Vividha - 30 in Hindi Anything by Yashvant Kothari books and stories PDF | विविधा - 30

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विविधा - 30

30-राजस्थान की चित्रकला

 रंगीले राजस्थान के कई रंग हैं। कहीं मरुस्थली बालू पसरी हंइ्र है तो कहीं अरावली की पर्वत श्रृंखलाएं अपना सिर उचा किये हुए खड़ी हुई हैं। राजस्थान में शौर्य और बलिदान ही नहीं साहित्य और संगीत की भी अजस्त्र धारा बहती रही है। संगीत और साहित्य के साथ साथ चित्र-कथाओं ने मनुप्य की चिन्तन शैली को बेहद प्रभावित किया है। आज हम चित्रकला के कमल वन में राजस्थानी चित्र कला का नयनाभिराम, मनमोहक तथा अनूठा संगम देखेंगे। 

   राजस्थान की चित्रकला 

 राजस्थान में चित्रकला का प्रारंभ लगभग चार शताब्दी पहले हुआ। मुगलकाल में चित्रकला उन्नत हुइ्र, लेकिन औरंगजेब ने कलाकारों से राज्याश्रय छीन लिया और कलाकार इधर-उधर भगने लगे। ऐसी स्थिति में राजपूतानों के रजवाड़ों और रावरों में इन कलाकारों को प्रश्रय मिला और चित्रकला राजस्थान में परवान चढ़ने लगी। 

 राजस्थान में चित्रकला के प्रारभिक काल में जैन शैली बहुत लोकप्रिय थी। गुजरात में भी इन दिनों जैन शैली का न्रभाव था, गुजरात से लगे होने के कारण मेवाड़ में जिस चित्रकला का विकास हुआ, वह जैन शैली से पूर्णतः प्रभावित थी।

 अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों, विभिन्न परिवेशों के कारण जैन और मुगल शैली के याग से राजस्थान में बिल्कुल अलग किस्म की चित्रकला विकसित हुई। ये चित्र शैलियां जैन और मुगल शैली से प्रभावित होते हुए भी बिल्कुल अलग और अनूठी थी। वास्तव में राजस्थान के चित्रकारों ने एक ऐसी चित्रधारा बहा दी कि विश्व आश्चर्यचकित रह गया। 

 प्रसिद्ध इतिहासकार अबुलफजल के अनुसार ‘राजस्थानी चित्रकला, वस्तुओं के बारे में हमारे ज्ञान से बहुत आगे हैं।’ हिन्दू धर्म के त्याग, तपस्या, संन्यास, कोमलता, श्रृंगार, पवित्रता, वियोग, शिकार, क्रोध, हास्य आदि सभी का प्रतिनिधित्व इन चित्रों में हुआ है। राजस्थानी कलाकारों ने जीवन में धर्म और श्रृंगार दोनों को बराबर महत्व देते हुए चित्र बनाये। अजन्ता के चित्रों में जो आदर्श है, वे राजस्थानी चित्र शैलियों में भी है। 

 राजस्थान की अलग अलग रियासतों में अलग अलग कलाकारों ने पीढ़ी दर पीढ़ी चित्र बनाए और चित्रकला की नवीन शैलियां विकसित कीं। बराबर राज्यश्रय मिलने के कारण ये चित्र शैलियां प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचीं। अति महत्वपूर्ण शैलियों में चित्र शैलियां प्रमुख हैं- 

 1.नाथद्वारा चित्र शैली 2. जैन चित्र शैली, 3. मारवाड़ चित्र शैली, 4. बूंदी चित्र शैली, 5. जयपुर चित्र शैली, 6. अलवर चित्र शैली, 7. कोटला चित्र शैली, 8. बीकानेर चित्र शैली, 10. मेवाड़ चित्र शैली, 11. किशनगढ़ चित्र शैली। 

   नाथद्वारा चित्र शैली 

 वरिप्ठ लेखक, कवि, सांसद बालकवि वैरागी ने नाथद्वारा को चित्रकला का कम लवन कहा हे। मैं इसे चित्रकला का नन्दन कानन कहना चाहूंगा। जब से होश संभाला है अपने मोहल्ले नई हवेली, में आस पास घरों में चितराम का काम होते देखा है- सब कुछ श्री जी बावा की कृपा। चितारों की गली हो या तपेलों या जाटों का पाइसाया चरण शर्मा की दुकान या विप्णु सोनी का घर या लीलाधरजी के स्टूडियो में हर तरफ कला, चित्र और श्रीजी बावा के फोटू।नतमस्तक हूं या इन कलाकारों के प्रति, रेवाशंकर जी होना हेमचन्द्रजी द्वारकाजी या विप्णु या फिर अन्य कलाकार, सभी की पेन्टिंग्स हमेशा से आकर्पित करती हैं। 

