27-मानव हाथों से बने देवी-देवता
सफेद और काले हल्के पीले और गुलाबी, रंगीन और सादे, पारदर्शी या इन्द्रधनुषी, अनगिनत रंगों में कलात्मक मूर्तियां पत्थरों की। जयपुर मूर्ति उद्योग विश्व-विख्यात हैं। हजारों लाखों की संख्या में ये मूर्तियां प्रतिवर्ष देश विदेश के हजारों मंदिरों में प्रतिष्ठित होकर श्रद्धा से पूजी जाती है। इनकी अर्चना की जाती है। मन्नतें मानी जाती है।
मूर्ति बनाने के आरंभ से ही मनुष्य के मुख्यतः दो उद्देश्य रहे है। एक तो किसी स्मृति को या अतीत को जीवित बनाये रखना, दूसरे अमूर्त को मूर्त रूप देकर व्यक्त कर अपना भाव प्रकट करना। यदि पूरे संसार की काल प्रतिमाओं का विवेचन करे तो यही तथ्य दृष्टिगोचर होता है। प्रारम्भ में मनुष्य ने जानवारों, वनस्पतियों और उन पर मानव की विजय का अंकन मूर्तियों पर किया फिर देवी देवताओं और प्राकृतिक कोप से बचने के लिए मूर्तियों का पूजन अर्चन प्रारंभ हुआ। मूर्तिकला में ऐतिहासिक मूर्तियां एक सिरे पर है और धार्मिक और कलात्मक मूर्तियां दूसरे सिरे पर है। आध्यात्मिक भावना में उपासना में, पूजा, अर्चना में जो सुख है, वह भौतिकवाद में नहीं है और भारतीय मूर्तिकला ने अपना ध्यान इसी पारलोकिक सुख की ओर केन्द्रित किया हैं। वास्तव में मूर्ति, चित्र, कविता संगीत का और सौन्दर्य का एक ऐसा मिला जुला रूप है कि बरबस वह मानव को आकर्षित कर उसके अवचेतन मस्तिष्क में देवता की या ईश्वर की एक छवि बना देती है। भारतीय मूर्तिकला ने भौतिक रूप का निर्देशन न करके तात्विक रूप निर्देशन किया है और इसी कारण यह सर्वत्र ग्राहय है। पूज्य हैं।
भारत की प्राचीन मूर्तियां सिंध, मोहनजोदड़ों और हड़प्पा में मिली है। बाद में नंदकाल, मार्यकाल, शुंगकाल, कुषाण-सातवाहनकाल, मथुरा शैली, गुप्तकाल, उत्तर-मध्यकाल, खुजराहो, तंजोर, दक्षिण भारत तथा आधुनिककाल में भी भारतीय मूर्तिकाला की परम्परा रही है। वास्तव में कलाकृति में कलाकार की अनुभूति की ही अभिव्यक्ति रहती है। और सृजन का सुख कलाकार को बराबर मिलता रहा हैं।
आज के इस युग में इन मूतियों को साकार, ईश्वरीय रूप देने वाले मूर्तिकारों, चित्रकारों की स्थिति क्या है ? यह परम्परा क्या है ?, कहां से प्रेरणा चली आ रही है ंजो इस सृजन को जीवित रखे हुए है। कलाकारों चित्रकारों और मूर्ति-व्यापार की वस्तु स्थिति क्या हैं ?
