Vividha - 16 in Hindi Anything by Yashvant Kothari books and stories PDF | विविधा - 16

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विविधा - 16

16-गाथा कवि सम्मेलनों की

पिछले दिनों एक शहर के संयोजक नुमा व्यक्ति का पत्र आया,

प्रियवर!

 दो वर्पो बाद पत्र दे रहा हूं। पिछले वर्प हम कवि सम्मेलन नहीं कर सके। इस बार हमने एक कवियित्री सम्मेलन करना तय किया है। कृपया 8-10 कवयित्रियों के नाम पते भे जें। इनकी ष्शक्ल ठीक ठाक हो। कुछ मंच पर लटके-झटके दिखा सकें। कविता रद्दी हो तो भी चलेगी। गला और चेहरा बढ़िया होना चाहिए। पारिश्रमिक की चिन्ता न करें। स्वस्थ्य होंगे।

 ‘इसे कल्पना की उड़ान न समझे।’

 तो मेरे प्रिय पाठकों। आज के कवि सम्मेलन कितने गिर चुके हैं। देखा आपने। सोचिए.....ष्शायद कोई रास्ता बाकी हो जो, इस महत्वपूर्ण सांस्कृतिक ईकाई को बनाये रख सके। यह अकेला उदाहरण नहीं है। कवियों की राजनीति, राजनीतिज्ञों की कविताएं, अफसरों की मिली भगत, मठाधीश कवियों की दादागीरी, अशलील लतीफे बाजी, सस्ती भोंड हास्यास्पद रस की कविताएं और उपर से दूसरों की रचनाओं को अपने नाम से सुनाने वाले कवि और कवियित्रियां। 

 श्रोताओं, आयोजकों, कवियों और सांस्कृतिक कर्मियों ने कवि-सम्मेलनों को कहां से कहां तक पहुंचा दिया। आइये, जरा विस्तार से चर्चा करें। 

 प््राचीन काल में राज दरबारों में कवि पाये जाते थे। कालिदास विक्रमादित्य की सभा में नवरत्न थे। उस काल में अन्य कवि भी राज्याश्रय में थे। यह परम्परा मध्य युगीन राज दरबारों में भी बराबर चली आई। विद्यापति मिथिीला के राजदरबार में थे। रीतिकाल में अनेक कवि राज्याश्रय पर जीवित थे। 

 भक्ति काल में काव्यपाठ का क्षेत्र मन्दिर बने। अप्टछाप के कवियों से हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी सुपरिचित हैं। इसी काल में कविता सन्तों की वाणी के माध्यम से आम आदमी तक पहुंचने लगी। 

 धीरे धीरे सामान्त शाही और राजदरबार नप्ट हुए, मन्दिर साम्प्रदायिकता से जकड़ गये, कीर्तनकारों ने संतो की वाणी छीन ली। 

 काव्य पाठ शादी व्याह तक सीमित हो गया। वर से श्लोक सुने जाते या कविता सुनी जाती। 

 फिर आया उन्नीसवीं सदी का समस्या पूर्ति का दौर इस दौर में हिन्दी भापियों ने सृजन के प्रति उत्साह दिखाया, राप्टभापा के लिए आन्दोलन किया गया। इसी दौरान स्थान स्थान पर काव्य गोप्ठियां होने लगी। 

 भारतीयों ने इन काव्य गोप्ठियों में न केवल अंग्रेंजी सरकार का विराध शुरु किया, वरन वे राप्टीय चेतना का संवाहक बन गयी। लेकिन अभी तक कविता जन साधारण से दूर थी और केवल साधन सम्पन्न घरों तक पहुंच पाई थी। 

 वास्तव में विराट हिन्दी कवि सम्मेलनों की कल्पना उर्दू के मुशायरों की लोकप्रियता देखकर की गई थी। मुशायरों का जन्म भी राजदरकारों में हुआ था, लेकिन राजदरबारों के हास के साथ ये जुड़ गये। मजाहिया‘हास्य’ के लिए इन मुशायरों में कोइ्र स्थान नहीं होता था, इस कार्य हेतु हजल नामक अन्य मजलिस होती थी। 

 इसी दौरान ब्रजभापा, अवधी और रामस्यापूर्ति के कवि सम्मेलनों का आयोजन शुरु हुआ। 60-70 वर्प पूर्व से कवि सम्मेलनों का यह सिलसिला चला। जयपुर के स्वर्गीय श्री हरि शास्त्री ने समस्या पूर्ति के क्षेत्र में बड़ा नाम कमाया। वे आशु-कवि के रुप में विख्यात हुए। इलाहबाद इस काल में राजनैतिक जागरण का ही केन्द्र नहीं था, वहां पर साहित्य से सरोकार भी था। इस काल में ‘1920 से 35-40’ समस्याओ के रुप में चरखा, खादी,शहीद, कैदी, विधवा आदि विपय दिये जाने लगे। 