 राजस्थान में वैप्णव समाज का सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थल है नाथद्वारा और इतिहासकारों के अनुसार राजस्थान में श्रीनाथ जी के आगमन के साथ चितेरे भी आये। पिछवाई कला तो 500 वर्प पुरानी है। तब दिल्ली पर औरंगजेब का शासन था। कट्टर भावनाओं और धर्म के प्रति अंधे अनुराग के कारण औरंगजेब ने प्रतिमाओं का खण्डन किया। इन अत्याचारों से त्रस्त और भयभीत होकर महाराज गोपीनाथ जी ने मेवाड़ के महाराजा से शरण मांगी। उदारमना महाराणा ने श्रीजी बाबा को नाथद्वारा में रहने की इजाजत दी और महाराज को अपना धर्मगुरु बनाया। श्रीनाथजी की भक्त मण्डली के साथ मेवाड़ में सियाढ़ के बाद श्रीनाथ जी की प्रतिप्ठा नाथद्वारा में हुइ्र। 

 भक्त मण्डल में कई चित्रकार भी थे, जो अपनी कला साधना के बल पर श्रीजी बाबा की सेवा करने में जूट गये। राज्याश्रय, भक्तों द्वारा निरन्तर खरीद और श्रीनाथजी के आशीर्वाद से इस चित्र शैली का निरन्तर विकास होता रहा। विभिन्न रंगों की विपमताओं का समन्वय ही नाथद्वारा शैली की मौलिकता है। रंग सम्मिश्रित नहीं करते नाथद्वारा के कलाकार, रंगों का समन्वय करते हैं। इस शैली में चेहरे का कप्ट, नाक की विशेपता, उरोजों का गोल उभार, नथ का मोती, अलकों की एक लम्बी लटकन, मंगलसूत्र की आव और कटि की क्षीणता का पूरा ध्यान रखा जाता है। पुरुप चित्रण का पता तो तिलक से ही लग जाता है। कुल मिला कर संक्षेप में राजपूत शैली, मेवाड़ शैली, किशनगढ़ शैली का अनोखा कॉकटेल है नाथद्वारा शैली।

 श्रीनाथजी के चित्रों में श्रृगार, ठोड़ी पर हीरा और फूलों का आधिक्य है। 35 हजार की छोटी आबादी वाले कस्बे नाथद्वारा में चित्रकला का इतना विराट वैभव विकसित हुआ इसका कारण प्रमुखतः यह रहा कि इस वैप्णव समाज में हाथ के बने चित्रों से ही पूजा का विधान रहा है। 

 मंदिर की धोली पटिया पर बैठकर यहां के चित्रकार अपने चित्रों को स्वयं ही ग्राहकों तक पहुंचाते रहे। छोटा मोटा एक दो करोड़ का सालाना व्यापार है यह। इसके अलावा चित्रकार दशहरे, दीपावली व अन्य प्रमुख त्यौहारों पर मंदिर के विभिन्न हिस्सों यथा पानघर,फूलघर, गेणाघर, खर्चा भण्डार, नगारखाना आदि की दीवारों पर हाथी, घोडे़, सिंह, हाथ बैल, गौरी, दीपक, बेलबूटे गमले, कदली वृक्ष आदि का चित्रण वर्पो से करते रहे हैं। 

 सच पूछा जाये तो पुप्टि मार्ग का मूल कर्म कृप्ण कन्हैया को रिझाना, और दनका गुणगान करना रहा है। श्रीनाथजी को भी कृप्ण का अवतार मान कर ही उनकी पूजा अर्चना की जाती रही है और उनमें निप्ठा व श्रद्धा का कभी अभाव नहीं रहा है। इसी क्रम में भगवान कृप्ण की लीलाओं का अंकन यहां की चित्रकला का मूल विपय रहा है।  