शिल्पधाम जयपुर
आइये, इन प्रश्नों का उत्तर खोजने जयपुर की गलियों में चलें। चांदपोल बाजार के खेजड़ों, भिण्डों ओैर खजाने वालों के रास्ते में चलते हैं। हर तरफ आधी अधूरी, श्वेत, रंगीन पूर्ण बनी हुई मूर्तियां और अभ्यस्त हाथ हन मूर्तियों पर टांची, छेनी, हथौड़ी, रंग, कूची फैर रहैं लगातार अनवरत हाथ ताकि यह मूर्ति ग्राहक को पसन्द आये और किसी मंदिर में प्रतिष्टित होकर पूजित हो। एक ही खान से निकला पत्थर विष्णू ब्रहमा, महेश, महावीर, बुद्ध राम कृष्ण शिव, नन्दी या महात्मा गांधी बन जाती है, इन अभ्यस्त हाथों में आकर। मेरे सामने शिलाखण्ड है लम्बा चौडा और मोटा, उस पर कोयले से निशान बनाये जा रहे हैं। कलाकार की छेनी चलती है और धीरे-धीरे एक आकार साकार होता हैं। निर्जीव पत्थर में प्राण प्रतिष्ठा उस शिल्पी के द्वारा कला का अदभुत करिश्मा। मूर्ति चाहे किसी की बने देवी देवता नर नारी कोई हो लेकिन प्रतिमा के मुख पर सौम्यता, मंद स्मित और चिंतन मनन तथा एक प्रभा मण्डल की छाप ये अवश्य मिलेंगे ताकि आप अभिभूत हो जाये। शायद इन शिल्पियों के कारण ही भारतीय दर्शन निष्काम कर्म की प्रेरणा देता है।
पाषणों का वैविध्य
जिस रंग, पत्थर की मूर्ति चाहिये वह मूर्ति यहां पर मिल जाएगी। मकराना, रायला, झिरी, आदि स्थानों के संगमरमर के पत्थ्रों से मूर्तियां बनती है। अधिकांश मूर्तियां मकराना के संगमरमर से बनती है। क्यांेकि यह उत्तम है, तथा सुलभ हैं। जैसलमेर का पीला पत्थर जैन मूर्तियों हेतू बढ़ियां रहता है। इसी प्रकार दौसा, बस्सी आदि क्षेत्रों का पत्थर भी काम आता हैं। मूर्ति निर्माण के क्षेत्र में पाषण का प्रयोग, आधुनिक युग की ही देन नहीं हैं। प्राचीन समय में भी इमारतों, लेखन व मूर्तिकला में पत्थरांे का प्रयोंग होता रहा है। अशोक के शिलालेखांे से प्रारम्भ यह पाम्परा आगे तक चलती रही हैं। मुगलों ने भी संगमरमर का प्रयोग काफी मात्रा में इमारती कामों हेतु किया। ताजमहल इसका उच्चतम उदाहरण हैं। अंग्रेजों ने श्वेत संगमरमर का प्रयोग किया। खान से बड़ा या छोटा मूर्ति के संभावित आकर का पत्थर चुनकर उस पर कारीगर काम शुरू करता है। टांकी, छेनी और हथौडी से छीलकर रेती से घिसघिसकर टाटरी से मल मलकर कारीगर मूर्ति को रूप देते है। चित्रकार उस मूर्ति में आस्था और श्रद्धा के रंग भरते हैें। इस मूर्ति को ग्राहक के इन्तजार में शोरूम में रखा जाता हैं। उचित मूल्य पर लेकर ग्राहक उसे पूर्ण शास्त्रीय विधि से प्रतिष्ठित करते हैं। और सैकड़ों हजारों श्रद्धालु उस मूर्ति के समक्ष माथा टेकते हैं। मूर्ति कला में स्थानीय नामों के लिए निम्न शब्दों का प्रचलन हैं। कोड़ा, खंण्डा, चुटकला, पचखंडे चपटे, चौहाना आदि। इस प्रकार किसी व्यक्ति का फोटो देकर भी मूर्ति बनवायी जा सकती है, काम कला और कलाकार पर निर्भर करता हैं।
नाजुक शिल्प
