल वायु के झकोरे, मुस्कराते फूल और खिलखिलाती सुरम्य घटायें महसूस करके ही शायद इसे सैलानियों का स्वर्ग कहा गया है। रात के समय मसूरी पर्वत से दक्षिण दिशा में देहरादून शहर की चमचमाती बत्तियां, घुमावदार सड़केंमन को मोह लेती हैं।
उन्नीसवी शताब्दी में यंग नामक अंग्रेज ने मुलिगारे नामक स्थान पर एक भवन बनवाकर मसूरी की नींव डाली थी। 1826 में लेडार के इलाके में अंग्रेजों की फौजें रहने लगीं। 1873 से अंग्रेज, डच, राजे, महारजे आदि यहां गर्मियों में मैदानी गर्मी से बचने के लिए आने लगे।
मसूरी में कुलरी बाजार, गांधी चौक, लढ़ोर बाजार आदि घूमने, शापिंग करने के स्थान हैं। मसूरी का रापवे ढाली बहुत प्रसिद्ध है इसमें 10-12 र्प्यटक एक साथ बैठकर गनहिल तक जाते हैं। गनहिल से हिमालय, बदरी केदार की पहाड़ियां तथा बर्फ देखी जा सकती है। मसूरी में ही लाल डिब्बा, म्युनिसिपल गार्डन, बुद्ध टेम्पल आदि स्थल भी हैं।
इसी प्रकार केमरुन बैंक रोड से सैलानी गहरी घाटी एवं दूर तक फैली हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं को देख गर्मी से बच सकते हैं। लेकिन मसूरी की यात्रा जल प्रपातों पर नहाये बिना अधूरी है। मसूरी में 3 प्रमुख जल प्रपात है। हार्डी प्रपात, भट्टा फाल तथा केम्पटी फाल। इनमें से केम्पटी फाल समुद्र तट से 1524 मीटर की उंचाई पर है औरसर्वाधिक सुन्दर और प्रसिद्ध है। लाईब्रेरी मार्केट से 15 कि.मी. देर चकरोता मसूरी मोटर मार्ग पर केम्पटी प्राकृतिक जल प्रपात स्थित है। काफी उंचे से ठण्डी जलधारा निरन्तर और नियमित बहती है। इस जलधारा के नीचे नहाने का आनन्द अलग ही है। यहां पर औरतें, बच्चे, बूढ़े, युवा सभी नहाते है। जल में खेलते हैं। पास ही नाश्ता शीतल पेय मिल जाते हैं। केम्पटी फाल को निरन्तर देखना भी सुखद है। पानी दूध की तरह गिरता हुआ दिखाई देता है।
केम्पटी जल प्रपात देखना ही मसूरी की यात्रा को पूरा करता है।
मसूरी के रास्ते में ही देहरादून है जहां पर राप्टीय रक्षा अकादमी, भारतीय वन अनुसंधान संस्थान तथा सहस्त्र धारा जैसे दर्शनीय स्थल है। तो इन गर्मियों में मसूरी का कार्यक्रम बना डालिये। पूरा परिवार प्रसन्न हो जायेगा मसूरी के लिए आप देहरादून में भी ठहर सकते हैं। देहरादून में ठहरने से आपकी जेब पर बोझ भी कम पड़ेगा। हमने भी यही किया आप भी यही करें।
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गुलाबी नगर की गुलाबी दीपावली
गुलाबी शहर की दीपावली पिछले कुछ वर्पो से सजावट तथा राशनी की जगमगाहट के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध हो गयी है। देश के विभिन्न हिस्सों से लोग बाग दीपावली देखने हेतु जयपुर आते हैं और राजस्थानी मेहमाननवाजी का लाभ उठाते हैं। पिछले वर्प तो दीपावली को देखने हेमा मालिनी तक आई।
दीपावली के दिन इस शहर की हालत ये हो जाती है कि अन्धकार पर रोशनी का एक वितान तन जाता है और अमावस्या की काली रात्रि कहीं भी दिखाई नहीं देती, क्यों न हो आखिर जयपुर लक्ष्मी-पुत्रों का शहर जो है।
नव वधु की तरह सजे-धजे बाजार, खूबसूरत चौड़ी सड़कें साफसुथरे गुलाबी पुते मकान और मदमाती मस्ती का आलम। सांझ ढलने के साथ-साथ घर परिवार के लोग रोशनी देखने उमड़ पड़ते हैं। पूर्व के पेरिस की छटा दीपावली के दिन देखते ही बनती है। तीस मीटर उंचा मंच, स्वागत द्वार बनाया गया था पिछली बार।
जौहरी बाजार, राजापार्क, बापूबाजार, चांदपोल, किशनपोल, जवाहर नगर, सांगानेर, सोडाला से लगाकर शहर के गली मोहल्ले तक झगमग करते हैं मानों सितारों भरा आकाश ही जमीन पर उतार दिया गया हो।
राशनी के पुंजो से सजे बाजार, दरवाजे, हवेलियां, होटल, मंदिर, चौराहे, दूकानें और न जाने क्या-क्या ?
जौहरी बाजार के चौपड़ वाले नुक्कड़ पर कामदानी का आकर्पक गेट बनाया गया जो 250 वर्प पुरानी हस्त कलम का एक नायाब नमूना बनकर खड़ा था। त्रिपोलियां में शहनाई की धुन थी तो जौहरी बाजार में बैंड और शहर के बाहर जयपुर के करोल बाग याने राजापार्क की सजावट तो मानों स्वर्ग को मात करती थी। समूचे राजापार्क को झाड़फानूसों, हेलोजन बल्बों और रंग-बिरंगी झालरों से सजाया गया था। अब यदि इस रोशनी में लोगों के दिल में उमंग, उल्लास हिलोरे लेने लगे तो क्या आश्चर्य।
शहर नहीं इन्द्रपुरी लग रहा था जयपुर। और रोशनी ही रोशनी आतिशबाजी ही आतिशबाजी।
लक्ष्मी जी का ऐसा स्वागत ऐसा भव्य और दिव्य, अलौकिक स्वागत शायद ही किसी शहर के लोग करते होंगे। व्यापार मण्डल ही नहीं व्यक्तिगत स्पर्धा भी कम नहीं।
उपर से पुरस्कारों के ढेर। आखिर क्यों न हो जयपुर अपनी परम्परा, अपनी संस्कृति, अपने गौरवपूर्ण अतीत को भूल थोड़े ही सकता है।
दीपोत्सव के इस मंगलमय अवसर पर जयपुर की छटा देखते ही बनती है। इस दीपावली पर भी जयपुर की मनमोहक, सुरंगी, इन्द्रधनुपी छटा छाई रहेगी।
पूरे शहर को सजाने, संवारने-निखारने में नर-नारी, प्रशासन और व्यापार मण्डलों का अद्भुत संगम होता है। क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या सिख, क्या ईसाई सभी दीपावली भरपूर आनन्द और सौहार्द के साथ मनाते हैं। मुस्लिम बहुल इलाकों में भी दीपावली की सजावट होती है और खूब होती है। दीपावली जयपुर का ही नहीं सभी का सबसे खूबसूरत और शानदार त्यौहार है इसे शानदार तरीके से मनाइये।
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