 कृप्ण जन्म से लगाकर, ब्रज की रासलीला, गोचारण, भोजन, दैत्यों का संहार तथा गोपियों के साथ विभिन्न ढंग से की गई ठिठोलियों का विपद चित्रण इस शैली का प्रमुख आग्रह रहा है। बाहर मासों, छत्तीस राग-रागीनियों तथा छः रागों के चित्र भी लम्बे समय तक इस शैली में बनाये जाते रहे है। नाथद्वारा शैली में बने चित्रों में सोने-चांदी का काम भी होता आया है। लगभग 5000 चित्रकार इस व्यवसाय में लगे हुए हैं। घरों पर महिलाएं व बच्चे भी इस काम में मदद करते हैं। बच्चे रंग घोलते हैं, ब्रश तैयार करते है ओर धीरे-धीरे प्रशिक्षित होकर चित्रकार बन जाते हैं, इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी चित्रकार बनते चले जाते है। प्रमुखचित्रकारों में खूबीरामजी, घनश्याम शर्मा, राजेन्द्र शर्मा, भंवरलाल शर्मा,रेवाशंकर शर्मा, जगदीश प्रसाद शर्मा, मदन लाल शर्मा, द्वारकालाल जांगीड़, भंवर शर्मा, शंकरलाल, नरोत्तम शर्मा, बी.जी. शर्मा व कई अन्य हैं। चित्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी इा कार्य को करते रहे हैं। और अधिकांश चित्रकारों के पास सालों के रिकार्ड आर्डर बुक हैं। कई चित्रकार मिनिएचर का काम भी करते है। अर्थात् पुराने चित्रों का जीर्णोद्धार, इस कला में निप्णात रेवा शंकर जी अमेरिका भी हो आए हैं। 

 कई कलाकारों को राज्य व राप्टस्तरीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं, स्पान ताज, आदि पत्रों में इन पर लेख छप चुके हैं। लेकिन नाथद्वारा की यह कला अब तेजी से व्यावसायिक होती जा रही है, बड़े दूकानदार, बिचोलिए, इन कलाकारों को उपर नहीं आने दे रहे हैं। 

    पिछवाई-कला 

 श्रीनाथ जी के चित्रों के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है पिछवाई।वास्तव में श्रीनाथ जी की प्रतिमा के पीछे दीवारों को सजाने के लिए कपड़े पर मंदिर के आकार के अनुसार चित्र बनाये जाते हैं। ये पर्दों का काम करते हैं।यह नाथद्वारा की अपनी मौलिकता है, जो अन्य किसी शैली में नजर नहीं आती। पिछवाई का आकार कुछ भी हो सकता है, और मूल्य पांच सौ रुपये से लगाकर 20,000 रुपये तक। इन पिछवाईयों में अधिकतर विभिन्न उत्सवों से संबंधित होती है। 

 इन पिछवाईयों पर प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण भी काफी किया जाता है। गिरिराज पर्वत, गोपालन, रासलीलाएं, माखन खाते कृप्ण आदि इस शैली के आम विपय है। यहा के चित्रकार रंग भरने हेतु अपने लिए विशेप ब्रश बनाते हैं। प्रधान पर्वो की झाांकियाों के चित्र कई आकारों में बनते हैं। मंगला, ग्वाल, श्रृंगार, राज भोग आदि झाांकियों के चित्रों की सर्वाधिक मांग रहती है। 

 एक मीटर गुणा डेढ़ मीटर कपड़े पर श्रीनाथ जी का चित्रण काफी होता है। यह स्वरुप कहलाता है। इसके अलावा चितेरे, महत्वपूर्ण अवसरों यथा शादी, ब्याह, जनेउ अवसरों पर भित्ती चित्र भी बनाते हैं। इस चित्र शैली में सर्वप्रथम कागज या कपड़े पर कोयले से रेखाकृति अंकित की जाती है। सुनहरे भाग को सोने से बनाया जाता है। इसके बाद सफेद काम करके लाल व काला काम करते हैं। रंग लगाने के बाद कपड़े या कागज को चिकने पत्थरों पर घोट कर उसका भुरभुरापन दूर किया जाता है। कपड़े पर कलफ लगाया जाता है। कागज के बजाय कपड़े की घुटाई ज्यादा महत्वपूर्ण है और कपउे़ पर रंग भी ज्यादा पक्के लगाये जाते हैं। 

 आभूपण के चित्रण के मामले में कर्णफूल, कुण्डल, दुर्गदूगी, कन्दोरा, कडे, बंगडी, हथपान, हार, कांटा, लोंग, नथ, बोर, भुजबंद, अंगूठी, डोरा, गुटिया, झोला आदि प्राथमिकता पाते हैं। हीरे भी बनाये जाते हैं। पुरुपों के मामले में मेवाड़ी पगड़ी, अंगरखी, धोती, जूते, खड़ाउं आदि प्रमुखता से अंकित किये जाते हैं। 

महिलाओं के लिए साड़ी, कांचली, घाघरा आदि प्रमुखता से अंकित किये जाते हैं। फूलों का श्रृंगार भी लोकप्रिय है। राधा को बनाते समय कुछ लोग नवीन वस्त्र व आभूपण भी प्रयुक्त कर देते हैं। जानवरों में बैल, तोता, सारस, मछलियां, सर्प, बगुला आदि का चित्रण होता है। फूलों में कमल, गुलाब, कदम्ब, आम, मोलश्री आदि प्रमुखता पाते हैं। 