दो या तीन मोर्टी छोटी टांकियां एवं हथौडी और सौन्दर्य पारखी पैनी निगाहे बस पत्थर पा चलती ये टांकियां ईश्वर को आपके सामने साकार करने में समर्थ हैं। है न अदभुत...। जरा सी चूक हुई या कोई टुकडा ज्यादा छिल गया तो पत्थर भी गया और कलाकारों की महीनों की मेहनत बेकार हुई। टूटै फूटे पत्थरांे के ढेर पर पडी एक सी कई अधूरी मूर्तियां कला और कलाकार का मुंह चिढाती रहती हैं। राजस्थान में जयपुर ही मूर्ति कला के लिए विख्यात रहा है। जयपुर में सम्राट अकबर के कलाप्रेमी सेनापति मानसिंह ने इस उद्योग को बढ़ाया। उन्होंने देश के विभिन्न भागों से सैकडों कलाकारों, मूर्तिकारों कों बुलाकर यहां बसाया। जब राजधानी आमेर से जयपुर आई तो ये मूर्तिकार भी यहां आ गये, महाराजा रामसिंह द्वितीय (1835-80) ने संगतराशी के काम को और परवान चढ़ाया। महाराज रामसिंह ने 1866 से जो कला विद्यालय स्थापित किया वो आज भी मूर्ति कलाओं हेतु प्रसिद्ध हैं। शुरू से ही महाराजा कलाओं में रूचि रखते थे और कलाकारों को प्रोत्साहित करते थे। जयपुर की मूर्तियां भारतीय संस्कृति और परिवेश के अनुरूप ही हैं। जाने अनजाने में ताजमहल, सारनाथ, एलिफेन्टा, खुजराहो विजय स्तम्भ दिल्ली का लाल किला, कानपुर का जे.के.मन्दिर, राधास्वामी मंदिर, दिलवाड़ा के जैन मन्दिर, विश्वनाथमंदिर कलकत्ता के मंदिर आदि सैकड़ों स्थानों पर जयपुर और मकराना के मूर्तिकारों और पत्थरों का उपयोग हुआ हैं।
जयपुर और उसके आसपास मूर्ति बनाने वाले वर्षों से काम कर रहे है। स्वं. मालीराम जी यहां की मूर्ति कला के पितामह माने जाते है, इसी प्रकार गुलाब चन्द शर्मा, हीरालाल शर्मा, नारायण लाल आदि कलाकारों ने जयपुर की मूर्तिकला को खूब आगे तक पहुंचाया। जबलपूर में स्थापित काले पत्थर का हाथी नारायणलाल जैमिनी ने बनाया इसी परम्परा में आज जयपुर में गोपीचंद मिश्र, लल्लूनारायण शर्मा, सोहनलाल अत्री, कमला प्रसाद मिश्र, श्यामबिहारी, लूणकरण, चिरंजीलाल भारद्वाज, रामरतन जेमिनी तथा नई पीढी में वीरेन्द्र शर्मा, ओमप्रकाश नाटा, राजेन्द्र मिश्रा विष्णु शर्मा, छगनशर्मा, कय्यम मुहम्मद आदि कलाकर कला की साधना में रत हैं। आजकल राजस्थान स्कूल आफ आर्ट्स तथा अन्यत्र भी काफी नये नये युवा और सृजन धर्मी मूर्तिकार काम कर रहे हैं। उषारानी हूजां ने मूर्तिकला को आधुनिक रूप दिया हैं और कई युवा मूर्तिकार प्रतिवर्ष अकादमी पुरस्कार प्राप्त करते हैं।
मूर्तियां पर रंग का कमाल
कलाकार के चीनी हथोडे से बन संवर कर जब मूर्ति आती है तो उस पर रंग रोगन करने की व्यवस्था की जाती है यह काम चितेरे या चित्रकार करते है, गिलहरी की पूछ (नाथ द्वारा शैली) से बना ब्रुश, प्योडी और किरमिच के रंग काली स्याही आदि से मूर्ति में सौन्दर्य में और जान डाल दी जाती है। होठ, साड़ी का बार्डर आदि की रंगाई, मंडाई पर विशेष ध्यान दिया जाता हैं। रंग हो जाने के बाद साफ स्वच्छ वारनिस लगाकर रंगों को जल अवरोधक बनाया जाता है। नया कलाकार धीरे धीरे छोटी मूर्तियों को रंग रंग कर अपनी कला को मांजता है और फिर बड़ी मूर्तियां रंगने लग जाता है, प्रसिद्ध चितेरों में मास्टर जगन्नाथ महावीर शर्मा, दामोदर शर्मा, महेन्द्र शर्मा, कमल भारद्वाज, कालूराम आदि चितेरे अपने हाथों की अंगुलियों का कमाल दिखा रहे हैं।
मूर्तियों का नाप
मूर्तियों का नाप और शिल्प का सौन्दर्य शास्त्रः-मूर्तियों की लम्बाई चौडाई आदि के लिए शास्त्रों में सभी शिल्प विधान है अक्सार अलग अलग सम्प्रदायों धर्मों आदि के लिए अलग अलग विधान है कलाकार को मूर्ति कनाने से पूर्व इन बातों का ध्यान रखना पड़ता हैें।
जैन मूर्तियों के निर्माण में या दिगम्बर मूर्तियों के निर्माण में खड़ी मूर्तियों का हिसाब 4,41/2 गुण या 8 बट का हैं। एक बट सिर के आकार का होता है नारी मूर्तियां पुरूष के कान तक की बनाई जाती हैं।