 मुशायरे की परम्परा के अनुरुप कवि सम्मेलन का अध्यक्ष कोई बड़ा कवि या विद्वान होता था, आजकल की तरह कोई नेता या धन्ना सेठ नहीं। उस काल में लाला भगवानदीन, श्रीधर पाठक, अयोध्या सिंह उपाध्याय, जैसे कवि थे। धीरे धीरे समय बदला। समस्यापूर्ति के कवि सम्मेलन बंद हो गये। ब्रज, अवधी और उर्दू का ह्रास हुआ।

छायावादी युग

 कवि सम्मेलनों का स्वरुप निखरने लगा। छायावाद काल में छायावादी कवियों तथा सुमित्रानन्दन पंत, सूशर््कान्त त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, राम कुमार वर्मा, भगवती चरण वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, बालकृप्ण चौहान,बाल कृप्ण शर्मा ‘नवीन’ जैसे कवि मंच पर आए और छा गये ।इन कवियों के काव्य के लघु संस्करण भी कम दरों पर बाजार में मिलने लगे। निराला को मंच पर जमने में काफी मेहनत करनी पड़ी। लेकिन उनका दबंग व्यक्तित्व, शारीरिक सौप्ठव, स्वर की गंभीरता ने उन्हें सफल बनाया। उनकी जूही की कली, राम की ष्शक्ति पूजा आदि कविताओं ने खूब वाह वाह लूटी। 

 राप्टीय भावना का प्रसार 

 इसी काल में राप्टीय भावनाओं से ओतप्रोत कवि सम्मेलनों का ष्शुभारम्भ हुआ। राप्टीय जागरण के इस दौर में एक भारतीय आत्मा माखन लाल चतुर्वेदी की कविताओं ने कहर बर्पा कर दिया। इसी दौरान रामधारी सिंह दिनकर मंच पर आये और लम्बे समय तक गरजते रहे। इसी काल में मधुशाला को लेकर अमर गायक डॉ. हरिवंश राय बच्चन मंच पर आये और तीन दशक तक कवि सम्मेलनों में छाये रहे। बच्चन के साथ ही नरेप्द्र, सुमित्रा कुमारी और रामेश्वर ष्शुक्ल ‘ अंचल’ भी मंच पर जमंे। गिरिजा कुमार माथ्ुर, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ और नीरज आये नीरज सर्वाधिक लोकप्रिय हुए। गीत कविता लेकर जब भवानी प्रसाद मिश्र मंच पर चढ़े तो कवि सम्ेलन सफलता के शिखर पर था और रस सिद्ध श्रोता कवि कविता का आनन्द खूब समझने लगे थे।   

 छायावाद के चढ़ाव के समय हिन्दी का काव्य मंच पुराने कवियों के साथ में था, और सांध्य काल में गीतकार जमने लग गये थे। बच्चन,नेपाली,अंचल, सुमन, नीरज आदि कवियों ने छायावाद का माध्ुर्य, प्रणय गीतों की मादकता, गले की मिठास आदि का ऐसा सम्मिश्रण किया कि श्रोता मंत्र मुग्ध हो जाते थे। 

वीररस का सैलाब 

 राप्टीय कविताओं के इस दौर में वीर रस को भी बहुत सुना गया। ष्श्याम नारायण पाण्डे की हल्दी घाटी, राजस्थानी कवि मेघराज मुकुल की सेनानी, दिनकर की ओजस्वी कविताएं आदि ने घोर गर्जना का दौर चलाया। सोहन लाल द्विवेदी ने राप्टीय विचारों की गांधी वादी कविताओं के कारण ख्याति पाई। 

नई कविता और नव गीत 

 अब आया नई कविता और नव गीत का दौर ठाकुर प्रसाद सिंह वंशी और मादल लेकर मंच पर चढ़े। छायावाद के बाद प्रगतिवाद और फिर नई कविता का समय था यह। बिहार में आरसी प्रसाद सिंह, जानकी वल्लभ शास्त्री और हंस कुमार तिवारी मंचों पर जम गये थे। 

 प्रयोगवाद के काल में भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन, बालकृप्ण राव, केदार नाथ सिंह आदि प्रसिद्ध हुए।

 कवि सम्मेलनों के विकास को काल क्रमानुसार देखें तो, 1932 से 40 तक का काल आरम्भिक काल था। 1940 से 60 तक का काल विकास का काल और 60 के बाद मुचों पर उमाकान्त मालवीय, माहेश्वर तिवारी, शांति सुमन, बुद्धिनाथ मिश्र, सोम ठाकुर, आत्मा प्रकाश शुक्ल, बाल कवि वैरागी आदि आए और इनके साथ ही आई हास्य-व्यंग्स की एक टोली, जिसने कवि सम्मेलनों को हास्यास्पद रस तक पहुंचा दिया।