 पिछवाई कला में दो सौ वर्प पूर्व रामचन्द्र बाबा चित्रकार हुए। बाद में विटठ्ल व चम्पालाल हुए। इस कला में खेमराज जी भी प्रसिद्ध हैं। 

    जैन चित्र शैली 

 जैन समाज की अपनी धार्मिक परम्पराएं, मान, मर्यादाएं हैं और उसी के अनुरुप जैन चित्र शैली का विकास हुआ है। चौबीस तीर्थकरों का जीवन चरित्र, मंदिर, चरित्र, काव्य आदि को आधार मानकर इस शैली में चित्र बनाये जाते हें। इस कला का आधार गुजरात था। इसी परम्परा का विकास बाद में राजस्थान में भी हुआ। यहां भी सैकड़ों सचित्र जैन, प्राकृत, पाली ग्रन्थ लिख्े गये, जिनमें बहुत से चित्र बने। राय कृप्णदास इस शैली को अपभ्रंश मानते थे। जैन लघु चित्रों की परम्परा अपना अलग वैशिप्ट्य रखती है। इन चित्रों का कथ्य, रंग विधान अन्य शैलियों से सर्वथा अलग है। यह परम्परा अजन्ता की बौद्ध शैली के निकट है। इन चित्रों की अपनी चिन्तन शैली है। अपने अलग मूल्य है, और इस कारण ये अलग महत्व रखते हैं। इन चित्रों में ललाट चौड़ा, कान की लो लम्बी, नाक सधी हुई होती है। आंखें गोल और बड़ी पाई गई हैं। 

 इन चित्रों में विशालता का प्रतिपादन विशेपरुप से होता हैं। केश लम्बे, जूड़े बंधे हुए होते हैं। पुरुपों में दाढ़ी को दो बराबर भागों में बांटा जाता है। उरोज उन्नत और पुप्ट बनाये जाते हैं। वास्तव में राजस्थान की प्राचीनतम शैलियों में से एक जैन शैली है। ये चित्र पन्द्रहवीं सदी से प्राप्त होते हैं। 

 इन चित्रों के चित्रकार, उदयपुर, बीकानेर, जोधपुर, नाकोड़ा, देलवाड़ा, रणकपुर आदि स्थानों पर रहते हैं। जैन शैली के चित्र अगरचन्द नहाटा, बनारस कला भवन, मोती चन्दखजान्ची के पास संग्रहीत हैं। श्रृंगार भावनाओं का चित्रण भी जैन शैली में किया जाता था। कुछ विशेपज्ञों के अनुसार जैन चित्रों का संयोजन संपूर्ण और सुदृढ़ है। रंगों का समायोजन दर्शनीय होता है। 

 जैन चित्रों में ज्योतिप, सामूद्रिक, तंत्र-मंत्र और यंत्र शास्त्रों का भी वर्णन मिलता है। चित्रों के विपयों में प्रमुख हैं- चौदह स्वप्न, चौबीस तीर्थकर, जन्म, इन्द्रसभा, क्षीर समुद्र, पदम सरोवर, त्रिशला, पूर्ण कलश, तृप्णा, क्रोध, कल्पवृक्ष आदि। इस ष्शैली में मोर, ष्शेर, हाथी, कलश, चामर,लता, मेघ, कछुआ, बन्दर, सांप तोता, रथ, हरिण आदि का भी चित्रण मिलता है। 

 नीला, हिंगुल, पीला, सुनहरा, तथा रजत पूर्ण रंगों का प्रयोग काफी ज्यादा होता था। इन चित्रों की रेखाएं पतली, अर्ध चन्द्राकार होती हैं। वास्तव में ये रेखा-प्रधान चित्र हैं। यति-समुदाय के जैन चित्रों के क्षेत्र में आज भी काफी शोध की संभावनाएं हैं। 

   मारवाड़ चित्र-शैली 

 अरावली की पर्वतमाला के पश्चिम में बसा मारवाड़, रेगिस्तानी इलाका है,जो शायद कभी हरा-भरा रहा होगा। इस इलाके में दसवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी तक की कृतियों में चित्रांकन मिलते हैं। 