बैठी हुई आकृतियां 3/1/2/ बट में बनती हैं। एक हिस्सा सिर, एक हिस्सा नाभि तथा आधा हिस्सा बैठक, एक हिस्सा पैडस्टल हेतु रखा जाता हैे।
1940 में प्रकाशित रायकृष्णदास की भारतीय मूर्तिकला भी एक अनुपम ग्रन्थ हैं। नर्बदा शंकर, सोमपुरा लिखित शिल्प रत्नाकर शिल्प शास्त्र का अच्छा ग्रन्थ है। इस पुस्तक में मंदिर रचना की सम्पूर्ण विधि दी गयी है।
परम्परावादी कलाकार
कलाकार मनमौजी होता है और सृजनधर्मी होने के कारण ये चितेरे कलाकार भी मनमौजी हैं।
मूर्ति कला के आधुनिकीकरण की बात इन कलाकारोें के गले नहीं उतरती चाहे जो कहो, ये ऐसी मूर्ति में विश्वास करते हैं, जो दर्शक का मन मोह ले, दर्शक को उसमें अपने ईश्वर का अंश नजर आये बस मेहनत सफल। कई कलाकार चित्र देखकर क्ले माडल बनाकर भी मूर्तियां बनाने में सिद्ध हस्त हैं।
क्या ये कलाकार कभी आधुनिक कला दीर्घाओं यानि समीक्षकों हेतु रचना करेंगे, यहां कोई भी कलाकार प्रदर्शनी के लिए तैयार नहीं होगा, उनके पास समय ही नहीं हैं। पत्थरों के ढेर पर पडी अधूरी मूर्तियां आधुनिक कला का उत्तम उदाहरण हो सकती हैं। लेकिन ये कलाकार उनको बेकार मानते हैं। और इधर किसी भी मंदिर में चले जाइये भारत ही नहीं विश्व के पच्चीसों देशांे मेंु जयपुर की बनी मूर्तियां मिल जायगी।
मूर्ति सृजन का अर्थशास्त्र
ल्गभग 5,000 मूर्तिकार चित्रकार इस मूर्ति व्यवसाय से जुडे हुए हैं। कलाकारों को 15-30 रूपया प्रतिदिन मिल पाता है। यदि 20 रूपया भी औसत आमदनी हो तो एक लाख रूपया रोजाना मजदूरी हैं।
आश्चर्य इस बात का हैं कि मूर्तियों के निर्यात आदि के लिए कोई निजी या सार्वजनिक व्यवस्था या संस्था नहीं हैं जो कलाकरों का हित चिन्तन करंे, उनकी मदद कर उन्हंे सही रास्ता सुझाये।
एक मोटे अनुमान के अनुसार प्रतिमाह 20-30 लाख रूपये मूल्ये की मूर्तियां बिकती है। 3-4 करोड़ वार्षिक का व्यापार है लेकिन बिखरा हुआ, अनियमित और अधिकांश कलाकार मजदूरी करते हैं। कुछ बड़े शोरूम वाले ही अपने भवनों की मंजिलें ऊपर उठा रहंे हेैं। औसत कलाकार का छप्पर कच्चा ही है।
जबकि जयपुर के अलावा, किसोटी, थानागाजी, बालोठा आदि स्थानों पर मूर्तियां बनती है। और बिकती है। विदेशों में अमेरिका, इग्लैण्ड आदि स्थानों में काफी मूर्तियां जाती है। इसके अलावा भारतवंशी लोग अब विदेशों में भी मंदिर बनवाते हैं अतः सूरीनाम, श्रीलंका, मारीशस, अफ्रीका, हांगकांग आदि स्थानों पर भी जयपुर की मूर्तियां पहुंची है। और पहुंच रही है। लेकिन कलाकार बेचारा वही हैं क्योंकि बिचोलिए, एजेन्ट बड़े संस्थान उन्हें ऊपर नहीं आने देते । एक छोटी से छोटी मूर्ति 25-30 रूपयों की होती है। एक बड़ी सुन्दर मूर्ति (आधा फीट की) पांच सौ ंरूपयों की होती है जबकि बड़ी 5-6 फीट की मूर्ति का मूल्य 20-30 हजार तक होता है। कुल मूल्य में लगभग 50-60 प्रतिशत मजदूरी, 15-20 प्रतिशत पत्थर का मूल्य, 5 प्रतिशत रंग तथा बचा हुआ व्यापारी का मुनाफा है।
यह अनुपात ग्राहक के अनुसार बदलता रहता है। अधिकांश ग्राहक व्यापारिक दृष्टि कोण से आते है। केवल 2 प्रतिशत ग्राहक कला को समझते है लेकिन व्यापार का भविष्य धर्मप्राण जनता के हाथों में सुरक्षित है। धर्म है तो मूर्तियां हैं और मूर्तियां है तो सृजन कलाकार भी सुरक्षित हैं।