 वास्तव में मारवाड़ चित्र शैली मुगल और स्थानीय अपभ्रंश शैली से सम्मिश्रण से विकसित हुई है। सन् 1633 की निर्मित एक रागमाला इस शैली का प्राचीनतम चित्र है। पाली की रणमाला में ग्रामीण कला का प्रमाण है। मारवाड़ शैली पर मुगल शैली का प्रभाव है, इसमें चित्र अधिक सरस, सुन्दर और मुखर बनते हैं। इनमें रेखाएं भंगिमाएं, रंगों का संयोजन भी सुन्दर है। कहीं कहीं पर विदेशी प्रभाव भी है। सन् 1803 से मारवाड़ शैली का महत्वपूर्ण काल शुरू होता है। महाराजा मानसिंह स्वयं कला प्रेमी थे और उन्होंने इस शैली को राज्याश्रय दिया। इस दौरान कुचामन, घाणेराव, नागौर, जालौर, आदि स्थानों पर चित्रशालाएं बनीं और बड़ी भारी मात्रा में चित्रों का निर्माण हुआ।

 इन चित्रों में रंग गहरे हैं और विलास के प्रतीक हैं। मारवाड़ शैली के विपय अन्य शैलियों से अलग हैं। राधाकृप्ण के चित्र कम बने और जो बने उनमें जयदेव के गीत गोविन्द को आधार माना गया है। 

 मूल रुप से देखा जाये तो मारवाड़ी शैली के चित्रों का आधार ढोला-मारू, भूमलदे, निहालदे जैसी लोक-कथाएं हैं। इस शैली की मानव आकृति लम्बी-चौड़ी और खूबसूरत है। दाढ़ी मूंछ भी है। कमर पर कमरबन्द होता है। पुरुपों के अलंकारों में सरपेंच, जुबदा, मोती की माला, कटार, ढाल, तलवार, तूर्रा, कलंगी आदि हैं। स्त्रियां भी लम्बी-चौड़ी, तगड़ी और खूबसूरत बनाई जाती थी। बाल काले घने, और नितम्ब तक लम्बे होते थे। 

 मेहन्दी रचे हाथों के साथ साथ आंख खंजन जैसी होती हैं। पोशाक के रुप में रंगीन, कसूमल रंग बहुत लोकप्रिय था। लहंगा, चोली, कांचली, लूगड़ी, ज्यादा बनती थी। पैरों में मखमली जूती होती थी। आभूपणों में मोतियों की माला, टीका, लोंग, नथ, टेबटा, गलसरी, कंठी आदि बनाये जाते थे। आम का वृक्ष उंट, घोड़ा, कुत्ता आदि भी इन चित्रों में प्रमुखता पाते थे। 

    बून्दी शैली 

 इस शैली का उद्भव और विकास कोटा के पास की रिसायत बून्दी में हुआ था। राजस्थानी संस्कृति का पूर्ण विकास इस शैली में दृप्टिगोचर होता है। इन चित्रों के विपय वीरता, और श्रृंगार साथ साथ है। नायिका भेद के चित्रों को भी स्थान मिला है। इस शैली के मूल में तीव्र कल्पना शक्ति है। मूक रेखाओं से यथार्थ के धरातल को उकेरा गया है। बून्दी के चित्रों में शिकार, उत्सव, सवारी, दरबार आदि ज्यादा बनाये गये हैं। कृप्ण रास को भी पूरा स्थान मिला है। कृप्ण लीला और कविताओं को आधार बनाकर भी इस शैली में काफी चित्र बनाये गये हैं। इन चित्रों में रेखाओं का महत्व रंगों से भी ज्यादा है। इन चित्रों में आकृतियां लम्बी और स्मार्ट होती थीं। स्त्रियों के मुख पर अधरों से स्मित हास्य झलकता है। पुरुपों की आकृति में नीचे को झुकी पगड़ियां होती थीं। चित्रों के विपय राग, नायिक भेद, ऋतुएं, बारह मासा, कृप्ण लीला, आदि होते थे। वर्पा के चित्र भी बहुत सुन्दर बनते थे। वर्पा के अलावा ग्रीप्म, शीत, होली आदि के चित्र भी बहुत बने हैं।

 होली के चित्रों में पिचकारियां भरती युवतियां, रसिकजन और बौराए युवामन बनाये गये हैं। बून्दी कला शैली के चित्रों में लाज, हिंगुल, आकाश, सोने का आलेपन ज्यादा किया जाता है। चित्रों में सोने और चांदी का बारीक काम उसकी सुन्दरता में चार चांद लगा देते हैं। सफेद रंग से भवन बनाये जाते हैं। बून्दी शैली में चित्रित नारी सौन्दर्य भी अद्भुत हैं।       

   जयपुर चित्र शैली

 सन् 1600 से 1900 तक आमेर व जयपुर में कलाकारों ने जिस शैली का विकास किया वहीं जयपुर शैली तेजी से कए बड़े भूभाग में प्रचलित हो गई। जयपुर राज्य की पुरानी राजधानी आमेर थी, वहां से जब जयपुर राजधानी आई तो कलाकार भी साथ आए और जयपुर - शैली विकसित होने लगी। लम्बे इतिहास को छोड़ दे तो उस दौरान भित्ती चित्रों तथा पोटेटों का भी निर्माण भी काफी हुआ। बाद में विदेशी प्रभाव से प्राचीन कला का ह्रास जयसिंह सेकिंड व रामसिंह के समय हुआ। 

 राजा प्रताप सिंह के शासन के दौरान महाभारत, रामायण, कृप्णलीला, दुर्गापाठ, आदि विपयों पर सैकड़ों चित्र बने। रागमाला, गीतमाला, गीतगोविन्द आदि पर भी चित्र बनाये गये। इस शैली में सैकडों व्यक्ति चित्र बने। कामसूत्र पर भी चित्र बनाये गये। इसमें गहरे लाल रंग से हाशिये बनाये जाते हैं। यह बहुत चमकदार रंग होता था। सफेद, लाल, हरा, पीला, नीला, रंग भी बहुत ज्यादा प्रयुक्त होता था। जस्ते का उपयोग भी किया जाता था। सुनहरी काम हेतु सोने का प्रयोग होता था। 

 जयपुर शैली में चित्रित पुरुपों और स्त्रियों की लम्बाई, अच्छे अनुपात में बनाई जाती थी। पुरुपों में मूंछे और लम्बी केश राशि होती थी। दाढ़ी बहुत कम होती थी। नारी पात्रों का शरीर सुगठित, सुडौल और लम्बे केशों से युक्त होता था। चेहरा अण्डाकार, नाक सुडौल और अधर पतले चित्रित किये जाते थे। चन्दन का लेप, मंहदी आदि का प्रयोग भी होता था। आभूपणों में तुर्रा, कलंगी, सेहरा, लोंग, बाली आदि तथा गले में माला, कंठी होती थी। 

 रामसिंह के शासन में वेशभूपा पर अंग्रेजी प्रभाव शुरु हो गया। जयपुरी चित्रों में उद्यान भी बहुत बनाये गये। पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों व बन्दरों का बारीक चित्रण पाया जाता है। कागज व भित्ती चित्रों पर फूल, वृक्ष, लताएं, पौधे आदि बहुत ज्यादा चित्रित किये गये हैं। पशुओं में तीता, हाथी, शेर, भेड़, बकरी, कुत्ता, बिल्ली, उंट, घोड़ा, सांभर, रीछ, गिलहरी आदि का भी बड़ा स्वाभाविक चित्रण किया गया है। मोर, बतख, कौआ, कोयल व मुगल शैली के अन्य प्रभावों का भी प्रयोग हुआ है। इस शैली की तकनीक अनोखी रही है। बाद में जाकर जयपुर शैली चित्रकला की एक महत्वपूर्ण शैली रही है। 

   अलवर चित्र शैली

 वास्तव में अलवर शैली, जयपुर और दिल्ली शैली के मिश्रण से बनी हे। इन शैलियों की छाप अलवर शैली पर स्पप्ट दिखाई देती है। कई विद्वानइस शैली को मुगल शैली की प्रतिछाया मानते हैं। इस शैली में विपयों में राधा-कृप्ण, वेश्या जीवन तथा अंग्रेजी जीवन पद्धति है। शिकार संबंधी चित्र भी इस शैली में बाद में बनाये गये हैं। इस शैली में हरा और नीला रंग अधिक प्रयुक्त किया जाता है। रंग बाहर के देशों से आते थे। इस शैली की स्त्रियां बहुत सुन्दर बनती थीं। चमड़े पर भी काम होता था। 

 इस शैली में औरत व पुरुप आकृतियों में आंखें गोल, होठ पतले तथा पान से सने दिखाए जाते थे।स्त्रियों की चोटी उपर जाकर नीचे लटकती हुई दिखाई गई है। नाक में नथ और कानों में बालियां। चित्रित की जाती थीं। पांवों में पायजेब भी बनाये जाते थे। स्त्रियां पायजामा, कुर्ता और चोली में बनाई जाती थीं। राध-कृप्ण के चित्रों में परम्परागत विधान होता था। पुरुपों के गले में रुमाल,सर पर टोपी या साफा होता था। प्रकृति का चित्र भी इस शैली में पाया जाता था। इस शैली पर मथुरा, दिलली और जयपुर शैलियों का काफी प्रभाव रहा। 

    कोटा चित्र शैली 

 इस शैली के चित्रों में भावों की गहनता, विपयों का अनुकूल अंकन, सौन्दर्य एवं लावण्य का योजनानुसार निरुपण पाया जाता है। 

 कोटा शैली के लघु चित्र कलाकारों की कल्पना के रुप में देते हैं दरबारी दृश्य, जुलूस, कृप्ण लीला, बारहमासा, राग रागनियां, युद्ध, शिकार आदि इस शैली के प्रमुख विपय रहे हैं। श्री कृप्ण लीला के चित्रों में पुप्टिमार्गीय परम्परा का विकास हुआ है। दशावतार की झांकियां भी दिखाई गई हैं। गोपियां, उद्धव, श्रीकप्ण-बलराम आदि विपय भी चित्रित हुए हैं। युद्ध संबंधी चित्रों में क्रोधित चेहरे, शोणित नयन, युद्धरत भावावेश भी है। शिकार के चित्रों में दुर्गम स्थानों पर शेर, बाघ व अन्य आखेटों का वर्णन है। इन शिकार चित्रों में नारियों व रानियों को भी शिकार करते हुए दिखाया गया है। 

 मधुमालती की कथा, ढोलामारु के प्रेम प्रसंग तथा इसी प्रकार के अन्य विपयों पर भी चित्र बनाये गये हैं। इस शैली में पुरुपों को वृपभ, उन्नत और मांसल देहधारी चित्रित किया गया है। आभूपणें में मोती का प्रयोग ज्यादा है। स्त्री चित्रण में लम्बी नाक, पीनअधर, क्षीणकटि बनाई जाती थी। कपोल सुन्दर, कदलीसम जंघाएं अदि कोटा शैली की विशेपताएं रही हैं। रंगों में हरा पीला और नीला रंग बहुतायत से प्रयुक्त होता था। वास्तव में कोटा शैली अलवर शैली से मिलती जुलती है। 

    बीकानेर चित्र शैली 

 अनूपसिंह के शासन काल के दौरान बीकानेर शैली परवान चढ़ी। तत्कालीन कलाकारों ने स्थानीय, प्रौढ़ और परिमार्जित कला शैली का विकास किया।

 इसका विकास सत्रहवीं व अठारहवीं सदी में हुआ। इस शैली पर पंजाब संस्कृति का काफी प्रभाव रहा। मुगल शैली का प्रभाव भी इस शैली पर पड़ा। इन चित्रों के प्रमुख विपय-पोटेट, दरबार, शिकार, राग-रागनियां आदि रहे हैं। फब्बारे, सजावट, भागवत कथा आदि पर भी चित्र बने हैं। इस शैली में आकाश को सुनहरे छत्तों से युक्त, बादलों से भरा हुआ दिखाया गया है। इन सभी चित्रों में पीले रंग को प्रमुखता दी गई है। कहीं कहीं यह जोधपुर ‘मारवाड़’ शैली से भी मिलती हुई है। पुरुप आकृति व नारी आकृतियां लगभग मुगल शैली या मारवाड़ शैली जैसी ही बनाई जाती थी। अनूपसिंह के अलावा रायसिंह व कर्णसिंह के शासनकाल में भी इस शैली का विकास हुआ। इन चित्रों में रेखाओं की गती, रंगों का सुन्दर प्रयोग और सहजता प्रमुख है। 

    जैसलमेर चित्र शैली 

 इस शैली के बहुत कम चित्र उपलब्ध हैं और इसी कारण इस शैली का परिचय कम हुआ है। इन चित्रों में रंग, आकृति और भाव विधान कलापूर्ण और सजीव है। 

पत्थरों की कला के लिए प्रसिद्ध जैसलमेर की चित्रकला पर मारवाड़ शैली का प्रभाव ज्यादा नहीं पड़ा। इस शैली के चित्रों में पुरुपों के मुख पर दाढ़ी, मूंछतेज,ओज दिखाई पड़ता है। शरीर मजबूत और शक्तिशाली बनाया जाता है। नारी चित्रों में मुख यौवन से ओतप्रोत, सुन्दर और कलापूर्ण है। आकर्पक अंगुलियां तथा नख से शिख तक सुन्दर लगती हैं। 

 इन चित्रों रंग की बजाय कला पर ज्यादा ध्यान दिया जाता था। इसी कारण कम रंगों से ज्यादा अच्छे और प्रभावी चित्र गनाये गये। जो सजीव लगते थे। महाराजा हरराज, अखेसिंह और मूलराज के शासनकाल में इस शैली का विकास हुआ। 

    मेवाड़ चित्र शैली 

 राजस्थान में चित्रकला का उद्भव व विकास मेवाड़ शैली से शुरु होता है। चितौड़, चावंड, नाथद्वारा आदि स्थानों पर मेवाड़ शैली पल्लवित हुई। राणा कुम्भा, राणा सांगा, राणा प्रताप, अमरसिंह, राजसिंह आदि राणाओं ने मेवाड़ी चित्रकला को आगे बढ़ाया। आयड ‘उदयपुर’ में मेवाड़ चित्रकला को आगे बढ़ाया। आयड ‘उदयपुर’ में मेवाड़ चित्र शैली का प्रथम चित्र मिला है। कुम्भलगढत्र में भी इसी शैली के चित्र मिलते है। चावंड मेवाड़ चित्रकला का प्रमुख स्थल था। इस शैली के चित्रों पर जैन व गुजराती शैलियों का प्रभाव है। इस शैली में रेखाएं मोटी, भारी और रुक्ष पाई गयी हैं। 

 प्रकृति का चित्रण भी काफी हुआ है। इस शैली के ज्यादातर चित्र पुस्तकों पर बने हें। रामायण, सूरसागर, रसिकप्रिया, बिहारी, बारहमासा, आदि के चित्र काफी प्रसिद्ध हुए। इस शैली के चित्रों में मड़क भड़क नहीं हैं। सादे लाल और काले रंग से चित्र बनाये गये हैं। मेवाड़ शैली पर भी शोध की काफी संभावनाएं है। 

    किशनगढ़ चित्र शैली 

 किशनगढ़ का नाम आते ही नागरीदास की बणी-ढाणी का ध्यान आ जाता है। वास्तव में किशनगढ़ शैली अपने आप में अपूर्व अद्वितीय और रससिद्ध है। कृप्णभक्ति को आधार बनाकर कवि नागरीदास ने रसिकता और भावुकता से परिपूर्ण बणी ठणी से किशनगढ़ शैली ने प्रसिद्धि पाई। राजा किशनसिंह ने इस काम को अन्जाम दिया। 

 राजा सावंत सिंह या नागरीदास ने इस कला को शिखर पर पहुंचा दिया। नागरीदास ने बिहार-चन्द्रिका रसिकरत्नावली तथा मनोरथ मंजरी नामक काव्य ग्रंथ रचकर प्रसिद्धि पाई। वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित होकर भी वे अपनी पासवान बणी ठणी का चित्रण कर अपनी कला को सार्थक करते हैं। 

 प्रकृति चित्रण, प्शु-पक्षियों का चित्रण इस ष्शैली की विशेपता रहा है। झील में खेलते पक्षी, नौकाएं आदि भी चित्रों में काफी कनाई जाती थीं। भवनों, फव्वारों, कदली वृक्षों, कदम्ब वृक्षों व कमल दल भी काफी ज्यादा बनाये जाते थे। 

 इस शैली के चित्रों में अंकन की विशिप्टता होती थी और इसी कारण किशनगढ़ी शैली अनूठी है। नारी आकुतियों के चित्रण में जितनी सावधानी किशनगढ़ी शैली में रखी जाती है, शायद ही कहीं अन्य शैली में होगी। 

 नागरीदास की प्रेमिका बणी ठणी को राधा के रुप में अंकित किया जाता है। नारी के कोमल शरीर से खेलती लम्बी केशराशि, काजल युक्त आकर्पक आंखे,पीनअधर, क्षीणकटि, दीर्घ नासिका, उन्नत ललाट विकसित और खिले उरोज ये सभी किशनगढ़ शैली की विशेपताएं है। सफेद गुलाबी रंगों का ज्यादा प्रयोग होता था। लाल हरा व नीला रंग भी प्रयुक्त होते थे। इस शैली का प्रसिद्ध चित्र बणी-ठणी ही है। किशनगढ़ चित्र शैली सबसे प्रसिद्ध श्रृंगार, बोध के इतने सुन्दर चित्र अन्य किसी भी शैली में शायद ही बनते है। 

 राजस्थान की चित्र शैलियों में नाथद्वारा, मारवाड़ और किशनगढ़ की शैलियां ही सर्वाधिक चर्चित, प्रसिद्ध और सम्पन्न रही हैं। अन्य शैलियों पर एक दूसरे के प्रभाव इतने अधिक रहे हैं कि उन्हें स्वतंत्र शैलियां मानना ही कई बार न्यायोचित नहीं लगता। 

 आज राजस्थान शैलियों के चित्र भारत के ही नहीं विदेशों के पच्चीसों संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे है। सैकड़ों दुर्लभ चित्र नप्ट हो रहे है, आवश्यकता है कि इस ओर प्रयास हो और इन चित्रों की सुरक्षा के साथ साथ इन पर खोज, शोध और लेखन हो ताकि अतीत की यह धरोहर हमारा मस्तक और उंचा कर सके। 

 

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